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स्त्रियों की आर्थिक भागीदारी जरूरी: उषा अनंतसुब्रह्मण्यन

आर्थिक विकास में स्त्रियों की भागीदारी अनिवार्य है। स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहलकदमी है भारतीय महिला बैंक, जिसकी स्थापना पिछले वर्ष की गई है। इसकी चेयरमैन और प्रबंध निदेशक हैं उषा अनंतसुब्रह्माण्यन। लगभग 30 वर्ष के अपने कार्यकाल में स्त्रियों की आर्थिक स्थिति को करीब से देखा है उन्होंने। उनसे एक मुलाकात सखी की संपादक प्रगति गुप्ता के साथ।

By Edited By: Published: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)Updated: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)
स्त्रियों की आर्थिक भागीदारी जरूरी: उषा अनंतसुब्रह्मण्यन

बैंकिंग क्षेत्र बेहद गंभीरता, मेहनत और समर्पण की मांग करता है। यहां किसी स्त्री का सफल होना उसकी प्रतिबद्धता, दृढ इच्छाशक्ति और समाज के प्रति जज्बे को दर्शाता है। उषा अनंतसुब्रह्माण्यन एक सशक्त स्त्री हैं, जिन्होंने अपनी योग्यता, लगन और समर्पण से अलग मुकाम हासिल किया है। मिलते हैं उनसे।

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सबसे पहले यह बताएं कि बैंकिंग के फील्ड में कैसे आ गई?

मैं चेन्नई से हूं। स्टेटिस्टिक्स से ग्रेजुएशन  किया। फिर मैंने एलआइसी  में काम किया। वहां एक एक्चुएरीअल एग्जैम  होता है। यह बहुत ही मुश्किल परीक्षा है। इसमें मेरा चयन हो गया। तो शुरुआत एलआइसी  से ही हुई। वहां बेहतरीन ट्रेनिंग हुई मेरी। फिर बैंक ऑफ बडौदा से कॉल आया। सामान्य तौर पर इसमें भी लिखित परीक्षा होती है, मगर मेरे केस में ऐसा नहीं हुआ। मुझे मेरे स्पेशलाइजेशन के कारण बुलाया गया और इस तरह मैं मुंबई शिफ्ट हो गई। बस..इस तरह यात्रा शुरू हुई और आज यहां तक आ पहुंची।

माता-पिता का कितना सहयोग मिला आपको?

मेरे पिता चेन्नई के एक कॉलेज  में लैक्चरर  थे। हम दो बहनें हैं। मां होममेकर थीं। हमारी पढाई चेन्नई से हुई। पिता कहते थे कि जितना पढ सकते हो, पढो। उन्होंने किताबों के अलावा ओपन लर्रि्नग  पर भी बहुत जोर  दिया। लैंग्वेज,  स्पो‌र्ट्स, एक्स्ट्रा  एक्टिविटीज में भी हमें आगे बढने के लिए प्रोत्साहन दिया। हम जो भी करना चाहें, वह हमें सहयोग करते थे। परवरिश ने ही इतना आत्मविश्वास दिया कि आज मैं किसी से भी बात कर सकती हूं। नौकरी में आने के 15-16 वर्ष बाद मैंने एंशियंट  इंडियन कल्चर से मास्टर डिग्री हासिल की। इससे आर्थिक लाभ नहीं होना था, सिर्फ अपनी रुचि के कारण मैंने यह पढा।

लेकिन इससे आपको काम में मदद तो मिली होगी?

बिलकुल..। हमारा बैंक स्त्रियों का है। हम महिला कारीगरों, बुनकरों के साथ डील करते हैं। भारतीय संस्कृति को पढने के बाद मुझे उन्हें समझने में मदद मिली। कांजीवरम  या इक्कत  साडी के बारे में सभी जानते हैं, लेकिन यह क्या है, इसकी परंपरा क्या है, इसे कैसे बनाया जाता है, इसके बारे में जानकारी मुझे इंडियन कल्चर की पढाई से ही हुई। तभी मैं लोगों के काम की सराहना करना सीख सकी।

