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हर फील्ड में विजेता रही मैं: दीपा मलिक

अर्जुन अवॉर्ड प्राप्त पैराप्लेजिक खिलाड़ी दीपा मलिक एक मिसाल हैं। उन्होंने 36 वर्ष की उम्र में पैरा-ओलंपिक्स में करियर शुरू किया। तीन ट्यूमर सर्जरीज और शरीर के निचले हिस्से के सुन्न हो जाने के बावजूद दीपा ने हार नहीं मानी और जिस खेल में भी हिस्सा लिया, विजेता बन कर लौटीं। दीपा से मुलाकात जागरण सखी की संपादक प्रगति गुप्ता के साथ।

By Edited By: Published: Wed, 01 Jan 2014 12:53 AM (IST)Updated: Wed, 01 Jan 2014 12:53 AM (IST)
हर फील्ड में विजेता रही मैं: दीपा मलिक

जीवन की परेशानियों को खुशी, निराशा को उम्मीद और हार को जीत में कैसे तब्दील किया जा सकता है, इसकी जीती-जागती मिसाल हैं दीपा मलिक। 36 की उम्र में तीन ट्यूमर  सर्जरीज और शरीर का निचला हिस्सा सुन्न हो जाने के बावजूद दीपा की जिंदगी ठहरी नहीं। बल्कि एक ऐसा जज्बा पैदा हुआ, जिसने उन्हें खेलकूद के प्रतिष्ठित अर्जुन अवॉर्ड  के अलावा ढेरों मेडल्स  दिलाए, साथ ही लिम्का बुक में नाम दर्ज कराया। जेवलिन  और शॉट पुट में एशियन रिकॉ‌र्ड्स  बना चुकी दीपा से मिलते हैं।

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दीपा, विपरीत स्थिति में भी इतनी सकारात्मक सोच कैसे रही आपकी? इसमें परवरिश की क्या भूमिका है?

इसका श्रेय काफी हद तक मेरे माता-पिता व परवरिश को जाता है। मेरी बीमारी का पहला चरण बचपन में ही गुजरा। तब मैं छह साल की थी। अचानक एक दिन पैरों में कमजोरी का पता चला। धीरे-धीरे चलना-फिरना बंद हुआ और मैं बिस्तर पर आ गई। फिर शुरू हुआ सिलसिला इलाज का। जगह-जगह जाते। अंत में पापा ने पुणे में पोस्टिंग ली और वहां कमांड हॉस्पिटल में मुझे भर्ती करा दिया। उस दौरान मैं माता-पिता को देखती, उनसे बहुत-कुछ सीखती। जैसे पहली चीज मैंने सीखी-कृतज्ञता। पेरेंट्स को इतनी जिम्मेदारियां निभाते देखा तो मेरा बाल-मन कृतज्ञ हुआ उनके प्रति। इसने मुझे सराहना करना भी सिखाया। दूसरी चीज  मैंने उनसे सीखी-उम्मीद। वे हमेशा कहते थे, ठीक हो जाओगी। तीसरी चीज थी किताबों से दोस्ती। बचपन की उस बीमारी ने पढने की ललक पैदा कर दी। चौथी चीज थी- मेहनत का फल मीठा होता है। अस्पताल में बिताया लंबा दौर, सर्जरी, कई-कई घंटे फिजियोथेरेपी..। लगभग 8-9  महीने के बाद मैंने धीरे-धीरे चलना सीखा और यह हौसला मुझे मेरे माता-पिता ने ही दिया। इसी से मुझे पता चला कि एक दिन मेहनत रंग लाती है।

तो सर्जरी के बाद आप पूरी तरह ठीक हो गई?

जी। लंबे समय अस्पताल में रहने की वजह से मेरे भीतर एक जिद भी पैदा हुई कि मुझे जीतना है। मुझे साबित करना था कि मैं अन्य ऐक्टिव और फिट बच्चों जैसी ही हूं। स्कूल में होने वाले खेलों, डिबेट, ग्रुप डांस, थिएटर, पब्लिक स्पीकिंग.., हर गतिविधि और प्रतिस्पर्धा में मैं हिस्सा लेती थी और ट्रॉफीज लेकर घर लौटती थी। यह एक तरह से हेल्थ सर्टिफिकेट था कि मैं फिट हूं (सोचते हुए)।

यानी गेम्स की तरफ आपका रुझान बचपन से ही रहा?

