अपने अनुभवों से सीखा मैंने: एकता कपूर
युवा पीढ़ी की जिन भारतीय स्त्रियों ने अपने दम पर अलग पहचान बनाई है, उनमें एकता कपूर का नाम महत्वपूर्ण है। बहुत कम उम्र में जैसी ख्याति उन्होंने अर्जित की और जैसी पहचान बनाई है, वह किसी को भी हैरत में डालने वाली है। छोटे पर्दे की युवा और ऊर्जावान हस्ती एकता कपूर से सखी की संपादक प्रगति गुप्ता की बेबाक बातचीत।
कभी ये हमें रुलाती हैं तो कभी हंसाती हैं, कभी खुद से प्यार करना और कभी हर मुश्किल का डटकर सामना करना सिखाती हैं। ईश्वर और भाग्य पर पक्का भरोसा करने वाली एकता कपूर बहुत कम उम्र में ही एक ब्रैंड बन चुकी हैं। मुंबई में इनसे मुलाकात हुई तो मेरे मुंह से अनायास निकला, अरे आप तो बच्ची जैसी हैं! और जब उन्होंने बोलना शुरू किया, मैं यह देखकर आश्चर्य से भर गई कि इस युवा स्त्री ने जिंदगी में कितना कुछ हासिल कर लिया है। एकता मानती हैं कि किसी के भी जीवन को बनाने में नियति की बहुत बडी भूमिका है, लेकिन व्यक्ति को कडी मेहनत करने और चुनौतियां स्वीकारने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। अपनी जिंदगी के लिए सिर्फ वही जिम्मेदार है।
आपकी परवरिश फिल्मी माहौल में हुई थी, किस तरह का बचपन था आपका?
मॉम-डैड बहुत प्रोटेक्टिव थे, बल्कि मेरा बचपन कुछ ज्यादा ही प्रोटेक्टेड था (हंसते हुए)। बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल से मेरी पढाई हुई। वहां फिल्मी दुनिया के कई बच्चे थे। इसीलिए स्कूल में सख्त नियम थे कि सबको समान रूप से ट्रीट किया जाएगा। घर में फिल्मी पत्रिकाएं नहीं आती थीं, क्योंकि उनमें कुछ मसाला पढकर हम परेशान हो सकते थे। स्कूल में कभी ऐसी-वैसी चर्चा भी होती तो हम परेशान हो जाते थे। मॉम-डैड बहुत मेहनत करते थे, होमवर्क से लेकर हर बात का खयाल रखते थे। तब लगता था कि हम बाकी दुनिया से कटे हैं, लेकिन मॉम डैड का प्रोटेक्ट करने का यह अपना तरीका था।
आपके पिता उन दिनों मशहूर ऐक्टर थे। जब कभी वह पीटीए में आते थे तो अपने साथी बच्चों के बीच आप कैसा महसूस करती थीं?
डैड तो शूटिंग में व्यस्त रहते थे, लेकिन मॉम हर मीटिंग में होती थीं (जोर देते हुए)। मैं पीटीए से नफरत करती थी, क्योंकि मैं बहुत खराब स्टूडेंट थी। मेरा भाई तुषार बहुत अच्छा स्टूडेंट था। हमेशा क्लास में फर्स्ट या सेकंड आता था, उसे डिस्टिंक्शन मिलता था। मेरे 40 मार्क्स आते तो मैम के पास चली जाती कि प्लीज दो मार्क्स और दे दीजिए। पास तो मैं हर साल होती थी, लेकिन बस किसी तरह पास हो जाती थी..(हंसते हुए)।
आपकी जॉइंट फेमिली थी या न्यूक्लियर?
मैं सात-आठ साल की थी तब तक दादा-दादी साथ रहते थे। लेकिन हम हमेशा क्लोज रहे। हमारा बंगला और दादा-दादी की बिल्डिंग एक ही कंपाउंड में थे। वे लोग सातवें फ्लोर पर रहते थे और हम नीचे बंग्लो में। यही हमारी जॉइंट फेमिली थी।
आपके पिता तो ऐक्टर रहे हैं, फिर आपने प्रोडक्शन के फील्ड में आने के बारे में कैसे सोचा?
