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खुद पर हो अपना हक: विद्या बालन

विद्या बालन आज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की सबसे दमदार अभिनेत्रियों में हैं। पद्मश्री सहित उन्हें कई अवॉड्र्स मिल चुके हैं। वह न सिर्फ अपने मजबूत स्त्री किरदारों के लिए बल्कि अपनी अलग सोच और विचारों के लिए भी जानी जाती हैं। एक मुलाकात विद्या से।

By Edited By: Published: Tue, 01 Mar 2016 03:52 PM (IST)Updated: Tue, 01 Mar 2016 03:52 PM (IST)
खुद पर हो अपना हक: विद्या बालन

विद्या बालन आज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की सबसे दमदार अभिनेत्रियों में हैं। पद्मश्री सहित उन्हें कई अवॉड्र्स मिल चुके हैं। वह न सिर्फ अपने मजबूत स्त्री किरदारों के लिए बल्कि अपनी अलग सोच और विचारों के लिए भी जानी जाती हैं। एक मुलाकात विद्या से।

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वर्ष 1995 में एकता कपूर के धारावाहिक 'हम पांच में पहली बार नजर आने वाली विद्या बालन को आज किसी परिचय की जरूरत नहीं है। 'परिणीता की ललिता हो या 'कहानी की विद्या, 'डर्टी पिक्चर की सिल्क हो या 'इश्किया की कृष्णा....विद्या के सभी किरदार बोल्ड और अपनी शर्तों पर जीने वाली स्त्री को ही दर्शाते हैं। विद्या ख्ाुद को फेमिनिस्ट नहीं मानतीं लेकिन कहती हैं कि हर स्त्री को अपने मन, विचारों और कार्यों में आजाद होना जरूरी है। दूसरों की राय के बजाय अपनी नजर में सम्मानित होना अधिक जरूरी है। विद्या से स्त्री-जीवन के विभिन्न पहलुओं पर एक बातचीत।

विद्या, क्या आपको लगता है कि तमाम सामाजिक बदलावों के बावजूद हमारे समाज में अभी भी स्त्रियों की एक स्टीरियोटाइप्ड छवि है?

बदलाव आया है, मगर बहुत थोडा। अभी भी स्त्रियों के बारे में जो सबसे पहली बात होती है, वह उनके लुक्स को लेकर ही की जाती है। पुुरुषों को छोड दें, ख्ाुद स्त्रियां भी दूसरी स्त्रियों के बारे में इसी तरह से बात करती हैं। जब हम कहते हैं कि समाज में ऐसा हो रहा है तो हम ख्ाुद भी उसमें शामिल हैं। हम समाज का हिस्सा हैं। अभी मैंने निहार नैचरल्स की पैन-इंडिया रिपोर्ट पढी है। एसी नेल्सन ने यह सर्वे कराया है। इसमें कहा गया है कि भारतीय समाज स्त्रियों को लेकर बहुत जज्मेंटल है। स्त्रियों को आज भी उनकी क्षमताओं से कम, सुंदरता से ज्यादा परखा जाता है। उनके बारे में कई तरह के स्टीरियोटाइप्ड बने हुए हैं। जैसे शॉर्ट हेयरकट है, शॉर्ट ड्रेस है तो लडकी मॉडर्न होगी। साडी पहनी है, बाल लंबे हैं तो वह ट्रडिशनल होगी...। भारतीय परिधानों को थोडा सम्मानपूर्ण ढंग से देखा जाता है।

आपको कभी अपने लुक्स या पहनावे को लेकर कमेंट्स सुनने पडे?

हां...अकसर ही। कितनी बार लोगों ने कहा कि विद्या तुम हमेशा साडी क्यों पहनती हो? अपनी उम्र से बडी क्यों दिखना चाहती हो? सीधी सी बात है, साडी मुझे पसंद है, इसलिए मैं इसे पहनती हूं, इसलिए नहीं पहनती कि मुझे ट्रडिशनल दिखना है। व्यक्ति अपने विचारों से आधुनिक होता है-पहनावे से नहीं। कई ऐसे लोगों को भी मैंने देखा है, जिनका पहनावा तो बहुत मॉडर्न होता है, लेकिन विचार संकुचित होते हैं। अगर आपकी सोच पुरानी और संकीर्ण है तो चाहे जितने फैशनेबल कपडे पहन लें, वैसे ही रहेंगे। पहले कमेंट्स सुनने पडते थे तो बुरा लगता था, पर अब मैं इनकी परवाह नहीं करती। अगर मैं ख्ाुद से ख्ाुश हूं तो दूसरों के जज्मेंट के कारण ख्ाुद को क्यों बदलूं?

आपको तो काफी सम्मान मिलता होगा, क्योंकि साडी आपका ट्रेडमार्क है....