हां। पापा आर्मी में थे, 12वीं तक तो मेरी पढाई सेंट्रल स्कूल में हुई। लेकिन इसके बाद सोफिया कॉलेज, अजमेर से ग्रेजुएशन  किया। वहां हॉस्टल में रही। फिर राजस्थान की क्रिकेट व बास्केटबॉल टीम जॉइन  की। इस बीच मुझे टू व्हीलर से प्यार हो गया। मेरे घर में एक लूना  थी, जिसे भाई से ज्यादा  मैं चलाती थी। फिर इस पर स्टंट भी शुरू हो गए। इसके बाद लोगों से बाइक  मांगनी शुरू कर दी। पेरेंट्स की सबसे बडी प्रॉब्लम यही थी कि मैं लोगों से बाइक  मांगती हूं।

शादी कैसे हुई? पति ने कितना सपोर्ट किया?

यह मजेदार  किस्सा है। मैं छुट्टियों में घर आई थी। तभी मैंने एक यंग आर्मी ऑफिसर को एक लेटेस्ट  बाइक  पर देखा। मैंने उनसे भी बाइक मांगी और चलाई। उन्होंने कॉम्पि्लमेंट  दिया, तुम तो बहुत अच्छी बाइक चलाती हो। मैंने जवाब दिया, शादी भी उसी से करूंगी, जो बाइक  देगा। वह अगले ही दिन घर आया और पापा से मेरा हाथ मांग लिया। यह 1989 की बात है। मैंने कॉलेज जॉइन किया ही था। साढे 19 साल की उम्र पूरी करते ही शादी हो गई और पति ने वादे के मुताबिक मुझे बाइक  दी। हम लोग खेलते, घूमते, बाइकिंग करते..।

फिर दोबारा ट्यूमर की प्रॉब्लम कैसे शुरू हुईं?

दूसरी प्रेग्नेंसी  के दौरान मुझे परेशानियां शुरू हुई। कमर में दर्द रहता था। हम ऊटी  गए थे, लेकिन वहां मुझे चलने में प्रॉब्लम  होने लगी। पैरों में ठंड से स्टिफनेस  आने लगी। मुझे लगा, फिजियोथेरेपी  करानी होगी। उसी समय कारगिल का युद्ध शुरू हो गया। पति वहां चले गए। मेरे हॉस्पिटल्स  के चक्कर शुरू हो गए। चेकअप्स से पता चला कि ट्यूमर  वापस आ गया है। मैं जानती थी कि पति को छुट्टी नहीं मिल सकती। यह 1999 की बात है। मई में जयपुर में एमआरआइ  हुआ। डॉ. सेठी ने बताया कि ठीक उसी जगह पर बडा सा ट्यूमर  बन चुका है। यह भी बताया कि इसकी सर्जरी मुश्किल होगी। तब तक दिल्ली का आर.आर. हॉस्पिटल्स  बन चुका था। उन्होंने मुझे दिल्ली जाने को कहा। तो दिल्ली आई। यहां डॉक्टर्स  ने बता दिया था सर्जरी के बाद निचला हिस्सा बेकार हो जाएगा और मैं चल नहीं सकूंगी.।

..बीमारी के दौरान कैसे सब कुछ अकेले संभाला?

मुझे सब कुछ अकेले करना था। दिल्ली से चेकअप कराकर लौटी। मेरी बेटियां सात और तीन साल की थीं। पेरेंट्स जयपुर में मेरे साथ थे। जयपुर लौटी और सारी चीजें व्यवस्थित कीं। बच्चों के टीचर्स से मिलकर उन्हें स्थिति समझाई। घर व्यवस्थित किया। मेड  की व्यवस्था की। कारगिल से तब तक कम्युनिकेशन ब्लॉक हो चुका था। पति को दो-तीन लंबे खत  लिखे कि अगर सर्जरी के बाद वापस न आ सकी तो वे कैसे घर संभालें..। मानसिक तौर पर मैं पति के बारे में ज्यादा  चिंतित थी। इसके कारण अपने दर्द से ध्यान हट गया था। अस्पताल  में रोज  कारगिल के घायल जवान आते थे, मैं पति के बारे में सोच कर ज्यादा  परेशान होती थी। सोचती थी, चाहे जैसे भी हो, मुझे बच्चों के लिए जीना है। पति लडाई में थे और कभी भी कोई खबर  आ सकती थी। मैंने खुद  को हर बुरी स्थिति के लिए तैयार कर लिया था।

..हॉस्पिटल में कितना समय बिताना पडा?

