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सड़क पर आना होगा हर स्त्री को

फिल्म पीपली लाइव से लाइमलाइट में आई अनुशा रिजवी का नाम लीक से हट कर फिल्म बनाने वालों में शुमार है। वह मानती हैं कि यदि उनकी फिल्म से समाज के एक भी तबके की सोच बदलती है तो यह उनकी कामयाबी है। सखी की संपादक प्रगति गुप्ता के साथ मिलें इस युवा, क्रिएटिव फिल्ममेकर से।

By Edited By: Published: Fri, 08 Mar 2013 01:23 PM (IST)Updated: Fri, 08 Mar 2013 01:23 PM (IST)
सड़क पर आना होगा हर स्त्री को

सरल-स्पष्ट विचारों वाली स्त्री हैं अनुशा रिजवी, जो बिना किसी शिकायत के अपनी निजी और प्रोफेशनल जिंदगी बखूबी जी रही हैं। क्रिएटिव हैं, मूडी हैं और उत्साही भी, मगर उन्हें अपने काम पर पूरा विश्वास है। यही विश्वास फिल्म पीपली लाइव का सक्सेस फॉ‌र्म्युला बना। आने वाली फिल्मों के लिए भी वह उत्साहित हैं और मानती हैं कि जिस फिल्म को करने में उन्हें मजा आता है, उसमें दर्शकों को भी जरूर आनंद आएगा। मिलते हैं इस युवा स्क्रिप्ट राइटर-डायरेक्टर से।

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सबसे पहले यह बताएं कि लिखने का शौक कैसे पनपा?

मैं दिल्ली में पैदा हुई, पली-बढी। पूरी तरह दिल्ली की हूं। सेंट स्टीफंस से ग्रेजुएशन किया। (कुछ देर सोचते हुए) दरअसल मेरे आसपास क्रिएटिव लोगों की भरमार थी। मेरे नाना ग्ाुलाम रब्बानी ताबां उर्दू के बडे कवि थे और वह कई वर्ष प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट के महासचिव भी रहे। नाना-नानी के कारण घर में साहित्यकारों, लेखकों-कवियों का जमावडा रहता था। हर भाषा के साहित्यकार आते थे..। ऐसे माहौल में ही मैं पैदा हुई। हालांकि तब हमें पता नहीं था कि ये कैसे लोग हैं। यकीनन ये लोग अच्छे थे, लेकिन लेखन के लिहाज से उनकी वैल्यू हमें पता नहीं थी। परिवार में दूसरा प्रोफेशन था टीचिंग। मेरे पिता मुजीब रिजवी हिंदी के प्रोफेसर रहे। मां अजरा रिजवी हैं। दोनों मामू इतिहासकार हैं। वे अलीगढ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर्स हैं। एक मामा मध्यकालीन इतिहास में विभागाध्यक्ष हैं इक्तिदार आलम खान। इस तरह घर में या तो राइटर्स रहे या टीचर्स। दोनों प्रोफेशंस में से ही किसी को करियर के रूप में चुनना था मुझे..।

तो लेखन स्वाभाविक रूप से आपके जीवन में आया?

नहीं.., दरअसल मैंने कुछ समय एक न्यूज चैनल में भी काम किया। लेकिन..न्यूज में राइटिंग, फिक्शन राइटिंग के लिए बहुत जगह नहीं होती। मैंने बचपन में काफी लिखा है.., लेकिन कुछ कारणों से मैंने सोचा कि अब नहीं लिखना है, मैं अच्छी लेखिका नहीं हूं और मुझे यह छोड देना है। लंबे समय तक ..वर्ष 2004 तक मैंने नहीं लिखा।

अपने अन्य भाई-बहनों के बारे में बताएं..

