पिघल गई पर्वत सी पीर
कई बार मुश्किलें इस कदर टूट पड़ती हैं कि कोई रास्ता नहीं सूझता, पर कुछ लोगों के हौसले इतने बुलंद होते हैं कि वे कभी हार नहीं मानते। दिल्ली की 52 वर्षीया सुमन बाली का जीवन भी दूसरों के लिए प्रेरणाश्चोत बन सकता है। आइए जानते हैं उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।
अपने जीवन की कहानी कहां से और कैसे शुरू करूं समझ नहीं पा रही। मेरे पति स्व.उमेश बाली सिविल इंजीनियर थे। अपनी दोनों बेटियों (तृषा और कणिका) के साथ अपने छोटे से संसार में हम बेहद खुश थे।
छोटा सा संसार हमारा
हमारी दोनों बेटियों के बीच दो साल का गैप है। जब छोटी बेटी कणिका का जन्म हुआ तो हम काफी खुश हुए। मेरे पति के मन में बेटे-बेटी को लेकर कोई भेदभाव नहीं था। वह अकसर कहते कि यही दोनों आगे चलकर हमारा नाम रौशन करेंगी। वैसे तो कणिका देखने में सामान्य बच्चों जैसी एक्टिव थी। एक बार उसे बुखार आया और मैं उसे डॉक्टर के पास ले गई। जब उन्होंने प्यार से उसका हाल जानने की कोशिश की तो उस पर उनकी बातों का कोई रिएक्शन नहीं हुआ। तब डॉक्टर ने मुझसे कहा कि आप एक बार किसी ईएनटी स्पेशलिस्ट से इसकी जांच करा लें। मुझे ऐसा लग रहा है कि यह बोलने-सुनने में असमर्थ है। उनकी बातें सुनकर मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई। मैं मन ही मन भगवान से प्रार्थना करती रही कि शायद डॉक्टर की बात गलत निकले, पर ऐसा नहीं हुआ। जांच के बाद मालूम हुआ कि जन्म के समय किसी इन्फेक्शन की वजह से कणिका की सुनने की क्षमता 90 प्रतिशत नष्ट हो चुकी है। हियरिंग एड और स्पीच थेरेपी की मदद से शायद उसमें कुछ सुधार आए। मुझे तो ऐसा लगा कि जैसे डूबते को जैसे तिनके का सहारा मिल गया हो। मैं उसी दिन से कणिका की स्पेशल केयर में जुट गई। उसे हियरिंग एड लगवाया। उसे रोजाना स्पीच थेरेपिस्ट के पास लेकर जाती। वहां उसने साइन लैंग्वेज भी सीखी। हालांकि, मैंने कभी भी उससे साइन लैंग्वेज में बात नहीं की, मैं चाहती थी कि वह बोलना सीखे। मेरी लगातार कोशिशों की वजह से अब वह अस्पष्ट शब्दों में थोडा-बहुत बोल पाती है। बोलने-सुनने में असमर्थ होने की वजह से वह पढाई में भी थोडी कमजोर थी। आठवीं तक उसने स्पेशल स्कूल से पढाई की। उसके बादओपन स्कूल से बारहवीं की परीक्षा पास की। कणिका की अच्छी परवरिश मेरे लिए बहुत बडी चुनौती थी।
खत्म हो गया सब कुछ
भले ही मेरी छोटी बेटी फिजिकली चैलेंज्ड हो, लेकिन वह हम सब की लाडली थी। मेरे पति उसे जी जान से प्यार करते थे। उसकी बेहतर परवरिश के लिए वह हमेशा अच्छी से अच्छी सुविधाएं उपलब्ध कराने की कोशिश में जुटे रहते। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि स्पीच थेरेपी और सही देखभाल से कणिका जल्द ही ठीक हो जाएगी, लेकिन पल भर में ही सब कुछ खत्म हो गया। 