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हौसले से छाई हरियाली

ग्रीन लेडी के नाम से मशहूर बिहार की जया देवी ने अपने गांव की बंजर ज़मीन पर हरियाली लाकर यह साबित कर दिखाया है कि अगर मन में हौसला हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है। यह सब कैसे संभव हुआ, आइए जानें उन्हीं की ज़ुबानी।

By Edited By: Published: Fri, 29 Apr 2016 03:11 PM (IST)Updated: Fri, 29 Apr 2016 03:11 PM (IST)
हौसले से छाई हरियाली

जब कोई मुझसे पूछता है कि आप दिन-रात इतनी मेहनत क्यों करती हैं तो मेरा यही जवाब होता है कि मैं कोई अनूठा काम नहीं कर रही। मुझे तो बस अपने गांव की मिट्टी से प्यार है और उसे बचाने के लिए हमेशा जी जान से जुटी रहूंगी।

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बचपन में छिन गईं खुशियां

मेरा जन्म मुंगेर जिले के सराधी गांव में एक किसान परिवार में हुआ था। मुझे बचपन से ही पढऩे का बहुत शौक था लेकिन हमारे गांव में लडकियों को पढाने का रिवाज नहीं था। फिर भी मेरे पिताजी ने गांव के एक प्राथमिक विद्यालय में मेरा दाख्िाला करवा दिया। वहां सिर्फ पांचवीं कक्षा तक ही पढाई की सुविधा थी। मैं आगे पढऩा चाहती थी, लेकिन गांव के दबंगों के विरोध की वजह से मेरी पढाई बीच में ही छूट गई। फिर बारह साल की उम्र में ही मुझसे दोगुने उम्र के व्यक्ति से मेरी शादी करवा दी गई। यह सन 1990 की बात है। वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था। इस बीच मैं दो बेटियों और एक बेटे की मां बन चुकी थी और मेरे पति रोजगार की तलाश में अपने किसी रिश्तेदार के साथ गांव छोड कर शहर चले गए। इसी बीच मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया और मेरी मां छोटी बहन के साथ बिलकुल अकेली पड गई थीं। इसलिए मैं अपने बच्चों के साथ मायके वापस आ गई और यहीं रहने लगी। यहां का माहौल अब भी नहीं बदला था। गरीबों के शोषण और मासूम लडकियों के साथ दुव्र्यवहार की घटनाएं अकसर होतींं, पर डर के मारे कोई भी आवाज नहीं उठा पाता।

आशा की एक किरण

एक बार मैं अपने बीमार बच्चे के लिए दवा लेने गांव से थोडी दूर स्थित स्वास्थ्य केंद्र में गई। वहां मेरी मुलाकात सिस्टर आजिया से हुई और बातचीत के दौरान मैंने उन्हें अपने गांव की समस्याओं से अवगत कराया। उन्होंने मुझसे कहा कि किसी न किसी को बदलाव की शुरुआत तो करनी ही पडेगी। तुम कोशिश करके देखो, फिर लोग तुम्हारा साथ देंगे। अगर पूरे गांव की स्त्रियां साथ मिलकर यहां की समस्याओं को दूर करने की कोशिश करेंगी तो उन्हें निश्चित रूप से कामयाबी मिलेगी। उनकी बातों में मुझे उम्मीद की एक किरण नजर आई और मैंने उसी वक्त यह ठान लिया कि अब मैं चुप नहीं बैठूंगी।

