मुश्किलों ने जीना सिखाया
अगर इंसान के इरादे मज़्ाबूत हों तो वह राह में आने वाली हर बाधा को आसानी से शिकस्त दे सकता है। कोलकाता की देबाश्री भट्टाचार्य का जीवन भी कुछ ऐसा ही है। मुश्किल हालात से जूझते हुए उन्होंने कामयाबी कैसे हासिल की, आइए जानते हैं उन्हीं की ज़ुबानी।
जब भी कोई मुझसे मेरे जीवन के बारे में पूछता है तो मुझे निदा फाजली का यह शेर याद आता है 'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता। मेरे जीवन की राह में कई तरह की बाधाएं आईं और आगे भी आएंगी, पर मैंने उन्हीं के साथ जूझते हुए आगे बढऩे का रास्ता ढूंढ लिया है। मुझे ऐसा लगता है कि अगर हमारे दिल में जीने का जज्बा हो तो शारीरिक दुर्बलता कामयाबी की राह में कभी रुकावट नहीं बन सकती।
बचपन के वे दिन
मुझे तो याद नहीं... लेकिन मां बताती हैं कि ढाई साल की उम्र में मुझे पोलियो का अटैक आया था। डॉक्टर्स मेरी समस्या को पहचान नहीं पा रहे थे। लगभग तीन साल बाद मेरा सही उपचार शुरू हो पाया, मगर तब तक काफी देर हो चुकी थी। डॉक्टर ने मेरे पेरेंट्स को बताया कि मेरे शरीर का निचला हिस्सा पूरी तरह निष्क्रिय हो चुका है। छह-सात साल की उम्र तक पहुंचने के बाद मुझे यह एहसास होने लगा था कि मेरी जिंदगी आम बच्चों जैसी नहीं है। मेरी एक बुआ टीचर थीं। वह घर पर ही कुछ बच्चों को ट्यूशन पढाती थीं और मैं भी उनके साथ पढऩे बैठ जाती थी। मेरी दीदी राजश्री मुझसे दस साल बडी हैं। वह मेरा बहुत ज्य़ादा ख्ायाल रखती थीं। दीदी और बुआ ने पढाई में मेरी बहुत मदद की। वे घर पर ही स्कूल की तरह पूरा सिलेबस कंप्लीट करवातीं और बाकायदा मेरी परीक्षा भी लेती थीं। इस तरह पांचवीं कक्षा तक की पढाई मैंने घर पर ही पूरी कर ली। मेरी मेहनत और लगन को देखकर मेरे पिता ने मुझे स्कूल भेजने का निर्णय लिया। मेरे घर से मात्र दस मिनट की दूरी पर ही एक स्कूल था। टेस्ट में पास होने के बाद छठी कक्षा में मुझे एडमिशन मिल गया। वहां मेरी गिनती अच्छी स्टूडेंट में होती थी, पर स्कूल की लडकियों के लिए मैं वंडर चाइल्ड थी। वे मुझे अजीब सी निगाहों से घूरती थीं। कोई भी लडकी मुझसे बात नहीं करना चाहती थी। हां, कुछ लडकियां पढाई में मदद मांगने के लिए मेरे पास जरूर आती थीं। टीचर्स भी मेरे साथ सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाती थीं। यह सब मुझे बडा ही अजीब लगता। मैं हमेशा यही सोचती कि ये लोग मेरे साथ आम लडकियों की तरह सहज व्यवहार क्यों नहीं करते?
कुछ अनकही बातें
वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था। बचपन की दहलीज्ा लांघ कर मैं टीनएज में प्रवेश कर चुकी थी। मुझे घर से बाहर निकल कर घूमना-फिरना और लोगों से मिलना-जुलना बहुत अच्छा लगता था, पर शारीरिक अक्षमता इसमें बहुत बडी बाधक थी। मेरा बाहर निकलना केवल स्कूल और हॉस्पिटल जाने तक सीमित था। मां अपनी ओर से मेरा पूरा ख्ायाल रखती थीं, पर उस जमाने के पेरेंट्स में इतनी जागरूकता नहीं होती थी कि अपने टीनएजर्स की समस्याओं और उनकी भावनात्मक जरूरतों को समझ सकें। जब पीरियड्स की शुरुआत हुई तो पर्सनल हाइजीन की जरूरतों के लिए मुझे मां पर निर्भर रहना पडता था। इससे मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस होती, पर मैं हालात के आगे बेबस थी। हमारा बहुत बडा संयुक्त परिवार है और ज्य़ादातर रिश्तेदार कोलकाता में ही रहते हैं। वे जब भी हमारे घर आते तो मेरे प्रति बेहद बनावटी दया का भाव प्रदर्शित करते। इससे मुझे बहुत दुख होता, पर मैं किसी से कुछ कह नहीं पाती थी।
सामना कटु यथार्थ का
