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दौडऩा जोड़ों के लिए फायदेमंद

आम धारणा के विपरीत एक नए शोध का दावा है कि दौडऩे से घुटनों के जोड़ों में सूजन कम होती है। इससे ऑस्टियो आर्थराइटिस जैसे रोगों से बचाव भी संभव है।

By Edited By: Published: Tue, 07 Feb 2017 05:08 PM (IST)Updated: Tue, 07 Feb 2017 05:08 PM (IST)
दौडऩा जोड़ों के लिए फायदेमंद

अमेरिकी शोधकर्ताओं ने कई स्वस्थ स्त्री-पुरुषों में सूजन पैदा करने वाले घुटनों के जोडों में मौजूद फ्लूइड का विश्लेषण किया। इसके गाढेपन के स्तर को दौडऩे से पहले और बाद में मापा गया। इसमें पाया गया कि दौडऩे के लगभग 30 मिनट बाद सिनोवियल द्रव से निकले साइटोकाइंस के दो विशेष मार्कर जीएम-सीएसएफ और आइकल-15 की मात्रा में कमी हुई। अमेरिका की बर्मिंघम यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफसर मैट सीली के अनुसार, इस नए शोध से यह धारणा गलत साबित हो सकती है कि दौडऩा घुटनों की सेहत के लिए ठीक नहीं है। शोध में पता चला है कि युवा और स्वस्थ लोगों के लिए भी दौडऩा अच्छा है, इससे भविष्य में उन्हें जोडों संबंधी रोग नहीं होते। इस शोध का प्रकाशन यूरोपियन जर्नल ऑफ अप्लाइड साइकोलॉजी में किया गया है।

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सिर्फ खून की जांच से पता चलेगा गले का कैंसर अब सिर्फ खून की जांच से ही गले के कैंसर का पता चल सकेगा। वैज्ञानिकों का दावा है कि ब्लड सीरम टेस्ट से गले के कैंसर के खतरे का अनुमान लगाया जा सकता है। शोधकर्ताओं के अनुसार, यह जांच ह्यूमन पैपिलोमा वायरस के दो विशेष प्रकार के एंटीबॉडीज ई6 और ई7 के लिए होती है। इस जांच से ऑरोफेरेंजल कैंसर का पता लगाया जा सकता है। यह बीमारी आमतौर पर गले, टॉन्सिल और जीभ के पिछले हिस्से पर होती है। इस बीमारी का सीधा संबंध एचपीवी से है। एचपीवी एक तरह का संक्रमण है, जो शरीर पर होने वाले मस्सों की वजह से होता है। हालांकि एचपीवी से संबंधित कैंसर का आमतौर पर उपचार हो जाता है लेकिन 15 से 20 फीसदी रोगियों में इसका असर नहीं हो पाता जबकि कुछ लोगों में इसके दोबारा होने की आशंका रहती है। मिशिगन यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर मैथ्यू ई स्पेक्टर ने कहा कि जांच में एंटीबॉडीज ई7 के स्तर में वृद्धि पाए जाने पर कैंसर की आशंका हो सकती है।

तनाव से दूर रहने पर कीमोथेरेपी के बेहतर नतीजे वैज्ञानिकों का दावा है कि कीमोथेरेपी का असर उन कैंसर रोगियों पर अधिक तेजी से होता है, जो अवसाद से मुक्त रहते हैं। एक नए अध्ययन में इस बात का पता चला है। दिमाग को सक्रिय करने वाले प्रोटीन ब्रेन डिराइव्ड न्यूरोटोफिक फैक्टर की मदद से इन मरीजों को अवसाद मुक्त रखा जा सकता है। सिंगापुर में यूरोपियन सोसाइटी फॉर मेडिकल ऑन्कोलॉजी एशिया 2016 कांग्रेस में पेश एक रिपोर्ट में दावा किया गया कि बीडीएनएफ प्रोटीन कैंसर के इलाज को कारगर बनाने में मदद करता है। चीन के हेनान कैंसर अस्पताल के डॉक्टरों ने एक अध्ययन में कीमोथेरेपी करा चुके 186 कैंसर रोगियों का अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि अवसाद मुक्त मरीजों की तुलना में अवसादग्रस्त कैंसर रोगियों पर कीमोथेरेपी का असर कम हुआ।

