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कला जिंदगी संवारने की

मन में कुछ कर गुज़रने का जज्‍बा हो तो राह में आने वाली मुश्किलें भी आसान नजर आने लगती हैं। डॉ.राधिके खन्ना के लिए डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चों को मेन स्ट्रीम में लाना आसान नहीं था लेकिन उन्होंने इसे ही जीवन का मकसद बना लिया। पिछले 30 वर्षों से कला के माध्यम से शिक्षा की नई तकनीक गढ़तीं डॉ.खन्ना से मिलें इस बार।

By Edited By: Published: Thu, 29 Dec 2016 06:59 PM (IST)Updated: Thu, 29 Dec 2016 06:59 PM (IST)
कला जिंदगी संवारने की
संसार की हर कृति सुंदर है। यहां जन्मा हर जीव अनूठा है और वह किसी सार्थक उद्देश्य से दुनिया में आया है। अपने लिए तो पशु भी जीते हैं पर इंसान वही है, जो दूसरों की जिंदगी संवार सके। पिछले 30 वर्षों से डिफरेंट्ली एबल्ड बच्चों को कला के माध्यम से अपनी पहचान बनाने में मदद करने वाली डॉ. राधिके खन्ना इस बात को सिर्फ मानती ही नहीं, इसे जीती भी हैं। उन्हें भरोसा है कि ये बच्चे किसी से कम नहीं हैं, बस उन्हें धैर्य व समझदारी से सिखाने की जरूरत है। डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चों का जीवन संवारने के प्रयास में जुटी डॉ. खन्ना ने टीचिंग मेथड्स पर दो किताबें भी लिखी हैं, 'अ गाइड टु प्री-वोकेशनल ट्रेनिंग' और 'रीबिल्डिंग क्रिएटिविटी इन फॉर्मेटिव ईयर्स।' उन्हें वर्ष 2013 में पियर्सन टीचिंग अवॉर्ड और वर्ष 2008 में आइएमसी लेडीज विंग का वुमन ऑफ दि ईयर अवॉर्ड मिल चुका है। देश-विदेश में उन्हें कई सम्मान भी मिले हैं। यहां वह खुद बयां कर रही हैं, अपनी संघर्ष-यात्रा की प्रेरक कहानी- एक संयोग ही था मेरा जन्म अमृतसर के पंजाबी परिवार में हुआ। इसके बाद मेरे माता-पिता मुंबई आ गए। पढाई-लिखाई भी यहीं से हुई। शायद ऊपर वाले की यही मर्जी थी, तभी मैंने इन मासूमों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाया। उच्च मध्यवर्गीय परिवार से आने के कारण मेरे पास किसी चीज की कमी नहीं थी। पापा ने हमें यही सिखाया कि सबसे मिल कर रहें, बांट कर खाएं। बस इतनी सी बात थी, जो मेरे लिए बाद में जीने का सबब बन गई। मैं सोफिया कॉलेज मुंबई में थी। उस समय हम डिफरेंट्ली एबल्ड बच्चों के लिए फंड एकत्र करते थे। तब मेरी टीचर हमेशा मुझे प्रेरित करती थीं कि मैं आगे भी ऐसे बच्चों के लिए कुछ करूं मगर मैं भी हर युवा लडकी की तरह दोस्तों और पार्टीज में मशगूल रहती थी। फिर एकाएक मेरे भीतर बदलाव आया और मैंने खुद से वादा किया कि आगे का जीवन इन बच्चों को समर्पित कर दूंगी। शुरू हुई तैयारी इसके बाद मैंने लंदन से स्पेशल एजुकेशन में डॉक्टरेट की। इसमें मुझे लगभग 8 साल लगे। बैंकॉक से एक डिप्लोमा भी किया। अपनी थीसिस के दिनों में जब मैं सब्जेक्ट