डिफरेंटली एबल लोगों को लेकर भारतीय समाज में स्थायी रूप से यह धारणा बनी हुई कि ये लाचार और बेबस हैं। मेरे परिवार में भी लोगों की यही सोच थी। मुझे कमजोर समझकर मेरी परवरिश अति सुरक्षित माहौल में की जा रही थी, नतीजतन मैं और कमजोर होती चली गई। मुझे लोगों पर बहुत ज्य़ादा निर्भर रहने की आदत पड चुकी थी। जब भी कहीं बाहर जाना होता तो मेरे पेरेंट्स को ऐसा लगता था कि वे अकेले मुझे संभाल नहीं पाएंगे। लिहाजा जब भी मैं कहीं बाहर जाती तो मेरे साथ चार-पांच लोग जरूर होते थे। एक बार मैं िफजियोथेरेपी के लिए नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑर्थोपेडिकली हैंडीकैप्ड गई थी। मेरे साथ लोगों की भीड देखकर वहां मौजूद एक मेडिकल ऑफिसर ने मेरे पेरेंट्स को बुरी तरह डांटा। उन्होंने कहा कि एक पेशेंट के साथ इतने सारे लोगों को लाने की क्या जरूरत है? अगली बार से यह लडकी सिर्फ एक अटेंडेंट के साथ आएगी। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम कब तक दूसरों पर निर्भर रहोगी? ख्ाुद को जितना लाचार समझोगी, तुम्हें उतनी ही ज्य़ादा परेशानी होगी। उस फटकार ने हमेशा के लिए मेरी आंखें खोल दीं। मैंने ख्ाुद से यह वादा किया कि अपने ज्य़ादातर काम स्वयं करने की कोशिश करूंगी। मैंने पूरी हिम्मत के साथ दसवीं की परीक्षा दी और अच्छे अंकों से पास भी हो गई और मुझे कॉलेज में एडमिशन भी मिल गया। व्हील चेयर के साथ मेट्रो में जाना मुश्किल था। इसलिए मैं टैक्सी से कॉलेज जाती थी। मैं ग्रेजुएशन के बाद आगे पढऩा चाहती थी, पर उन दिनों आज की तरह करियर काउंसलिंग की सुविधा नहीं थी। इसलिए मैंने सरकारी जॉब के लिए भी कोशिश की, पर कामयाबी नहीं मिली।
सोशल साइट्स का सहारा
यही वह दौर था, जब कंप्यूटर और इंटरनेट आम लोगों के लिए भी सुलभ होने लगा था। यह नई टेक्नोलॉजी मुझे बहुत आकर्षित कर रही थी। लिहाजा मैंने कंप्यूटर प्रोग्रामिंग, फाइनेंशियल अकाउंट, मल्टी मीडिया और वेब डिजाइनिंग का कोर्स किया। तब मेरी मौसी ने अपना पुराना कंप्यूटर मुझे दे दिया था, जो इस काम में बहुत मददगार साबित हुआ। फिर मेरे घर के सामने ही एक एनजीओ कंसल्टेंट फर्म था, वहां मुझे रिसेप्शनिस्ट की जॉब मिल गई। पैसे ज्य़ादा नहीं मिलते थे, पर वहां मुझे बाहरी दुनिया से रूबरू होने का मौका मिला। वहीं से मुझमें सोशल सर्विस की समझ विकसित हुई और मेरे लिए करियर के नए रास्ते खुलते गए। आजकल मैं केनेडा एक वेबसाइट प्रमोशन कंपनी एसईओ5 कंसल्टिंग के लिए कंसल्टेंसी का काम कर रही हूं। अब मैं आर्थिक रूप से पूरी तरह आात्मनिर्भर हूं और इससे मेरा आत्मविश्वास भी बढऩे लगा।
सीखा है हरदम ख्ाुश रहना
इस बीच दो दुखद घटनाओं ने मेरे परिवार को पूरी तरह हिला दिया। 2006 में कैंसर की वजह से मेरे जीजा जी का निधन हो गया। उसके बाद दीदी अपने बेटे के साथ ससुराल से वापस आ गईं और यहीं रहने लगीं। वह भी एक निजी कंपनी में जॉब करती हैं। हम इस सदमे से उबरने की कोशिश में जुटे थे, तभी 2009 में हमारे पिताजी का निधन हो गया। ऐसे में मेरे लिए ख्ाुद को मजबूत बनाना बहुत जरूरी था। अब मैंने हर हाल में ख्ाुश रहना सीख लिया है। मां, दीदी और उनका सोलह वर्षीय बेटा रोहित ....यही छोटा सा परिवार है हमारा। कई बार लोगों ने मुझसे कहा कि मुझे विवाह के बारे सोचना चाहिए, पर मैं थोडा आज्ाादी पसंद लडकी हूं। मुझे ऐसा लगता है कि शायद मैं शादी की जिम्मेदारियों को अच्छी तरह निभा नहीं पाऊंगी, इसीलिए मैंने कभी शादी के बारे में सोचा ही नहीं। मुझे लगता है, हमें चाहे जैसी भी जिंदगी मिली हो, उससे शिकायतें करने के बजाय हर पल को पूरी शिद्दत के साथ जीना चाहिए।
प्रस्तुति : विनीता