एवरेस्ट से भी ऊंचे हैं इरादे
हौसलों की बुलंदी को अगर कोई एक शख्सीयत दी जा सके तो बेशक वह अरूणिमा होगी। हादसे में एक पैर कट जाने और प्रशासन की बेरुखी व समाज के तानों के बावजूद उसने एवरेस्ट फतह कर दिखाया। हां, सचमुच! सखी को उन्होंने खुद बताई है बुलंदी के इस सफर की दास्तान।
बचपन में मैंने एक कहानी पढी थी कि एक आदमी के पास जूते नहीं थे और इसके लिए वह हमेशा अपने भाग्य को कोसता रहता था। एक रोज उसने किसी ऐसे व्यक्ति को देखा, जिसके पैर ही नहीं थे। यह देखकर उसे अपनी भूल का एहसास हुआ। वह कहानी मेरे मन को छू गई और उससे मिली सीख को मैंने अपने जीवन में उतारने की पूरी कोशिश की।
मुश्किलों भरा बचपन
जब मैं दस साल की थी, तभी मेरे पिता, हरेंद्र कुमार सिन्हा का स्वर्गवास हो गया। वह आर्मी में हेड कांस्टेबल थे। मेरी मां ज्ञान बाला सिन्हा सरकारी सेवा में थीं। वह बेहद जुझारू स्त्री हैं। उन्होंने मुझे जिंदगी से प्यार करना सिखाया। स्कूल-कॉलेज के दिनों से ही मुझे स्पोर्ट्स से बेहद लगाव था। मैं फुटबॉल की नेशनल प्लेयर थी। इसके अलावा कॉलेज की टीम से राष्ट्रीय स्तर पर वॉलीबॉल भी खेलती थी। मैं अंतरराष्ट्रीय स्तर की खिलाडी बनना चाहती थी। इसके लिए मैं जी जान से मेहनत कर रही थी।
नहीं भूलती वह काली रात
कॉलेज के बाद मैंने सीआइएसएफ में जॉब के लिए आवेदन किया था और वहीं इंटरव्यू देने के लिए 11 अप्रैल 2011 को लखनऊ से दिल्ली जाने वाली ट्रेन में बैठी थी। भीड ज्यादा होने की वजह से जनरल बोगी में मुझे दरवाजे के पास सीट मिली थी। वहीं तीन-चार लडके खडे थे। उन्होंने मेरे गले का चेन खींचने की कोशिश की और विरोध करने पर मुझे चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया। वह दृश्य याद कर के आज भी मेरे रोंगटे खडे हो जाते हैं। उस वक्त तकरीबन रात के दो-ढाई बज रहे होंगे। इतनी चोट के बावजूद मैं पूरे होश में थी। जब मैं गिरी थी, उसी वक्त बगल से दूसरी ट्रेन गुजर रही थी, जो मेरे बाएं पैर पर चढ गई। जब मैंने उठने की कोशिश की तो देखा कि मेरा बायां पैर थाईज के पास से कट कर जींस के बाहर निकल आया था। खुद को बचाने के लिए मैं पटरियों के बीच की खाली जगह में सीधी लेट गई। जब भी मुझे ट्रेन की आवाज सुनाई देती तो अपने हाथों को कटने से बचाने के लिए मैं उन्हें ऊपर उठा लेती। इस बीच कई बार ट्रेनें मेरे ऊपर से गुजरीं। जब भी कोई ट्रेन मेरे करीब पहुंचती तो उसके भयंकर शोर से मेरी सांसें थम जातीं। वो तीन घंटे मेरे लिए युगों समान थे। सुबह छह बजे के आसपास गांव वालों ने मुझे देखा और वहां से उठा कर बरेली जिला अस्पताल ले गए। उस वक्त भी मैं पूरे होश में थी, उनके पूछने पर मैंने उन्हें अपने घर का फोन नंबर भी बताया। वहां डॉक्टरों ने सबसे पहले मेरे आधे कटे पैर को सर्जरी द्वारा शरीर से अलग किया, वरना इन्फेक्शन की वजह मेरी जान को खतरा हो सकता था। मेरा सिर फटा हुआ था, रीढ की हड्डी और कमर में तीन-तीन फ्रैक्चर थे। इसके अलावा दाएं पैर और हाथ में भी फ्रैक्चर था। वह छोटा अस्पताल था। इसलिए मुझे वहां से लखनऊ लाया गया, लेकिन मेरी गंभीर हालत को देखते हुए मुझे एयर एंबुलेंस से दिल्ली भेज दिया गया। वहां मुझे एम्स के ट्रॉमा सेंटर में लगभग चार महीने तक रखा गया।
