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पहचानें अपनी आंतरिक शक्ति

ज़िंदगी की खुशहाली के लिए शरीर के साथ मन का भी स्वस्थ होना बेहद ज़रूरी है और ध्यान इसका सबसे सरल उपाय है। वेलनेस एक्सपर्ट प्रतीक्षा अपूर्व आपको बता रही हैं, इसके फायदे के बारे में।

By Edited By: Published: Wed, 25 Jan 2017 03:36 PM (IST)Updated: Wed, 25 Jan 2017 03:36 PM (IST)
पहचानें अपनी आंतरिक शक्ति
कुछ शब्द ऐसे होते हैं, जिन्हें परिभाषित करना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव जान पडता है। ध्यान भी आत्मिक उत्थान से जुडा एक ऐसा शब्द है, जिसे अपनाने के बाद उसे महसूस तो किया जा सकता है लेकिन उसके बारे में बताना बेहद मुश्किल है। इसकी तुलना गूंगे व्यक्ति के मुंह में भरे गुड से की जा सकती है। ओशो कहते हैं कि विज्ञान में पहले जानना जरूरी है तभी कुछ किया जा सकता है लेकिन धर्म में पहले कुछ करना जरूरी है, तभी जाना जा सकता है। मिसाल के तौर पर प्रेम और प्रार्थना जैसे शब्दों का सही अर्थ इन्हें अनुभव करने वाला व्यक्ति ही जान सकता है। 'ध्यान निर्विष्यं मन: सांख्य सूत्र के माध्यम से इसके बारे में यह बताया गया है कि विचारों, भावनाओं और संकल्प से मुक्त मन की अवस्था का नाम ही ध्यान है। जब भीतर पूर्ण मौन उतर आए, जब किसी भी चीज की कोई आकांक्षा न रहे और हर तरह के विचारों के संघर्ष से मुक्ति मिल जाए तो उसी अवस्था में ध्यान के फूल खिलते हैं। सुख-दुख से परे है ध्यान ऐसा कई बार होता है कि जीवन की आपाधापी में तनावग्रस्त होकर हम सोचते हैं कि थोडा ध्यान कर लें तो इससे सारी परेशानी दूर हो जाएगी। यहीं पर हम एक छोटी सी भूल कर बैठते हैं। ध्यान में जाने के लिए सुख-दुख दोनों को छोडऩा जरूरी है, दुख को हर कोई छोडऩा चाहता है लेकिन क्या कोई व्यक्ति सुख छोडऩे के लिए भी तैयार है?...क्योंकि जैसे ही आप ध्यान में प्रवेश करते हैं, सुख-दुख दोनों ही विलीन हो जाते हैं। इससे परम शांति और आनंद की अवस्था अवतरित हो जाती है। बस, आपमें साहस और संकल्प होना चाहिए, सुख-दुख से परे हो जाने का। इसके लिए सजगता बहुत जरूरी है। बातचीत के दौरान आपने अकसर लोगों को यह कहते सुना होगा कि काम करते-करते समय कब बीत जाता है, इसका उन्हें आभास ही नहीं होता। यह बडी गौर करने वाली बात है। एक तरफ जहां व्यक्ति पर काम का बोझ है, वहीं दूसरी ओर उसे अपने कार्यों में लीन होकर गहरी आत्म संतुष्टि की प्राप्ति होती है। मन में उठते सवाल यहां सवाल यह उठता है कि जिन कार्यों को करने में व्यक्ति इतना लीन होता है कि उसे समय बीत जाने का भी एहसास नहीं होता, क्या वही कार्य ध्यान नहीं बन सकता? क्या ध्यान के लिए भी एक अलग समय चाहिए? क्या इसके लिए भी एक व्यवस्थित जगह चाहिए? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या कोई कार्य ध्यान बन सकता है? हां बिलकुल, लेकिन इसके लिए सजगता बहुत जरूरी है। कोई भी काम शुरू करने से पहले अपनी श्वास की गति को सजगता से महसूस करने की कोशिश करें, फिर कुछ ही पलों में आपको यह महसूस होगा कि इस क्रिया में भी एक लय बन रही है और बाहर निकलती सांसों के साथ अंदर का तनाव भी निकलता जा रहा है। इसी तरह अंदर जा रही सांसों के साथ एक नई ऊर्जा का प्रवेश हो रहा है। बस, जरूरत है उस ऊर्जा में डूब जाने की। ध्यान रहे, यह प्रक्रिया इतनी सहज होनी चाहिए जैसे कि आप सांस ले रहे हों। पूरी चेतना में की जाने वाली कोई भी सकारात्मक क्रिया ध्यान है। किसी प्रोफेशनल के लिए ऑफिस का कार्य भी ध्यान बन सकता है, बशर्ते उसे पूरी एकाग्रता से और तनावमुक्त होकर किया जाए। इसी तरह कोई भी दैनिक घरेलू कार्य ध्यान बन सकता है। इसके लिए