करीब 8-9  महीने। पापा साथ थे। पहली सर्जरी गलत हुई तो दूसरी और फिर तीसरी सर्जरी हुई। पति कारगिल में ही थे। जून का महीना था तो कुछ दिन बच्चे भी गर्मी की छुट्टी में मां के साथ दिल्ली आए। कंधे के पास लगभग 200-225  टांके थे। 45-48  दिन तक मशीन में थी। सर्जरी के तीन महीने बाद पति मुझे देखने आ सके। यह मेरी जिंदगी का सबसे मुश्किल दौर था। निचला हिस्सा सुन्न था। शरीर और इंद्रियों पर कंट्रोल नहीं था। नई स्थितियों के साथ एडजस्ट कर रही थी। लेकिन कई बार लोगों की नकारात्मक बातें मुझे हर्ट करती थीं। जैसे, मैं कैसे घर संभाल पाऊंगी या बच्चों की परवरिश कर पाऊंगी। कुछ लोग पति की दूसरी शादी की बात करते..। दूसरी ओर दवाओं के कारण गॉल ब्लैडर  में स्टोन हो गया तो ब्लैडर भी रिमूव  करना पडा। इसके अलावा मेरा बॉडी टेंपरेचर नॉर्मल नहीं रहता, मुझे उसे खुद मेंटेन रखना सीखना पडा। खानपान का ध्यान रखना पडा। कई प्रॉब्लम्स से जूझना पडा।

रिकवरी के इस दौर में पति साथ रह सके?

सर्जरी के लगभग एक साल बाद मेरे पति विक्रम साथ आ सके। 8-9 महीने हॉस्पिटल में थी। लडाई खत्म  होने के बाद विक्रम ने जयपुर पोस्टिंग ली। लेकिन उनकी यूनिट झांसी चली गई और हम फिर दूर हो गए। फिर एक साल उनके बिना रही। आर्मी में सेपरेटेड फेमिली क्वार्टर्स की व्यवस्था होती है। लोग पूछते, आपके पति साथ नहीं रहते? मैंने किसी से कहा कि हम सेपरेटेड फेमिली हाउस में रहते हैं तो मुझे सुनने को मिला कि पति ने मुझे छोड दिया है। वर्ष 2001 में पति के साथ शिफ्ट हुई, मगर दिसंबर में संसद में फायरिंग हुई। फिर पराक्रम घोषित हुआ, विक्रम वापस बॉर्डर चले गए। ख्ौर, तब तक मैं कंफर्ट जोन से बाहर निकल चुकी थी। आर्मी लाइफ ने मुझे इस तरह जीना सिखा दिया। बच्चे, पेट्स,  घर की चीजें अकेले मैनेज कीं..।

आप व्हील चेयर पर थीं, ऐसे में दिक्कत तो होती होगी?

थोडी मुश्किल तो हुई, लेकिन मैंने कंप्यूटर सीखा, इंटरनेट कनेक्शन लिया, नेट-बैंकिंग सीखी। गैजेट्स इस्तेमाल किए। इंटरनेशनल सपोर्ट ग्रुप्स जॉइन किए, जहां मुझे जरूरी सलाहें मिलीं। रेफ्रिजरेटर-माइक्रोवेव का इस्तेमाल शुरू किया। आसपास लोग बोलते थे, ये तो अपने बच्चे को खाना भी नहीं खिला सकती। मैं खाना एक दिन एडवांस तैयार रखती थी..। शायद ये सारे काम नॉर्मल रहते हुए नहीं सीख पाती।

इस दौरान ससुराल वालों का कितना सपोर्ट मिला?

उनका सपोर्ट फिजिकली  तो ज्यादा नहीं मिला। यह तब मिला जब मैं उनके साथ अहमदनगर आई, लेकिन उन्होंने मेरी जिंदगी  में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। उनका अटूट भरोसा था मुझ पर कि दीपा कर सकती है और उसे अपने ढंग से जीने दो..। सिंपेथी न दिखाते हुए आत्मनिर्भर बनने का मौका दिया उन्होंने मुझे।

आज जिस मुकाम पर हैं, वहां तक कैसे पहुंच सकीं?