अपमान से आहत मन
इसी दौरान मुझे टीवी के न्यूज से मालूम हुआ कि कुछ लोग यह सवाल उठा रहे थे कि मैं राष्ट्रीय स्तर की खिलाडी ही नहीं हूं तो फिर मुझे इलाज की बेहतर सुविधाएं क्यों दी जा रही हैं? कुछ सरकारी अधिकारियों ने तो इस दुर्घटना को मनगढंत कहानी बताकर यहां तक कहा कि मैं बेटिकट यात्रा कर रही थी और टीटी को देखकर घबराहट में चलती ट्रेन से कूद गई। मुझे घायल होने से भी कहीं ज्यादा दुख ऐसी झूठी और अपमानजनक बातों से पहुंचा। अस्पताल में पडी-पडी अकसर मैं यही सोचती कि अब मुझे कोई ऐसा बडा कार्य करना होगा ताकि मेरी सच्चाई पर सवाल उठाने वाले लोगों का मुंह बंद हो जाए। इसीलिए मैंने माउंट एवरेस्ट पर जाकर तिरंगा फहराने का निर्णय लिया।
मैंने देश की पहली महिला पर्वतारोही बछेंद्री पाल के बारे में सुना था। वह टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन की अध्यक्ष हैं और लोगों को पर्वतारोहण की ट्रेनिंग देती हैं। मैंने बडी मुश्किल से उनका मोबाइल नंबर ढूंढ कर अस्पताल से ही उन्हें फोन किया और उनसे कहा कि मैं आपसे मिलने जमशेदपुर आ रही हूं। उपचार के बाद मेरे बायें पैर की जगह कृत्रिम पैर लगाया गया और दाएं पैर की सर्जरी करके उसमें भी दो रॉड लगाए गए थे। मेरे मन में माउंट एवरेस्ट पर जाने का ऐसा जुनून सवार था कि एम्स से अपने घर जाने के बजाय एक अटेंडेंट को साथ लेकर बछेंद्री जी से मिलने सीधे जमशेदपुर चली गई। मुझे देखकर वह हैरत में पड गई। उन्होंने मुझसे कहा कि ऐसी हालत में अगर तुम इतने ऊंचे इरादे के साथ यहां तक आ गई हो तो समझो कि तुमने माउंट एवरेस्ट फतह कर लिया। अब तुम्हें केवल लोगों को यह दिखा देना है कि शारीरिक अक्षमता तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड सकती।
चल पडी मंजिल की ओर
अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए मैंने सबसे पहले उत्तरकाशी स्थित नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग से पर्वतारोहण का बेसिक कोर्स किया। इस ट्रेनिंग के दौरान मैंने उत्तरकाशी के सूर्या टॉप, बरुआ टॉप, बंदर पूंछ और डोडी ताल जैसी पहाडियों पर कई बार चढाई की। फिर 28 मार्च 2013 को मैं अपने दल के साथ दिल्ली से काठमांडू पहुंची। शरीर और दिमाग को वातावरण के अनुकूल बनाने के लिए माउंट एवरेस्ट की चढाई से पहले पर्वतारोही आसपास की कई चोटियों पर बार-बार चढाई करते हैं। हम लोगों ने भी ऐसा ही किया। फिर अपने टीम लीडर लवराज धर्मशक्तु के नेतृत्व में हमने 16 मई 2013 को चढाई शुरू की। हमारे रास्ते में कैंप-1 से कैंप-4 तक चार पडाव थे। प्रतिदिन दो-चार घंटों का ब्रेक लेते हुए हम 20 मई को कैंप-4 पहुंचे। वहां थोडी देर सुस्ताने के बाद हमने सुबह साढे ग्यारह बजे से माउंट एवरेस्ट के लिए चढाई शुरू की, जिसकी ऊंचाई 8,848 मीटर है। वह रास्ता बेहद