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भाषा कभी संकुचित नहीं हो सकती

भाषा एक ज़्ारिया है संस्कृति को आगे बढ़ाने का। समय के साथ उसमें दूसरी भाषाओं के शब्द जुड़ते चले जाते हैं। हिंदी भाषा में भी ऐसे कई शब्द हम रोज़्ा बोलते हैं, जो अलग-अलग भाषाओं से लिए गए हैं। भाषा, संस्कृति, कविता और संगीत को लेकर मशहूर शायर-गीतकार जावेद अख़्तर

By Edited By: Published: Sat, 28 Feb 2015 02:05 PM (IST)Updated: Sat, 28 Feb 2015 02:05 PM (IST)
भाषा कभी संकुचित नहीं हो सकती

भाषा एक ज्ारिया है संस्कृति को आगे बढाने का। समय के साथ उसमें दूसरी भाषाओं के शब्द जुडते चले जाते हैं। हिंदी भाषा में भी ऐसे कई शब्द हम रोज्ा बोलते हैं, जो अलग-अलग भाषाओं से लिए गए हैं। भाषा, संस्कृति, कविता और संगीत को लेकर मशहूर शायर-गीतकार जावेद अख्तर का नज्ारिया।

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वर्ष 1954 में अक्टूबर के पहले हफ्ते में मुंबई स्टेशन पर उतरे थे मशहूर शायर एवं गीतकार जावेद अख्तर। लगभग छह दशक के खट्टे-मीठे सफर में उन्होंने ज्िांदगी को करीब से देखा-समझा और कई अनुभव बटोरे। भाषा और संस्कृति को लेकर उनका नज्ारिया।

भाषा देती है संस्कृति

भाषा का मकसद बुनियादी जानकारी के अलावा भी बहुत कुछ है। भाषा ही संस्कृति की वाहक है। इसी पर सवार होकर चलती है संस्कृति। दरअसल मध्य वर्ग संस्कृति को प्रचारित-प्रसारित करता है, लेकिन यही वर्ग इसे खो रहा है। जो लोग भाषाविद हैं, ग्ालती उनकी भी है। इस कारण आम लोग भाषा को क्लिष्ट समझने लगे हैं। दोहे-शायरियों को लोग दूसरी दुनिया की चीज्ा समझने लगे हैं। जानकार अपने अहं में डूबे हुए हैं। वे बाकी लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं। उनके आभा-मंडल को इतना महिमामंडित किया जाता है कि बाकी लोग उनके करीब जाने से घबराते हैं। तो बहुत हद तक शब्दकारों या साहित्यकारों का दोष भी है, जो आम लोगों को मूर्ख समझते हैं।

भाषा ठहरी हुई चीज्ा नहीं है, उसमें बदलाव होता है। मुझे अपने वालिद जानिसार अख्तर की बात याद आती है। वह कहते थे, 'मुश्किल ज्ाबान को लिखना आसान है, मगर आसान ज्ाबान कहना मुश्किल है। जब तक आम आदमी की भाषा नहीं जानेंगे या लिखेंगे तो बात जिस तबके के लिए की जा रही है, उस तक पहुंचेगी कैसे? मेरे जो अशआर हैं, वे मेरी भावनाएं हैं। मगर मैं गांव वालों के लिए कविता लिखूंगा तो उनकी भाषा में लिखना पसंद करूंगा।

हर पल बदलती है भाषा

उर्दू-हिंदी, दोनों भाषाएं आपस में घुली-मिली हैं। दोनों में दुनिया भर के शब्द शामिल हैं। ज्ाबान की ख्ाूबी यही है कि उसमें नए-नए शब्द आते रहें। मैं पिछले दिनों जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में था तो भाषा की शुद्धता को लेकर बहस उठी थी। मैंने एक पैराग्राफ सुनाया, उसे यहां दोहराता हूं, 'मकान के कमरे में एक गोरा-चिट्टा आदमी नहाया। फिर नन्हे-मुन्ने बच्चे के साथ नाश्ता करने बैठा। बावर्ची ने नाश्ते में टोस्ट और उडद की दाल दी। आदमी खाकर उठा, चिक हटाई, संदूक खोला, उसमें से एक बंदूक निकाली, दीवार पर टांगा हुआ पिस्तौल लिया और घर के बाहर निकल गया। बच्चा विवश होकर देखता रह गया...।

क्या इस पैराग्राफ में कोई शब्द ऐसा है, जो समझ में न आ रहा हो? इसमें कई भाषाओं के शब्द हैं। मकान अरबी शब्द है, कमरा इटैलियन है, गोरा-चिट्टा में चिट्टा पंजाबी है, नन्हा-मुन्ना में नन्हा गुजराती है, उडद तमिल है, बावर्ची टर्किश है, बंदूक टर्किश है, पिस्टल इंग्लिश है, नाश्ता फारसी का शब्द है, विवश संस्कृत है। अगर हमारी भाषा संकुचित होती तो क्या इतनी भाषाएं इसमें आसानी से समाहित हो पातीं?

हवा पर्शियन शब्द है, लेकिन हवाओं या हवाएं पर्शियन में नहीं है। हमने खडी बोली में हवा को बहुवचन बनाने के लिए हवाएं या हवाओं कर दिया। यानी हमने विदेशी शब्द लिया और उसे अपना बना लिया, अपने ढंग से उसका प्रयोग किया। भाषा वही अच्छी है, जो समय के हिसाब से बदलती रहती है। आम लोगों से जुडे बिना भाषा का विकास नहीं हो सकता।

संगीत और कविता का साथ

युवाओं को भाषा व संस्कृति से जोडऩे के लिए भाषा को आधुनिक बनाना होगा। मैं एक कार्यक्रम में टीवी पर दोहे-शायरियों को मॉडर्न ऑर्केस्ट्रा के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं। अकसर लोग कहते हैं कि नई पीढी भाषा या संस्कृति से दूर हो रही है। मुझे लगता है कि नई पीढी जो सुन रही है, उसमें उसकी चॉइस नहीं है। जो कुछ उसे परोसा जा रहा है, उसी को वह सुनने पर मजबूर है। हम जो देंगे, उसी में से युवा अपनी पसंद की चीज्ा चुनेंगे। हालांकि लोगों की रुचियों को कंपार्टमेंट्स में नहीं बांटा जा सकता। एक व्यक्ति को एक ही समय में अलग-अलग चीज्ा पसंद आ सकती है। गीत या कविता में संगीत का भी विशेष योगदान है। मेरे हिसाब से उसे लाउड नहीं होना चाहिए। धुन या संगीत डेकोरेशन हैं कविता या गीत का। यह डेकोरेशन इस तरह होना चाहिए कि वह बोल की ख्ाूबसूरती को बढाए, न कि इसे घटा दे।

प्रस्तुति : इंदिरा राठौर


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