बिलकुल (हंसते हुए)। साडी से मैं काफी भारतीय दिखती हूं न! लेकिन मेरा निजी तौर पर मानना है कि हम किसी को उसकी वेशभूषा या लुक्स के आधार पर कैसे जज कर सकते हैं? उसके विचार जाने बिना सिर्फ ख्ाूबसूरती देख कर उसे अच्छा या बुरा कैसे कह सकते हैं?

लेकिन कहीं न कहीं फिल्में भी इन धारणाओं को बढाने का काम करती हैं। आजकल टीनएजर्स तक ऐक्ट्रेसेज जैसी परफेक्ट फिगर पाना चाहते हैं...

फिल्में हो या समाज, हर जगह सुंदरता का एक निश्चित पैमाना है। एक सांचा बना रखा है हमने, उसी में फिट होना है। सोशल साइट्स पर फोटो अपलोड करनी हो तो अपनी सबसे अच्छी फोटो लगाना चाहते हैं। फोटो क्लिक करते हुए देखते हैं कि क्या पहनें कि दुबले दिखें, किस ढंग से खडे हों, कैसे हंसें...। बॉडी परफेक्शन को लेकर कुछ ज्यादा ही ऑब्सेशन है। मेरा टीनएजर्स से यही कहना है कि हम सब अलग हैं। बनाने वाले ने सबको अलग बनाया है। हम कैसे किसी और जैसे हो सकते हैं? हम जो हैं, उसे सेलब्रेट करें। जो करना चाहते हैं-करें, जैसे रहना चाहते हैं-रहें। किसी दूसरे को ख्ाुश करने के लिए ख्ाुद को क्यों बदलें?

अच्छा विद्या, आपके सारे फिल्मी किरदार बेहद मजबूत होते हैं। आपने कई स्टीरियोटाइप्ड को तोडा भी है। ख्ाुद आपको अपनी कौन सी भूमिका सबसे ज्यादा पसंद है?

मैं जो भी चरित्र निभाती हूं, उसी में डूब जाती हूं, उसी की तरह हो जाती हूं। हर किरदार मेरे बच्चे जैसा है। जिस तरह मां के लिए हर बच्चा प्यारा होता है, उसी तरह मेरी हर भूमिका मुझे प्यारी है। मेरी कई फिल्में ऐसी भी हैं, जो बॉक्स ऑफिस पर नहीं चलीं, लेकिन मुझे वे भी बहुत पसंद हैं। .....फिर भी फिल्म 'डर्टी पिक्चर में सिल्क की भूमिका दिल के बेहद करीब है।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में हीरो तो 40-50 की उम्र तक भी रोमैंटिक भूमिका में आते हैं, लेकिन हीरोइंस की उम्र कम होती है। ऐसे में कभी किसी तरह की असुरक्षा महसूस होती है आपको?

नहीं....मुझे कभी कोई असुरक्षा महसूस नहीं होती। मैं अपने हिसाब से फिल्में करती हूं और मुझे अपनी तरह के चरित्र मिल जाते हैं। मैं 37 की हूं, लेकिन मुझे काम मिल रहा है। किसी ने कभी यह नहीं कहा कि इस उम्र में मैं हीरोइन की भूमिका नहीं निभा पाऊंगी। हिंदी सिनेमा अब बदल रहा है। हाल के वर्र्षों में महिला-प्रधान फिल्में बनने लगी हैं। डायरेक्शन, स्क्रिप्टिंग, कहानी लेखन में लडकियां ज्यादा आ रही हैं। फिल्मों का स्वर भी काफी बदल गया है। स्त्रियों को ध्यान में रखते हुए कहानियां लिखी जा रही हैं।

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर स्त्रियों के लिए कोई संदेश देना चाहेंगी आप?

इतने वर्षों से मैं फिल्मों में काम कर रही हूं। स्त्री होने के नाते मैंने यही महसूस किया है कि ख्ाुद पर सबसे पहला हक अपना होना चाहिए। हम स्त्रियां हमेशा माता-पिता, भाई, पति और बेटे के हिसाब से सोचती हैं। रिश्तों का दबाव हम पर कुछ ज्यादा ही रहता है। यह अच्छी बात है कि हम सबके लिए सोचें, लेकिन सबसे पहले अपने लिए सोचें कि हमें क्या करना है, कैसे रहना है। हम सबकी इच्छाओं का सम्मान रखते हैं, मगर क्या अपनी इच्छाएं पूरी कर पाते हैं? अपने मन पर अपना अधिकार रखें। ख्ाुद को जिस दिन सारे दबावों से मुक्त कर लेंगे, उस दिन अपने होने का एहसास कर पाएंगे। हम जहां भी हैं, जैसे भी हैं-ख्ाुद को सुनें। जितना कर पा रहे हैं, उसमें ख्ाुश रहें और जो नहीं कर पा रहे, उसके लिए दुखी न हों। ख्ाुद को सुपरवुमन न समझें। अपने लिए सोचना, जीना, अपनी भावनाओं को सम्मान देना और ख्ाुद के लिए थोडा सुकून ढूंढना व्यक्ति के विकास की जरूरी शर्त है।

इंदिरा राठौर


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