..तो मेरी पोस्टिंग मुंबई में बैंक ऑफ बडौदा में हुई। मैं स्पेशलिस्ट ऑफिसर थी। मुझे साउथ जोन  दिया गया और मैं चेन्नई गई। यह सबसे बडा जोन  है। इसमें आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, पांडिचेरी सब आते थे। कई बार मैं मजाक में चेयरमैन से बोलती थी कि आधा क्षेत्र उनका है और आधा मेरा। बैंकिंग सेक्टर में व्यक्ति अपने बैंक में महाप्रबंधक की पोस्ट तक प्रमोट  हो सकता है। इसके बाद जो भी अगला प्रमोशन होगा, वह भारत सरकार की तरफ से होता है। मुझे इसके बाद पंजाब नेशनल बैंक मिला। यहां मैं दो साल रही।

महिला बैंक की स्थापना पिछले ही वर्ष हुई?

जी हां..पिछले साल अगस्त में इसे शुरू किया था। मैं पीएनबी  में थी, तभी इसका प्रारूप बनना शुरू हो गया था। पी. चिदंबरम ने घोषणा की थी। इसके लिए तैयारी करके एक रिपोर्ट तैयार की गई। आठ लोगों की टीम बनी, जिसका नेतृत्व मैंने किया। इसमें अन्य बैंकों के अधिकारी भी थे। एक कोर कमेटी बनी। देखिए, यह एक लंबी प्रक्रिया है। कोई कंपनी बनती है तो लाइसेंस लेना होता है, फिर कैपिटल की व्यवस्था करनी होती है। अभी हमारे बैंक में जो स्टाफ है, वह अलग-अलग बैंकों से तीन साल के लिए डेपुटेशन पर आया है। इसके बाद ये वापस चले जाएंगे। इस बीच हम नई भर्तियां करेंगे, तब स्वतंत्र ढंग से काम शुरू होगा। अभी हम ट्रेनिंग कार्यक्रम चला रहे हैं और धीरे-धीरे बैंक की कई शाखाएं स्थापित हो गई हैं।

महिला विकास बैंक की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य क्या है?

हमारी टैगलाइन  है, महिला सशक्तीकरण भारत  का सशक्तीकरण।  जब हम रिपोर्ट तैयार कर रहे थे, तभी एक स्टडी आई थी, जिसके अनुसार भारतीय स्त्रियां आर्थिक सशक्तीकरण  की दिशा में बहुत पिछडी हैं। छोटे-छोटे देश भी महिला सशक्तीकरण पर जोर  दे रहे हैं। हमें भी देश की आधी आबादी के आर्थिक विकास के बारे में सोचना होगा। हम गांवों में जाते हैं। वहां स्त्रियां सेविंग करती हैं। लेकिन यह निवेश पति से छुपा कर आटे के बर्तनों, अनाज या मसाले के डब्बों में किया जाता है। ऐसा वे अपने बच्चों के भविष्य के लिए करती हैं। एक दिलचस्प वाकया है। एक स्थान पर मुझे स्त्रियों ने बताया कि वे बैंबू (बांस) के छह, सात, आठ इंच के टुकडे काटती हैं। उसके भीतर रुपये को रोल करके डालती हैं और छत पर टांग देती हैं। मगर कई बार पति ही वह पैसा निकाल लेता है तो कई बार बारिश, आंधी, आग लगने से पैसा नष्ट हो जाता है। वे भले ही अशिक्षित हैं, लेकिन कर्ज लेने में वे एक्सपर्ट हैं। ऋण देने वाला भी इसलिए दे देता है कि उसे भारी सूद मिलता है। उसका बिजनेस चल रहा है। तो यह स्त्री निवेश भी करती थी, कर्ज  भी लेती थी, लेकिन उसे सही प्रक्रिया नहीं मालूम। ऐसी महिलाओं को बैंक तक लाना ही हमारा प्रमुख उद्देश्य है। बैंक उन्हें ऋण देगा तो वे काम शुरू कर सकती हैं। भारतीय स्त्रियां स्मार्ट हैं। उनमें सीखने का गुण है। मगर उन्हें कभी आर्थिक गतिविधियों में शामिल नहीं किया गया। हमारा मकसद यही है कि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हों। इससे उन्हें भी फायदा होगा, देश को भी। एक-दो स्त्रियों को लाने से फायदा नहीं होगा। हां, 49  में 40  स्त्रियां सीखेंगी तो लाभ नजर  आएगा।

तो ऐसी स्त्रियों को बैंक तक लाने में क्या चुनौतियां हैं?

