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उम्मीद की एक किरण

बाधाएं तो एक बहाना हैं, बुजदिलों के लिए। मन में आगे बढऩे के जज्बा हो तो राह अपने आप बन जाती है

By Edited By: Published: Mon, 06 Jun 2016 02:54 PM (IST)Updated: Mon, 06 Jun 2016 02:54 PM (IST)
उम्मीद की एक किरण

परिवार की सबसे छोटी बेटी होने की वजह से मैं सबकी लाडली थी। दिन भर उधम मचाना और दोस्तों के साथ मिलकर रोज नई शरारतें करना मेरा प्रिय शगल था। मम्मी-पापा के अलावा मुझे अपने दोनों बडे भाइयों और दीदी का भी भरपूर प्यार मिला है।

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बचपन के वो दिन

दरअसल जन्म से ही मेरी बायीं आंख स्क्विंटेड थी। मम्मी राजस्थान सरकार में विमेन एंड चाइल्ड डेवलपमेंट ऑफिसर रह चुकी हैं। कई बार काम के सिलसिले में उन्हें गांवों का दौरा करना पडता तो वह मुझे भी अपने साथ ले जातीं। मुझे देखकर गांव की स्त्रियां अकसर मम्मी से कहतीं कि आजकल ऑपरेशन से नजऱों का तिरछापन आसानी से दूर हो जाता है। फिर आप पढी-लिखी होकर भी ऐसी लापरवाही क्यों कर रही हैं? लगातार लोगों की ऐसी बातें सुनकर मेरे पेरेंट्स ने इस ऑपरेशन के बारे में पता लगाना शुरू किया तो जयपुर के डॉक्टर्स ने भी कहा कि सर्जरी के बाद यह समस्या दूर हो जाती है। फिर मेरे पेरेंट्स यह सोचकर मुझे दिल्ली ले गए कि वहां उपचार की अच्छी सुविधा होगी।

सर्जरी में हुई चूक

वहां जब एक सीनियर आई स्पेशलिस्ट को दिखाया गया तो उन्होंने बताया कि मेेरी बायीं आंख में ग्लूकोमा की भी समस्या है, जो गंभीर रूप धारण कर चुकी है। उसे हटाने के लिए तत्काल सर्जरी की जरूरत होगी। फिर मेरी उसी आंख की दो बार सर्जरी हुई पर कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि उसकी वजह से मेरी दूसरी आंख में भी इन्फेक्शन हो गया और दोनों आंखों की दृष्टि चली गई। इसके बाद किसी ने पापा को दिल्ली के ही आई स्पेशलिस्ट डॉ. एम. एन. सूद के बारे में बताया तो वह मुझे साथ लेकर दोबारा दिल्ली गए। चेकअप के बाद उन्होंने बताया कि मेरी आंखों के पीछे स्थित ऑप्टिक नर्व सिकुड गई है। इसके लिए दोबारा ब्रेन की ओपन सर्जरी करके उसमें आर्टिफिशियल ऑप्टिक नर्व

डालनी होगी लेकिन डॉक्टर इसकी सफलता को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं थे। इसके लिए न्यूरो सर्जरी की जरूरत थी, जिसकी प्रक्रिया बहुत जटिल थी और उसकी वजह से मेरे ब्रेन पर भी बुरा असर पडने की आशंका थी। इसलिए उन्होंने पापा से कहा कि इस बच्ची की मेंटल ग्रोथ बहुत अच्छी है। इसलिए आप इसे घर वापस ले जाएं और इसकी पढाई पर ध्यान दें।

