संघर्षो और जीत की कहानी भाग मिल्खा भाग
फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह के जीवन और संघर्र्षो की कहानी है फिल्म भाग मिल्खा भाग। रंग दे बसंती जैसी फिल्म बना चुके राकेश ओमप्रकाश मेहरा के कुशल निर्देशन और फरहान अख्तर की जबर्दस्त एक्टिंग से सजी इस फिल्म के बारे में बता रहे हैं अजय ब्रह्मात्मज।
पिछले दिनों आई भाग मिल्खा भाग हर उम्र और इलाके के दर्शकों को पसंद आई। इसे अनेक राज्यों ने मनोरंजन कर से मुक्त कर दिया। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की भाग मिल्खा भाग इस साल की उल्लेखनीय फिल्म होगी। मिल्खा सिंह के किरदार में फरहान अख्तर ने जी-तोड मेहनत की। उन्होंने जीवित किंवदंती बन चुके मिल्खा सिंह को पर्दे पर साकार कर दिया।
एक धावक की जिंदगी
भाग मिल्खा भाग राकेश ओमप्रकाश मेहरा की महत्वपूर्ण फिल्म है। दर्शकों की स्वीकृति और सराहना से फिल्में बडी हो जाती हैं। इस लिहाज से रंग दे बसंती के बाद एक बार फिर राकेश की फिल्म ने दर्शकों के दिलों को छुआ। फिल्म रिलीज होने के पहले आशंका थी कि मिल्खा सिंह की जिंदगी को लेकर बन रही इस फिल्म को न जाने कितने दर्शक पसंद करेंगे? भाग मिल्खा भाग बायोपिक फिल्म ही लगती है, लेकिन राकेश अपने इंटरव्यू में जोर देते रहे हैं कि यह बायोपिक नहीं है। वे इसे मिल्खा सिंह की जिंदगी पर आधारित फिल्म बताते रहे हैं। फिल्म अध्येता बाद में तय करेंगे कि भाग मिल्खा भाग किस विधा की फिल्म है? यह मिल्खा सिंह के जीवन के नियामक अंशों को लेकर चलती है।
कुछ साल पहले राकेश ओमप्रकाश ने मिल्खा सिंह की जीवनी पढी। बचपन में सुने मिल्खा सिंह के िकस्से फिर से जाग गए। उन्होंने तय किया कि मिल्खा सिंह के जज्बे और जोश को पर्दे पर उतारा जाना चाहिए। वे बताते हैं, मैं मिल्खा सिंह की कहानियां सुन-सुन कर बडा हुआ हूं। वर्ष 1982 में स्विमिंग टीम में चुने जाने के बाद अभ्यास के लिए मैं नेशनल स्टेडियम जाता था। वहां हमारे कोच और दूसरे सीनियर हमें प्रोत्साहित करने के लिए मिल्खा सिंह के किस्से सुनाते थे। मिल्खा सिंह के समय में उनके कोच इतनी मेहनत कराते थे कि खून की उल्टियां तक हो जाती थीं। कई बार तो बेहोश हो जाते थे और उन्हें ऑक्सीजन देना पडता था।
विभाजन का दर्द
भाग मिल्खा भाग में मिल्खा सिंह के बचपन और देश के विभाजन को दिखाया गया है। विभाजन के बाद हुए दंगों को उन्होंने अपनी आंखों से देखा था। पिता के कहने पर वे अपने गांव से भागे थे। भागने का यह प्रतीक ही उनकी जिंदगी बन गया। बचपन की उन स्मृतियों को भुलाकर कुछ हासिल करना निश्चित ही बडे साहस का काम है। राकेश बताते हैं, उन्होंने बचपन में ही सब कुछ खो दिया था। भारत-पाकिस्तान में जब आजादी का जश्न मनाया जा रहा था, तब मिल्खा सिंह अपने परिवार के साथ विभाजन का दर्द झेल रहे थे। आज के पाकिस्तान के मुल्तान इलाके में गोविंदपुरा गांव है। परिजनों की हत्या के चश्मदीद गवाह थे मिल्खा, वहां से भागे तो अमृतसर होते हुए अंबाला के रिफ्यूजी कैंप पहुंचे। रिफ्यूजी की जिंदगी गरीबी व फाकाकशी की रही।
युवा पीढी को संदेश
इस फिल्म से राकेश ओमप्रकाश मेहरा देश की किशोर व युवा पीढी को संदेश भी देना चाहते थे। उन्होंने गरीबी व परेशानी के बीच सारी उपलब्धियां हासिल कीं, जबकि आज के बच्चों के पास हमेशा कोई न कोई बहाना होता है। वे अपने बच्चों का ही उदाहरण देकर बताते हैं, मेरे दो बच्चे हैं। बेटी 13 साल की है और बेटा 12 का। उनके पास दुनिया के सारे ऐशोआराम हैं, पर उनके पास कुछ न करने के अनेक बहाने हैं। बैडमिंटन के वर्ल्ड चैंपियन जो रैकेट यूज करते हैं, उन्हें वही प्रिंस रैकेट चाहिए। नाईकी के जूते नहीं हैं तो खेलने कैसे जाएं? उन्हें समझाना मुश्किल होता है कि बेटे ये सब टूल हैं, उपकरण हैं। आप के अंदर के लोहे से बात बनती है। लेखक पांच रुपये की कलम से लिखे या पांच हजार की कलम से.., उसे लिखना वही है, जो उसके अंदर है। किसी भी इंसान को सफलता सुविधाओं से नहीं मिलती। जुनून, मेहनत और समर्पण हो तो सब कुछ हासिल किया जा सकता है।