लोग जागरूक नहीं हैं। स्त्रियों का दिमाग तेज  है, लेकिन उन्हें सही ढंग से समझाने वाला कोई नहीं है कि ऐसा करो तो फायदा होगा। हमें यही बताना है कि वे बैंक में क्यों आएं? क्यों निवेश करें, क्यों बैंक से कर्ज  लें..। उन्हें बताते हैं कि यहां निवेश करेंगी तो उनका पैसा बढेगा। स्त्रियां कई बार कहती हैं कि उनके पति को न बताया जाए कि वे बैंक में पैसे जमा कर रही हैं। अभी भी वे उसी तरह छिपा कर पैसा बचा रही हैं, लेकिन अगले पांच-सात सालों में स्थितियां बदलेंगी। एक स्टडी यह भी कहती है कि स्त्रियां बैंक आने में झिझकती हैं। उन्हें खामोशी  तोडनी होगी। कई बार उन्हें लगता है कि अरे कम पैसा है तो इसे कैसे बैंक में जमा करें। उन्हें यह भी लगता है कि बैंक में उनके साथ पुरुषों से अलग व्यवहार किया जाता है। एक स्त्री केसलाहकार कौन होते हैं? उसके पिता, भाई, पति, दोस्त..। आर्थिक ट्रेनिंग नहीं हुई है, इसलिए वे प्रोफेशनल सलाह के बजाय आसपास के लोगों से सलाह लेती हैं। मेट्रो शहरों की स्त्रियां भी अपवाद नहीं हैं। हालांकि वे सजग हो रही हैं। मगर आर्थिक निर्णय लेने की क्षमता अभी कम है।

भारतीय समाज पुरुष प्रधान है। स्त्री होने के नाते कभी किसी तरह का भेदभाव महसूस हुआ?

सौभाग्य से नहीं। फिर भी यह सच है कि स्त्री को हमेशा अपनी योग्यता साबित करनी होती है। काम करते हुए भी वह बहुत सतर्क रहती है, क्योंकि उसे लगता है कि उसका काम सब देख रहे हैं। लोगों को लगता है कि एक स्त्री काम कर रही है, क्या यह सही तरीके से कर सकेगी? ऐसे ही दबाव स्त्री पर भी होते हैं। वह डरती है कि कोई गलती न हो जाए और वह सही ढंग से काम कर ले।

यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे बैंक ऑफ बडौदा में अनिल खंडेलवाल के साथ काम करने का मौका मिला। वह बहुत अनुशासित व्यक्ति थे। मैं उन्हें देखती थी और उनसे सीखने की कोशिश करती थी। उनके काम करने, लोगों से डील करने और चीजों को समझने का तरीका मैंने उनसे सीखा। भले ही मैं उन्हें टीचर या कोच का नाम न दूं, मगर यह सच है कि वह मेरे रीअल मेंटर थे।

अपनी सफलता का श्रेय किसे देंगी? मेहनत, योग्यता या परिवार के सपोर्ट को?

पहली बात तो यही है कि व्यक्ति मेहनती और योग्य हो। लेकिन बिना परिवार के सपोर्ट के कोई सफल नहीं हो सकता। कोई ऐसा हो, जो लगातार प्रोत्साहित करे और चुनौतियां स्वीकारने में मदद दे। चाहे वह पिता हो, पति हो, कलीग हो या दोस्त हो। जब मैं मुंबई में थी तो कई बार ऑफिस में देर हो जाती थी। मुंबई में लंबी दूरियां तय करनी होती हैं, फिर घर लौट कर पारिवारिक जिम्मेदारियां भी निभानी होती हैं। हमारे परंपरागत समाज में मैं यह कह कर जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकती कि मैं चेयरमैन हूं तो घर नहीं संभालूंगी। हम मिडिल क्लास लोग हैं, त्योहार भी मनाने हैं, काम भी करने हैं और रिश्तेदारी भी निभानी है। मेरे परिवार का सपोर्ट मुझे भरपूर मिला। मेरा एक बेटा है। मैंने उसे कभी क्रेश नहीं भेजा। मैं भाग्यशाली हूं कि मेरे पति की दादी ने उसकी परवरिश की। मेरे सास-ससुर ने बहुत मदद की। जिस दिन बेटे ने जन्म लिया, दादी ने उसकी जिम्मेदारी  ले ली। वह हमेशा मेरी उन्नति से खुश  होती थीं। मैं जानती हूं कि मुंबई में महिलाएं बच्चों को क्रेश  में रखती हैं। उनका आधा दिमाग  बच्चों में लगा रहता है। सबके साथ होता है ऐसा। मगर मुझे इतना सपोर्ट मिला कि शायद ही किसी को मिलेगा। पति बहुत एडजस्टिंग  हैं। हमने निर्णय लिया कि हममें से एक परमानेंट  जॉब में रहेगा, दूसरा प्रैक्टिस करेगा। हम अलग-अलग नहीं रहना चाहते थे। यह आपसी समझदारी थी कि इसी तरह घर की व्यवस्था चलाएंगे।