25 सितंबर 2004 की वह मनहूस शाम मैं कभी नहीं भूल पाती जब मेरे पास किसी का फोन आया कि आपके पति का एक्सीडेंट हो गया है। मैं भागती हुई अस्पताल पहुंची। वहां जाने के बाद मालूम हुआ कि कंस्ट्रक्शन साइट पर लकडी का एक भारी टुकडा उनके सिर पर गिर गया था, जिसकी वजह से वह उसी वक्त कोमा में चले गए। डॉक्टरों ने बहुत कोशिश की पर उनकी हालत में कोई सुधार नहीं आ रहा था। हमारी आर्थिक स्थिति दिनोंदिन खराब होती जा रही थी। डॉक्टर्स ने हमसे कहा कि इस समस्या का कोई इलाज नहीं है। इसलिए अब आप इन्हें घर ले जाएं और वहीं इनकी अच्छी तरह देखभाल करें, शायद कोई चमत्कार हो जाए। लगभग दस महीने बाद मैं उन्हें अस्पताल से घर वापस ले आई। एक्सीडेंट के बाद जब वह एडमिट हुए थे तो मेरे मन में यही उम्मीद थी कि ठीक होने के बाद वह खुद अपने पैरों से चलकर घर वापस आएंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। मुझे अपनी माली हालत का अंदाजा था कि घर वापस लौटने के बाद मैं उनकी देखभाल के लिए नर्स नहीं रख पाऊंगी। इसलिए मैंने अस्पताल में ही नर्सिग का सही तरीका सीख लिया था, ताकि घर आने के बाद खुद उनकी देखभाल कर सकूं। उस वक्त मेरी बडी बेटी तृषा बीबीए कर रही थी। परिवार की बिगडती आर्थिक स्थिति को देखते हुए बीच में ही पढाई छोड कर वह एक कॉल सेंटर में नौकरी करने लगी। लगभग छह महीने के भीतर ही उसे इंडिगो एयरलाइंस में एयरहोस्टेस की जॉब मिल गई। इससे हमें बहुत राहत मिली। तृषा ने बेटे की तरह परिवार की जिम्मेदारियां निभाने में मेरा हाथ बंटाया। मेरे लिए सुकून की बात यह है कि अब उसकी शादी हो गई है। उसके पति पायलट हैं। पति-पत्नी दोनों कतर एयरवेज में कार्यरत हैं। आजकल वह सपरिवार दोहा (संयुक्त अरब अमीरात) में रहती है और अब भी हमारा बहुत खयाल रखती है।
अपनों ने छोड दिया साथ
पति के एक्सीडेंट के बाद मैंने जीवन की कडवी सच्चाई को महसूस किया। कहीं मैं कोई मदद न मांग लूं, यह सोचकर मायके-ससुराल के सभी रिश्तेदारों ने हमसे किनारा कर लिया। फिर भी अपनी दोनों बच्चियों के साथ मैं पति की सेवा में जुटी रही। डॉक्टर ने मुझसे कहा था कि भले ही वह बोल नहीं पाते, फिर भी आप उनसे खूब बातें करें। हो सकता है कि इसका उन पर कोई पॉजिटिव असर हो और उनकी तबीयत में सुधार आने लगे। इसलिए घर-परिवार से जुडी हर बात मैं उन्हें जरूर बताती थी। कई बार ऐसा लगता कि हमारी बातें सुनकर वह खुश हो रहे हैं..लेकिन दूसरे ही पल ऐसा लगता कि हमारी सारी कोशिशें बेकार हैं। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी, दिन-रात उनकी सेवा की। उनके घर में होने का एहसास भी हमें बहुत हिम्मत देता था कि बीमार ही सही, लेकिन परिवार के मुखिया हमारे साथ हैं, पर जल्द ही इस उम्मीद का भी साथ छूट गया और साल के पहले दिन 1 जनवरी 2008 को उनका स्वर्गवास हो गया। मेरी बडी बेटी तृषा ने ही अपने पिता का अंतिम संस्कार किया। नया साल लोगों के जीवन में नई खुशियां लेकर आता है, लेकिन मेरे ऊपर तो दुखों का पहाड टूट पडा। उस दिन के बाद से मेरा कोई भी परिचित मुझे नए साल की शुभकामनाएं नहीं देता।
शून्य से शुरुआत
पति के जाने के बाद जिंदगी बेहद सूनी लगने लगी, पर अपनी दोनों बच्चियों का उदास चेहरा देखकर मुझे ऐसा लगा कि इनके पिता नहीं हैं तो क्या हुआ? मुझे इनके लिए जीना है। मैंने कोई नौकरी नहीं की, पर अपनी दोनों बच्चियों का पूरा खयाल रखा। मैं उनके पिता की जगह तो नहीं ले सकती थी, पर मैंने उन्हें वो सारी सुविधाएं और खशियां देने की पूरी कोशिश की जो उन्हें अपने पिता से मिलती थीं। हालांकि सिंगल पेरेंट की जिम्मेदारियां निभाना मेरे लिए आसान नहीं था। मुझे कंप्यूटर की कोई जानकारी नहीं थी। इससे रोजमर्रा के कामकाज में बहुत परेशानी हो रही थी। यही देखकर मैंने कंप्यूटर का कोर्स किया। मेरे पति ने जबर्दस्ती मुझे कार ड्राइव करना सिखाया था। शायद उन्हें मालूम था कि भविष्य में मुझे अकेले ही बच्चों की परवरिश करनी है।
