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दर्द ने जीना सिखा दिया

हमारे आसपास कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जिनका जुझारू व्यक्तित्व देखकर हमें अपनी मुश्किलें बहुत छोटी लगने लगती हैं। इंदौर की मोहिनी शर्मा का जीवन भी कुछ ऐसा ही रहा है। यहां वह अपनी संघर्ष यात्रा से जुड़े अनुभव बांट रही हैं, सखी के साथ।

By Edited By: Published: Wed, 29 Jul 2015 03:12 PM (IST)Updated: Wed, 29 Jul 2015 03:12 PM (IST)
दर्द ने जीना सिखा दिया

हमारे आसपास कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जिनका जुझारू व्यक्तित्व देखकर हमें अपनी मुश्किलें बहुत छोटी लगने लगती हैं। इंदौर की मोहिनी शर्मा का जीवन भी कुछ ऐसा ही रहा है। यहां वह अपनी संघर्ष यात्रा से जुडे अनुभव बांट रही हैं, सखी के साथ।

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समझ नहीं पा रही कि अपनी कहानी की शुरुआत कहां से करूं। मेरा जन्म मुंबई में हुआ और जब से मैंने होश संभाला है, ख्ाुद को व्हीलचेयर पर ही पाया। मम्मी बताती हैं कि शुरुआत में डॉक्टर्स मेरी बीमारी को पहचान नहीं पा रहे थे। कई बडे डॉक्टर्स को दिखाया पर कोई फायदा नहीं हुआ। नौ साल बाद हिंदुजा हॉस्पिटल के पीडियाट्रिक न्यूरो सर्जन डॉ.ब्रजेश उदानी ने बताया कि मुझे स्पाइनल मस्क्युलर अट्रॉफी नामक लाइलाज बीमारी है। जब मैं थोडी बडी हुई तो मुंबई के एस.ई.सी.डे स्कूल में मेरा एडमिशन करा दिया गया। वह स्पेशल बच्चों का स्कूल था, पर वहां सातवीं के आगे पढाई की सुविधा नहीं थी। इसलिए मुझे स्कूल छोडऩा पडा। इसके बाद मैंने बारहवीं कक्षा तक की पढाई इग्नू के पत्राचार पाठ्यक्रम से पूरी की। इसके साथ ही मैंने कंप्यूटर प्रोग्रामिंग का कोर्स भी किया। मेरे लिए कहीं बाहर जाकर काम करना मुश्किल था। इसलिए मैंने घर पर ही बच्चों को ट्यूशन देना शुरू कर दिया था। जब मैं फाइनल ईयर में थी, तब मुझे अपने रिजल्ट की बहुत चिंता थी। इसलिए मैंने कुछ महीने के लिए कोचिंग भी ली। वह इंस्टीट्यूट हमारे घर से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर था। तब मम्मी मुझे व्हीलचेयर पर बिठाकर वहां छोडऩे और वापस लेने जाती थीं। सच, कहूं तो मेरी जिंदगी को संवारने के लिए मेरे पेरेंट्स ने बहुत ज्य़ादा संघर्ष किया है और आज भी कर रहे हैं।

सिलसिला मुश्किलों का

वर्षों पहले मेरे पापा अपना होम टाउन इंदौर छोडकर बिजनेस के इरादे से मुंबई शिफ्ट हो गए थे। पापा वहां टांसपोर्ट का बिजनेस करते थे। उनका काम अच्छा चल रहा था, लेकिन इसी बीच उन्हें आथ्र्राइट्सि की समस्या बहुत ज्य़ादा परेशान करने लगी। बिजनेस के सिलसिले में बहुत ज्य़ादा भागदौड करनी पडती थी और उनके लिए यह सब बहुत मुश्किल था। इसलिए मम्मी ने पापा को बहुत समझाया तो वह मुंबई से अपना सारा कारोबार समेटकर कुछ ही महीने पहले अपने शहर इंदौर वापस लौट आए। यहां हमारे सभी रिश्तेदार और परिचित मौजूद हैं। इसलिए यहां आने के बाद मम्मी-पापा की परेशानियां थोडी कम हो गईं।

