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हां! मैं स्त्रीवादी हूं

22 साल की उम्र में आइएएस बनने के छह साल बाद ही पद छोड़ दुनिया बदलने में जुट गई अरुणा रॉय की अलग पहचान है। मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित अरुणा जी वंचितों की •िांदगी बदलने और स्त्रीवादी राजनीति को नई दिशा दे रही हैं। जागरण सखी की संपादक प्रगति गुप्ता के साथ ख़्ास मुला़कात।

By Edited By: Published: Thu, 01 Nov 2012 02:48 PM (IST)Updated: Thu, 01 Nov 2012 02:48 PM (IST)
हां! मैं स्त्रीवादी हूं

अपने लिए तो हर कोई जीता है, पर जीवन की सार्थकता दूसरों के लिए जीने और सबकी ख्ाुशी में ही अपनी ख्ाुशी ढूंढने में है। अरुणा जी इसकी जीवंत उदाहरण हैं। राजस्थान के एक छोटे से गांव के लोगों के लिए उन्होंने जिस समर्पित भाव से काम किया, वह अनन्य है। वह सिर्फ काम ही नहीं करतीं, अपने इन सरोकारों के साथ ही जीती भी हैं। ग्रामीणों के बारे में उनकी बातें सुनें तो आप आसानी से समझ सकते हैं कि अपने उस परिवार से उनका भावनात्मक जुडाव कितना गहरा है, जिसमें पूरा गांव शामिल है। पिछले दिनों इस बहुआयामी व्यक्तित्व से मुलाकात का सुअवसर मिला तो उनकी सहजता से भी प्रभावित हुए बिना न रह सकी।

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आपके जीवन में ग्रैंड-पैरेंट्स का प्रभाव कितना रहा? आपकी दादी एक निडर स्त्री थीं, जिन्होंने कुष्ठ रोगियों के लिए काम किया। कहा जाता है कि सोशल वर्क आपको विरासत में मिला है..

मेरी नानी बहुत पढी-लिखी थी। नानी ने लेट मैरिज की उस ज्ामाने  के हिसाब से और सामाजिक रूप से भी अपने सबकास्ट से हटकर दूसरे सबकास्ट में शादी की। मेरे पिता के छोटे दादाजी  ट्रेड यूनियनिस्ट  थे, क्रिमिनल लॉयर  थे चेन्नई में, वह इंग्लैंड में पढ कर आए थे..। तो वे सारे मूल्य भी थे। बचपन से ही हम लोग आम चर्चा में ऐसी चीज्ों  सुनते आए हैं, जो आप कभी फॉर्मलाइज्ड लर्रि्नग  में पढने जाते हैं। इसे ही इनफॉर्मल लर्निग कहते हैं। इसलिए मेरा सोचना है कि औपचारिक तरीके से हम जो शिक्षा देना चाहते हैं वह तो महत्वपूर्ण है, उससे ज्यादा  ज्ारूरी अनौपचारिक तरीके से जो हम लोगों के साथ चर्चा करते हैं, वह है। महिलाओं के साथ काम करने के दौरान मुझे इस समझ का ख्ाूब  फायदा मिला।

आपकी स्कूलिंग बडी अनयूजुअल रही। जीसस एंड सेंट मेरी, फिर भरतनाट्यम सीखा, अरबिंदो आश्रम गई, फिर इंग्लिश में एम.ए. किया। इंद्रप्रस्थ कॉलेज में पढाया। 22 की उम्र में आइएएस अधिकारी बन गई। फिर अचानक क्या हुआ कि आपने अपना रास्ता ही बदल दिया और आइएएस की जॉब छोड दी?