मेरी बडी बहन हैं मीरा। वैसे तो हम दो बहनें हैं, लेकिन मेरा परिवार अलग तरह का है। मेरी तीन चचेरी बहनें भी पढाई के लिए दिल्ली में रहीं। इस तरह हम पांच बहनें साथ रही हैं। पांचों बहनों और मेरी मां सहित छह क्रेजी स्त्रियों से घिरे रहे हैं मेरे बेचारे पिता (हंसते हुए)।

पीपली लाइव का आइडिया कैसे आया और इसे लिखने में कितना समय लगा?

एक घटना से इसकी शुरुआत हुई। वर्ष 2004 में आंध्र प्रदेश में एक साथ सौ किसानों ने आत्महत्या की थी और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने वहां का दौरा करके उनके परिवार वालों के लिए मुआवजा घोषित किया था। यह आइडिया तो वहीं से जन्मा। लेकिन अगर आप इसे पढें या फिल्म देखें तो इसमें कई और चीजें भी हैं। प्रेमचंद के कई संदर्भ हैं। साहित्य, आंदोलनों और कई अन्य जगहों से भी इसमें हमने संदर्भ लिए हैं..। इसे लिखने में नौ महीने से एक साल तक का समय लगा। इसे मैंने स्क्रिप्ट की तरह ही लिखा, एक या दो पेज की स्टोरी की तरह नहीं।

आमिर खान से कैसे संपर्क हुआ? उन्हें परफेक्शनिस्ट माना जाता है। उन्हें तैयार करना कितना मुश्किल या आसान रहा?

अगर आपको याद हो, मैं वर्ष 2004-2005 में उनसे मिली थी। तब आमिर उतने परफेक्शनिस्ट नहीं थे, जितना वे इन सात-आठ सालों में हुए हैं। वे सहज थे। सचमुच बहुत सरल-सहज थे और उनसे बात करना तब बहुत आसान था..

हमारा मतलब काम के प्रति उनके परफेक्शन और जुनून से है..

हां-इसी वजह से तो मैं उनसे मिली। मुझे पता चला था कि वे स्क्रिप्ट की तलाश कर रहे हैं इसलिए मैंने उनसे संपर्क किया। मुझे पता था कि मेरी स्क्रिप्ट को समझने के लिए वह बेस्ट व्यक्ति हैं।

अभी आप अमिताव घोष की सी ऑफपॉपीज पर काम कर रही हैं। इस पर फिल्म फॉलिंग ओपियम भी बना रही हैं। आप इसे भोजपुरी-इंग्लिश टच देना चाह रही हैं, थोडा बताएं..।

