कला के हर रूप में पाती हूं खुद को
भरतनाट्यम नृत्यांगना, पेंटर, लेखिका, फोटोग्राफर, कोरियोग्राफर..,एक साथ कई भूमिकाएं निभाने वाली पद्मश्री कोमला वरदन के भीतर जितना जुनून कला के प्रति है, उतना ही समर्पण परिवार के प्रति भी है। सखी की संपादक प्रगति गुप्ता से हुई मुलाकात में उन्होंने साझा किए अपने विचार।
वह भरतनाट्यम नृत्यांगना और गुरु हैं। फोटोग्राफी, लेखन और कोरियोग्राफी में भी उनका बराबर का दखल है। पद्मश्री प्राप्त कलाकार कोमला वरदन एक ओर अपनी संस्था कलैकूडम का संचालन लगन से कर रही हैं तो घर को भी मैनेज कर रही हैं। जितने उत्साह से वह अपने काम के बारे में बताती हैं, उतनी ही उत्साहित फोटो शूट के दौरान भी नजर आती हैं। सांस्कृतिक हलचलों में उनकी मौजूदगी रहती है तो पति के रुटीन हेल्थ चेकअप्स कराने की जिम्मेदारी भी वह नहीं भूलतीं। स्त्री-पुरुष को अलग-अलग खांचे में रखने के खिलाफ हैं कोमला। सशक्त लेकिन विनम्र नृत्यांगना से मुलाकात।
आप 10 साल की उम्र से डांस कर रही हैं? इस यात्रा के बारे में बताएं। इसे करियर बनाने के बारे में कब सोचा?
कोई भी काम इस सोच से शुरू नहीं होता कि इसमें हमें करियर बनाना है। यह तो धीरे-धीरे होता है। मेरे साथ भी ऐसा हुआ। इसके पीछे माता-पिता की ही प्रेरणा है। मां डांस सीखना चाहती थीं लेकिन कंजर्वेटिव फेमिली होने के कारण नहीं सीख सकीं। मैं पैदा हुई तो पेरेंट्स ने तय किया कि वे मुझे डांस सिखाएंगे। मां अपने सास-ससुर के सामने यह बात नहीं कर सकती थीं, इसलिए उन्होंने अपने पिता से बात की (हंसते हुए)। उन्होंने टीचर नियुक्त किया और मैं घर पर डांस सीखने लगी। 10 की उम्र में मैंने मंच पर प्रस्तुति दी। 14 आइटम्स प्रस्तुत किए। इसमें स्नेक डांस, मारवाडी डांस भी शामिल था। इस तरह शुरुआत हो गई और फिर मैंने कभी पीछे मुड कर नहीं देखा।
हमने सुना है कि आपके माता-पिता तमिलनाडु से सिंगापुर शिफ्ट हो गए थे और आप डांस के लिए यहीं रह गई थीं..।
हां, माता-पिता चाहते थे कि मैं डांस क्लासेज जारी रखूं, तो मैं अपने दादा-दादी के घर में रहने लगी। दादा जी कलकत्ता (अब कोलकाता) माइग्रेट हो गए थे। चेन्नई में उनके पास बडा सा घर था। उतने बडे घर में मैं अकेली कैसे रहती! तब उन्होंने नाना-नानी से बात की। वे लोग चेंगलपट में रहते थे। चेंगलपट से चेन्नई करीब 50 किलोमीटर दूर है। नानी वहां से आई और दादा जी के घर में रहने लगीं (जोर से हंसते हुए)। यह अलग सा अरेंजमेंट था। अपने घर के लिए नानी ने सारी व्यवस्थाएं कर ली थीं, कुक भी रखा। हम सोमवार सुबह चेंगलपट से चेन्नई आते, पूरे हफ्ते यहां रह कर शनिवार सुबह चेंगलपट चले जाते।
आप बहुत छोटी थीं, माता-पिता से दूर रहना अखरा नहीं?