सबसे बडा बदलाव कॉन्वेंट  ऑफ जीसस  एंड मेरी और कलाक्षेत्र  के बीच आया। कला क्षेत्र एक अलग ही दुनिया थी। मैं पूरी तरह फॉर्मल, अच्छी स्कूली शिक्षा के माहौल से कला की दुनिया में चली गई थी, जहां पूरा जोर शिक्षा के अर्थ को व्यापक विस्तार देने पर था। सिलाई-कढाई, पेंटिंग, मूर्ति-शिल्प, डांसिंग, सिंगिंग  और साथ में पढाई  भी..। मगर स्त्री होने के नाते राजनीतिक दबाव या असमानता के बारे में मेरी जो समझ बचपन में बनी, वह मुझे दो मुद्दों पर समझ आई थी। एक तो जो लडकियों के प्रति भेदभाव होता है और दूसरा जो दलितों के साथ भेदभाव-छुआछूत होता है। मुझे लगता था कि यह नहीं होना चाहिए। यह महिलावादी  सोच का ही कंटिन्युएशन था कि शादी करूं या न करूं, नौकरी तो करनी ही है। इसी सोच के साथ मैं आइएएस में आई। मुझे लगा कि यहां महिलाओं की अभिव्यक्ति के लिए जगह है। लेकिन जब 7 साल वहां रही तो समझ आया कि सरकारी तंत्र कभी बुनियादी बदलाव के लिए काम नहीं कर सकता। उसकी भूमिका व्यवस्था को बनाए रखने की है। तब मैंने इसे छोडा। सोचा कि उस जगह जाऊं जहां मैं अपने मन और समझ को कॉन्सेप्ट से प्रेक्टिस तक सही तरीके से साकार कर सकूं।

तो वो जो फ्रस्ट्रेशन था आपको कि अब यहां से निकल जाना चाहिए, कुछ और करने की जरूरत है, इसलिए आपने नौकरी छोडी..

हम यहां स्त्रियों की बात कर रहे हैं। हमने अपनी जेनरेशन में ही नारीवादी सोच के बारे में जान लिया था। दो महत्वपूर्ण नारे मेरे साथ हमेशा रहे। पहला माई लाइफ इज्ा  अ रिवोल्यूशन  यानी मेरी ज्िांदगी  एक क्रांति है। यह 60 के दशक का नारा था। दूसरा पर्सनल इज्ा  पोलिटिकल। हर चीज्ा एक राजनीतिक मुद्दा है। दहेज, खाना, बच्चों को जन्म देना, परवरिश करना, कन्या भ्रूण हत्या..। मैं ख्ाुद  को राजनीतिक व्यक्ति मानती हूं, भले किसी राजनीतिक दल से नहीं जुडी हूं। मैं स्त्रीवादी राजनीति करती हूं और हर वह चीज्ा इसमें शामिल  है जो स्त्रीवादी राजनीति में हो सकती है। महात्मा गांधी के जीवन का भी मुझ पर बहुत असर पडा। उनके पास ताकत कहां से आई? बिना पद या पोज्िाशन के उनके पास असीमित शक्तियां थीं। यही वह पावर है, जिसके बारे में मेरी जैसी हर स्त्री सोचती है। हम इसे नए सिरे से परिभाषित कर सकते हैं, सामूहिक शक्ति के रूप में।

आपकी शादी और फेमिली  के बारे में बात करें। आपने शादी में कुछ शर्ते रखीं, बच्चे न पैदा करने की शर्त.. उन्हें फेमिली  ने कैसे स्वीकारा? अब आपके मन में कोई पछतावा है?

देखिए, मेरे पति मजबूत  और स्वतंत्र  व्यक्ति हैं। हम कॉलेज  में साथ थे। वे अपनी स्वतंत्रता को लेकर सजग थे और मैं अपनी। तो यह शादी कैसे चलेगी, यह बडा सवाल था (हंसते हुए)..। हम तो एक कम्युनिटी  के भी नहीं थे। वह बंगाली ब्राह्मण और मैं साउथ इंडियन। मगर हमारे बुनियादी सिद्धांतों में पूरा एग्रीमेंट  है। एक बहुत सुंदर कविता है ख्ालील  जिब्रान  की.. शादी एक ही रोटी को खाना नहीं है, इसका अर्थ एक ही गीत सुनना नहीं, बल्कि इसका अर्थ है कि आप साथ हों जब गीत गाया जा रहा हो। बच्चे न पैदा करने का जो सवाल है... बच्चे हमारे लिए तब महत्वपूर्ण हैं, जब हम वंश आगे बढाना चाहते हों। लेकिन हम ये भी सोच सकते हैं कि सारे बच्चे हमारे हैं। पारंपरिक सोच से परे हट कर देखें तो मुझे भी अपनी मातृत्व भावना की अभिव्यक्ति के लिए जगह चाहिए थी। (मुस्कराते हुए) लेकिन यह ज्ारूरी  नहीं था कि यह ममता मैं अपनी कोख से जन्मे बच्चे को ही दूं। मेरे कई भतीजे-भतीजियां हैं, सैकडों नाती-पोते हैं, गांव के सभी लोग मुझे नानी बोलते हैं.. तो मेरे पास तो यह आज्ादी भी है कि मैं अपनी पसंद के नाती-पोते चुन सकूं (ज्ाोर से हंसते हुए)।

परिवार ने सपोर्ट किया आपको?

