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दुख का पहाड़ न बनाएं

कसर हमें अपने दुख बड़े लगते हैं, ऐसे में दुख को गाने की ऐसी लत लग जाती है कि हम लोगों की सहानुभूति का फायदा भी उठाना चाहते हैं।

By Edited By: Published: Fri, 14 Apr 2017 04:36 PM (IST)Updated: Fri, 14 Apr 2017 04:36 PM (IST)
दुख का पहाड़ न बनाएं

जीवन के सुख-दुख को देखने का हमारा चश्मा अलग-अलग होता है। अकसर हमें अपने दुख बडे लगते हैं, ऐसे में दुख को गाने की ऐसी लत लग जाती है कि हम लोगों की सहानुभूति का फायदा भी उठाना चाहते हैं।

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तुमने जिंदगी देखी है... तुम्हें क्या पता दुख क्या होता है...? मेरी किस्मत में सुख कहां...पता नहीं मेरे दुर्दिन कब खत्म होंगे... ऐसी कई बातें कहते हुए हम बिलकुल दार्शनिक हो जाते हैं। हम ऐसे ज्ञानी बन जाते हैं, जिन्हें अपना राई बराबर दुख भी पहाड नजर आता है। हो सकता है कि आपके पास संसाधनों की कमी हो, बीमारी या परिवार की उपेक्षा झेल रहे हों, नौकरी में परेशान हों पर यह सच है कि संघर्ष सबके जीवन में होता है। हर व्यक्ति के सहने की क्षमता और प्रवृत्ति के आधार पर इसका अनुभव हर किसी का अलग होता है।

कोई दुख को स्वीकार कर लेता है तो कोई इसे सहन नहीं कर पाता। अपने दुख दूसरों को बताना मन की सेहत के लिए अच्छा होता है पर उसकी नुमाइश करना या अपने दुख से लाभ कमाने की कोशिश करना व्यक्तित्व की कमजोरी, मन की हीनता और दुर्बलता है। यह दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींचने की प्रवृत्ति है। दुख में मदद चाहिए तो बात को सीधे और स्पष्ट ढंग से सही लोगों के सामने कहें, वरना हर समय सहानुभूति हासिल करने की लत नुकसान ही पहुंचाती है।

नमक जैसा है दुख एक शिक्षक अपने शिष्य की शिकायत करने की आदत से परेशान था। एक सुबह उन्होंने शिष्य को नमक मिला पानी पीने को दिया। फिर उन्होंने शिष्य से पूछा, 'कैसा है यह? शिष्य ने कहा, 'यह कडवा लग रहा है, इसे पीना असंभव है। इसके बाद वे दोनों झील के किनारे गए। मास्टर ने उतना ही नमक झील के पानी में डाल दिया। शिष्य को फिर पानी पीने के लिए कहा और पूछा, 'अब ये कैसा लग रहा है? शिष्य ने कहा, 'ये पानी बिलकुल ताजा है। इसमें नमक का पता ही नहीं चल रहा। मास्टर ने कहा, 'जीवन में दुख भी नमक की तरह है। इसकी मात्रा भी समान ही है पर इसकी कडवाहट निर्भर करती है कि हमने इसे किस बर्तन में डाला है, जब दुख हो तो शिकायत की जगह अपने नजरिए को बडा कर लेना चाहिए।

अच्छी नहीं दुख की लत एम्स दिल्ली के साइकोलॉजिस्ट राम मल्होत्रा बताते हैं, 'दुखों की निरंतर चर्चा करना हमें अपने नकारात्मक अनुभवों से बाहर ही नहीं आने देता। हमें हर छोटी सी समस्या बडी दिखती है। हर समय दिमाग अतीत की गलियों में घूमता रहता है। ऐसे में जितनी बार हम अपने दुख दूसरों के सामने रखते हैं और उन पर चर्चा करते हैं, उतना ही नकारात्मकता और दुखों की ओर बढ जाते हैं।

ध्यान रखें ये बातें दुखों पर बात करने का सही तरीका है- सबके सामने अपने दुख के बोझ को हलका न करें। ऐसे लोगों से बातें करें, जो आपको सुनने को तैयार हैं या फिर जिनसे यह उम्मीद हो कि वे आपकी कोई मदद कर सकते हैं। यदि सलाह व मदद की जरूरत है तो सीधे-सीधे कहें। बढा-चढाकर बातें न करें। नाटकीय होने से बचें। मजाक का साथ न छोडें। खुद पर हंसें। दुख के प्रति गंभीर बने रहने से तनाव बढता है। इसलिए व्यावहारिक बनें और दुख को स्वीकार करने की कोशिश करें। संतुलित रहें। बातें करें पर ध्यान रखें कि समस्याओं पर बात करने का एक सही समय और जगह होती है। अपने आपको बिजी रखें। आदमी जब व्यस्त रहता है तो दूसरी बातें सोचने का समय ही नहीं मिलता। ऐसे में दुख कब आया और कब चला गया, आपको पता भी नहीं चलेगा।


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