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मशीन नहीं बनना चाहती : तापसी पन्नू

मीठी मुस्कान व ताजगी भरे चेहरे वाली तापसी ने साउथ की फिल्मों से एंट्री मारी और अब बॉलीवुड में धमाल दिखा रही हैं। हमेशा खुद को खुश रखने की कोशिश करती हैं। उनका मानना है कि जिंदगी में कुछ भी इतना तकलीफदेह नहीं कि जीना मुहाल हो जाए।

By Edited By: Published: Wed, 25 Mar 2015 12:37 AM (IST)Updated: Wed, 25 Mar 2015 12:37 AM (IST)
मशीन नहीं बनना चाहती : तापसी पन्नू

मीठी मुस्कान व ताजगी भरे चेहरे वाली तापसी ने साउथ की फिल्मों से एंट्री मारी और अब बॉलीवुड में धमाल दिखा रही हैं। हमेशा खुद को खुश रखने की कोशिश करती हैं। उनका मानना है कि जिंदगी में कुछ भी इतना तकलीफदेह नहीं कि जीना मुहाल हो जाए।

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तापसी कहती हैं कि खुशी तो अपनी पसंद की चीज है। मेरे पास खुश रहने के सौ बहाने हैं। मैं क्यों दुखी रहूं? फिल्म इंडस्ट्री में जबर्दस्त प्रतियोगिता और होड है। हम सब इसी होड में लगे रहते हैं कि कुछ ऐसा करें कि चार साल बाद खुश हो सकें। ऐसे लोग चार साल बाद भी खुश नहीं रहते। वे उस समय पांच साल बाद की खुशी के जतन में लगे रहते हैं। जिंदगी कभी समाप्त नहीं होती। यह सोचना ठीक नहीं है कि मुझे ये नहीं मिला, वो नहीं मिला। मेरा मानना है कि जो मिला है, उसे एंजॉय करना चाहिए।

जेबखर्च के लिए मॉडलिंग

मैंने पॉकेट मनी के लिए माडलिंग करनी शुरू की थी। तब नहीं सोचा था कि कभी फिल्मों में जाऊंगी। मुझे लगता था कि मैं ड्रामा नहीं कर सकती। बहुत पहले कैट की परीक्षा क्लीयर नहीं कर पाने के बाद ही मैंने तय कर लिया था कि अब इसके बारे में सोच-सोच कर अपना जीवन खराब नहीं करूंगी। अच्छी बात है कि मां-पिता की तरफ से कभी पैसे कमाने का दबाव नहीं रहा। यही वजह है कि ख्ााली रहने पर भी मैं बेचैन नहीं होती। फिल्म इंडस्ट्री में अधिक संपर्क नहीं है, इसलिए उनकी तरफ से भी दबाव नहीं आता। मैं मशीन नहीं बनना चाहती। फिल्मों के अलावा भी जिंदगी है। मुझे अपने रोल के लिए काफी मेहनत करनी पडती है। डायरेक्टर और रायटर से बात कर के खुद को उस किरदार के लिए तैयार करती हूं। मैं खुद को किरदार में ढाल देती हूं। नैचरल अभिनय करती हूं। यही कारण है कि लोग कहते हैं, मैं नैचरल एक्ट्रेस हूं।

खेल का शौकमैं समय मिलने पर स्कवैश खेलती हूं। मुझे जिम पसंद नहीं। बचपन से खेलने की शाकीन रही हूं। एक उम्र के बाद लडकियां घरों में बंद हो जाती हैं। उन पर दबाव रहता है और उन्हें समझाया जाता है कि वे लडकों से अलग हैं। मुझे कभी ऐसे नहीं पाला गया। मैं लडकों के साथ खेलती थी तो कॉलोनी की आंटियों ने अपनी बेटियों को मुझ से दूर कर दिया। वे सोचती थीं कि मैं उनकी बेटियों को खराब कर दूंगी। लेकिन अब मेरी पहचान के साथ उनकी मेरे प्रति धारणा बदल गई। मुझे एहसास हुआ कि अपने काम से मैंने कुछ हासिल कर लिया है।

नहीं भूलूंगी इन्हें

मैं ऐसे लोगों को कभी नहीं भूलती, जिन्होंने मेरी संभावनाओं को देखा और माका दिया। मुझे अमित राय ने एक फिल्म दी, जिसमें मेरा अहम किरदार है। वह फिल्म पूरी हो चुकी है। मैं 'रनिंगशादी डॉट कॉम' की बात कर रही हूं। अमित राय की अगली फिल्म 'आबरा का डाबरा' भी कर रही हूं। एक प्रसंग बताती हूं। फिल्म 'चश्मेबद्दूर' के बाद एक कहानी पर सिटिंग चल रही थी। एक संवाद लेखक थे। मैंने उन्हें टोक दिया था तो वे बुरा-भला कहने लगे थे। यह 'बेबी' रिलीज होने के पहले की बात थी। बेबी देखने के बाद उन्होंने बधाई भेजी कि मैंने अच्छा काम किया है। मैं शब्दों से जवाब नहीं देती। अपने काम से जवाब देती हूं।

आत्मनिर्भर बनें

मैं लडकियों को यही कहूंगी कि शिक्षा हासिल करें और आत्मनिर्भर होने की कोशिश करें। मेरी मम्मी ने अभी अंग्रेजी की पढाई शुरू की है। सीखने और पढऩे की कोई उम्र नहीं होती। खुद पढें और बच्चों को पढाएं। रसोई और घर में ही जिंदगी नहीं बिताएं। यह परवाह न करें कि लोग क्या सोचेंगे? आप की जिंदगी है। जैसे चाहे जिएं।

प्रस्तुति : अजय ब्रह्मात्मज


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