आसान नहीं है खुद को साबित करना
मुश्किलें तो बस बहाना हैं। अगर मन में सचमुच जीने का हौसला हो तो बाधाएं खुद ही परास्त हो जाती हैं। दिल्ली की प्रीति गुप्ता का जीवन भी कुछ ऐसा ही है। यहां वह अपने अनुभव बांट रही हैं, सखी के साथ।
मुश्किलें तो बस बहाना हैं। अगर मन में सचमुच जीने का हौसला हो तो बाधाएं खुद ही परास्त हो जाती हैं। दिल्ली की प्रीति गुप्ता का जीवन भी कुछ ऐसा ही है। यहां वह अपने अनुभव बांट रही हैं, सखी के साथ।
आज मैं एक सरकारी बैंक में डिप्टी मैनेजर पद पर कार्यरत हूं। वैसे, यह कोई बडी उपलब्धि नहीं है, लेकिन मेरी जीवन स्थितियां कुछ ऐसी थीं कि मेरे लिए यह कार्य बेहद चुनौतीपूर्ण था। यह बताते हुए मुझे जरा भी संकोच नहीं कि मैं दिल्ली के एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पली-बढी हूं। मेरे पिताजी की एक छोटी सी दुकान थी। उसी से गुजारा चलता था।
अलग था बचपन
मेरा बचपन आम बच्चों से थोडा अलग था। मां बताती हैं कि डेढ साल की उम्र तक मैं बिलकुल स्वस्थ थी, लेकिन एक रोज मुझे तेज बुखार आया और उसके बाद मेरा पूरा शरीर संवेदना-शून्य हो गया। डॉक्टर्स के अनुसार वह पोलियो का अटैक था। शुरुआत में हालत इतनी खराब थी कि मैं हिलने-डुलने में भी असमर्थ थी। पेरेंट्स ने काफी इलाज कराया, तब जाकर व्हीलचेयर के सहारे चलने लायक बन पाई। उस वक्त मेरी दुनिया घर की चारदीवारी तक सीमित थी। बचपन में दूसरे बच्चों को घर से बाहर खेलते देखकर मेरा मन उदास हो जाता था। हां, पडोस में रहने वाली मेरी सहेलियां बहुत अच्छी थीं। मैं कहीं बाहर नहीं जा सकती थी। इसलिए वे रोजाना शाम को मेरे घर आतीं। मेरी शारीरिक अवस्था का ध्यान रखते हुए वे मेरे साथ लूडो-कैरम जैसे कई इंडोर गेम्स खेलतीं। मेरे दोनों छोटे भाइयों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था, लेकिन मैं घर पर ही रहती। मुझे देखकर मां बहुत चिंतित होती थीं। मेरे इलाज में वैसे ही काफी खर्च हो चुका था। घर की माली हालत अच्छी नहीं थी। इसलिए वह मेरी पढाई को लेकर बडी पसोपेश में थीं। उन्हें ऐसा लगता था कि अगर मुझे पढाने की कोशिश नाकाम हो गई तो नाहक पैसे बर्बाद होंगे। मैं शारीरिक रूप से भले ही अक्षम थी, लेकिन मेरा दिमाग सामान्य बच्चों की तरह तेज था। छोटे भाइयों की नई किताबें देखकर मेरा मन भी स्कूल जाने को मचलता था। बडों से पूछ कर मैंने कुछ अक्षरों को पहचानना भी सीख लिया था। पढाई में मेरी गहरी रुचि देखकर मामा ने मम्मी-पापा को सलाह दी कि इसे भी स्कूल भेजना शुरू करो।
स्कूल में पहला कदम