फिसलन भरा और दुर्गम था। दोनों तरफ हजारों फीट गहरी खाई थी। खुद को डीहाइड्रेशन से बचाने के लिए हमारे लिए जबर्दस्ती ज्यादा पानी पीना जरूरी होता है। ऐसे में यूरिनेशन की वजह से मुझे बहुत परेशानी होती थी। इतनी ऊंचाई पर चढाई की वजह से स्त्रियों के शरीर में हॉर्मोन का संतुलन बिगड जाता है और वहां अचानक पीरियड्स की शुरुआत हो जाती है। मेरे साथ भी यही हुआ, लेकिन मैं इसके लिए पहले से तैयार थी। इसलिए मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। जब मैं अपने लक्ष्य से कुछ घंटे की दूरी पर थी तभी हिलेरी स्टेप के पास मेरे ऑक्सीजन का सिलिंडर खाली होने लगा। जब मैंने वॉकी-टॉकी पर अपने आयोजक से बातचीत के दौरान सिलिंडर खाली होने का अंदेशा जताया तो वह मुझसे लौटने का आग्रह करने लगे। मैंने कहा कि मंजिल के इतने करीब पहुंचकर मैं वापस नहीं लौट सकती। तभी मैंने देखा कि एक विदेशी पर्वतारोही थकान की वजह से बीच रास्ते से ही लौट रहा था। वापस लौटने के लिए उसके पास पर्याप्त ऑक्सीजन था। वजन उठाने की परेशानी से वह एक भरा सिलिंडर वहीं छोडकर जा रहा था। मैंने उससे सिलिंडर मांग लिया और उसी के सहारे मंजिल तक पहुंच गई। वहां तिरंगा फहराने केबाद हमने वापसी की तैयारी शुरू कर दी।
सच हुआ सपना
वापस लौटने के बाद मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। जब मैं अपने घर अंबेडकर नगर (उ.प्र.) वापस लौट रही थी तो बारिश के बावजूद सैकडों की तादाद में लोग फूल-मालाएं लेकर मेरे स्वागत में खडे थे। अपने प्रति लोगों का ऐसा स्नेह देखकर मेरी आंखें भर आई। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मेरा सपना सच हो गया है। मैं फिजिकली चैलेंज्ड लोगों का दर्द समझती हूं। इसलिए भविष्य में उनके लिए स्पोर्ट्स अकेडमी स्थापित करना चाहती हूं, ताकि वहां उन्हें अच्छी ट्रेनिंग दी जा सके। मुझे पूरा यकीन है कि मेरा यह सपना जरूर सच होगा।
अभियान से जुडी कुछ यादें
-माउंट एवरेस्ट की चढाई और वहां से वापस लौटने में अरुणिमा को कुल 27 घंटे लगे। इस दौरान वह लगातार चलती रहीं क्योंकि इतने कम तापमान में लगातार बॉडी मूवमेंट बहुत जरूरी है। ऐसे रास्ते में अगर कोई व्यक्ति रुक कर सुस्ताने की कोशिश करे तो यह उसके लिए जानलेवा साबित हो सकता है।
- माउंट एवरेस्ट की चोटी पर वह मात्र 20 मिनट के लिए रुकीं क्योंकि वहां का तापमान -60 डिग्री था। इतनी ठंडक में वहां इससे ज्यादा देर तक रुकना संभव नहीं होता।
- लौटते वक्त अरुणिमा का कृत्रिम पैर खुालकर अलग हो गया था। फिर उन्होंने बडी मुश्किल से दोबारा अपने पैर को फिक्स किया, तब आगे बढीं।
- जब उन्होंने कृत्रिम पैर को सेट करने के लिए दस्ताने से अपने हाथ बाहर निकाले तो उनके हाथों में फ्रॉस्ट बाइट (अत्यधिक ठंड से टिश्यूज की क्षति) हो गया था, जो बाद में ठीक हो गया। - वापस लौटने के बाद जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अरुणिमा को फोन करके बधाई दी तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था।
विनीता