सपने जो अपने नहीं होते

मेरे माता-पिता ने कभी भी मुझे मेरी शारीरिक अक्षमता का एहसास नहीं होने दिया। जब तक संभव था, पापा हर जगह मुझे गोद में उठाकर ले जाते थे। जब थोडी बडी हुई तो वह मुझे व्हीलचेयर पर लेकर जाने लगे। बचपन से ही मैं बेहद ख्ाुशमिजाज और बातूनी रही हूं। मुझे बनना-संवरना, घूमना-फिरना और लोगों से मिलना-जुलना बहुत अच्छा लगता है। जब मैं टीनएज में पहुंची तो आम लडकियों की तरह मेरे मन में भी कई सपने पलने लगे। इसे चाहे उम्र का आकर्षण कहें या प्यार, पर ऐसी भावनाओं से ख्ाुद को बचा पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। कई बार ऐसा भी हुआ कि जब भी किसी दोस्त ने मेरा ज्य़ादा ख्ायाल रखा तो मुझे ऐसा लगा कि वह मुझसे प्यार करता है, पर हर बार मैं गलत साबित हुई। बहुत बुरा दौर था वह। ऐसा महसूस होने लगा कि मैं डिप्रेशन की मरीज बनती जा रही हूं। फिर मैंने ख्ाुद को समझाना शुरू किया कि कुछ सपने ऐसे होते हैं, जिन्हें देखने से दुख के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होता। प्यार और शादी जैसे शब्दों के लिए मेरे जीवन में कोई जगह नहीं है। इसलिए अब मैंने इन चीजों के बारे में सोचना छोड दिया है। फिर भी दिल को समझाना आसान नहीं होता। भले मैं िफजिकली चैलेंज्ड हूं, पर मन तो आम लडकियों जैसा ही है, जो ऐसी सीमाओं को मानने को तैयार नहीं होता। चोट खाने के बावजूद हर बार प्यार की तलाश में भटकता है यह मन। दूसरी लडकियों की तुलना में शायद मैं ज्य़ादा संवेदनशील हूं, तभी मेरे मन में बार-बार ऐसे ख्ायाल आते हैं। ऐसी बातों से अपना ध्यान हटाने के लिए मैंने क्रिएटिव राइटिंग की ओर रुख कर लिया। इससे मुझे अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए खुला कैनवस मिल गया। अब मैं फ्रीलांस राइटर की हैसियत से कई वेबसाइट्स के लिए कंटेंट राइटिंग का काम करती हूं। भविष्य में बॉलीवुड के लिए स्क्रिप्ट राइटिंग करना चाहती हूं और यह उसी तैयारी का जरूरी हिस्सा है। पापा की उम्र साठ साल हो चुकी है और अब उनकी तबीयत भी ठीक नहीं रहती। मेरे छोटे भाई को भी मेरी जैसी समस्या है, पर वह काफी कमजोर है। वह लगभग बेडरिडन है और बहुत मुश्किल से थोडी देर के लिए बैठ पाता है। ऐसे में मेरे लिए जॉब करना बेहद जरूरी था। इसलिए आजकल मैं केनेडा की कंपनी एसईओ 5 के लिए मार्केटिंग कोऑर्डिर्नेटर का काम करती हूं।

वक्त ने लडऩा सिखाया

जब भी मैं अपने पेरेंट्स के बारे में सोचती हूं तो मुझे बहुत दुख होता है। दो स्पेशल बच्चों की देखभाल में उनकी पूरी जिंदगी ख्ात्म हो गई। इसलिए अब मैं रोजाना शाम को कुछ घंटों के लिए उन्हें घर की जिम्मेदारियों से मुक्त करके कहीं बाहर भेज देती हूं, ताकि उन्हें थोडा आराम और सुकून मिल सके। जीवन के हर मोड पर हमारे परेंट्स को हमारी वजह से न जाने कितनी परेशानियां उठानी पडीं, अपमान सहना पडा, पर उन्होंने कभी भी हमारे सामने अपना दुख जाहिर नहीं होने दिया, पर मैं उनके मन की पीडा समझती हूं। इसी संदर्भ में आपके साथ एक अनुभव बांटना चाहती हूं।