साकार हुआ सपना
कणिका भी बारहवीं पास कर चुकी थी। मुझे एक ऐसे इंस्टीट्यूट के बारे में मालूम हुआ जहां मूक-बधिर बच्चों के लिए कंप्यूटर के क्लासेज चलाए जाते थे। मैंने वहां कणिका का एडमिशन करवा दिया। कणिका मॉडलिंग के फील्ड में जाना चाहती थी। किसी फिजिकली चैलेंज्ड लडकी के लिए इस क्षेत्र में आगे बढना बहुत मुश्किल था। एक दिन उसके इंस्टीट्यूट से मेरे पास फोन आया कि डेफ एंड डंब लडकियों के लिए एक ब्यूटी कांटेस्ट होने वाला है। क्या आप कणिका को उसमें शामिल होने की इजाजत देंगी? मैंने तुरंत हां कर दी। इस तरह कणिका ने मिस इंडिया डेफ एक्सपो में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यह मेरे लिए बेहद खुशी की बात थी। मैंने उसका पोर्टफोलियो और बायोडाटा तैयार करवाया। उसे ग्रूमिंग क्लासेज भी दिलवाई, ताकि वह अपनी रुचि के फील्ड में आगे बढ सके। इसके बाद 2011 में चेक रिपब्लिक में वर्ल्ड डेफ इंटरनेशनल का आयोजन हो रहा था और वहां उसे भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। यह उसके लिए विदेश जाने का पहला अनुभव था। हमें तैयारी के बारे में ज्यादा कुछ मालूम नहीं था। इसलिए वहां उसे कामयाबी नहीं मिली। इससे वह थोडी उदास हो गई तो मैंने उसे समझाया कि सभी को ऐसे अनुभवों से गुजरना पडता है। तुम्हें इतनी जल्दी हार नहीं माननी चाहिए। 2011 में डेनमार्क की एक हियरिंग एड कंपनी को जब कणिका के बारे में मालूम हुआ तो उसने अपने प्रोडक्ट लांच प्रोग्राम में उसे चंडीगढ बुलाया और उसे अपनी कंपनी का ब्रैंड एंबेसेडर बनाया। इससे कणिका भी धीरे-धीरे आर्थिक आत्मनिर्भरता की राह पर आगे बढने लगी। इसके बाद 2012 में मूक-बधिरों के लिए टर्की में आयोजित मिस एंड मिस्टर डेफ इंटरनेशनल ब्यूटी कांटेस्ट में कणिका मिस एशिया चुनी गई और वह मिस इंटरनेशनल की सेकंड रनरअप थी। उस इवेंट में मैं भी उसके साथ थी। जब उसे मिस एशिया का ताज पहनाया जा रहा था तो उस पल मुझे ऐसा लगा कि हमारा सपना साकार हो गया और खुशी से मेरी आंखें भर आई।
बेटियां हैं मेरी ताकत
इन छोटी-छोटी उपलब्धियों से केवल कणिका का ही नहीं, बल्कि मेरा भी आत्मविश्वास बढा। मॉडलिंग की दुनिया में उसकी पहचान बनने लगी है, पर इस क्षेत्र में बहुत ज्यादा अस्थिरता होती है। मैं चाहती हूं कि वह कोई ऐसा काम करे, जिससे उसे आर्थिक सुरक्षा और स्थायित्व मिले। इसलिए मेरी सलाह मानकर आजकल वह नोएडा स्थित डेफ सोसायटी से वेब डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है, ताकि भविष्य में उसे कोई जॉब मिल जाए। मुझे पूरा विश्वास है कि अपना लक्ष्य हासिल करने में कणिका को कामयाबी जरूर मिलेगी।
आज जब मैं पीछे मुडकर देखती हूं तो ऐसा लगता है कि जीवन में अनगिनत मुश्किलें आई। ऐसे में अगर मेरी बेटियों ने साथ न दिया होता तो शायद मैं उनका मुकाबला नहीं कर पाती।
विनीता