मेरा विश्वास है कि नियति ही हमें कहीं खींचकर ले जाती है। हमें पता नहीं होता कि हम कहां और कैसे जा रहे हैं। मैं कह सकती हूं कि सब कुछ योजना बना कर किया, लेकिन यह झूठ होगा। मैं अमेरिकन टीवी बहुत देखती थी। पूरे दिन खाना और टीवी देखना (हंसते हुए)। पापा मुझसे बहुत चिढते थे कि कुछ तो करो जिंदगी में। मैं पार्टी, मौज-मस्ती में ही बिजी थी। स्कूल से निकली ही थी और मुझे लगता था वाउ, यहां तो पूरी दुनिया खुली है। बहुत सोशल थी, लोगों से मिलना-जुलना अच्छा लगता था। अब आउटगोइंग नहीं हूं, लेकिन 16-17 की उम्र में मुझे यह पसंद आता था। वास्तव में मैं समय बर्बाद कर रही थी। बस कॉलेज जाती और पास हो जाती, जबकि भाई का ग्रेड हमेशा अच्छा होता। मुझे समझ नहीं आता कि भाई इतना अच्छा क्यों है.. (जोर से हंसते हुए)!
प्रोडक्शन में पापा से प्रेरणा ली आपने?
कई घटनाएं हुई। मैं 80 किलो की थी तब। ऐक्ट्रेस बनने और वेट लूज करने जैसा खयाल भी मुझे नहीं आता था। लगता था कि मुझे वजन कम करने की जरूरत नहीं है, जैसी हूं-खुश हूं। पापा के दोस्त केतन सोमाया लंदन में थे। उनका एक चैनल था यूके बेस्ड। मेरा सौभाग्य है कि मेरे पिता उन लोगों में नहीं थे जो कहते कि शादी करनी है तो घर बैठो, एंजॉय करो। अच्छा ही हुआ कि पापा का प्रेशर था। वह लगातार कहते कि कुछ तो करूं, पर मुझे दिलचस्पी नहीं थी। मैंने एक कंपनी फा प्रोडक्शन जॉइन की। यह शॉर्ट फिल्में, एड फिल्में और एंटरटेनमेंट कार्यक्रम बनाती थी। वहां जॉब मिल गई, क्योंकि मैं उन लोगों को जानती थी। मैं कास्टिंग डायरेक्टर के असिस्टेंट की भी असिस्टेंट थी (हंसते हुए)। लेकिन मैं खुश थी कि काम कर रही हूं। मुझे 10 हजार रुपये ही मिले, वह पेट्रोल का खर्च था मेरे लिए। जल्दी ही 30-40 हजार मिलने लगे और मेरा पार्टी खर्च भी निकलने लगा। इसी समय केतन सोमाया का एक मेसेज आया कि वे चैनल के लिए कोई सॉफ्टवेयर बना रहे हैं। मैं दिन भर बैठ कर टीवी तो देखती ही रहती थी तो डैड ने सोचा कि क्यों न कोई इंडियन टेलीविजन शो बनाऊं इस विदेशी चैनल के लिए। इस तरह मैं प्रोडक्शन के फील्ड में आई। मैंने और मॉम ने तय किया कि हम एक छोटा प्रोडक्शन हाउस बनाएंगे और चैनल के लिए कार्यक्रम तैयार करेंगे। हमने कुछ टीवी कार्यक्रम बनाए और चैनल को दिए। उस समय ऐक्टिंग में डैड का बेहतरीन समय नहीं चल रहा था और पैसे भी कम थे। फिर भी उन्होंने पैसा दिया और मुझ पर भरोसा किया। हम पांच सीरियल बनाते समय बहुत कम पैसा था हाथ में..
फिर आपने पीछे मुड कर नहीं देखा..?
बहुत उतार-चढाव आए जिंदगी में। शो फ्लॉप भी हुआ। पैसे बर्बाद हुए। कंपनी को घाटा हुआ, लेकिन फिर ऐसे ही दौर में अंधेरे में कोई बिजली चमकी और मुझे राह मिली। नहीं जानती कि सब कैसे हुआ? लेकिन मैं जिम्मेदारी एंजॉय करने लगी। पापा के पैसे को समझदारी से खर्च करने लगी। सब किस्मत का खेल है। छोटी सी प्रोडक्शन कंपनी थी, शुरुआत में 6-7 लोग थे, सबको सेलरी भी देनी थी। लेकिन मैंने जिम्मेदारी महसूस करनी शुरू की।
तब आपकी उम्र कम थी, लोग आपको गंभीरता से लेते थे? उन्हें ऐसा तो नहीं लगता था कि एक बच्ची गाइड कर रही है?
