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क्या कहना है इनका

आजादी शब्द सुनते ही हमारे तन-मन में खुशी की लहर सी दौड़ जाती है। इस शब्द का अर्थ इतना व्यापक है कि हर इंसान इसकी व्याख्या अपने ढंग से करता है। आज देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के 64 वषरें बाद विभिन्न क्षेत्रों की मशहूर शख्सीयतें इस विषय पर क्या सोचती हैं, यही जानने की कोशिश की गई है यहां।

By Edited By: Published: Wed, 22 Aug 2012 02:51 PM (IST)Updated: Wed, 22 Aug 2012 02:51 PM (IST)
क्या कहना है इनका

हर कदम पर हैं बंदिशें

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अद्वैता काला, पटकथा लेखिका

मैं जिस क्षेत्र में हूं, वहां पूरी तरह पुरुषों का वर्चस्व है। कहानी फिल्म की पटकथा लिखने के दौरान मैंने यह महसूस किया कि यहां अपनी पहचान कायम करने के लिए खुद  को बहुत ज्यादा  रफ-टफ बनाना पडता है, खास  तौर से ऐसी लडकियों को, जिनकी पहले से यहां कोई जान-पहचान नहीं होती। आज आजादी के 64 वर्षो बाद भी स्त्री की स्थिति में कोई ज्यादा सुधार नहीं आया है। उस पर कई तरह की बंदिशें हैं। सबसे दुखद बात तो यह है कि कन्या भ्रूण हत्या जैसी घटनाएं तेजी से बढ रही हैं। लडकियों को अपने जीवन से जुडे छोटे-छोटे मामलों में भी निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। आज भी हमारे देश में हर स्तर पर स्त्रियों के साथ भेदभाव किया जाता है। जहां तक आजादी की परिभाषा की बात है तो यह जीवन स्थितियों पर भी निर्भर करता है। हर इंसान के लिए आजादी के अलग मायने होते हैं और वह अपने ढंग उसकी व्याख्या करता है। मेरे लिए आजादी का मतलब है कि हमें अपनी जिंदगी से जुडे सभी निर्णय लेने और विकल्प चुनने की पूरी आजादी हो। मुझे ऐसा लगता है कि हमें स्व-अनुशासन का पालन करते हुए खुद अपनी आजादी की सीमाएं निर्धारित करनी चाहिए, तभी व्यक्ति के साथ देश और समाज का भी विकास संभव होगा।

भ्रष्टाचार से नहीं मिली आजादी

संदीप नाथ, गीतकार

मेरा मानना है कि जिंदगी को जी भर के जीना ही असली आजादी है, पर हमें इस बात का खयाल  जरूर रखना चाहिए कि हमारी आजादी से किसी और की जिंदगी में खलल न पडे। आजादी का इस्तेमाल समाज की बेहतरी के लिए होना चाहिए। जहां तक मन की आजादी का सवाल है तो हमें यह तभी मिलेगी, जब लोगों में भ्रष्टाचार और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता आएगी। देश भले ही वर्षो पहले आजाद हो गया हो, लेकिन भ्रष्टाचार जैसी सामाजिक बुराई से हम अभी तक आजाद नहीं हो पाए। सबसे दुखद स्थिति तो यह है कि जब कोई इन बुराइयों का अंत करने का बीडा उठाता है तो हर तरफसे आलोचना करके उसकी छवि बिगाडने की कोशिश की जाती है। अन्ना का आंदोलन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इसके अलावा गांव और छोटे शहरों में रहने वाला आज का आम आदमी व्यवस्था की बुराइयों के बोझ तले खुद को दबा-कुचला महसूस करता है। असली आजादी पाने के लिए उसे खुद पहल करनी होगी।

बुनियादी सुविधाओं से वंचित है आम आदमी

डॉ. पी. के. दवे, पूर्व निदेशक, एम्स

मेरे लिए आजादी का मतलब है कि हम मौलिक अधिकारों का सही इस्तेमाल करके स्वस्थ और शिक्षित बनें, पर अफसोस की बात यह है कि देश की आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भी यहां के आम आदमी को सही मायने में आजादी नहीं मिली है। उसे स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिल पातीं। दूर-दराज के गांवों में स्त्रियों की दशा और भी दयनीय है। जबकि देश के विकास के लिए स्त्री का स्वस्थ और शिक्षित होना बहुत जरूरी है। आजादी के साथ हमारी जिम्मेदारियां भी जुडी होती हैं। हम सभ्य समाज में रहते हैं और इसकी बेहतरी के लिए आजादी की सीमा निर्धारित करना बहुत जरूरी है।

आज भी गुलाम है शिक्षा व्यवस्था

गीता चंद्रन, भरतनाट्यम नृत्यांगना

बात विचारों की अभिव्यक्ति की हो या क्रिएटिविटी  की, अन्य देशों के मुकाबले भारत में हर इंसान को अपने ढंग से आगे बढने और भावनाएं अभिव्यक्त करने की ज्यादा आजादी है, लेकिन देश की शिक्षा व्यवस्था आज भी गुलाम मानसिकता से जकडी हुई है। नतीजतन यहां से पढाई पूरी करने के बाद हमारे बच्चे पूरी तरह भारतीय नहीं रह जाते। आजादी के बाद हमने शिक्षा व्यवस्था के पश्चिमी मॉडल को अपनाया जबकि रवींद्र नाथ टैगोर  और रुक्मिणी देवी अरुडेल  जैसे विद्वानों ने ऐसी शिक्षा व्यवस्था का ढांचा तैयार किया था, जो यहां के विद्यार्थियों को हर क्षेत्र में आगे ले जाने के साथ उन्हें अपनी संस्कृति से भी जोड कर रखता, पर अफसोस कि उस पर अमल नहीं किया गया।

मन से आजाद नहीं हैं हम

स्नेह गंगल, चित्रकार

मेरे लिए आजादी का मतलब है अपने अधिकारों का सकारात्मक ढंग से इस्तेमाल करते हुए जीवन के हर मोर्चे पर आगे बढना, लेकिन कलाकार होने के नाते मैं स्वयं को पूरी तरह आजाद महसूस नहीं करती। कला की साधना से मन को सुख जरूर मिलता है, पर जब कला के जरिये आजीविका चलाने की बात आती है तो हम कलाकारों पर बाजार का दबाव बढ जाता है। अपनी पेंटिंग्स  बनाते समय हमें खरीदने  वालों की रुचियों का ज्यादा  खयाल  रखना पडता है। कई बार हम चाह कर भी अपनी पसंद की कलाकृति तैयार नहीं कर पाते। यह हमारे लिए बेहद असमंजस भरी स्थिति होती है। कई बार इससे मन तनावग्रस्त हो उठता है। खुद को ऐसी परेशानी से बचाने के लिए मैं 30  प्रतिशत पेंटिंग्स  सिर्फ अपनी खुशी  के लिए बनाती हूं। बाद में अगर वह नहीं भी बिकतीं तो कोई अफसोस नहीं होता। मुझे ऐसा लगता है कि क्रिएटिव  लोगों को कल्पना और यथार्थ के बीच संतुलन बनाकर चलना चाहिए। देश भले ही बहुत पहले आजाद हो गया था, लेकिन हम आज भी मन से आजाद नहीं हैं। अंधविश्वासों और सामाजिक बुराइयों की जंजीरों से हम अभी तक मुक्त नहीं पाए हैं। खास तौर पर हम स्त्रियों को इसके लिए बहुत लंबा संघर्ष करना पडेगा।

प्रस्तुति : विनीता एवं रतन


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