के तौर पर बच्चों से मिलती थी तो मुझे लगता था कि वे भले ही ठीक से न समझ पाते हों लेकिन आडी-तिरछी रेखाएं खींच लेते हैं। इस तरह मैंने ऑटिज्म और इससे पीडित बच्चों की जरूरत को समझा। आर्ट थेरेपी का एक नया कोर्स तैयार किया, जिसकी अवधि तीन साल थी। रिसर्च पूरी होते-होते मेरे दिमाग में ऐसे बच्चों के लिए एक कॉ-ऑपरेटिव बनाने का आइडिया आया। मेरी गाइड ने कहा कि सिर्फ लिखो नहीं, आइडिया पर काम भी करो। लोगों से बात करते-करते कई विचार आने लगे। शुरू में मेरे पास 9 बच्चे आए। वे आपस में लडते, मारपीट करते लेकिन जब उन्हें पेपर-पेंसिल थमाती तो वे मेरी साडी के डिजाइंस को कागज पर उतारने की कोशिश करते। धीरे-धीरे वे चेहरे की आकृति बनाने लगे। मेरे पास कोई पूंजी नहीं थी, जिससे मैं आर्ट और क्राफ्ट की तकनीकी जरूरत को पूरा कर पाती। इसलिए जो भी मटीरियल पास में होता, हम उसी का इस्तेमाल करते। आत्मनिर्भरता की ओर मेरा उद्देश्य था कि किसी भी तरह इन बच्चों को इस लायक बना सकूं कि ये दूसरों पर आर्थिक रूप से निर्भर न रहें। ऐसे बच्चे समाज ही नहीं, परिवार में भी बेहद उपेक्षित होते हैं। मेरे पास पहले जो बच्चे आए, उनमें आत्मविश्वास की कमी थी। यहीं से मेरे दिमाग में यह बात आई कि इन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने में मदद करूंगी ताकि वे खुद को अलग-थलग न समझें। आमतौर पर ऐसे बच्चों को शांत रखने के लिए दवाएं दी जाती हैं, जिससे वे बहुत सुस्त हो जाते हैं। मैंने दवाएं कम कीं। कई बार बच्चे हिंसक हो जाते थे और टीचर्स के लिए उन्हें हैंडल करना मुश्किल हो जाता था। फिर मैंने एक कार्यक्रम बनाया, जिसका नाम था-'फेस' (फेसिंग ऑटिज्म थ्रू कम्युनिकेशन विद द एनवायरमेंट)। मेरा उद्देश्य था-न्यू लुक, न्यू अंडरस्टैंडिंग और न्यू टेकनीक। शुरुआत में तकलीफ हुई। कोई भी आर्थिक मदद देने को तैयार नहीं था। लोगों को ऐसा लगता था कि यह मेरा पागलपन है और मैं अपना समय बर्बाद कर रही हूं। कई बार बच्चों, खासतौर पर लडकियों को संभालना मुश्किल होता था। उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी अहम थी। एक बार उन बच्चों को आउटिंग पर ले जा रही थी तो टिकट काउंटर पर ही सुनने को मिल गया, 'आपका दिमाग तो खराब नहीं है, जो ऐसे बच्चों को ले जा रही हो...।' राहें बनती गईं शुरुआती दिक्कतों के बाद धीरे-धीरे स्थितियां बदलीं और राहें खुलती गईं। कुछ लोग मेरे साथ जुडे। हमने बच्चों को उन्हीं की इच्छा और पसंद के हिसाब से सीखने दिया। आमतौर पर ऐसे बच्चों को मोमबत्ती बनाना सिखाया जाता है मगर हमने ऐसा नहीं किया। हमने उन्हें मिट्टी का काम सिखाया, हमारा सिरेमिक डिपार्टमेंट बेहद सुंदर है। इसके अलावा ये बच्चे पेंटिंग्स और चॉकलेट्स बनाते हैं। अभी दीपावली पर बच्चों के हाथों बनी चॉकलेट्स मुंबई-पुणे में