उन्होंने कभी मेरा विरोध नहीं किया। वे सभी प्रोग्रेसिव विचारों वाले रहे हैं। उन्होंने कभी बच्चा पैदा करने का दबाव नहीं डाला। हालांकि कभी-कभी उन्हें लगता था कि बच्चा होता तो अच्छा होता।

अगर कोई स्त्री लीक से हटकर अपना रास्ता ख्ाुद बनाना चाहती है, अपनी शर्तो पर जीना चाहती है तो क्या शादी और बच्चे सचमुच एक रुकावट हैं?

मैं नहीं सोचती कि बच्चे रुकावट होते हैं। यह व्यक्तिगत निर्णय होता है। मगर इसे हम पूरे समाज पर लागू नहीं कर सकते। हर महिला अलग है। किसी को अपना बच्चा चाहिए, किसी को गोद लेना है, किसी के लिए आसपास के बच्चे अपने हो जाते हैं। मगर बच्चे को जन्म देना, उसे राजनीति और समाज में जगह देना ज्ारूरी है। मैंने बच्चा पैदा नहीं किया, यह मेरा निजी निर्णय था। बच्चे तो चाहिए, सभी तो पैदा करना नहीं छोड सकते, सृष्टि का क्या होगा। कहीं न कहीं उनके लिए जगह बनानी होगी। कैसे बनाएं, इस बारे में भिन्न विचार हो सकते हैं।

यानी शादी कोई रुकावट नहीं है?

शादी कैसे रुकावट हो सकती है? शादी के संबंध में परंपरागत सोच के मामले में यह सही हो सकता है, लेकिन समाज में जब हर व्यवस्था बदल रही है तो शादी की समझ को भी बदलना चाहिए। खैर..मैंने तो पति को तलाक भी नहीं दिया है (ज्ाोर से हंसते हुए)... अपने उसी पति के साथ हूं। हमारी शादी को 42 साल हो गए हैं। मगर उस पूरे रिश्ते में एक नई ज्ामीन का सफर और एक रास्ता निकालना पडता है। उसके लिए यदि हम तैयार हैं तो फिर ठीक है। हमारी भी आलोचना हुई है। लोग कहते हैं कि ऐसे नहीं रहना चाहिए-वैसे नहीं रहना चाहिए. आपका विचार क्या है-उनका विचार क्या है.. क्यों अलग-अलग बोलते हो.. ये तो व्यक्ति के विचार होते हैं, लेकिन बुनियादी रूप से हमारे मत एक जैसे हैं। हम दोनों के मन में कोई लोभ-लालच नहीं है। हम अपनी हर जगह को बांट कर रहते हैं। मिलकर खाना बनाते हैं। वो एक डेवलपमेंट एजेंसी चलाना चाहते हैं, मैं राजनीतिक काम करना चाहती हूं। बस हमारी ये समझ है कि तुम अपना काम करो, मैं अपना। बस ईमानदारी होनी चाहिए, दोहरापन नहीं। फिर आप जो निर्णय लेते हैं, वे व्यक्तिगत हैं। ऐसे चलें तो शादी क्यों नहीं चल सकती है!

लंबे समय से आप शहरी सुविधाएं छोडकर किसानों-मजदूरों के साथ रह रही हैं। अपनी पूरी लाइफस्टाइल  के बारे में बताएं।