मेरे पति ने वर्ष 2002 में पोस्टिंग ली तो हम अहमदनगर आ गए और मैं सास-ससुर के पास रहने लगी। वहां मैंने देखा कि ऐसे कई आर्मी ऑफिसर्स  थे जो देर रात तक पढते थे। आर्मी मेस 10-11  बजे तक बंद हो जाता था। मुझे लगा कि क्यों न फूड काउंटर खोला जाए। हमारे घर के पास ही हमारी एक खाली जमीन  भी थी। कुछ कर्मचारी आते थे कि उनके बच्चों को सेना में भर्ती करा दूं। मुझे लगा कि ये बच्चों को पढाते क्यों नहीं हैं! तब मैंने उन्हें पढाना शुरू किया। दिन में वे स्कूल-कॉलेज जाते, रात में मेरे लिए होम डिलिवरी करते थे। मेरा फूड कॉर्नर हिट हो गया। चर्चा हुई, मेरा प्रोजेक्ट अखबारों  में आया तो काम बढ गया। मेरे साथ आर्मी के दो रिटायर्ड कुक्स थे। काम बढा तो ज्यादा कुक्स रखने पडे। होम डिलिवरी काउंटर गार्डन रेस्टरां  बन गया। रोज  रात में डेढ-दो सौ लोग खाते थे। करीब 40-50  होम डिलिवरी होती थीं। आर्मी क्लब की कैटरिंग मिलने लगी। जो लोग मुझे संदेह से देखते थे कि मैं बच्चों को सही ढंग से नहीं पाल पाऊंगी, वे भी अपने बच्चों की बर्थ डे  पार्टी का कॉन्ट्रेक्ट  मुझे देने लगे। मुझे स्वावलंबन पुरस्कार मिला। ..इस बीच बाइक्स-प्रेम फिर जागा। आर्मी ऑफिसर्स बाइक्स  में आते थे। उन्होंने कहा कि मैं फिर से बाइक चला सकती हूं। तो मैंने इंटरनेट सर्च शुरू किया कि मेरे लिए कैसी बाइक अच्छी रहेगी, उसमें क्या मोडिफाइ कर सकती हूं। खैर., सात वर्षो में 80-85 बच्चों की जिंदगी  मैंने बदली। रेस्टरां भी काफी अच्छा चल रहा था..।

फूड कॉर्नर से पैरा-ओलंपिक्स की ओर कैसे बढ गई?

छोटी बेटी स्विमिंग से डरती थी, मैं उसे हौसला देने के लिए पानी में उतरी। तब मुझे लगा, मैं तैर सकती हूं। फिर महाराष्ट्र के पैरा-ओलंपिक कैंप से किसी ने मुझसे कहा कि अगर मैं स्विमिंग करूं तो यह मेरे वर्ग के लिए अलग बात होगी। शादी से पहले स्टेट लेवल तक बास्केटबॉल खेला था। यह 2006 की बात है। स्विमिंग में सिल्वर मेडल भी मिला, लेकिन लंबे समय तक उसे जारी नहीं रख सकी, क्योंकि ठंडे पानी में ज्यादा रहने से मुझे स्ट्रोक पड सकता था। भारत में चेंजिंग रूम्स भी विकलांगों के हिसाब से डिजाइन नहीं होते। मैं हारे हुए व्यक्ति की तरह स्विमिंग नहीं छोडना चाहती थी। मैंने कोच से कहा- मैं चाहती हूं कि लोग मेरा नाम याद रखें। मैंने इलाहाबाद में गंगा नदी को बहाव के विपरीत तैर कर पार किया और लिम्का बुक में नाम दर्ज कराया..।

2009 में एथलेटिक्स का सिलसिला शुरू हुआ। मैंने 39 की उम्र में जेवलिन और शॉट पुट पकडना सीखा और मेडल जीता। वही मेडल मुझे कॉमनवेल्थ गेम्स तक लाया। यह मेरे लिए सुनहरा मौका था। मुझे लंदन जाने का मौका मिला। वहां इंटरनेशनल एक्सपोजर  मिला। पता चला कि मेरी व‌र्ल्ड  रेंकिंग दो  है। यह बात मेरे लिए बहुत बडी थी।

कभी किसी भेदभाव का भी सामना करना पडा?