उठाया पहला कदम

इस दिशा में मेरा पहला कदम था, गांव की स्त्रियों में मौजूदा समस्याओं के प्रति जागरूकता पैदा करना। मैं अपने गांव के लिए काम तो करना चाहती थी, लेकिन मेरे पास इसका कोई अनुभव नहीं था। इसलिए मैंने एक स्वयंसेवी संगठन से 15 दिनों की ट्रेनिंग ली। तब मेरी छोटी बेटी मात्र डेढ माह की थी, फिर भी मैं उसे उसकी नानी के पास छोड कर ट्रेनिंग के लिए हजारीबाग चली गई क्योंकि तब मेरा एकमात्र सपना यही था कि मुझे अपने गांव को अशिक्षा और गरीबी के अंधकार से बाहर निकालना है। इस तरह मेरा काम शुरू हो गया। मैं सुबह चार बजे उठ जाती और घर की सफाई और चूल्हे-चौके का सारा काम निबटाकर सात बजे से ही गांव की स्त्रियों से वहां की समस्याओं के बारे में बातचीत करने निकल पडती थी। रोजाना बारी-बारी से हर घर का दरवाजा खटखटाती, पर स्त्रियां घूंघट से बाहर निकलने को तैयार नहीं थीं। कई बार तो मुझे देखते ही अपना दरवाजा बंद कर लेती थीं, पर मैं भी हिम्मत हारने वालों में से नहीं हूं। मैं उनकी चौखट पर बैठकर उनके दोबारा बाहर निकलने का घंटों इंतजार करती। फिर जब वे सामने आतीं तो मैं उन्हें समझाती कि यह सब मैं किसी निजी स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि अपने गांव की भलाई के लिए कर रही हूं। इसी बीच मैंने दो गाएं खऱीदीं और उनका दूध बेचकर घर का ख्ार्च चलाने लगी और उसी सीमित आमदनी में से कुछ बचा भी लेती थी। उसी दौरान मेरे मन में यह ख्ायाल आया कि इसी तरह गांव की दूसरी स्त्रियां भी आत्मनिर्भर बन सकती हैं। धीरे-धीरे उन्हें भी मेरी यह बात समझ आने लगी थी कि आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए हमें ख्ाुद ही कोशिश करनी होगी।

बचत की शुरुआत

इस तरह अपने ही जैसी गांव की दूसरी स्त्रियों के साथ मिलकर मैंने दस-दस स्त्रियों को संगठित करके 16 स्वयं सहायता समूह तैयार कर लिए। गांव की घोर गरीबी में बचत की बात करना बहुत मुश्किल है। मैंने उन्हें समझाया कि जैसे शहर के लोगों के पास एटीएम कार्ड होता है, उसी तरह आकस्मिक जरूरतों के लिए हमारे पास भी अपना कोई बैंक होना चाहिए, जिससे हम जब चाहें पैसे निकाल सकें। फिर मैं उन्हें बहुत सरल ढंग से बचत के कई तरीके बताने लगी। मसलन उनसे कहा कि रोजाना सुबह-शाम भोजन पकाने के लिए आप जो भी सामग्री निकालती हैं, प्रतिदिन उसमें से एक या दो मुट्ठी अनाज निकाल कर एक अलग बर्तन में रखती जाएं। इस तरह महीने के अंत में आपके पास लगभग एक सप्ताह का राशन बच जाएगा। ध्यान रखें कि परिवार का कोई भी सदस्य थाली में जूठन न छोडे। शुरुआत में मैंने उनसे कहा कि आप लोग अपने ख्ार्च में से कटौती करके सप्ताह में कम से पांच रुपये जरूर बचाएं। इस तरह महीने के अंत में आपके पास बीस रुपये जमा हो जाएंगे। फिर मैंने स्त्रियों को कहा कि वे आपस में पैसे मिलाकर एक छोटी संदूक और एक ताला-चाबी ख्ारीद लें और बचत के सारे पैसे उसी में जमा करें। इस तरह आकस्मिक जरूरतों के लिए हम लोगों के पास प्रतिमाह लगभग 20,000 रुपये की बचत होने लगी। अब हम इस बचत का 10 प्रतिशत हिस्सा अपनी तात्कालिक जरूरतों के लिए स्वयं सहायता समूहों में रखकर बाकी रकम बैंकों में जमा करा देते हैं। हमारे इस सामूहिक प्रयास की बदौलत आज गांव की ज्य़ादातर मेहनतकश स्त्रियों के पास बैंक में दो-तीन लाख रुपये जमा हो चुके हैं।