नॉवल की पूरी पृष्ठभूमि भोजपुरी है। उस पर हम हिंदी में फिल्म बना रहे हैं तो यह ध्यान देना जरूरी है कि एक तो यह पीरियड फिल्म है। उस वक्त आज की तरह मॉडर्न हिंदी नहीं थी। भोजपुरी, मैथिली, अवधी ही बोली जाती थीं। हमें उसी तरह की बोली इस्तेमाल करनी है। हम उसी कल्चर को एक्सप्लोर करना चाहते हैं। उस समय जैसा म्यूजिक था, मुहावरे थे, जैसे कपडे पहने जाते थे और जैसी भाषा बोली जाती थी..उसी को दिखाना चाहते हैं हम। वहां की भाषा, संस्कृति और संगीत का इस्तेमाल करके ही हम बेहतर कर सकते हैं। मैं नहीं चाहती कि बॉलीवुड में बोली जाने वाली चलताऊ हिंदी इस्तेमाल करूं। दूसरी बात इंग्लिश की, वह इसलिए है कि इसमें ब्रिटिश चरित्र हैं। लेकिन अमिताव घोष की इंग्लिश अलग िकस्म की है। यह उस तरह की पक्की अंग्रेजी नहीं है, जो अंग्रेज बोला करते होंगे या जैसा हम सोचते हैं कि वो बोलते होंगे। इसमें बहुत सारे हिंदुस्तानी शब्द हैं। है तो यह पक्की इंग्लिश लेकिन इसमें अंग्रेजी का अलग तरह का इस्तेमाल है। यह ऐसी अंग्रेजी नहीं है कि लोग इसे समझ न पाएं। इस फिल्म को बनने में कितना समय लगेगा, कहा नहीं जा सकता। यह बडी फिल्म है, इसमें बडा पीरियड कवर किया गया है। ओपियम ट्रेड, ईस्ट इंडिया कंपनी और गिरमटियों की कहानी है यह। कैसे पूर्वी यूपी और बिहार के इन क्षेत्रों से लोग आकर गिरमटिया बन गए, क्यों वापस नहीं आए, क्या हुआ उनके साथ, इसी की कहानी है यह। इसकी पृष्ठभूमि यही है कि अफीम किस तरह और क्यों उगाई जा रही है। एक तरह से यह चीन की कहानी है। चीन ब्रिटिश एंपायर्स से कुछ खरीदना नहीं चाहता, उन्हें इसकी जरूरत नहीं है। लेकिन ब्रिटिशर्स को चाइना के चाय और सिल्क की जरूरत है। वे उन्हें अफीम खिला कर एडिक्ट करना चाहते हैं अपने स्वार्थो के लिए। अफीम की स्मगलिंग है, जो हिंदुस्तान में उगाई जा रही है। बीच में ईस्ट इंडिया कंपनी की जो भूमिका है, इसी की कहानी है यह।

आप अमन सेठी की कहानी फ्री मैन पर भी काम कर रही हैं। आपकी फिल्मों में लगातार एक सा स्वर दिखाई दे रहा है। क्या आपको लगता है कि कमर्शियल सिनेमा के माहौल में इस तरह की फिल्में दर्शकों को लुभाएंगी?

मुझे कोई आइडिया नहीं है। दर्शक क्या देखना चाहते हैं- क्या नहीं, या किस चीज की कितनी डिमांड है, मुझे नहीं लगता कि कोई फिल्ममेकर इसे सही-सही बता सकता है। पिछले सौ साल के सिनेमा में अगर कोई यह पता कर पाता तो एक आदमी की सारी फिल्में पक्का हिट होतीं। ऐसा कोई फॉ‌र्म्युला है नहीं। उस सिचुएशन में जबकि आपको मालूम है कि यह बहुत पैसे की कमर्शियल एक्टिविटी है, बडी फिल्म है, रिस्क का काम है और यह भी पता नहीं है कि कोई फिल्म देखने आएगा या नहीं.. तो फिर यही बेस्ट किया जा सकता है कि आप पीछे लौटें और अपने ढंग की फिल्म बनाएं। जो मटीरियल आपको पसंद आ रहा है, वह लोगों को भी पसंद आएगा।

सलमान खान आज बडे कलाकार हैं, लेकिन कल क्या होंगे, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। अगर सामग्री अच्छी है, आपको प्रभावित करती है तो आशा कर सकते हैं कि वह दूसरों को भी उतना ही प्रभावित करेगी..। वही बेस्ट फिल्म होगी।

यानी खुद पर भरोसा सबसे जरूरी है..

विश्वास..अपने प्रोजेक्ट पर, अपने मटीरियल पर। सी ऑफ पॉपीज या फ्री मैन का मटीरियल सुपर है। ये शानदार कहानियां हैं। मैं और मेरे पति महमूद फारुख्ाी दोनों इन पर काम कर रहे हैं। हम दोनों को इसे पढने में बहुत मजा आया। मुझे नहीं पता कि कौन देखेगा या कौन नहीं देखेगा। लेकिन मुझे जितना पढकर-देखकर अच्छा लगा है, आशा है कि औरों को भी लगेगा।

आप दोनों की रुचियां समान हैं। कहा जाता है कि एक सी पसंद से कई बार मतभेद भी होते हैं। आप दोनों के बीच ऐसा होता है?