कंपनी शुरू करते समय मैं साढे सत्रह साल की थी और सीरियल हम पांच के समय साढे 18 साल की। काफी कुछ देखा, लेकिन मेरी उम्र की लडकी के लिए उतनी सफलता काफी थी। पता नहीं कैसे ऐसा हुआ लेकिन हम पांच टेलीविजन का नंबर वन शो बन गया। इसके बाद मैं कुछ गंभीर हुई। फिर मैंने सोचा कि अब से कॉमेडी शोज ही बनाऊंगी। मैं साउथ गई। पापा के साथ रजनीकांत से कई बार मिली थी और वह मुझे बहुत पसंद भी करते थे। मैं उन्हें रीअल सुपरहीरो मानती थी। उन्होंने ही साउथ के एक जेंटलमैन कलानिधि से कहा, जिन्होंने मुझे अपने चैनल में प्राइम टाइम शो दिया। फिर तो सब खुद होता चला गया..।
बिना किसी फॉर्मल ट्रेनिंग के यह सब मैनेज कैसे किया?
खुद को ही देख कर सीखा। मैं अपने काम का विश्लेषण करती थी। दर्शक कैसे रिएक्ट करते हैं, इससे काफी सीखने को मिलता है। मैं थिएटर में आने वाली हर फिल्म देखती हूं। दर्शकों के रिएक्शन से सीखती हूं।
पीछे देखने पर कैसा लगता है?
िकस्मत पर भरोसा करती हूं। कई बार एक सी मेहनत के बावजूद नतीजे अलग मिलते हैं। बस अपने काम को एंजॉय करें और जो भी अच्छा या बुरा मिले, उसे स्वीकारें।
कहा जाता है कि आपने छोटे पर्दे की दुनिया बदल दी। इसके लिए इतना साहस कैसे आया आपके भीतर?
मैंने अपना काम मेहनत और गंभीरता से किया। लोगों व अनुभवों से सीखा। मैंने जॉइंट फेमिली नहीं देखी, लेकिन मेरे राइटर जॉइंट फेमिली में रहे हैं और उन्होंने कहा कि यह दिखा सकते हैं। ..जैसे मैंने बा का चरित्र एंजॉय किया, क्योंकि वह मुझे अपनी अम्मा की याद दिलाती थीं। दर्शक ही हमारी प्रेरणा हैं। हमें प्यार करते हैं और इसी से हमें आगे बेहतर करने की प्रेरणा मिलती है। हम उन्हें निराश नहीं कर सकते। इसके अलावा जब देखते हैं कि आसपास ऐसे बहुत से लोग हैं जिनका जीवन हमारे सहारे चल रहा है तो इससे जिम्मेदारी का बोध होता है। मैं अपने दर्शकों के लिए एक ऐसा चेहरा हूं, जो उन्हें निराश नहीं करेगा। ब्रैंड क्या है? यह इसी से तो बनता है कि लोग आपको देखें तो कहें कि ये हमें निराश नहीं करेंगे।
स्क्रीन पर आपने भारतीय स्त्री की बिलकुल अलग छवि पेश की है। इसके बारे में क्या कहेंगी?
मुझे लगता है भारतीय स्त्री ऐसी ही है। उसकी कई पहचानें हैं और कई महत्वाकांक्षाएं भी। मैं टीवी शो मनोरंजन के लिए बनाती हूं। मैं चाहती हूं कि इंडियन हाउसवाइफ टीवी के सामने बैठे तो एंजॉय करे। वह क्रेप साडीज पसंद करती है तो मैं हीरोइंस को वैसी साडी पहनाऊंगी। महत्वाकांक्षाएं और पहचान..ये दो चीजें हैं जिनसे दर्शक ख्ाुद को जोडते हैं। मुझे लगता है कि मुझे हर तरह के जीवन का सम्मान करना चाहिए। लोग जैसे रहते हैं, उनके जीवन का सम्मान करना चाहिए। मैं उनके प्रति जजमेंटल नहीं हो सकती। मैं नहीं जानती कि उनकी क्या समस्याएं हैं, वे कहां से आए हैं। अगर कोई छोटे शहर से आया है और उसके पास कोई कहानी है तो मैं चाहूंगी कि उसे बेस्ट तरीके से दिखाऊं। हम ऐसी कहानी नहीं दिखा सकते जिससे लोग डिप्रेस्ड महसूस करने लगें। मनोरंजन सुकून का नाम है। हर व्यक्ति देख कर सोचे कि यह उसी की कहानी है, लेकिन एक अच्छे ट्विस्ट के साथ।
इधर आपके सीरियल्स के नाम गानों के आधार पर रखे जा रहे हैं। इसका क्या कारण है?
दो सीरियल ही ऐसे हैं। क्या हुआ तेरा वादा और बडे अच्छे लगते हैं..। मुझे वह गाना बहुत अच्छा लगता है-बडे अच्छे लगते हैं, ये धरती ये नदिया..। क्या हुआ तेरा वादा नाम तो चैनल ने दिया। फिर यह ट्रेंड बन गया। अभी एक सीरियल आ रहा है तेरा-मेरा रिश्ता पुराना.. यह भी गाने पर है, इसलिए मैंने नाम बदल कर मेरा-तेरा रिश्ता पुराना कर दिया। पहचान गाने से नहीं, शो से होनी चाहिए न!