इसी तरह हमारे गांव में जिन्होंने पांचवीं-छठी कक्षा तक भी पढाई की है, मैंने उनसे आग्रह किया कि वे अपने आसपास के लोगों को साक्षर बनाने का काम करें। इससे समाज में एकजुटता स्थापित होगी।

सफल साक्षरता अभियान

गांव की सभी स्त्रियों में हमारे इस अभियान में बडे उत्साह से हिस्सा लिया। अब मेरे गांव की स्त्रियों को अंगूठा लगाने की जरूरत नहीं पडती। इसी तरह हमने अखबारों में विज्ञापन देकर शहरवासियों से आग्रह किया कि वे अपने बच्चों की पुरानी किताबें और पेन-पेंसिल जैसी चीजें कबाड में बेचने के बजाय हमारे गांव के बच्चों के लिए भेज दें, इसके बाद हमारे पास बच्चों की शिक्षा से जुडी ये सारी चीजें आने लगीं। शिक्षा के प्रसार से गांव में सेहत के प्रति जागरूकता आने लगी, पर अंधविश्वास की वजह से लोग गर्भवती स्त्रियों को टिटनेस का टीका नहीं लगवाते थे, बच्चों को पोलियो ड्रॉप नहीं पिलाते थे। किसी भी बीमारी को भूत-प्रेत या जादू-टोने का असर समझकर इलाज के बजाय झाड-फूंक करवाते थे, पर हमारे निरंतर प्रयास से गांव के लोगों में जागरूकता आने लगी है। अब वे ऐसे अंधविश्वासों के झांसे में नहीं आते। आज हमारे गांव की हर लडकी ख्ाुद साइकिल चलाकर स्कूल जाती है और हमारी एकजुटता की वजह से कोई भी दबंग उन्हें रोकने का दुस्साहस नहीं करता।

बदल गई तसवीर

इसी दौरान मेरी मुलाकात एग्रीकल्चर टेक्नोलॉजी मैनेजमेंट एजेंसी के गवर्निंग मेंबर किशोर जायसवाल से हुई और उनकी सलाह पर मैंने रेन वॉटर हार्वेस्टिंग की ट्रेनिंग ली और लोगों से आग्रह किया कि वे इस कार्य में मेरे साथ श्रमदान करें। किशोर जायसवाल इस अर्थ में मेरे मेंटर है। बेकार पडी बंजर जमीन से अब हम साल में दो फसलें उगा लेते हैं। समय कैसे बीत जाता है, इसका हमें पता ही नहीं चलता। अब तो बी.ए.फस्र्ट ईयर में पढऩे वाली मेरी बडी बेटी जूली भी मेरे साथ काम करती है। उसकी मदद से मैंने कंप्यूटर का भी इस्तेमाल सीख लिया है। यह देखकर ख्ाुशी होती है कि इस काम के लिए मैं घर से अकेली निकली थी, लेकिन एक-एक करके लोग साथ जुडते गए और देखते ही देखते पूरे गांव की तसवीर बदल गई।

पर्यावरण की पहरेदार

जया ने अपने गांव में पहाडों से बहने वाले पानी को एकत्र करके छह वॉटर शेड्स का निर्माण किया है। उनके इस प्रयास से पांच हजार हेक्टेयर क्षेत्र की बंजर भूमि की सिंचाई होती है। अब वहां साल में दो बार रबी और खरीफ फसलों की अच्छी पैदावार हो रही है। मात्र पांचवीं पास जया ने इस कार्य के लिए बकायदा रेन वाटर हार्वेस्टिंग की ट्रेनिंग ली है। आज कई विश्वविद्यालयों में उन्हें बतौर मोटिवेशनल स्पीकर आमंत्रित किया जाता है। इन प्रयासों के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय युवा पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है।

प्रस्तुति : विनीता


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