आपने इतना कुछ हासिल कर लिया है। कभी कोई पछतावा हुआ? या कभी ऐसा लगा कि कुछ छूट गया है?

नहीं। मेरी एक फिलोसॉफी है। हम हमेशा कहते हैं कि स्त्री के दो रूप हैं। नौकरीपेशा स्त्री दोहरी जिम्मेदारी निभाती है- ऑफिस और घर की। परिवार, बच्चों, रिश्तेदारों और ऑफिस के बीच बंटी रहती है वह। मेरा कहना है कि स्त्री का एक तीसरा आयाम भी है, जिस पर बात नहीं की जाती। मैं उसके बारे में सोचती हूं। अपने लिए समय निकालें। अपने शौक पूरे करें, रुचियां जगाएं। स्विमिंग, जिमिंग, म्यूजिक, रीडिंग-राइटिंग.. कुछ भी हो, जो सिर्फ अपने लिए हो। हर स्त्री में प्रतिभा होती है। उसे खोजें, आगे बढाएं। यह पर्सनल स्पेस जरूरी है। जैसे मुझे संगीत पसंद है, मैं पढती हूं। यह समय मैं खुद को देती हूं। शायद इसलिए मुझे कभी पछतावा नहीं होता। हर व्यक्ति के विकास में घर, कलीग्स,  सीनियर्स  और समाज का सहयोग होता है। लेकिन जैसे-जैसे स्त्री उच्च स्थान पर पहुंचती है, जिम्मेदारियां  बढ जाती हैं। वह अकेली होती चली जाती है। सबसे भावनाएं बांटना भी मुश्किल होता है। तो ऐसे में यह तीसरा आयाम ही बचाता है।

जीवन का कोई यादगार क्षण..जब खुद  पर गर्व हुआ हो?

...(सोचते हुए) हां ऐसा क्षण आया था। मैं बैंक ऑफ बडौदा में जोनल  मैनेजर थी। साउथ जोन दिया गया था मुझे, जो तब तक बडा उपेक्षित था। मैनेजमेंट के रडार में ही नहीं था वह जोन। यूपी, गुजरात, दिल्ली, राजस्थान की तरह अच्छी स्थिति नहीं थी उसकी। मैंने एक वर्ष के कार्यकाल में वह कर दिखाया जो अब तक असंभव समझा जाता था। मैंने उसे महत्वपूर्ण जोन बना कर दिखाया। मैं पहली स्त्री जोनल मैनेजर थी। लोगों को भी लगा कि एक स्त्री ने इसे कर दिखाया। मैं बहुत यात्राएं करती थी। चारों जगह की भाषा, बोली, संस्कृति अलग थी। अलग-अलग संस्कृति वाले लोगों से मिलती थी। सारे ब्रांचेज  के लोगों को मैं नाम से जानती थी, सबसे मेरा संवाद था। मेहनत की तो नतीजा भी मिला। वह क्षण मेरे लिए बेहतरीन रहा।

जो लडकियां इस फील्ड में आना चाहती हैं, उन्हें कोई संदेश देना चाहेंगी?