अंतत: सात साल की उम्र में मैंने स्कूल जाना शुरू किया। घर के पास ही एक सरकारी स्कूल था, जहां पापा रोजाना मुझे छोडऩे और वापस लेने जाते थे। मेरे दोनों भाई एक अच्छे पब्लिक स्कूल में पढते और बस से स्कूल जाते। उन्हें देख कर मुझे बडा रश्क होता कि काश! मेरी जिंदगी भी ऐसी ही होती। वैसे, स्कूल जाने के बाद भी मेरे जीवन में कोई खास बदलाव नहीं आया था। पापा मुझे क्लास रूम की बेंच पर बिठा जाते और छुट्टी होने तक मैं वहीं बैठी रहती। रिसेस के दौरान सारी लडकियां खेलने के लिए बाहर निकल जातीं, पर मैं वहीं अपनी सीट पर बैठी रहती। इसी वजह से स्कूल में किसी से भी मेरी दोस्ती नहीं हो पाई। हां, मैं क्लास में हमेशा फस्र्ट आती थी। इसलिए टीचर्स मुझे बहुत प्यार करती थीं और कुछ लडकियां पढाई में मुझसे मदद लेती थीं। इसी वजह से उनसे थोडी-बहुत बातचीत हो जाती थी। अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए किसी से मदद मांगते हुए मुझे बहुत संकोच होता था। हालांकि, मम्मी हर महीने आया को अलग से पैसे देती थीं, ताकि जरूरत पडऩे पर टॉयलेट तक जाने में वह मेरी मदद करे। फिर भी कई बार मेरी जरूरत के वक्त वह आसपास नहीं होती, ऐसे में कभी-कभी मेरे कपडे खराब हो जाते और पापा के साथ घर लौटते हुए मुझे बडी शर्मिंदगी महसूस होती। तब मोबाइल की सुविधा नहीं थी। अगर पापा को आने में थोडी देर हो जाती तो घर के आसपास रहने वाली लडकियों से यह संदेश भिजवाती कि मैं स्कूल में उनका इंतजार कर रही हूं। दसवीं के बाद साइंस पढऩा चाहती थी, लेकिन मेरी शारीरिक अक्षमता की वजह से प्रैक्टिकल के दौरान परेशानी हो सकती थी। इसी वजह से स्कूल ने मुझे साइंस स्ट्रीम में जाने की अनुमति नहीं दी। लिहाजा मैंने कॉमर्स से बारहवीं की परीक्षा पास की।
कंप्यूटर ने बदल दी जिंदगी
आगे की पढाई के लिए घर से बाहर जाना संभव नहीं था। इसीलिए मैंने पत्राचार के माध्यम से बी.कॉम. किया। उसी दौरान हमारे घर में पहली बार कंप्यूटर आया। सच कहूं तो इसके बाद मेरी जिंदगी बदल गई। नए एप्लीकेशंस को बेहतर तरीके से समझने के लिए मैंने इग्नू से बी.सी.ए. किया। प्रैक्टिकल के लिए मेरेभाई मुझे अपने साथ लेकर जाते थे। ग्रेजुएशन के बाद मैंने घर पर ही बच्चों को ट्यूशन पढाने का काम शुरू कर दिया। इसके साथ ही मैं बैंक के एंट्रेंस एग्जैम की तैयारी भी कर रही थी। आखिर मेरी मेहनत रंग लाई। दिसंबर 2007 में मैंने एक सरकारी बैंक में पीओ के पद पर ज्वॉइन किया। उसके बाद पीछे मुडकर नहीं देखा।
सामना चुनौतियों का
प्रोफेशनल लाइफ में स्त्रियों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पडता है। ऐसे में अगर कोई शारीरिक रूप से अक्षम हो तो उसकी मुश्किलें कई गुना ज्यादा बढ जाती हैं। मुझे बैंक में नौकरी अपनी काबिलीयत के बल पर मिली, पर लोग यही सोचते हैं कि किसी सिफारिश या आरक्षण के बल पर यहां तक पहुंची होगी। ऐसी स्थिति में खुद को योग्य साबित करने के लिए दूसरे कलीग्स की तुलना में मुझे कई गुना ज्यादा मेहनत करनी पडती है। बैंक की नौकरी में प्रमोशन पाने के लिए हर पांच साल बाद बाद ट्रांस्फर लेना पडता है। इस लिहाज से अब मेरा भी तबादला हो सकता है। कई लोग मुझे सलाह देते हैं कि प्रमोशन का मोह त्याग कर एक ही जगह पडी