मैं तीन महीने कॉमनवेल्थ विलेज में रही। बहुत कुछ सीखा, मगर कई सवाल भी पैदा हुए। कॉमनवेल्थ के बाद सारे खिलाडी कैंप गए, मगर हम विकलांग खिलाडियों को घर जाने को कहा गया। मुझे बुरा लगा। मैं एशियन गेम्स के लिए क्वॉलिफाइड थी। मैंने इसका विरोध किया। घर जाकर मैं ट्रेनिंग कैसे कर सकती थी! मैंने मंत्रालय और गेम्स फेडरेशन के दरवाजे खटखटाने शुरू किए। इसके बाद मुझे फाइव ईयर प्लानिंग कमीशन का सदस्य बनाया गया। पहले मंत्रालय से झगडा था, उन्होंने सारी चीजें स्पष्ट की, फिर सरकार ने भी नीतियां बनाई लेकिन फेडरेशन में आकर मामला अटक गया।

इस पूरे दौर में आपकी बेटियों ने कैसे सब कुछ मैनेज किया?

बेटियां समझदार हैं। बडी देविका  23  वर्ष की है, अंबिका 19 वर्ष की। वे बचपन से आत्मनिर्भर हैं। देविका मेरे साथ है। वह पुणे से दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढने आई। छोटी पापा के साथ है। कॉमनवेल्थ गेम्स में बडी बेटी मेरी ऑफिशियल  एस्कॉर्ट  थी, पर उसकी पढाई प्रभावित हो रही थी। फिर प्रतीक जुडे, अब वही असिस्ट  करते हैं। वर्ष 2010  में कॉमनवेल्थ के लिए मैं दिल्ली आई। पति ने वीआरएस ले लिया और रेस्टरां संभालने लगे। लेकिन एक आर्मी ऑफिसर के लिए यह बडा पेचीदा काम था। आखिर रेस्टरां को बंद करना पडा। 3-4 साल मुश्किलें रहीं। अब वे महाराष्ट्र में कॉरपोरेट  जॉब में हैं। जब तक एशियन गेम्स खत्म  होगा, शायद वे दिल्ली मूव कर जाएंगे।

अकेले यात्रा और अन्य काम हैंडल करने में परेशानी नहीं हुई?

हां। मेरे लिए यह बडा अजीब था कि मुझे हमेशा पुरुष असिस्टेंट के साथ ट्रेवल करना पडता था। फिर मुझे लगा कि इस डिसएबिलिटी  में भी हम अपने शरीर को मैनेज कर सकते हैं। मुझे लोगों से भी मदद लेनी पडती है। मदद लेने में हिचक कैसी! मैं कार ड्राइव करती हूं, उसे अपने हिसाब से डिजाइन  कराया है। मैं मोटिवेशनल स्पीकर भी हूं।

आपकी यह फाइटिंग स्पिरिट बेटियों में भी है?

बिलकुल। (हंसते हुए) मुझे समझ नहीं आता कि मैंने उन्हें बडा किया या उन्होंने मुझे। बेटियां कहती हैं, मां तो सब कुछ कर सकती है..।

दीपा, अपनी पहचान बनाने का एहसास कैसा है आपके लिए?

मेरे लिए यह बहुत सुखद एहसास है कि लोगों को प्रेरित कर रही हूं। मुझे कोई रोल मॉडल नहीं मिला, लेकिन मैं चाहती हूं कि लोगों को मेरे जरिये रोल मॉडल मिले। मुझे हरियाणा की मलिक खाप ने गदा दिया, यह कहते हुए कि आपने जीवन के अखाडे में शानदार प्रदर्शन किया है। मेरे पास आज 11  अंतरराष्ट्रीय पदक हैं।

हमारी पत्रिका के पाठकों को क्या संदेश देना चाहेंगी?

यही कहूंगी कि लोग आपको उसी नजर  से देखते हैं, जिस नजर  से आप खुद  को देखते हैं। इसलिए पहले अपनी नजर में अच्छा बनें।

ईश्वर में आस्था रखती हैं?

हां, मुझे अध्यात्म पर विश्वास है। प्रार्थना के दो तरीके हैं। कुछ लोग कहते हैं, हमने बुरे कर्म किए होंगे, इसलिए सजा  मिली। मगर अध्यात्म का सकारात्मक पक्ष कहता है, जो हो रहा है-अच्छा हो रहा है। शरीर तो नश्वर है। इसे खत्म  होना है, किसी का पहले तो किसी का बाद में। कोई शक्ति है, जो हमें बचाए हुए है। अध्यात्म से मुझे सकारात्मक सोच मिलती है। मुझे लगता है, मेरी लाइफ तो बोनस है, मैं इसे एंजॉय  करती हूं।

सखी की संपादक प्रगति गुप्ता


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