देखिए, बैंकिंग एक गंभीर पेशा है। यहां सिर्फ पैसे का लेन-देन नहीं होता। यहां दूसरे के पैसे से डील करना होता है। उस पैसे की सुरक्षा व क्लाइंट का सम्मान जरूरी  है। छोटे-बडे हर व्यक्ति से समान व्यवहार करना पडता है। हम नए लोगों से पूछते हैं कि 25  साल बाद आप खुद को कहां देखना चाहते हैं? अमूमन लोग कहते हैं-जनरल मैनेजर, चेयरमैन। मैं कहती हूं कि केवल कडी मेहनत और प्रतिबद्धता ही वहां तक पहुंचा सकती है। बैंकों के लिए यह संक्रमण-काल है। अब तो नई टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से काम बहुत आसान हो गया है। पहले पांच पैसे के हिसाब में 15  मिनट खर्च करने होते थे। सब कुछ मैनुअल था, मगर अब सब कंप्यूटराइज्ड  हो गया है। समय बहुत बदला है। बेहतरीन सर्विस देना बडी चुनौती है। कितना भी अच्छा इन्फ्रास्ट्रक्चर  तैयार कर लें, सर्विस अच्छी नहीं है तो सब बेकार है। अब पहले वाला जमाना  नहीं है कि लोग आएंगे। अब बैंक को कस्टमर तक जाना पडता है। बेहतरीन संवाद क्षमता और बेहतर सर्विस ही वह हथियार है, जिससे कोई बैंक आगे बढ सकता है। हमारा कस्टमर ही हमारा ब्रैंड एंबेसेडर  बन सकता है। अगर उसे हमसे फायदा होगा तो वह चार लोगों के सामने तारीफ करेगा। लोगों को उनके निजी हित के बारे में समझाना बैंक-कर्मी का काम है। इसलिए इस फील्ड में आने के लिए कठिन मेहनत, कमिटमेंट  और जुनून जरूरी  है।

अंतिम सवाल..। हमारे स्तंभ का नाम है मैं हूं मेरी पहचान। एक स्त्री के लिए अपनी पहचान बनाना कितना जरूरी  है?

हर स्त्री को अपनी पहचान बनानी चाहिए। किसी का काम ही उसकी पहचान है। जरूरी नहीं कि सभी करियर  वुमन  बनें, लेकिन कुछ ऐसा सबके भीतर जरूर होता है, जो उसकी पहचान बन सकता है। आप खुद  को कैसे देखते हैं? लोगों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? समाज को क्या देते हैं? इससे भी पहचान बनती है। आप लेखक हैं, संगीतकार हैं, गायक हैं और यह आपकी पहचान है। लेकिन इसके अलावा भी पहचान बनती है। अब जैसे (हंसते हुए) मेरी बडी सी बिंदी मेरी पहचान है। एक बार मुंबई में जब बम ब्लास्ट हुआ था तो मैं वहां स्टॉक एक्सचेंज में काम करती थी। सौभाग्य से उस दिन ऑफिस नहीं गई थी। किसी ने मेरी कॉलोनी  में नुक्कड के पान वाले से पूछा कि बडी बिंदी वाली तो सुरक्षित है न? (हंसते हुए) यह तो मजाक  की बात है। लेकिन हर किसी की अपनी पहचान है। जो भी काम करें, उससे एक पहचान बनती है। अपने परिवार, निजी जिंदगी,  ऑफिस में अपनी पहचान बनाना जरूरी  है। सबसे बडी पहचान तो यही है कि आप एक अच्छे इंसान बनें।

सफलता के पांच मंत्र

1. बेहतर संवाद क्षमता और सर्विस : इसी से लोकप्रियता मिलती है

2. पैसे की डीलिंग में जरूरी शर्त : गंभीरता, कडी मेहनत और लगन

3. योग्यता, स्मार्टनेस और सीखने की क्षमता : नई टेक्नोलॉजी और नई व्यवस्था के बीच बेहतर तालमेल के लिए अनिवार्य योग्यता

4. समर्पण, प्रतिबद्धता और दृढ इच्छाशक्ति : क्योंकि अब कस्टमर को नहीं, बैंक को कस्टमर तक पहुंचना होता है

5. समाज के लिए कुछ करने का जज्बा : आर्थिक सशक्तीकरण का सपना तभी साकार होगा।

सखी की संपादक प्रगति गुप्ता


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