शोध के दौरान कीमोथेरेपी के पहले मरीजों की मानसिक स्थिति, जीवन का स्तर और इलाज की सफलता के आंकडों को आधार बनाया गया। शोधकर्ताओं ने पाया कि अवसाद के कारण मरीजों के मस्तिष्क में बीडीएनएफ प्रोटीन में कमी आ जाती है। इस कारण कीमोथेरेपी का असर कम होता है। सिंगापुर स्थित ड्यूक एनएसयू मेडिकल स्कूल में सहायक प्रोफेसर रविंद्रन कनेस्वरन कहते हैं कि कैंसर मरीजों को इलाज की कष्टकारी और लंबी प्रक्रिया के कारण अवसाद हो जाता है। ऐसे में इस अध्ययन की मदद से एक ऐसी दवा बनाई जा सकती है जिसकी मदद से कीमोथेरेपी से पहले बीडीएनएफ प्रोटीन सक्रिय हो जाए और अवसाद को कम किया जा सके। ऐसा करने से इलाज के बेहतर नतीजे मिल सकते हैं।

लार से पता चलेगी शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम खर्च वाले एक लार परीक्षण से प्रतिरोधक क्षमता (रेजिस्टेंस कैपेसिटी) का पता आसानी से लगाया जा सकेगा। इससे बैक्टीरियल इन्फेक्शंस से बचाव और टीकाकरण के आकलन में आसानी होगी। एक नए शोध में यह बात सामने आई है। शोधकर्ताओं ने कहा कि लार परीक्षण विशेष रूप से बच्चों और वृद्धों में नमूना संग्रह करने का बेहतर तरीका हो सकता है। ब्रिटेन के बर्मिंघम विश्वविद्यालय की शोधकर्ता जेनिफर हेनी के अनुसार, लार के नमूने बिना तकलीफ के भी लिए जा सकते हैं।

इसके लिए किसी खास प्रशिक्षण या उपकरण की जरूरत नहीं है। इसमें लागत भी कम आती है। शोध से पता चलता है कि लार की आईजीजी पीएन एंटीबॉडी शिशुओं के सीरम के एंटीबॉडी स्तर से परस्पर संबंधित है। आमतौर पर संक्रमणों के खिलाफ बचाव के लिए रक्त सीरम में एंटीबॉडी स्तर की माप की जाती है लेकिन खून के नमूने लेने में कई सावधानियां रखनी होती हैं, खासतौर से विकसित देशों में यह हर बार संभव भी नहीं होता। बच्चों के मामलों में दिक्कतें भी होती हैं। इससे दुनिया के कई हिस्सों में प्रतिरोधक क्षमता और टीकाकरण के महत्वपूर्ण कारकों को चिन्हित करने में मदद मिलेगी

कृत्रिम सेल्स से डायबिटीज पर नियंत्रण होगा दुनिया भर में महामारी का रूप धारण कर चुके डायबिटीज को नियंत्रित करना संभव हो सकेगा। स्विट्जरलैंड के वैज्ञानिकों ने इंसुलिन के स्राव और शुगर की मात्रा को नियंत्रित करने में सक्षम कृत्रिम सेल्स विकसित करने में सफलता पाई है। नई कोशिका तीन सप्ताह तक इंसुलिन का सामान्य तरीके से स्राव कर सकती है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि नई खोज से डायबिटीज को नियंत्रित किया जा सकेगा। बीटा सेल्स से ही इंसुलिन का स्राव होता है। इसमें गडबडी आने पर ब्लड में शुगर की मात्रा काफी बढ जाती है। इस नई खोज से डायबिटीज को नियंत्रित करना आसान होगा।


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