नहीं। मैं 10 महीने की उम्र से ही नानी के साथ रहने लगी थी। मां बहुत छोटी थीं, 16-17 की, तो नानी ने ही मुझे पाला। मैं उन्हें नानी अम्मा बोलती थी। स्कूल में पढती थी तो सहेलियों को मैंने बताया कि मेरी दो मां हैं। लोगों को समझ में नहीं आता था कि दो मां कैसे हो सकती हैं। (हंसते हुए) फिर उन्होंने कहा कि अपनी बात को एक्सप्लेन करो। मैंने कहा-एक अम्मा हैं, दूसरी अम्म्मा..। (ठेठ दक्षिण भारतीय लहजे में इस शब्द का उच्चारण करके जोर से हंसती हैं)। मैं सचमुच विश्वास करती थी कि वह मेरी मां हैं (देर तक हंसते हुए) और यह विश्वास काफी लंबे समय तक बना रहा..।
अच्छा, हमने सुना है कि आपकी शादी में भी आपकी नानी की भूमिका अहम थी?
हां-नानी और मेरे पति के मामा ने ही हमारी शादी कराई। दूसरा कोई भी इसमें इन्वॉल्व्ड नहीं था। यहां तक कि मेरे दादा जी भी नहीं। दादा मुझे कलकत्ता ले जाना चाहते थे। वहां उन्होंने कुछ लडके देखे थे। फिर पति मुझे देखने आए। बातचीत शुरू हुई। मैंने इनसे पूछा कि क्या आप स्मोक करते हैं? इस पर इनके मामा ने जवाब दिया, नहीं-नहीं, ये स्मोक नहीं करते, इनमें कोई गलत आदत नहीं है..। मामा जी बिलकुल सही थे।
आप डांसर थीं। फिर आज एक राइटर, पेंटर, फोटोग्राफर, कोरियोग्राफर हैं? यह सब कैसे संभव हो सका?
यह सब अनायास हुआ, सोच-समझ कर नहीं। दक्षिण भारतीय घरों में रंगोली की परंपरा है। मैंने अपने यहां गृहप्रवेश के दौरान रंगोली बनाई थी। एक मशहूर आर्टिस्ट थे वी.आर. राव। वे लंदन से बैंगलोर शिफ्ट हुए थे। उस समय मेरे पति एस. वरदन की पोस्टिंग भी वहीं थी..। उन्होंने मेरी रंगोली देख कर कहा कि मैं पेंटिंग कर सकती हूं। वह हर रविवार पेंटिंग क्लासेज लेते थे। उन्होंने मेरे पति से कहा कि वे मुझे पेंटिंग सीखने भेजें। इस पर मैंने कहा कि मैं डांसर हूं तो मुझे किसी और विधा की क्या जरूरत है.?
तो किसने आपको मोटिवेट किया..
एक दिन मैं बैंगलोर में अपने घर की सीढियों पर फिसल गई। पैर की एक हड्डी क्रैक हो गई। डॉक्टर ने कहा कि पैर सीधा रखूं, हिलूं नहीं तो छह हफ्ते में आराम आ जाएगा। तीन महीने बाद मैं नॉर्मल लाइफ जी सकूंगी। बेडरूम्स ऊपरी मंजिल पर थे, तो मेरी व्यवस्था ग्राउंड फ्लोर पर की गई। इस दौरान पति ही सारा काम संभालते थे। तब आर्टिस्ट महोदय ने पति से कहा कि यह सही समय है। मेरे पति मुझे सहारा देकर कार में बिठाते और वहां ले जाते थे। धीरे-धीरे रुचि जगी। लेकिन एक ही साल में पति का ट्रांस्फर मैसूर हो गया..। तब तक आर्ट में मेरी दिलचस्पी बढ चुकी थी। मैं पोट्र्रेट्स बनाने लगी थी।
लेखन और फोटोग्राफी की शुरुआत कैसे हुई?
लिखने का शौक बचपन से था। शादी से पहले शॉर्ट स्टोरीज सिंगापुर इंडियन मूवी न्यू्ज में प्रकाशित हुई। रेडियो सिंगापुर के लिए भी मैं तमिल रचनाएं लिखती थी। फोटोग्राफी का शौक मेरे मामा ने जगाया। वे बेहतरीन फोटोग्राफर थे। मेरे पास तब पिता का गिफ्ट किया एक कैमरा था, मामा जी ने मुझे कैमरा हैंडल करना सिखाया।
इतने सारे पैशन.., कौन सा पैशन सबसे गहरा था?