बात उन दिनों की है, जब हम मुंबई में रहते थे और मेरी बी.कॉम. फाइनल ईयर की परीक्षाएं शुरू होने वाली थीं। हम जिस अपार्टमेंट में रहते थे, वहां के कैंपस में लिफ्ट तक पहुंचने के लिए चार सीढिय़ां बनी हुईं थीं, लेकिन व्हीलचेयर ले जाने के लिए कोई रैंप नहीं था। इससे हमें बहुत परेशानी हो रही थी तो हमने अपने ख्ार्च पर वहां एक रैंप बनवाया, पर रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के सदस्यों ने यह कह कर घोर आपत्ति जताई कि इससे अपार्टमेंट अस्पताल जैसा दिखता है। जब मेरे पेरेंट्स ने उन्हें अपनी परेशानी बताई तो उन्होंने कहा कि सिर्फ आपकी असुविधा की वजह से हम अपने अपार्टमेंट का लुक नहीं बिगाड सकते। वहां के लोग हर बार आरडब्ल्यूए की मीटिंग्स में मेरे पेरेंट्स को बुलाकर उनके साथ बहुत अभद्र व्यवहार करते। एक रोज तो उन्होंने रैंप ही तुडवा दिया। यह देखकर मुझे पहली बार अपनी बेबसी का एहसास हुआ और बहुत तेज गुस्सा आया। मैंने मम्मी- पापा को मना कर दिया कि अब आप उन लोगों से बात करने नहीं जाएंगे। अब मैं बाइस साल की हो चुकी हूं और अपनी लडाई ख्ाुद लड सकती हूं। मैंने पहले सोसायटी के लोगों को समझाने की कोशिश की, लेकिन उन पर मेरी बातों का कोई असर नहीं हुआ। जवाब में वे कहने लगे कि अगर आपको असुविधा है तो कहीं और शिफ्ट हो जाएं। जब वे लोग किसी भी हाल में अपना इरादा बदलने को तैयार नहीं हुए तो मैंने उनसे कहा कि अब मैं पुलिस में शिकायत करूंगी। यह कहकर मैं वहां से चली आई। फिर उन्होंने उसी दिन नया रैंप बनवा दिया। यह देखकर मुझे अफसोस होता है कि अपने देश में डिफरेंटली एबल लोगों के प्रति हम इतने असंवेदनशील क्यों हैं?

अभी बाकी है जिंदगी

अब मैं तीस साल की हो चुकी हूं। मुझे अपनी शारीरिक अवस्था का पूरा अंदाजा है। अभी मैं अपने पैर हिला पाती हूं। पहले मेरे हाथ अच्छी तरह काम करते थे, पर अब कंधे से कोहनी तक का हिस्सा संवेदना शून्य हो चुका है। डॉक्टर ने मुझे बताया है कि कुछ समय बाद केवल मेरी कलाइयां और उंगलियां काम कर पाएंगी। जीवन की सच्चाई से नजरें चुराने से वे बदल नहीं जाएंगी। इसलिए अपने घर में हम चारों मिलकर भविष्य की योजनाओं पर अकसर बातचीत करते हैं कि अगर मम्मी-पापा नहीं रहेंगे तो मैं अपने जीवन को आगे कैसे सेटल करूंगी। हालांकि, मेरी बडी बहन विवाहित हैं और वह हमारा पूरा ख्ायाल रखती हैं, पर मुझे किसी पर निर्भर होना पसंद नहीं। इसलिए जब तक शरीर साथ दे रहा है, मैं दिन-रात कडी मेहनत करके इतने पैसे जुटाना चाहती हूं कि भविष्य में हमें कोई परेशानी न हो। मेरे कई दोस्त ऐसी स्वयंसेवी संस्थाओं में काम करते हैं, जो डिफरेंटली एबल लोगों के लिए काम करती हैं। मैंने उनसे बात कर ली है कि जब भी जरूरत महसूस होगी मैं अपने भाई के साथ वहीं शिफ्ट हो जाऊंगी। ईश्वर में मेरी गहरी आस्था है और मैं हमेशा अच्छा सोचती हूं, इसलिए यह मेरा अटूट विश्वास है कि मेरे साथ हमेशा अच्छा ही होगा।

क्या है एसएमए

एसएमए यानी स्पाइनल मस्क्युलर अट्रॉफी नर्वस सिस्टम से जुडी एक ऐसी समस्या है, जो जींस (गुणसूत्रों) की संरचना की गडबडिय़ों की वजह से पैदा होती है। मांसपेशियों की गतिविधियों को नियंत्रित करने वाली नर्व सेल्स स्पाइनल कॉर्ड में मौजूद होती हैं, जिन्हें एंटीरियर हॉर्न सेल्स कहा जाता है। एसएमए की स्थिति में ये सेल्स सिकुडऩे लगती हैं। आमतौर पर बच्चों में जन्मजात रूप से ही यह समस्या होती है। एसएमए से ग्रस्त बच्चों को हिप्स और कंधों के मूवमेंट में दिक्कत होती है, ऐसी स्थिति को प्रॉक्सीमल वीकनेस कहा जाता है। यह लाइलाज बीमारी है। हालांकि, स्टेम सेल ट्रांस्प्लांट थेरेपी के जरिये इस पर शोध चल रहा है, पर कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया है। फिर भी िफजियोथेरेपी की मदद से ऐसे मरीजों को थोडी राहत दी जा सकती है। इनपुट्स : डॉ.नवदीप कुमार, कंसल्टेंट न्यूरोलॉजिस्ट, इंडो गल्फ हॉस्पिटल

नोएडा

प्रस्तुति : विनीता


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