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चेहरा खोया पर हौसला नहीं

तेजाबी हमले से पीडि़त लक्ष्मी द्वारा दायर जनहित याचिका पर हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे अपराध को गैर जमानती बनाने का निर्देश दिया है। लक्ष्मी के लिए यह लड़ाई आसान नहीं थी, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वह इस बात की सच्ची मिसाल हैं कि अगर दिल में मुश्किलों से लड़ने का जज्बा हो तो मजबूर होकर रुकावटें भी अपना रास्ता बदल लेती हैं। आइए जानते हैं उनकी आपबीती उन्हीं की जुबानी।

By Edited By: Published: Thu, 03 Oct 2013 11:21 AM (IST)Updated: Thu, 03 Oct 2013 11:21 AM (IST)
चेहरा खोया पर हौसला नहीं

समझ नहीं पा रही कि कहां से शुरुआत करूं। बचपन में मैं भी आम लडकियों की तरह बेहद खुशमिजाज  और शरारती थी। मेरे पिता साउथ दिल्ली की एक कोठी में खाना बनाने का काम करते थे। परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी, फिर भी मैं अपने माता-पिता और छोटे भाई के साथ बहुत खुश  थी।

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पल भर में बदल गई जिंदगी

बात उन दिनों की है, जब मैं हाई स्कूल में पढती थी। उन्हीं दिनों पडोस में रहने वाली एक लडकी से मेरी अच्छी दोस्ती हो गई थी। तब मेरी उम्र 15  साल थी। उसका बडा भाई, जिसकी उम्र 32 वर्ष थी। वह मुझसे शादी करना चाहता था। मेरे इनकार के बावजूद स्कूल जाते वक्त वह अकसर मेरा पीछा करता था, पर मैं उसे नजरअंदाज करके तेजी से आगे बढ जाती थी। एक सुबह मैं स्कूल जाने के लिए बस स्टॉप  पर खडी थी। तभी मुझे दूर से वह व्यक्ति आता हुआ दिखा, पर मैं उसके इरादों से बेखबर थी। अचानक मुझे ऐसा लगा कि किसी ने धक्का मारके मुझे जमीन पर गिरा दिया और मेरे चेहरे पर एसिड से भरी बॉटल  उलट दी। यह हमला इतना अप्रत्याशित था कि संभलने का मौका नहीं मिला। हां, मुझे इतना जरूर याद है कि उस वक्त  मैंने सबसे पहले अपने हाथों से आंखों को ढंक लिया था। शायद इसी वजह से मेरी आंखें बच गई। वह भयावह दृश्य मैं आज भी नहीं भूल पाती। दर्द और जलन की वजह से मैं लगातार चीख कर लोगों से मदद मांग रही थी।  सडक पर अच्छी-खासी चहल-पहल थी, लेकिन लोग सिर्फ दूर खडे होकर तमाशा देख रहे थे। कुछ ही मिनटों में मेरा चेहरा बुरी तरह झुलस गया। लगभग आधा घंटा बीत जाने के बाद किसी लालबत्ती वाली गाडी के ड्राइवर ने मुझे वहां से उठाकर अस्पताल पहुंचाया। जहां मुझे लगभग दस सप्ताह तक रहना पडा।

नहीं भूलते वे डरावने दिन

जब किसी लडकी के साथ कोई ऐसी दुर्घटना होती है तो शरीर के साथ उसका मन भी आहत हो उठता है। घर लौटने के बाद जब मैंने पहली बार शीशा देखा तो बेबसी से मेरी आंखें भर आई। समझ नहीं पा रही थी कि अब मेरा क्या होगा? अब तक मेरे चेहरे की सात सर्जरी हो चुकी है, जिसमें लगभग 7  लाख खर्च  हो चुके हैं। मेरे पापा जिनके घर पर काम करते थे, उस परिवार ने हर तरह से मेरी बहुत मदद की। अभी मुझे ऐसे ही चार ऑपरेशन की जरूरत है। उसके बाद ही प्लास्टिक सर्जरी संभव हो पाएगी, पर उसके लिए मेरे पास पैसे  नहीं हैं।