सब बराबर था। लेकिन सच यह है कि मैंने डांस को दो रूपों में प्रस्तुत किया। विजुअल आर्ट और परफॉर्मिग आर्ट के रूप में। मैंने इसे अमेरिकन टीवी पर भी प्रस्तुत किया। यह 1975 की बात है। मेरे परिचय में कहा गया कि यह वह आर्टिस्ट हैं जो डांस को विजुअल आर्ट और परफॉर्मिग आर्ट, दोनों तरह से प्रस्तुत करती हैं। कार्यक्रम का नाम था, इंडिया : पेंटिंग कम्स अलाइव।
मंच और कैनवस का यह साथ कैसा रहा? कहते हैं कि आपकी पेंटिंग्स में भी डांस है और डांस में पेंटिग्स..
जैसा कि मैंने कहा, यह अपने आप होता गया। मैंने पोट्र्रेट्स बनाए, फिर लैंडस्केप्स बनाने की कोशिश की, फिर अनायास ही पेंटिंग्स में नृत्य की मुद्राएं आती गई। यह सब स्वाभाविक ढंग से हुआ। पेंटिग्स की अच्छी समीक्षाएं हुई तो प्रोत्साहन भी मिला।
आप दक्षिण भारतीय हैं जहां की संस्कृति समृद्ध मानी जाती है। स्त्रियों के स्तर में उत्तर-दक्षिण में क्या फर्क दिखता है?
बहुत फर्क है। मैं जब सीख रही थी तो किसी ने ऐसा नहीं कहा कि क्यों कर रही हो या इसके लिए अनुमति लेनी होगी..। लेकिन यहां एक महिला मुझसे डांस सीख रही थी। उसने एक दिन कहा कि उसकी ननद आने वाली है तो वह क्लास नहीं कर पाएगी। मैंने पूछा कि इससे क्या फर्क पडता है तो वह बोली, अरे आप यहां के फेमिली सिस्टम को नहीं समझतीं। आप मेरी बात समझ नहीं पाएंगी जबकि मुझे लगता था कि वह मेरी बात नहीं समझ पा रही है..।
..आपके सामने ऐसी कोई समस्या कभी नहीं आई?
नहीं। मैं छह महीने बाहर ही रही। अमेरिका, केनेडा, मेक्सिको, इंग्लैंड, यूरोप के कई देशों में गई, आर्ट गैलरीज, म्यूजियम्स देखे। यह 1975 की बात है। मेरे माता-पिता, सास-ससुर, दोनों तरफ के दादा-दादी, नाना-नानी ने मुझे सहयोग किया। मेरा बेटा तब 8-9 साल का था। इस बीच मेरे पति और सास ने ही बेटे की देखभाल की।
आप सचमुच भाग्यशाली हैं, इतना मजबूत सपोर्ट सिस्टम आपके पास था। बहुत सी स्त्रियों को यह नहीं मिल पाता..
अरे! अमेरिकी लोगों को बडी हैरानी होती थी कि भारत से कैसे कोई स्त्री अकेले यात्रा कर सकती है। लेकिन मेरे परिवार में किसी ने यह नहीं कहा कि मैं क्यों और कैसे इतने लंबे समय के लिए जा रही हूं (जोर देते हुए)। पति ने कहा कि एकाध महीने की बात होती तो वे छुट्टी ले सकते थे, लेकिन छह महीने तो मुझे अकेले ही मैनेज करना होगा। (कुछ देर सोचती हुई) लेकिन अमेरिकी यह नहीं समझ पाते..। मैंने तो इस बारे में कभी सोचा भी नहीं। जब छह महीने की यात्रा पर थी, तब भी परिवार का पूरा सपोर्ट था। उस समय विदेशी मुद्रा को लेकर भी परेशानी आती थी। 50 डॉलर से ज्यादा पैसा नहीं ले जा सकते थे। पिता ने कहा, चिंता मत करो, तुम जाओ, मैं तुम्हें पैसा भेज दूंगा। वह सिंगापुर से मेरी बहन के घर यूएस में पैसा ट्रांस्फर कर देते थे। फिर मैं वहां से पैसे ले लेती। मैंने जब जो चाहा-मुझे मिला। उस समय फिल्म्स, कैमरा जैसी कई चीजें भारत में आसानी से नहीं मिलती थीं। मैं पिता से कहती और अगली बार जब वह आते तो मेरे लिए ले आते। अब तो माता-पिता दोनों नहीं हैं। मां मेरे पास आई थीं, बीमार पड गई। ढाई साल वह मेरे पास रहीं, लेकिन ज्यादातर समय हॉस्पिटल में ही बीता। फिर मेरी ननद उन्हें मैसूर ले गई। वहीं नवंबर 2010 में उनका देहांत हो गया।
आपका बेटा छोटा था तो कुछ दिक्कतें हुई?
