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किसी रोते बच्चे को हंसाया जाए

नेक इरादे से की जाने वाली कोई भी कोशिश नाकाम नहीं होती। रास्ते में चाहे कितनी ही मुश्किलें क्यों न आएं, पर उनकी परवाह किए बिना चलते रहने वालों को उनकी मंजिल मिल ही जाती है। पुणे के सॉफ्टवेयर इंजीनियर आदित्य तिवारी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जिसे

By Edited By: Published: Tue, 01 Mar 2016 04:05 PM (IST)Updated: Tue, 01 Mar 2016 04:05 PM (IST)
किसी रोते बच्चे को हंसाया जाए

नेक इरादे से की जाने वाली कोई भी कोशिश नाकाम नहीं होती। रास्ते में चाहे कितनी ही मुश्किलें क्यों न आएं, पर उनकी परवाह किए बिना चलते रहने वालों को उनकी मंजिल मिल ही जाती है। पुणे के सॉफ्टवेयर इंजीनियर आदित्य तिवारी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जिसे वह बांट रहे हैं सखी के साथ।

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हमारे जीवन में कुछ ऐसे पल आते हैं, जो हमें जीने का नया मकसद दे जाते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

नहीं भूलता वह पल

मेरा होम टाउन इंदौर है। 13 सितंबर 2014 को मेरे पिताजी का जन्मदिन था। इसलिए छुट्टी लेकर मैं पुणे से इंदौर गया था। हमारे परिवार में यह परंपरा है कि ऐसे ख्ाास अवसरों को हम जरूरतमंद लोगों के साथ सेलब्रेट करते हैं। लिहाजा उस रोज मैं केक, चॉकलेट और खिलौने लेकर इंदौर के एक अनाथ आश्रम में गया। वहां पहुंचते ही मेरी निगाह एक पालने पर पडी, जिसमें एक नन्हा बच्चा लेटा था। जब मैंने ऑर्फनएज के अधिकारियों से उसके बारे में पूछा तो उन्होंने मुझे बताया कि बिन्नी नामक यह बच्चा डाउन सिंड्रोम नामक गंभीर बीमारी से ग्रस्त है। इसके दिल में छेद है और आंखों की रोशनी भी बेहद कम है। इससे बडे होने के बाद भी उसे कुछ समस्याएं हो सकती हैं। घर लौटते वक्त मैं रास्ते भर बिन्नी के बारे में ही सोचता रहा। अगले दिन मैंने संबंधित अधिकारी से कहा कि मैं इसे गोद लेना चाहता हूं तो उन्होंने यह कहते हुए साफ इंकार कर दिया कि आप अविवाहित हैं, इसलिए हम आपको यह बच्चा नहीं दे सकते। मैंने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की कि मैं अच्छी जॉब में हूं और बच्चे की सारी जिम्मेदारियां उठाने में सक्षम हूं। मैं इसका अच्छे ढंग से इलाज कराऊंगा, पर मेरी बातों का उन पर कोई असर नहीं हुआ। तब मैंने उनसे आग्रह किया कि जब तक बिन्नी को गोद लेने की कानूनी प्रक्रिया पूरी नहीं होती, तब तक मैं यहीं आकर उससे मिलता रहूंगा और उसके इलाज का सारा ख्ार्च भी उठाऊंगा। ख्ौर वे मेरी बात मान गए। इसके बाद मैं हर महीने बिन्नी से मिलने पुणे से इंदौर जाता और वहां उसके इलाज के लिए पैसे और उसकी जरूरत से जुडी सारी चीजें ख्ारीद कर दे आता।

मुश्किलों भरा वह दौर

वह मेरे जीवन का बेहद तनावपूर्ण दौर था। जब मैंने अपने माता-पिता को यह बताया कि मैं बिन्नी को गोद लेना चाहता हूं तो यह सुनकर वे बुरी तरह नाराज हो गए। उन्होंने मुझे बहुत समझाया कि कल को जब तुम्हारी शादी होगी तो हो सकता है कि तुम्हारी पत्नी इस बच्चे को दिल से न अपनाए। उन्हें ऐसा लग रहा था कि मैं इमोशनल होकर जल्दबाजी में यह निर्णय ले रहा हूं, पर ऐसा नहीं था। मैं बिन्नी की समस्या को लेकर बहुत गंभीर था। इसी बीच एक बार जब मैं उससे मिलने गया तो अनाथ आश्रम वालों ने मुझसे झूठ बोला कि उसे इलाज के लिए दिल्ली भेजा गया है। फिर उनके द्वारा दी गई गलत सूचना के आधार पर कोलकाता और दिल्ली के अनाथ आश्रमों में बिन्नी को ढूंढता रहा, पर वह वहां भी नहीं था। अंतत: आश्र्रम की भोपाल शाखा में मुझे बिन्नी मिल गया, पर जब मैंने वहां के अधिकारियों से अडॉप्शन के बारे में बात की तो वे भी नाराज हो गए। अब मेरे लिए बिन्नी से मिलना बहुत मुश्किल हो गया। मुझे प्रतिमाह पुणे से इंदौर और भोपाल का चक्कर लगाना पडता था, जिसकी दूरी लगभग 850 किलोमीटर (एक तरफ से) थी। मैं मानसिक रूप से बेहद परेशान था।