संघर्ष की शुरुआत

जयपुर वापस लौटने के बाद मेरे लिए स्कूल की तलाश शुरू हो गई, पर कोई भी सामान्य स्कूल मेरा एडमिशन लेने के लिए तैयार नहीं था। अंतत: बडी मुश्किलों के बाद एक ब्लाइंड स्कूल में मेरा एडमिशन हो गया। वहां का माहौल बडा ही अजीब था। घर में किसी ने भी मुझे इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि मैं सामान्य बच्चों से अलग हूं या मुझमें कोई कमी है, पर वहां स्कूल में अकसर बाहर से लोग आते थे, जो बच्चों को कपडे और खाना बांटते थे। मुझे उनसे कुछ भी लेते हुए बहुत संकोच होता था। घर वापस आने के बाद मैं अकसर अपनी मम्मी से पूछती थी कि क्या हम गरीब हैं? लोग हमें चीजें क्यों देते हैं? मैं वहां के माहौल मेें एडजस्ट नहीं कर पा रही थी और स्कूल जाते वक्त बहुत रोती थी। चौथी कक्षा तक यही सिलसिला चलता रहा और फिर एक दिन मेरा स्कूल जाना बंद हो गया। इस बीच मम्मी मुझे घर पर ही पढाती थीं। उन्होंने किसी ब्लाइंड स्कूल की मदद से मेरे लिए किताबों के कैसेट्स का प्रबंध किया था। मुझे आज भी याद है, तब मेरे पास 150 से भी ज्यादा कैसेट्स थे, जिन्हें मैं सुनकर याद करती और दोबारा मम्मी को सुनाती। इसी बीच मैंने ब्रेल में पढना सीख लिया था। इस तरह मम्मी ने ओपन स्कूल से मुझे दसवीं की परीक्षा देने को कहा तो मैंने घर पर ही तैयारी करके बोर्ड की परीक्षा दी और मात्र दस साल की उम्र में ही 78 प्रतिशत अंकों के साथ दसवीं की परीक्षा पास की क्योंकि राजस्थान में ओपन स्कूल के लिए कोई निर्धारित आयु सीमा नहीं है। इसके बाद मम्मी मुझे सामान्य स्कूल में पढाना चाहती थीं पर कोई भी स्कूल मेरा एडमिशन लेने को तैयार नहीं था। काफी कोशिशों के बाद जयपुर के श्रीभवानी निकेतन स्कूल में मेरा एडमिशन हो सका। बारहवीं तक मेरी पढाई वहीं से पूरी हुई।

मंजिल की ओर बढते कदम

स्कूल की पढाई पूरी करने के बाद मैंने लॉ में ग्रेजुएशन किया। दरअसल मम्मी ने ही मुझे लॉ पढने की सलाह दी थी। वह चाहती थीं कि मैं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनूं, ताकि कोई भविष्य में मेरी इस अक्षमता का फायदा न उठा पाए। लिहाजा 19 साल की उम्र में ही मैं लॉ ग्रेजुएट बन गई। इतना ही नहीं, मैं अपने कॉलेज की टॉपर थी लेकिन बतौर प्रोफेशनल वकील अपना रजिस्ट्रेशन कराने के लिहाज से उस वक्त मैं अंडरएज थी। राजस्थान बार काउंसिल की सदस्यता लेने के लिए मुझे दो साल तक इंतजार करना पडा।

इसके बाद मैंने अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा किया। साथ ही कंपनी सेक्रेटरी का भी कोर्स किया। यह पढाई मेरे लिए काफी मुश्किल थी। इसकी परीक्षा देने के लिए मुझे राइटर की जरूरत थी, लेकिन शर्त यह थी कि मेरी बातों को सुनकर लिखने वाला व्यक्ति कॉमर्स का विद्यार्थी न हो। दूसरे फील्ड के राइटर को मेरी बातें समझने में काफी वक्त लगता था। इससे मुझे परीक्षा देने में बहुत परेशानी होती थी। अकाउंट्स का पेपर प्रैक्टिकल होता था। उसकी तैयारी में भी मुझे थोडी मुश्किल आ रही थी। इसलिए मैंने कोचिंग सेंटर जाना शुरू किया तो वहां भी यही हाल था। शुरुआत में टीचर्स मुझे पढाने को तैयार नहीं थीं और स्टूडेंट्स मेरा मजाक उडाते थे, लेकिन पढाई के प्रति मेरी लगन देखकर टीचर्स की सोच बदल गई और वे मुझ पर ध्यान देने लगीं। इस तरह मेरे इस प्रोफेशनल कोर्स का पहला हिस्सा कंप्लीट हो गया। उम्मीद है कि आगामी दो वर्षों में मेरा यह कोर्स पूरा हो जाएगा।