फिल्म डर्टी पिक्चर का एक डायलॉग काफी मशहूर हुआ, फिल्में सिर्फ तीन चीजों से चलती हैं, एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट। आपकी सफलता का राज क्या है?
एंटरटेनमेंट..। सबसे बडी चीज है आइडेंटीफिकेशन और ऐस्पिरेशन। कहीं न कहीं चीजें छूनी चाहिए। हर फिल्म की एक विचार प्रक्रिया होती है। दर्शक को हमारी सोच-प्रक्रिया का पता चले और वह अनुभव मिले..। हर फिल्म का एक इमोशन होता है, वह इमोशन न आए तो फिल्म नहीं चलेगी। डेविड धवन की फिल्में दर्शक फुल एंजॉय करने जाते हैं, तो उनसे यही अपेक्षा भी रहती है। कोई फिल्म शालीन स्टोरी लाइन के साथ चल रही है तो उसका ट्रीटमेंट भी वैसा ही होगा।
आप बहुत धार्मिक हैं। इतनी आस्था का क्या कारण है?
जिस इंसान को 16-17 की उम्र में सफलता मिल जाती है, उसे कहीं न कहीं भावनात्मक संबल की जरूरत तो पडेगी ही। मुझे 18 वर्ष की उम्र में ही कई सवालों से जूझना पडा। मैं ही क्यों? मेरे सीरियल्स को ही सफलता क्यों? किसी पॉइंट पर विश्वास करना पडता है कि ईश्वर है, यह सब हमारे हाथ में नहीं है। हम सिर्फ माध्यम हैं। ऐसा न सोचें तो पागल हो जाएंगे। जमीन पर रहें, इसके लिए ऐसा सोचना होगा, ताकि विफल हों तो निरपेक्ष भाव से इसे भी स्वीकार कर सकें। मैं ख्ाुद को सफलता से अलग देख पाती हूं तो यह ताकत मुझे अध्यात्म देता है। मुझे लगता है, धर्म को हमारे यहां गलत ढंग से समझा गया है। इसका मतलब यह नहीं है कि आप मंदिर जाएं। वास्तव में यह थेरेपी है। मैं ऐस्ट्रोलॉजी में विश्वास करती हूं। इसका मतलब यह नहीं कि मेरा समय अच्छा है तो घर में बैठ जाऊं, काम न करूं। कर्म से बडा कुछ नहीं है। कर्म का मतलब है कि अपना काम करें, लोगों की मदद करें। कई लोग धर्म की आलोचना करते हैं, लेकिन मैं मानती हूं कि यह जीवन को समझने की कोशिश है। आप कहां से आए हैं, कहां जा रहे हैं, इसे जितना समझने की कोशिश करेंगे, उतना ही खुद को समझ सकेंगे।
इतनी कम उम्र में आपके विचार इतने परिपक्व कैसे हैं?
क्योंकि कम उम्र में ही मैंने काम शुरू कर दिया। मेरे व्यक्तित्व का एक हिस्सा हमेशा युवा रहा है। मैं 20 की उम्र में भी इतनी ही मैच्योर थी। मुझे लगता है लोगों ने बहुत जल्दी मुझे गंभीरता से लेना शुरू कर दिया, लिहाजा मुझे भी खुद को गंभीरता से लेना पडा।
स्त्री होने के नाते कोई बाधा भी आई? कोई भेदभाव हुआ?
आई हैं, आती रहेंगी। लेकिन जिस दिन सोच लिया कि स्त्री हैं इसलिए ऐसा हो रहा है..उसी दिन पीछे हट जाएंगे। जिंदगी के हर मोड पर कुछ अच्छा है तो कुछ बुरा। कई लोग पूछते हैं कि आपने स्त्री होने के बावजूद इतना हासिल किया तो मैं कहती हूं, स्त्री होने के बावजूद नहीं, स्त्री हूं इसलिए किया। हमारे भीतर कई तरह के काम करने की क्षमता है। ..जो प्रॉब्लम्स आती हैं, उन्हें मुझे ही हल करना है। क्षमताओं पर ध्यान दें, परेशानियों पर नहीं। मजबूती तो हम स्त्रियों के डीएनए में है। हम शारीरिक रूप से भले ही कमजोर हों, मानसिक तौर पर मजबूत हैं।
अपने सकारात्मक-नकारात्मक पहलू के बारे में क्या कहेंगी?