मैं 25  साल से देवडुंगरी  गांव में काम कर रही हूं। हम तय करके गए थे कि गांव के बीच में रहेंगे। जब आप राजनीति से जुडना चाहते हैं, गरीबी  की राजनीति से..तो वहां के लोगों के साथ रहना महत्वपूर्ण होता है। हम वहां कच्चे मकान में रहते हैं। 1987  में गई थी वहां। पहले वहां बहुत असुविधाजनक था। पानी, बिजली नहीं थी। कभी-कभार  टॉयलेट  की याद आ जाती थी महिला होने के नाते, मगर वो भी मैं सीख गई। उन सारी चीजों  में पूरी लाइफस्टाइल  बदलनी पडती है। पर सच यही है कि हमें एक महिला की ही दृष्टि से देखा जाता है। कुछ भी हों, आप हैं तो एक महिला! पुरुष प्रधान समाज में, खासकर  उत्तर भारत और राजस्थान में जहां सामंतवाद रहा है, ऐसे लोगों के बीच अपनी जगह बनाना..यह सब मुझे इस जीवन ने ही सिखाया। (थोडा रुककर)..जीवन में जब हम कम में जीते हैं तो मुझे लगता है कि बहुत बडी शक्ति होती है। महात्मा गांधी के जीवन और विचारों से यह बडी सीख मिलती है। फिर कोई धमकी नहीं दे सकता कि वो आपसे कुछ छीनेंगे। छीनेंगे तो क्या छीनेंगे? है ही नहीं कुछ। देवडुंगरी में हम 15-20  लोग कमाने वाले हैं। बाकी सब गांव की समझ से चलता है। हम भी न्यूनतम मजदूरी लेते हैं। हमें 4500 रुपये मिलते हैं। 137 रुपये की जो दिहाडी मज्ादूरों को मिलती है, उसे हम तनख्वाह के रूप में लेते हैं। हमें लगा कि यह हमें उस पीडा से जोडेगा। इससे हमारे राजनीतिक काम की मॉनिटरिंग  भी ईमानदारी से होती है। लोग हमें रोकते हैं, जब हम कुछ ग्ालती  करते हैं। मैग्सेसे  का सारा पैसा ट्रस्ट में चला गया। झोला फैलाने का काम भी महत्वपूर्ण होता है। हम हर साल जाते हैं, झोला फैलाते हैं लोगों के सामने ... कि पैसे दो-दान दो तो हम काम करेंगे। दोस्त पैसे दें, गांव के लोग अनाज दें या 20  रुपये का डोनेशन दें..हमारे आंदोलन ऐसे ही चलते हैं। ये बडा जवाबदेही का रिश्ता बना देता है। जब वो आपके काम को पसंद नहीं करेंगे तो पैसा देना बंद कर देंगे। कह देंगे कि (हंसते हुए) कि हम नहीं देंगे पैसा। इसलिए साधारण जीवन जीना और समानता की ओर बढना ही हमारा मकसद है। हमारा स्लोगन यही है-न्याय समानता हो आधार, ऐसा रचेंगे हम संसार।

सूचना के अधिकार के लिए लडने का विचार कैसे आया?

ट्रांस्पेरेंसी का मुद्दा मेरे दिल में बहुत दिनों से था। सरकार में थी तो भी बुरा लगता था कि हर चीज्ा सीक्रेट क्यों है? अरे भाई मेरे पैसे से न्यूक्लियर प्लांट लगा रहे हो तो मुझे बताओ तो सही कि इससे क्या हानि और फायदा होगा? 1972 में दिल्ली में एक बडी लिकर ट्रेजेडी  हुई थी। मैं डिप्टी सेक्रेटरी फाइनेंस थी। मिथाइल  एल्कोहॉल  पीकर कई लोग मर गए थे। तब किसी एक आदमी ने (दक्षिण से आए) कहा था कि मैं ऐसी नैचरल फर्मेटेड लिकर बनाऊंगा, जिसमें 7 दिन तक ख्ाराबी न होने की गारंटी होगी। मिथाइल  को निकाल दें, सरकारी ठेके बंद कर दें.., लेकिन इसे कंसिडर  करने के लिए भी सरकार तैयार नहीं थी। इसमें निहित स्वार्थ बहुत थे..। दिल्ली में 11 परिवार थे, जिनको ठेका मिलता था, तो दारू की बिक्री में बडी पॉलिटिक्स  है। तो हर कडी में, ट्रांस्पेरेंसी  मुझे ज्ारूरी  लगी। ऐसी ही ज्ारूरत  मुझे राजस्थान में महिलाओं के काम में लगी। फिर जब हम देवडुंगरी आए तो मज्ादूरों  के काम में यह ज्ारूरत महसूस हुई। हमने मजदूरी के कागज मांगे तो जवाब मिला कि नहीं देख सकते, ये गोपनीय डॉक्युमेंट्स हैं। फिर तो लोग कहने लगे कि जब तक ये दस्तावेज बाहर नहीं निकलेंगे, हमारी बात सुनी नहीं जाएगी। हमें सूचना का अधिकार चाहिए।