खूब बिकीं। इसके अलावा ये हेल्थ फूड्स भी बना रहे हैं। मैंने शुरुआत 9 बच्चों से की थी और आज मेरे पास 66 स्टूडेंट्स हैं, जिनकी उम्र 23 से 68 वर्ष है। इनमें से कुछ मेरे पास बचपन से हैं, कुछ मिड एज में भी आए हैं। छोटी उम्र में सिखाना आसान होता है, बाद में मुश्किल। अभी हमारी योजना ऐसे बच्चों के लिए आवासीय कॉलेज भी बनाने की है। लडकों के लिए अलग कॉलेज की व्यवस्था की गई है। ये सारे ऑटिज्म से ग्रस्त बच्चे आज आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं। इनके पास अपना बैंक बैलेंस है। इन्हें हर महीने तनख्वाह मिलती है, जिससे ये अपने लिए शॉपिंग करते हैं। घर वालों को भी लगता है कि अब लडकियां अपना खर्च खुद उठा रही हैं तो वे उन पर शादी का दबाव नहीं डालते। आर्थिक आत्मनिर्भरता से ही उनमें यह बदलाव आया है। हालांकि सीखने या कमाने के मामले में इनकी कुछ सीमाएं भी हैं। हम इनसे हर तरह के काम नहीं ले सकते, साथ ही इनके व्यवहार को संयमित रखना भी एक बडी चुनौती है। इसके लिए हमारे पास ट्रेंड टीचर्स हैं। इनके साथ काम करते हुए जो सबसे प्यारा अनुभव है, वह यह है कि ये नि:शर्त प्यार करते हैं और यही वह बात है, जिसके लिए मुझे शायद दोबारा जन्म लेना पडे। उपेक्षा नहीं, प्यार चाहिए ये बच्चे भी बहुत कुछ करने की काबिलीयत रखते हैं। जरूरत है उन्हें समझने और सिखाने की। मैं उनके अभिभावकों से कुछ बातें कहना चाहती हूं- अगर आपके घर में ऐसा कोई बच्चा है तो उसे मेनस्ट्रीम में लाने की कोशिश करें। उन्हें अपने आसपास किसी रिहैब सेंटर में जरूर ले जाएं। जितनी कम उम्र में उन्हें यह सुविधा मिलेगी, उतनी ही जल्दी वे सीखेंगे। ऐसे बच्चों से शेयरिंग जरूरी है। इन्हें लोगों और रिश्तेदारों के बीच जरूर ले जाएं। मन को मजबूत बनाएं। रिस्क लें और भरोसा रखते हुए इन्हें घर से बाहर निकालें। अगर आप गांव में हैं और आसपास कोई सुविधा नहीं है तो उन्हें बुनियादी कार्य जैसे- गाय की देखभाल, खेत में बीज डालना, पौधों की सिंचाई, खर-पतवार उखाडऩा सिखाएं। इससे उन्हें अपनी उपयोगिता समझ आएगी। इन्हें कागज-कलम दें। शुरू में खुद इनके साथ बैठ कर इन्हें कलम पकडऩा सिखाएं। यह काम मुश्किल तो है-नामुमकिन नहीं। अगर आसपास में ऐसे बच्चों के लिए कोई स्कूल है तो वहां अपने बच्चे को जरूर भेजें। जीवनशैली को व्यवस्थित रखें। शोध से यह साबित हो गया है कि एल्कोहॉल के सेवन, अब्यूसिव रिलेशनशिप और लाइफस्टाइल की गडबडी के कारण भी ऐसे बच्चे पैदा होते हैं। इसलिए ऐसा कुछ न करें, जिसका भावी पीढी पर दुष्प्रभाव पडे। सही समय पर शादी और बच्चे का जन्म जरूरी है। लेट मैरिज के कारण भी डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चों का जन्म होता है। प्रस्तुति : इंदिरा राठौर

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