बहुत..। हमारे बीच तो हर समय बहस होती है। हम दोनों रचनात्मक हैं। हमें एक जैसी चीजें लुभाती हैं। कई बातों पर हमारी राय एक जैसी नहीं होती। राय अलग होना एक अलग बात है। हम पिछले 14 सालों से साथ हैं। इतने समय बाद हमें पता है कि हमारी अलग-अलग राय काम के लिए है, अपने प्रोजेक्ट को बेहतर बनाने के लिए है। यह जीने-मरने वाला मसला नहीं है हमारे लिए। यह प्रोफेशनल मतभिन्नता है। हमें पता है कि हम हमेशा एक-दूसरे के विचारों के साथ नहीं होते। लेकिन हम मजबूत लोग हैं, इसलिए विचारों के अलग होने से हमें फर्क नहीं पडता।

..महमूद सपोर्टिव पति हैं?

..सपोर्टिव (सोचते हुए)..हां मैं सपोर्टिव पत्नी हूं (हंसते हुए)।

स्क्रिप्ट राइटिंग, डायरेक्शन, प्रोडक्शन..इनके बीच कितना समय मिलता है खुद के लिए? कोई कमी महसूस होती है?

मेरे पास तो बहुत सा फ्री समय है। बाकी प्रोफेशनल आर्टिस्ट्स के बारे में मुझे नहीं पता, लेकिन फिल्ममेकर्स के पास काफी समय होता है। उनका ज्यादा समय इसमें लगता है कि पैसा कहां से जुटाएं। पैसा जुटाने में समय लगता है। फिल्ममेकिंग लंबा प्रोसेस है। दर्शकों को अंदाजा भी नहीं होता कि एक फिल्म बनाने में कितना समय लगता है। फिल्ममेकर्स के पास बहुत समय होता है और फिर मैं ऐसी रैट रेस में हूं भी नहीं। अभी तक तो मुझे नहीं लगता कि मैंने कुछ मिस किया..।

आप दिल्ली की लडकी हैं। मुंबई की जीवनशैली के साथ तालमेल कैसे बिठाया आपने? काफी फर्क है दोनों जगह?

जब हम फिल्म के लिए मुंबई में दो-ढाई साल रहे थे तो स्थितियां अलग थीं। काम के लिए गए थे और काम ही करते रहे। वहां हम किसी को जानते नहीं थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब हम लंबे समय के लिए नहीं, थोडे-थोडे समय के लिए वहां जाते हैं और वहां हमारे काफी दोस्त भी बन गए हैं तो हम अब एंजॉय करते हैं वहां।

जब आप कोई फिल्म लिखती हैं, तब किसी खास रोल के लिए किसी खास आर्टिस्ट की छवि होती है दिमाग में?

कभी-कभी..। सारी भूमिकाओं के लिए ऐसा नहीं होता। लेकिन कुछ रोल्स के लिए लगता है कि इसे निभाने के लिए लोग लाएंगे कहां से। जैसे पीपली लाइव में अम्मा का चरित्र था। हम बहुत परेशान थे कि यह रोल करेगा कौन? कहां से लाएंगे उन्हें। पहली बार जब हमने इस पर बात की तो मेरे दिमाग में फिल्म उमराव जान में रेखा की मां की छवि आई। सोचती थी कि काश वह मुझे मिल जातीं। फिर सोचा कि वह तो बहुत बूढी थीं, अब कहां होंगी। ढूंढते रहे-ढूंढते रहे। आखिर में अम्मा मिल गई। पता चला कि फिल्म स्वदेस में उन्होंने एक भूमिका निभाई थी। यह संयोग ही था कि उन्होंने खुद संपर्क किया। फिर उन्हें टेस्ट के लिए बुलाया गया। तब हमें पता चला कि यह वही अम्मा हैं जिन्होंने उस समय रेखा की मां की भूमिका निभाई थी और उस समय उनकी उम्र महज 39 वर्ष थी। उनका नाम है-फारूख जफर। कुछ रोल इस तरह के होते हैं कि इन्हें कौन निभा पाएगा, पता नहीं होता। जबकि कुछ रोल्स के बारे में पता होता है कि उन्हें कौन निभा पाएगा।

स्त्री होने के नाते किसी तरह का भेदभाव महसूस किया? या आपको लगता है कि स्त्री होना कभी आडे नहीं आया?