हम आपको वंचित समाज के लिए जूझने वाली लडाकू के रूप में जानते हैं, जो न थकती है, न राह से भटकती है, न डरती है..। आप खुद  को किस रूप में पहचाना जाना पसंद करती हैं।

मैं..खुद  को ग्ारीबों-वंचितों  की मित्र मानती हूं। जिन लोगों के बीच 30-35  साल से हूं, खासकर म ओं के बीच वहां मेरी घनिष्ठ दोस्तियां हो गई हैं। उनके साथ मेरे रिश्ते बहन, मां-बेटी, मौसी, भांजी, भतीजी और बुआ जैसे हैं। उन्होंने मुझे बहुत कुछ दिया है, प्यार दिया है, मुझे सशक्त किया है। बुरे समय में मेरा साथ दिया है। (याद करके मुस्कराती हुई) एक गल्कू मां हैं। अब उनकी नज्ार  कमज्ाोर  हो चुकी है, लेकिन उनका मन और दृढता नहीं। सूचना के अधिकार को लेकर होने वाले धरने में 1997 में हम लोग बैठे थे जयपुर में, तब वह आईं। मैं उस दिन परेशान थी कि लंबा चलेगा धरना। कुछ महिलाएं कह रही थीं कि उन्हें तो शादी में जाना है। मैं उनसे कह रही थी कि शादी में जाने से ज्यादा  जरूरी  धरना है। जाओ तो लेकिन जल्दी लौटना.. तभी गल्कू मां वहां आई। उन्होंने मेरा हाथ पकडकर कहा, बेटी अब तू जितने दिन यहां रहेगी, मैं तेरे साथ रहूंगी, तू बस हिम्मत नहीं हारना। तिरेपन दिन हम बैठे रहे, वो पूरे 53  दिन हमारे साथ रही। इतने दिन उन्होंने यह जिम्मेदारी  अपने ऊपर ली कि लोगों ने खाना खाया है या नहीं। वह आतीं और मुझसे कहतीं, तूने खाना नहीं खाया है, खा ले बच्चा। वह प्यार और करुणा, जो 5  मिनट में उन्होंने दी, उसने मुझे दो किलो खून  ज्यादा  दिया। यही महत्वपूर्ण रिश्ता है, जो महिलाएं एक-दूसरे के साथ निभाती हैं। हमारे जीवन में फ्रेगमेंटेशन आ चुका है, ..जैसे मैं किसी की पत्‍‌नी हूं या मैं बाहर की हूं, मैं शास्त्रीय संगीत  सुनने वाली हूं, मैं एक्टिविस्ट  हूं, मैं फलानी हूं..लेकिन वे स्त्रियां सबको तोडकर एक लय और निरंतरता में रहती हैं। इस रूप में यह एक बडी आध्यात्मिक यात्रा की तरह है, स्व की वह यात्रा है, जो स्वयं को एक नैतिक व्यक्ति के रूप में देखने की दृष्टि देती है। मेरी इस यात्रा में वे ही मेरे बेस्ट क्रिटिक हैं-बेस्ट टीचर्स हैं (हंसते हुए)।

आपने पुरुषप्रधान समाज की बात की। इस संघर्ष यात्रा में स्त्री होना कितना मददगार रहा या क्या इस वजह से रुकावटें आई?