चिंता सुरक्षा की

फिर मैंने चाइल्ड अडॉप्शन लॉ के बारे में इंटरनेट पर पढऩा शुरू किया। सारी जानकारी एकत्र करने के बाद मैंने सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी और स्टेट अडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी (कारा और सारा) को कई बार ईमेल किया और वहां के संबंधित अधिकारियों से फोन पर बात करने की कोशिश की, पर उन लोगों ने कोई जवाब नहीं दिया। अतंत: मुझे पीएमओ ऑफिस में और माननीय राष्ट्रपति महोदय को भी पत्र लिखना पडा। इसके अलावा मैंने महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी को भी अपनी समस्या से अवगत कराया। उनके मंत्रालय से मेरे पास तत्काल जवाब आया कि यथाशीघ्र मेरी समस्या का समाधान किया जाएगा। जब कारा ने इस केस को अपने हाथों में लिया तो उसके द्वारा की गई छानबीन के बाद यह मालूम हुआ कि चाइल्ड वेलफेयर कमेटी की लिस्ट में बिन्नी का नाम ही नहीं है, जबकि नियमत: अनाथ आश्रम में रहने वाले सभी बच्चों का ब्योरा इस कमेटी के पास होता है। मुझे यह भी जानकारी मिली थी कि अनाथ आश्रम वाले बिन्नी को दिल्ली भेजना चाह रहे हैं, ताकि अडॉप्शन के जरिये उसे किसी विदेशी को सौंपा जा सके। उसकी सुरक्षा को लेकर मैं बहुत चिंतित था।

हिम्मत नहीं हारी

जब कहीं से कोई बात बनती नजर नहीं आ रही थी तो जून 2015 में मैंने बिन्नी के पेरेंट्स से भी मुलाकात की क्योंकि मुझे ऑर्फनएज वालों ने बताया था कि बिन्नी अपने पेरेंट्स की तीसरी संतान है और उनकी आर्थिक स्थिति भी अच्छी थी। फिर भी जन्म के बाद जब उन्हें बच्चे की समस्या के बारे मे मालूम हुआ, वे उसे अस्पताल में ही छोड गए थे। लिहाजा मैंने उनसे निवेदन किया वे उसे अपने साथ घर ले जाएं। अगर उन्हें कोई आर्थिक परेशानी है तो उसके इलाज का ख्ार्च मैं ख्ाुद उठाऊंगा, पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। फिर चाइल्ड वेलफेयर कमेटी के अधिकारियों के सामने उन्होंने एक एफिडेविट दिया, जिसमें उन्होंने यह घोषणा की थी कि अब इस बच्चे से उनका कोई संबंध नहीं है। इससे मुझे थोडी राहत हुई कि अब मेरे लिए अडॉप्शन आसान हो जाएगा, पर कारा के नियमों के अनुसार मैं किसी बच्चे को अडॉप्ट नहीं कर सकता था क्योंकि मेरी उम्र 30 वर्ष से कम थी। फिर मैंने सभी संबंधित मंत्रालयों को सैंकडों ईमेल और फोन कॉल्स किए।

नई सुबह की शुरुआत

मेरी इन कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि 1 अगस्त 2015 को कारा ने अपनी गाइडलाइंस में संशोधन किया, जिसके अनुसार अब 25 से 55 वर्ष की आयु वाला कोई भी अविवाहित पुरुष बच्चे को गोद ले सकता है। अब मैं कानूनन बिन्नी का सिंगल पेरेंट बन सकता था। इसके बाद अनाथालय और चाइल्ड वेलफेयर कमेटी की ओर से होम स्टडी रिपोर्ट तैयार करना जरूरी था। बच्चे के अडॉप्शन से पहले उसके संरक्षक द्वारा उस परिवार के बारे में पूरी छानबीन की जाती है और परिवार के सदस्यों की पूरी रजामंदी जानने के बाद ही बच्चे को अडॉप्शन के लिए दिया जाता है। मेरी अदम्य इच्छा को देखते हुए मेरे माता-पिता भी बिन्नी को अपनाने के लिए सहर्ष तैयार हो गए थे। मेरी पोस्टिंग पुणे में है। मैंने अडॉप्शन से संबंधित अधिकारियों से आग्रह किया कि यह औपचारिकता यहीं पूरी कर ली जाए क्योंकि बार-बार भोपाल और इंदौर जाने में बहुत परेशानी होगी पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए।

मिल गई मंज्िाल

मुझे हर महीने पुणे से इंदौर-भोपाल के दो-तीन चक्कर लगाने पडते थे। यह प्रक्रिया काफी लंबी और जटिल थी। फिर भी मैंने हार नहीं मानी। अंतत: 1 जनवरी 2016 की सुबह नया साल मेरे लिए ढेर सारी ख्ाुशियां लेकर आया और मैं कानूनन बिन्नी का पिता बन गया। अब उसका नया ऑफिशियल नाम अवनीश है। मैं अपने बेटे के साथ बेहद ख्ाुश हूं। जब भी मैं घर से बाहर होता हूं तो मेरी मम्मी उसका पूरा ख्ायाल रखती हैं।

....अकसर लोग मुझसे पूछते हैं कि आपने अपने लिए इतना मुश्किल रास्ता क्यों चुना? ऐसे सवालों के जवाब में मैं लोगों से मशहूर शायर (दिवंगत) निदा फाजली का यही शेर दोहरा देता हूं, 'घर से मसजिद है बहुत दूर, चलो यूं कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए...।

प्रस्तुति : विनीता


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