नहीं। जब मैं रिहर्सल्स के लिए चेन्नई जाती थी (मेरे गुरु वहीं थे), तो सास मेरे घर में रहती थीं। शादी के समय भी उन्हें यह जान कर खुशी हुई कि मैं डांसर हूं। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि अब तुम कलक्टर की पत्नी हो। बार-बार तबादले होंगे, ऐसे में डांस को करियर की तरह अपनाने में मुश्किल होगी। मुझे कभी नहीं लगा कि कोई अडचन आ सकती है। हां- कभी-कभी स्थितियां अलग होती हैं। बेटे के जन्म के कुछ समय बाद तक मैंने ब्रेक लिया। पति का ट्रांस्फर मैसूर हो गया था। वहां मैसूर यूनिवर्सिटी में कॉलेज ऑफ डांस एंड म्यूजिक शुरू होना था। वाइस चांसलर मुझे पांच साल का कॉन्ट्रेक्ट देना चाहते थे, लेकिन मैंने कहा कि जब भी मेरे पति का ट्रांस्फर होगा, मैं जाऊंगी। तब उन्होंने मुझे ऑनरेरी लेक्चररशिप ऑफर की। मैंने वहां पढाया।
ट्रांस्फर के दौरान नई-नई जगहों पर जाने से प्रॉब्लम नहीं हुई.?
दिल्ली में भी हमने नौ बार घर बदला है..। यह दसवां घर है जहां मैं अभी हूं। बापा नगर, काका नगर, पंडारा पार्क, राष्ट्रपति भवन, तिलक मार्ग..कई और जगहें..। (हंसते हुए) कोई भी नाम लें-मैं बता दूंगी।
आपकी अकेडमी कलैकूडम की शुरुआत कैसे हुई।
इसे हमने 1983 में पंजीकृत कराया। हमारा उद्देश्य बिना भेदभाव के कला, साहित्य और संस्कृति को आगे बढाना है। हम प्रतिभाओं को मंच प्रदान करते हैं। हमने राजन-साजन मिश्र का कार्यक्रम कराया तो नए कलाकारों को भी मौका दिया। नॉर्थ इंडियन बांसुरी वादकों का कार्यक्रम होता है तो कर्नाटक के वायलिन वादक भी यहां आते हैं..। मैं हफ्ते में दो दिन डांस क्लासेज लेती हूं और बाकी दिन संगीत की कक्षाएं होती हैं।
आज के कंपिटीटिव माहौल में कला के जरिये युवाओं को अपने सपने पूरे करने का मौका मिल सकता है?
मेरा उद्देश्य उन्हें सिखाना है। जैसा मुझे सिखाया गया वैसा ही शास्त्रीय नृत्य मैं उन्हें सिखाना चाहती हूं। दूसरी बात यह है कि मैं भी अपने टीचर के हिसाब से नहीं चली। जो उन्होंने सिखाया, उसे मैंने रिपीट नहीं किया। टीचर जो भी सिखाता है, सीखें, लेकिन उसे अपने ढंग से दूसरों तक पहुंचाएं। मैं उसी तरह से करती हूं, जैसे मुझे पसंद है। मैंने 17-18 वर्ष की आयु में सिंगापुर में तिरुकुट्राल कुरवंजी (साहित्यिक कृति) को कोरियोग्राफ किया और परफॉर्म किया। वहां संगीतकारों, नर्तकों को ट्रेनिंग दी, उनकी प्रतिभा का उपयोग किया।
यानी युवाओं के लिए कला की दुनिया में संभावनाएं हैं..