मेरा पॉजिटिव पहलू यह है कि मैं दोबारा शुरुआत के लिए तैयार रहती हूं। हां- सेहत या परिवार के स्तर पर नहीं कर सकती। काम में अगर एक दिन अपसेट होती हूं तो अगले दिन उसे भूल कर दोबारा शुरुआत करती हूं। विफलता सबसे बडा सबक होता है जिंदगी के लिए। मेरे नेगेटिव पहलू हैं कि मुझे गुस्सा जल्दी आता है, पैनिक कर देती हूं..।
अब तो आपके पिता की कोई शिकायतें नहीं होंगी?
अरे नहीं-नहीं, हमारे घर में अभी भी सब मुझे ही बोलते हैं (जोर से हंसते हुए)। तुषार इतना प्रॉपर है कि..। मुझे सुनने को मिलता है कि तुम सफल हो गई तो इसका मतलब यह नहीं कि घर में जो मन आए वह करो। घर में नियम से रहना होगा। मैंने हमेशा घर के नियम तोडे हैं। हममें से कोई भी पैसा नहीं रखता, मॉम को दे देते हैं। कोई भी इस बात पर यकीन नहीं करता। कुछ दिन पहले मॉम बोलीं, मेरा बर्थडे आ रहा है मेरे लिए वॉच खरीद दो। मैंने कहा ठीक है, मुझे चेकबुक दे दो। मॉम ने मना कर दिया कि चेकबुक तो नहीं मिलेगी। मैंने कहा, तो मैं कैसे घडी खरीदूं (हंसते हुए)। मैंने कहा कि एक सीरियल बनाऊंगी बालाजी से अलग होकर, उससे जो पैसा मिलेगा उससे घडी खरीद दूंगी। उन्होंने कहा-तुम ऐसा नहीं कर सकतीं, तुमने कॉन्ट्रेक्ट साइन किया है। (जोर से खिलखिलाती हैं एकता)। .. दरअसल मॉम को हम सोलर सिस्टम का सूरज मानते हैं (हंसते हुए)। हम सब प्लैनेट्स हैं उनके इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। हमें नहीं मालूम होता कि क्या हो क्या रहा है। हम सब आते हैं, हमारे ड्राइवर अरेंज होते हैं, हमारा खाने का समय तय होता है। सब कुछ शोभा यानी मेरी मां का काम होता है। कई बार वह कहती हैं तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए तो मैं कहती हूं कि उस घर को भी तुम्हें ही देखना होगा। क्योंकि मुझे तो सिर्फ टीवी शो आता है (हंसते हुए) और कुछ नहीं आता..।
एकता कपूर आज टीवी की क्वीन है। अपनी पहचान पाने का सुख क्या है? पीछे देखने पर क्या महसूस होता है?
बहुत से ऐक्टर्स, राइटर्स, डायरेक्टर्स यहां से निकले, सफल हुए। घर खरीदे-गाडी खरीदी। कभी जब वे टेलीविजन पर जाते हैं तो कहते हैं कि हमने बालाजी से शुरुआत की। यही हमारी पहचान है। इसी से आत्मसंतुष्टि मिलती है। मैं चाहती हूं, ज्यादा से ज्यादा लडकियां काम करें और माता-पिता उन्हें काम करने दें। सखी पत्रिका मुझे बहुत प्रेरित करती है। मैंने इसके बारे में बहुत सुना है। यह हर जगह मिलती है।
जो युवा इस फील्ड में आना चाहते हैं, उनसे क्या कहेंगी?
ऐक्टिंग के अलावा भी सोचें। ऐक्टिंग में इतने लोग हैं कि प्रतिभा का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। मैं किसी का हौसला कम नहीं करना चाहती। देखिए, बनते हैं 500 शो, लेकिन आते हैं पांच हजार लोग। सप्लाई ज्यादा है। लेकिन प्रोड्यूसर्स, एडिटर्स, राइटर्स, डायरेक्टर्स, प्रोडक्शन हेड्स, क्रिएटर्स की कमी है। टेक्नीशियंस को भी अच्छे पैसे मिलते हैं, इसमें भी आएं।
टीवी से फिल्मों की दुनिया कितनी अलग है?
दोनों माध्यम अलग-अलग हैं। जैसे घर का खाना और बाहर का खाना। घर का खाना सुकून वाला होता है। थोडे अच्छे-बुरे से भी चल जाता है, टेस्ट तो घर का ही होगा। लेकिन रेस्टरां में पैसा देकर खा रहे हैं तो हर चीज की समीक्षा करेंगे।
प्रगति गुप्ता