किसी विशेष अवस्था, तिथि या स्थान की जरूरत नहीं होती। ध्यान को अगर हम किसी खास ऐक्टिविटी की तरह न देखें तो चेतन अवस्था में जिया जा रहा हर क्षण ध्यान की अनुभूति है। बाहर का शोरगुल और तमाम कठिनाइयों के बीच भी आप ध्यान के सुर लगा सकते हैं। सहज प्रक्रिया है यह पांच-छह साल की आयु से ही बच्चे को अपनी श्वास पर ध्यान देना सिखाया जा सकता है। इससे वह शीघ्र ही कार्य करते हुए भी ध्यान में लीन होने की कला सीख जाएगा। फिर उसे इस बात का एहसास रहेगा कि ध्यान उसके लिए एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। ओशो कहते हैं, 'हम ध्यान में ही पैदा होते हैं, बाद में अपने मन के रंग-ढंग सीख लेते हैं लेकिन फिर भी हमारा वास्तविक स्वभाव अंतर्धारा की तरह हमारे भीतर गहरे में बना ही रहता है। किसी भी दिन थोडी सी खुदाई यानी आत्मविश्लेषण करने पर हम यह पाएंगे कि वह धारा अभी भी बह रही है और उसे पा लेना ही जीवन का सबसे बडा आनंद है। गीता के अध्याय 6 में श्रीकृष्ण कहते हैं, 'अनाश्रित: कर्मफलं कार्य कर्म करोतिय:, स संन्यासी च योगी च, न निरंगिंन चाक्रिय: अर्थात जो व्यक्ति पूरी चेतना में अपने निमित्त कर्म को बिना फल की इच्छा के करता है, वह संन्यासी और योगी है। इसके लिए मनुष्य को अपना कर्म त्यागने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसे चेतन अवस्था में अपना कार्य पूरा करने की जरूरत है। इसी अध्याय में कृष्ण आगे कहते हैं, 'जब शरीर और मन दोनों शांत हों, सारी आकांक्षाएं समाप्त हो चुकी हों और सारा केंद्र बिंदु आत्मा पर स्थिर हो। ऐसे में ध्यान हमें इस बात का बोध कराता है कि आपके मौन में भी परम शांति है। विधि हो आपके अनुकूल ध्यान के लिए मंदिर-मस्जिद या वन में जाने की आवश्यकता नहीं है। आप अपने घर का छोटा सा कोना चुन लें। अगर प्रात:काल थोडा समय निकाल सकें तो आप निष्क्रिय और सक्रिय दोनों तरह के ध्यान कर सकते हैं। निष्क्रिय ध्यान में सूर्योदय देखें। फिर अपनी आंखें बंद कर लें और अपने भीतर उसके प्रकाश को फैलते हुए महसूस करें। सक्रिय ध्यान में दस मिनट तक श्वास को तेजी से अपने भीतर लें और बाहर छोडें। इस क्रिया को पूरी सहजता से करें। पौराणिक ग्रंथ शिव सूत्र में ध्यान की 112 विधियों का उल्लेख मिलता है। आप अपनी सुविधा और रुचि के अनुसार कोई भी विधि चुन सकते हैं लेकिन उसे चुनने के बाद कम से एक सप्ताह तक उसे नियमित रूप से आजमाएं। उसके बाद ही किसी दूसरी विधि का चुनाव करें। ध्यान का कोई साइड इफेक्ट नहीं है लेकिन कई विधियों को मिलाकर एक नई विधि गढऩा बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। ध्यान का सबसे सकारात्मक असर यह है कि नियमित रूप से इसे करने वाले लोग बहुत सहज, सजग और संवेदनशील हो जाते हैं। इस संबंध में एक बहुत बडी भ्रांति है कि अगर आप दुख में हैं तो ध्यान करना चाहिए ताकि आपको सुख की अनुभूति हो। यह बिलकुल गलत है क्योंकि सुख-दुख दोनों ही उद्विग्न अवस्थाएं हैं। इन दोनों को छोडकर ही आप ध्यान में लीन हो सकते हैं। यह परमात्मा का ऐसा संगीत है, जो सहजता से अपनी ही लय में बज रहा है। इस संदर्भ में संत कबीर ने कहा है, 'सुमिरन सुरति लगाय के, मुखते कुछ ना बोल, बाहर के पट देय के, अंदर के पट खोल। वह ध्यान में अंदर के दरवाजे को खोलने की बात कह रहे हैं, जिससे सारे जगत का अस्तित्व नया हो जाता है। ओशो भी यही कहते हैं, 'संपदा हमारे भीतर ही पडी है, बस परदा हटाने की देर है। अर्थात आत्मज्ञान का धन हमारे अंतर्मन में सुरक्षित है और ध्यान के माध्यम से उसे सुगमतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है।

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