रहो, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकती। जब मैं अपने काम में परफेक्ट हूं तो फिर मुझे प्रमोशन क्यों नहीं मिलना चाहिए? हां, ट्रांस्फर से कुछ व्यावहारिक दिक्कतें भले ही आ सकती हैं, पर मैं उन्हें भी झेलने को तैयार हूं। हालांकि, शारीरिक अक्षमता की वजह से मुझे काफी नुकसान उठाना पडता है। फिर भी नई चुनौतियां मुझे आगे बढऩे की ताकत देती हैं और ऐसे मौकों पर मैं कभी भी पीछे नहीं हटती।
वक्त ने सिखाया बहुत कुछ
बचपन में मुझे लेकर मम्मी बहुत ज्यादा चिंतित रहती थीं कि मैं रोजमर्रा के काम कैसे सीख पाऊंगी? उनकी परेशानी देखकर एक बार हमारे फेमिली डॉक्टर ने मम्मी को सलाह दी कि वह मुझे अपने काम खुद करने के लिए प्रेरित करें। उसके बाद से मम्मी ने थोडा सख्त रवैया अपनाया। वह केवल उन्हीं कार्यों में मेरी मदद करतीं, जो मेरे लिए वाकई बहुत मुश्किल होते थे। तब मुझे बहुत बुरा लगता था, पर आज सोचती हूं कि अगर मम्मी ने मुझे यह सब न सिखाया होता तो मुझे कितनी परेशानी होती? बारह साल की उम्र से ही मैं अपने रोजमर्रा के सभी काम खुद करना सीख गई थी। मेरे शरीर का दायां हिस्सा पोलियो से प्रभावित है। इसलिए मैं अपने सभी काम बाएं हाथ से करती हूं। व्हीलचेयर से बेड पर शिफ्ट होना, खुद तैयार होना और घर की सफाई जैसे कार्य आसानी से कर लेती हूं। गर्मियों में नियमित रूप से स्विमिंग करती हूं। फिजियोथेरेपिस्ट की सलाह पर रोजाना सुबह आधे घंटे एक्सरसाइज जरूर करती हूं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स की वजह से बहुत सारे नए दोस्त बन गए हैं, जो मेरी ही जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। अपने इन दोस्तों के साथ हर वीकएंड पर घूमने निकल पडती हूं। आजकल गाडिय़ों के कई ऐसे नए मॉडल आ गए हैं, जो फिजिकली चैलेंज्ड लोगों की जरूरतों के अनुकूल होते हैं। मैं जल्द से जल्द ड्राइविंग सीखना चाहती हूं ताकि दूसरों पर निर्भरता दूर हो सके।
जिंदगी है खूबसूरत
अब मैं 34 वर्ष की हो चुकी हूं। रिश्तेदार और दोस्त मुझसे शादी कर लेने को कहते हैं, लेकिन मैं अपनी लिमिटेशन जानती हूं। अगर कोई संवेदनशील और केयरिंग व्यक्ति मेरा साथ निभाने को तैयार हो तभी मेरी शादी संभव होगी, वरना मैं अपनी दुनिया में खुश और व्यस्त हूं।
तमाम उतार-चढाव के बावजूद मेरे लिए यह जिंदगी बेहद खूबसूरत है। मुझे नए लोगों से मिलना, अच्छी किताबें पढऩा और नई बातें सीखना बहुत अच्छा लगता है। बिना किसी कोचिंग के शौकिया तौर पर मैंने यूपीएससी की परीक्षा दी थी और उसके प्रीलिमनेरी टेस्ट में पास भी हो गई थी। अब मैंने सोचा है कि अगली बार अच्छी तरह तैयारी करके परीक्षा दूंगी। बचपन में दूसरे बच्चों की तरह खेलने-कूदने का सपना अधूरा रह गया। इसीलिए मैं व्हीलचेयर रग्बी सीखना चाहती हूं। इस व्यस्त जिंदगी में अपने लिए वक्त निकालना बहुत मुश्किल है। इसीलिए हमें इसके हर पल को एंजॉय करना चाहिए।
प्रस्तुति : विनीता