देखिए, अगर कोई औरत यह कहे कि स्त्री होने के नाते उसे कोई प्रॉब्लम नहीं हुई तो यह संभव नहीं है। हमारे घर में स्त्रियों की तादाद ज्यादा है। मैं एक तरह से स्त्री-केंद्रित परिवार में पली-बढी हूं। मैं अकेली नहीं हूं जिसने ऐसा महसूस किया है। मेरे घर की सभी स्त्रियां घर से बाहर काम करती हैं। मेरी मां, बहनें, आंटियां सभी..। सभी ने इसका सामना किया है। यह तो घर की बात है। लेकिन मुझे लगता है जो भी स्त्री प्रोफेशनल व‌र्ल्ड में जाती है वह इस भेदभाव का सामना करती है। घर से बाहर निकलते ही पितृसत्ता का प्रभाव दिखाई देने लगता है। हमें इनसे निपटने का तरीका सीखना पडता है। बहुत सी बातों पर हम चुप रहते हैं और कुछ को हम बर्दाश्त नहीं कर पाते तो बोलते हैं। यह हर स्त्री का सच है..।

आपके पति के परिवार वालों का सपोर्ट भी आपको मिला?

दोनों तरफ के परिवार वालों ने मुझे सपोर्ट किया है। कई बार वे हमारे जीवन के फैसलों पर पूरी तरह असहमत भी होते हैं। कहते हैं कि ऐसा करो-वैसा करो या ऐसा नहीं करो। लेकिन ठीक है-वे बडे हैं। लेकिन फिर कई बार उन्हें हमारे काम पर गर्व भी होता है।

आपको कैसा लगता है जब कोई कहता है कि देखो वह पीपली लाइव वाली अनुशा है? अपनी पहचान पाने का सुख कैसा है?

पहचान..(सोचते हुए)। यहां की बात करूं तो वही लोग मेरे जानने वाले हैं जिन्हें मैं शुरू से जानती हूं- दोस्त, घरवाले या संबंधी। जिन्हें नहीं जानती-वे भी मुझे नहीं जानते। हां- मुंबई में मुझे काफी लोग जानते हैं। (सोचते हुए) ..दरअसल मैं इस बात से बहुत सहमत नहीं हूं कि पीपली लाइव मेरी पहचान है.., उससे मुझे क्या फर्क पडता है..

क्या आपको नहीं लगता पीपली लाइव जैसी सफल फिल्म से आपका नाम जुडा है? आपने कुछ हासिल किया है? कई बार अपने काम के प्रति अच्छा भी महसूस होता है?

हां..हां..बिलकुल। एक घटना के बारे में बताऊं। कुछ समय पहले दिल्ली में जो गैंगरेप की घटना हुई, उसी से जुडी बात है यह। जब सिंगापुर से (च्योति की) डेडबॉडी लेकर लोग आ रहे थे तो मेरे पास एक मेल आया। कुछ चैनल-हेड्स के बीच एक मेल सर्कुलेट हुआ था, जिसमें सभी चैनल्स के लिए कुछ गाइड लाइंस थीं। उसमें साफ लिखा गया था कि आज उसकी डेडबॉडी लेकर आ रहे हैं लेकिन हमें सुनिश्चित करना होगा कि पीपली लाइव जैसा माहौल नहीं बनाना है। कोई भी वैन को फॉलो नहीं करेगा, उसके माता-पिता या रिश्तेदारों से सवाल नहीं किया जाएगा, अंतिम संस्कार नहीं दिखाया जाएगा, उसकी बॉडी दिखाने की कोशिश नहीं की जाएगी। ..ऐसे में अपने प्रति अच्छा महसूस होता है। अगर टीवी चैनल्स फिल्म से किसी भी तरह का संदेश ले रहे हैं तो यह मेरे लिए संतोष की बात है।

स्त्री सुरक्षा को लेकर क्या सोचती हैं? ऐसी घटनाएं दोबारा न हों, इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा?