इस दौरान केवल मुझे ही नहीं, बल्कि मेरे पेरेंट्स को भी काफी मुश्किलें उठानी पडी। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और मुझे आगे पढाने की कोशिश में जुटे रहे। यह उन्हीं के प्रयासों का नतीजा है कि अब लॉ में पीएचडी कर रही हूं, मेरा शोध ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या से जुडे कानूनी पहलू पर आधारित है।

नहीं भूलती मां की सीख

मेरे व्यक्तित्व को संवारने में मेरे माता-पिता का बहुत बडा योगदान है। आज उन्हीं की वजह से मैं इस मुकाम पर खडी हूं। ख्ाासतौर पर मेरी मां ने हमेशा मुझे मजबूत बनाने की कोशिश की। बचपन में अगर मैं किसी बात से परेशान होकर रोती हुई उनके पास जाती थी तो वह मुझसे लाड जताने के बजाय स्पष्ट शब्दों में मेरी समस्या के बारे में पूछतीं और उसका समाधान बतातीं। वह अकसर मुझसे यही कहतीं कि तुम्हें इसी दुनिया में जीना है। इसी के हिसाब से ढलने की कोशिश करो। दूसरे लोग तुम्हारे लिए नहीं बदलेंगे। खुद को दुनिया में जीने लायक बनाओ और इतनी मजबूत बनो कि राह में आने वाली हर मुश्किल का सामना आसानी से कर सको।

जरूरत नजरिया बदलने की

मुझे इस बात से सबसे ज्यादा दुख होता है कि हमारे समाज में जिन्हें सबसे ज्यादा शिक्षित और सभ्य समझा जाता है, उनके मन में जऱा भी संवेदनशीलता नहीं है। मेरे साथ बुरा व्यवहार करने वाले में ज्यादातर वैसे ही पढे-लिखे और चालाक लोग थे। आपसे मेरी इतनी सी गुजारिश है कि शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को दया की नहीं, बल्कि सहयोग की जरूरत है। वे हमें भी अपने ही जैसा इंसान समझें, हमारे लिए इतना ही काफी है। अगर किसी व्यक्ति में कोई शारीरिक अक्षमता होती है तो उसमें कई ऐसी दूसरी ख्ाूबियां भी होती हैं, जिनकी वजह से लोगों की भीड में भी वह बहुत ख्ाास बन जाता है।

जहां तक मेरे निजी जीवन का सवाल है तो असंभव जैसा शब्द मेरी डिक्शनरी में है ही नहीं। मैं निरंतर कोशिश करने में यकीन करती हूं। भविष्य में मैं आईएएस अधिकारी बनना चाहती हूं और मैंने अभी से ही इसकी तैयारी शुरू कर दी है। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरा यह सपना जरूर साकार होगा।

छोटी उम्र बडी कामयाबी

बहुमुखी प्रतिभा की धनी 26 वर्षीय आयुषी को संगीत से बेहद लगाव है और उन्होंने इस विषय में मास्टर्स की डिग्री हासिल की है। कम उम्र में ही इनकी असाधारण प्रतिभा को देखते हुए वर्ष 2006 में उन्हें राष्ट्रीय बाल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इतना ही नहीं, 19 वर्ष की छोटी उम्र में लॉ में ग्रेजुएशन करके वह देश की सबसे युवा वकील बन चुकी हैं। इसी उपलब्धि की वजह से लिम्का बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में उनका नाम शामिल किया गया है।

प्रस्तुति: विनीता


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