दर्द के साथ जीना सीखा

कहते हैं कि वक्त  का मरहम हर जख्म  को भर देता है, पर मेरा जख्म  ऐसा था कि उसका भर पाना बहुत मुश्किल था। झुलसा हुआ चेहरा मुझे बार-बार उस अपमान की याद दिलाता है। यह 2005  की घटना है। उसके बाद से हमारे रिश्तेदारों, दोस्तों और परिचितों ने हमसे मुंह मोड लिया। सहानुभूति के दो शब्द बोलना तो दूर, लोग तरह-तरह की फब्तियां  कसने, मेरे चरित्र पर लांछन लगाने और मेरे माता-पिता को भला-बुरा कहने से नहीं चूकते थे। मुझ पर एसिड फेंकने वाला व्यक्ति 7  साल की सजा के बाद जेल से रिहा हो जाएगा, पर मेरी जिंदगी तो हमेशा के लिए खराब  हो गई न.. शादी तो बहुत दूर की बात है कोई मेरी सूरत देखना भी पसंद नहीं करता। फिर भी मैंने अपने दर्द के साथ जीना सीख लिया है। उस दुर्घटना के बाद मेरी पढाई छूट गई थी। मैंने दोबारा पढाई शुरू की और दसवीं की परीक्षा पास की। उसके बाद मैंने टेलरिंग, बेसिक कंप्यूटर और ब्यूटीशियन  का कोर्स किया। मैंने बीपीओ  से लेकर ब्यूटी पार्लर तक हर जगह जॉब के लिए आवेदन किया, पर कोई मुझे काम पर रखने को तैयार नहीं है। कुछ लोगों ने कहा कि तुम्हें देखकर लोग डर जाएंगे, इसलिए हम तुम्हें काम नहीं दे सकते तो कई लोग यह कहकर वापस भेज देते कि हम तुम्हें दोबारा कॉल करेंगे, पर मेरे पास कभी कोई फोन नहीं आया।

इसी बीच मेरे पिता का निधन हो गया और मेरे छोटे भाई को टीबी  हो गई। वह अभी सातवीं क्लास में पढता है। उसकी देखभाल के लिए मां उसके साथ घर पर रहती हैं, ऐसे में अब उनकी जिम्मेदारी मेरे ऊपर है।

एक नई शुरुआत

पिता की मौत और भाई की बीमारी ने मुझे बुरी तरह झकझोर कर रख दिया। तब मुझे ऐसा लगा कि घर के अंधेरे कोने में छिप कर रोने से कोई फायदा नहीं। अब मुझे खुद अपनी लडाई लडनी होगी। जब मैं अपना केस री-ओपन करवाने के सिलसिले में कोर्ट के चक्कर काट रही थी, उन्हीं दिनों वकील अपर्णा भट्ट से मेरी मुलाकात हुई और उन्होंने मेरा साथ देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की। याचिका में एसिड को जहर की श्रेणी में रखते हुए खुले-आम उसकीबिक्री पर रोक लगाने की मांग की गई। इसी दौरान मेरी मुलाकात कुछ ऐसी लडकियों से भी हुई, तेजाबी हमले की वजह से जिनकी आंखों की दृष्टि और सुनने की क्षमता नष्ट हो चुकी है। अब उनसे मेरी बहुत अच्छी दोस्ती हो गई है। जब मैंने एसिड अटैक के खिलाफ ऑनलाइन  पिटिशन  दायर किया तो मुझे यह देखकर खुशी  हुई कि 27,000  लोगों ने उस पर हस्ताक्षर करके हमारा साथ दिया।

अब भी जारी है जंग

इस याचिका के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि वे एसिड अटैक से पीडित लडकियों को 3  लाख रुपये का मुआवजा दें, पर इतने पैसों से क्या हमारे जैसी लडकियों का उपचार संभव होगा, जिन्हें दस से भी ज्यादा  सर्जरी की जरूरत होती है। इसके अलावा हमारे जैसी लडकियों का पुनर्वास और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता भी एक बहुत बडी समस्या है, जिसकी ओर सरकार कोई ध्यान नहीं देती। मैंने अब यह तय कर लिया है कि जब तक हमारे जैसी लडकियों को समुचित न्याय नहीं मिल जाता तब तक मैं चुप नहीं बैठूंगी। आजकल मैं स्टॉप  एसिड अटैक नामक अभियान के लिए काम रही हूं। अपनी कानूनी लडाई के अगले चरण में हम पीडितों को इलाज का पूरा खर्च, हमला करने वालों को उम्रकैद की सजा और पीडितों के पुनर्वास की योजना बनवाने के लिए लडेंगे। धीरे-धीरे मेरी जिंदगी पटरी पर लौट रही है। अपने जैसी लडकियों की मदद करके मेरे मन को बहुत सुकून  मिलता है। आज मैं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हूं और अपने भाई का इलाज करा रही हूं। बचपन से ही मुझे संगीत से बेहद लगाव है। यहां तक कि मैंने म्यूजिकल रिअलिटी  शोज  के लिए ऑडिशन  भी दिया था। अब मैंने फिर से गाना शुरू किया है। मुझे ऐसा लगता है कि जीवन रुकने का नहीं, चलते रहने का नाम है। आज भले ही मैंने अपना पुराना चेहरा खो दिया है, पर मेरी पहचान तो अपनी है और उसे मुझसे कोई नहीं छीन सकता।

प्रस्तुति: विनीता

विनीता


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