देखिए, हमने पिछले 20-25 सालों में यह करने की कोशिश की है कि औरतों को कम से कम घर से बाहर निकलने दो। वे घर से बाहर तो जाएं लेकिन जल्दी लौट आएं। वे घर से ऑफिस जाती हैं, फिर घर लौट आती हैं। पुलिस विभाग में केवल दो या तीन प्रतिशत औरतें हैं। औरतों की आजादी इतनी ही है कि वे घर से बाहर जाती हैं और फिर घर में लौट आती हैं। वे सडकों पर नहीं दिखतीं। जब तक ज्यादा औरतें बाहर नहीं निकलेंगी, उनकी सुरक्षा का सवाल हल नहीं हो सकता। कोने के नुक्कड पर पांच लडके खडे हैं-उनका कोई काम नहीं है। वे यूं ही लोगों को आते-जाते देख रहे हैं, बात कर रहे हैं, लेकिन उनके आगे पांच-छह लडकियां नहीं दिखतीं। सडकों पर भी मर्दो का ही वर्चस्व है। इसे कम करने के लिए जरूरी है कि सडकों पर औरतें भी आएं। यह भी न सोचें कि इतनी बडी घटना के बाद आइंदा ऐसी घटना होगी तो पुरुष उसे रोकने के लिए आगे आएंगे। ऐसा नहीं होगा। हां- औरतें जरूर कोई पहलकदमी लेंगी।

तो क्या कभी इस मुद्दे को लेकर भी फिल्म बनाना चाहेंगी? या कोई ऐसी स्क्रिप्ट जागी है आपके मन में..?

हां-हां बिलकुल। हालांकि ऐसा कब होगा, नहीं कह सकती। स्क्रिप्ट लिखना बेहद मुश्किल काम है।

आप क्रिएटिव हैं। लिखते हुए कितना स्पेस चाहिए आपको? क्या आप मूडी भी हैं?

हां..मैं बहुत मूडी हूं। मैं लिखती हूं और मेरे पति महमूद को रिहर्सल्स करनी होती है। अगर रिहर्सल च्यादा तेज हो रही हो तो मेरे काम में प्रॉब्लम होती है (हंसते हुए)। ऐसे में..मूड खराब तो होता है।

जो युवा लेखन के फील्ड में आना चाहते हैं, उन्हें क्या संदेश देना चाहेंगी?

मैं इतनी बडी साहित्यकार नहीं हूं कि कुछ बोलूं। लेखन बहुत मुश्किल काम है। एक छोटी कहानी लिखना भी मुश्किल काम है। देखने से ऐसा लगता है कि यह तो सिर्फ दिमागी काम है। एक बार बैठे और लिख लिया। दरअसल यह फिजिकल क ाम भी है। आपको लंबे समय तक बैठना होता है। यह जटिल है। बहुत मेहनत लगती है..। साफ कहूं (हंसते हुए), मेहनत यानि बार-बार ड्राफ्ट करना होता है। लेकिन मेरा कहना यही है कि कभी यह सोच कर न लिखें कि इसे दर्शक पसंद करेंगे या फिल्में अब ऐसी ही बनती हैं, इसलिए ऐसा ही लिखें। जो आपको पसंद हो-वह लिखें, तभी बेहतर लिख सकेंगे..।

प्रगति गुप्ता


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