स्कोप तो है अगर आप कुछ करना चाहें। मैं जो भी सिखाती हूं, छात्र अपनी रचनात्मकता से उसे आगे बढा सकते हैं। (अपने काम के बारे में रिव्यूज दिखाती हुई)। 1991 में मैंने भरतनाट्यम के जरिये तुलसीदास का रामचरितमानस प्रस्तुत किया। हाल ही में यूएस में मुझे पता चला कि पूरे संसार में रामायण बैले के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। क्या आपने कभी इसे सोलो डांस के रूप में देखा है? लेकिन मैंने ऐसा किया। यह भरतनाट्यम में संभव है। इस कोरियोग्राफी में मेरे पति का पूरा सहयोग रहा। रामायण का प्रेजेंटेशन कॉफी टेबल बुक के रूप में भी आया है, देखें.. (नाना-नानी की तसवीर दिखाती हुई)। जब पी.वी. नरसिम्हाराव ने यह परफॉर्मेस देखा तो इसे पाथ-ब्रेकिंग और पायनियरिंग ऐक्ट बताते हुए कहा कि लोग इससे आइडियाज लेंगे।
आपको अवॉर्ड्स मिले, पद्मश्री मिला..। कैसा लगता है यहां पहुंचकर। एक स्त्री के लिए अपनी पहचान का सुख क्या है?
लोग स्त्री-पुरुष को अलग-अलग खांचे में रखकर क्यों सोचते हैं! मैंने मैसूर फोटोग्राफिक सोसाइटी जॉइन की थी। मेरे कुछ फोटोज इलस्ट्रेटेड वीक्ली ऑफ इंडिया के कवर पेज पर प्रकाशित हुए थे। सोसाइटी वाले लेडीज विंग शुरू करना चाहते थे, जिसका संयोजक वे मुझे बनाना चाहते थे। मैंने उनसे कहा कि लेडीज विंग ही क्यों? उन्होंने कहा कि इससे महिलाओं को प्रेरणा मिलेगी कि वे बाहर निकलें। मैंने कहा, आखिर वे कैमरा उठाएंगी और कैमरा स्त्री-पुरुष में भेद नहीं करता। मैंने संयोजक बनने से इंकार कर दिया। अभी मैं फेडरेशन ऑफ इंडियन फोटोग्राफी की मेंबर हूं। दूसरी बात यह है कि मुझे कभी नहीं लगा कि मैंने कुछ हासिल किया है..। मैं सिर्फ अपने जुनून के लिए काम कर रही हूं। मैं चुप बैठकर नहीं रह सकती। हालांकि पिछले एक महीने से मैंने डांस नहीं किया सुबह की 15-20 मिनट की प्रैक्टिस के सिवा। कई और जिम्मेदारियां भी हैं, उन्हें भी पूरा करना होता है।
दिल्ली और पूरे भारत में महिलाओं के प्रति जो जघन्य घटनाएं हो रही हैं, एक कलाकार के तौर पर आपको क्या लगता है?
मुझे लगता है कि पेरेंटिंग में सुधार की जरूरत है। पेरेंट्स के पास समय ही नहीं है। सुधार की शुरुआत घर से ही होनी चाहिए। बेटों को सिखाया जाना चाहिए कि वे स्त्रियों का सम्मान करें। लडकियों को भी पता होना चाहिए कि कहां जाना सेफ नहीं है। (वैसे दिल्ली में तो कोई जगह सुरक्षित नहीं है) बच्चों को उचित-अनुचित में फर्क बताया जाना चाहिए। मेरा मानना है कि माता-पिता, नाना-नानी, दादा-दादी सभी की इसमें भूमिका है। उनका प्रभाव, परवरिश और संस्कार पीढी दर पीढी आगे जाते हैं।
सखी की संपादक प्रगति गुप्ता