मैंने खुद को महिला होने के नाते कभी कमजोर नहीं समझा। जहां भी पुरुष प्रधान समाज हावी हुआ तो पहले मुझे बडा आश्चर्य हुआ कि यह क्या हो गया! (हंसते हुए) फिर संघर्ष का मानस बना कि इनसे लडूंगी। छोटे-छोटे रूपों में यह मेरे सामने आया है। अभिव्यक्ति को लेकर कुछ ख्ास बताना चाहती हूं, क्योंकि यह महिलाओं की पत्रिका है। हम स्त्रियों को हर बार दबाया जाता है कि आपकी अभिव्यक्ति भावनात्मक है, इसमें तर्क नहीं हैं। यह बहुत इमोशनल है-इसमें पैशन है..लोग हमेशा कहते हैं ओह अरुणा तुम बहुत जज्बाती हो..मैं कहती हूं, हां मैं जज्बातों के साथ बोलती हूं, क्योंकि इसी तरह मैं अपनी बात कह पाती हूं। लेकिन क्या इसमें कोई तार्किकता नहीं है? आप यह क्यों नहीं कहते कि मैं जो कहती हूं वह सही है और पैशन के साथ कहती हूं.। वे कभी नहीं कहते कि स्त्री का एक नजरिया है जो सही है, उनका जो पॉलिटिकल परसेप्शन है-वह पुरुषों की दृष्टि की तुलना में ज्यादा तार्किक है..। मुझे लगता है कि कई बार यह हम स्त्रियों की मानसिकता भी ऐसी ही हो जाती है। वर्जिनिया वुल्फ की एक किताब है अ रूम ऑफ वंस ओन। उसमें उन्होंने लिखा था, पहली चीज्ा यह है कि हमारे पास लिखने का स्पेस ही नहीं है। हम वह नहीं लिख सकते जो चाहते हैं. हम वह नहीं कह सकते जो हम चाहते हैं। यह क्यों ज्ारूरी है कि हम कमतर हों? तो एक बहुत बडी लडाई लडने को बची है कि अपने पहनावे, बालों को रखने के तरीके, सिंगार करने या न करने से, लिखने से, गाने से हम क्यों अभिव्यक्ति नहीं कर सकते। कई बार हम ख्ाुद पुरुष प्रधान समाज की सोच से प्रभावित हो जाते हैं और ख्ाुद खंडन और निंदा करने लगते हैं। यह नहीं होना चाहिए। अब हमें कुछ नए मुद्दों पर भी अपनी लडाई लडनी है। डायन प्रथा, चुडैल प्रथा जैसी चीज्ों जो ख्ात्म हो चुकी थीं, फिर शुरू हो गई हैं। तथाकथित ऑनर किलिंग..ये  सारी चीज्ों बहुत भयानक हैं। इनके ख्िालाफ  आवाज्ा  उठानी होगी। महिलावादी अभिव्यक्ति और निर्णय लेने के अधिकार को मान्यता दिलवाना और अहिंसक आचार-व्यवहार जो परिवार में खत्म हो गया है, उसे फिर जगाना, हमारे भंग हो चुके संवैधानिक अधिकारों को बहाल करना.. हमारे लिए राजनैतिक-भावनात्मक सभी मुद्दे इसमें शामिल हैं।

लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता कि पिछले 8-10  सालों में काफी  प्रोग्रेसिव चेंजेज आए हैं? महिलाओं के प्रति सोच बदली है? हम इसे महसूस कर रहे हैं।

नहीं..यही तो वह विरोधाभास है, देखिए महिलाओं को यह आजादी  तो है कि वे कैसे भी कपडे पहनें, कैसे भी रहें..। लेकिन ज्ारा  विज्ञापनों को देखें। औरत की कैसी छवि दिखाई जाती है वहां? यह ठीक है, अगर आप रेफ्रिजरेटर  या कार बेचना चाहते हैं। लेकिन क्या आम ज्िांदगी में एक स्त्री ऐसे कपडे पहन सकती है? नहीं। स्त्री पब  जा सकती है? नहीं। अगर आप इनके ख्िालाफ  हैं तो आप ऐसे विज्ञापनों को रोकें। दहेज प्रथा को कम करने के लिए, स्त्री पर होने वाले तमाम अपराधों के ख्िालाफ इन्हें रोकें, तभी तो इसका कोई अर्थ है। ..लेकिन जब आप चाहते हैं, इसका पक्ष लेते हैं, जब चाहते हैं आलोचना करते हैं। यह तो पूरी तरह हिप्पोक्रेसी है। इस दोमुंहेपन को कैसे स्वीकारा जा सकता है? मैं अपने बाल डाई कराऊं, उन्हें कटाऊं या जूडा बनाऊं..यह मेरा ही निर्णय होना चाहिए। इसमें किसी को आपत्ति क्यों हो?

सखी की संपादक प्रगति जी


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