लंबी बातचीत और रिसर्च
राकेश ओमप्रकाश मेहरा को फिल्म बनाने में चार साल से ज्यादा समय लगा। उनकी जीवनी पढी। प्रसून जोशी से सलाह-मशविरा कर वे आगे बढे। चूंकि फिल्म में उनके जीवन के अंश थे, इसलिए जरूरी समझा गया कि मिल्खा सिंह से बातचीत की जाए। प्रसून जोशी और राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने मिल्खा सिंह से घंटों बातें की। लगभग 18 महीने की मुलाकातों और अनेक रिकार्डिग्स के बाद उनकी जिंदगी के अनछुए पहलू सामने आए। आंरभ में मिल्खा सिंह ज्यादा कुछ नहीं बोलते थे। बाद में खुले तो उन्होंने यादों की हर गिरह खोल दी। उनके परिवार से भी मदद मिली। रिकॉर्ड्स और दस्तावेजों के लिए एथलेटिक्स ऑस्ट्रेलिया, ओलंपिक एसोसिएशन और ब्रिटिश कौंसिल लाइब्रेरी से मदद ली गई। कायदे से कह सकते हैं कि भाग मिल्खा भाग की कहानी मिल्खा सिंह की जुबानी कही गई है।
सोहबत का असर
मिल्खा सिंह की सोहबत का सीधा असर राकेश ओमप्रकाश मेहरा पर पडा। उनसे हुई मुलाकात का जबर्दस्त प्रभाव पडा। राकेश उन प्रभावों के बारे में बताते हैं, फिल्म तो उनके जीवन पर है। फिल्म के बाहर भी उन्होंने जिंदगी और काम के प्रति मेरा नजरिया बदल दिया। उनका थोडा सा रंग मुझ पर भी चढ गया। उनसे मैंने सीखा कि कामयाब होना है तो फोकस्ड रहो। वही करो, जिसे करने में मजा आता है। उन चीजों पर समय मत बर्बाद करो जिनसे डर लगता है। मैं तो फिल्म-मेकिंग में अब यही फॉम्र्युला अपना रहा हूं कि न डरो और न डराओ।
फरहान की दमदार ऐक्टिंग
भाग मिल्खा भाग में फरहान अख्तर की भूमिका सभी को पसंद आई। फिल्म आने के पहले सभी को आशंका थी कि मालूम नहीं फरहान उनकी भूमिका में कितना जंचेंगे? इस संबंध में राकेश बताते हैं, फिल्म रिलीज होने के दो साल पहले शायद कोई और जवाब देता। चुने जाने के बाद फरहान ने जो समर्पण दिखाया, उसके बाद से ही लग गया था कि उनके अलावा कोई और इस भूमिका को नहीं निभा सकता था। मैं तो यहां तक कहूंगा कि फरहान के अलावा इस रोल को सिर्फ मिल्खा सिंह ही निभा सकते थे। फरहान मिल्खा सिंह के किरदार में रंग गए थे। कम ही लोगों को मालूम है कि रंग दे बसंती में सिद्धार्थ वाला रोल मैंने पहले फरहान को ही ऑफर किया था। मुझे उनकी आंखों में अदाकारी की झलक मिल गई थी। किसी भी ऐक्टर को उसकी आंखों से पहचानना और पढना चाहिए। फरहान की आंखों में गहराई के साथ एक लहर भी है। उन्होंने इस फिल्म के लिए जरूर फिजिकल पहलू पर बहुत ध्यान दिया। उन्होंने इमोशनल पहलू पर भी गौर किया। ऐक्टर के किरदार की तैयारी को लेकर फरहान अख्तर से बात की जानी चाहिए।
जोश-जज्बे की कहानी
फरहान इस फिल्म में मिल्खा सिंह के प्रतिरूप हो गए थे। कहा जाता है कि यह भूमिका उनके जीवन की बडी उपलब्धि है। इस भूमिका को जीवंत करने की अपनी तैयारियों के बारे में फरहान ने मिल्खा सिंह की छोटी-छोटी बातों पर गौर किया। वे याद करते हैं, मेरी पहली कोशिश तो यही थी कि मैं देखने में एथलीट लगूं। मैंने उनकी छवि को आज के अनुरूप किया। कई दर्शकों को लगा कि मिल्खा सिंह की बॉडी ऐसी नहीं थी, पर उनकी छवि याद करें तो यही लगता है कि उनकी बॉडी फौलाद की रही होगी। कोशिश थी कि पर्दे पर मुझे देखते हुए भी दर्शकों को मिल्खा सिंह के जोश और जज्बे का खयाल आए।
फिल्म भाग मिल्खा भाग आरंभ होने के कुछ मिनटों बाद ही दर्शक भूल जाते हैं कि वे रॉक ऑन या जिंदगी ना मिलेगी दोबारा के फरहान अख्तर को देख रहे हैं। आंखों के सामने दौडते-भागते व्यक्ति को सभी मिल्खा सिंह ही समझते हैं।
नई परंपरा की शुरुआत
हिंदी फिल्मों के इतिहास में खेल पर बनी फिल्मों की समृद्ध परंपरा नहीं है। पिछले साल तिग्मांशु धूलिया की पान सिंह तोमर आई थी। इस साल भाग मिल्खा भाग आई है। दोनों फिल्मों की सफलता और सराहना के बाद फिल्म इंडस्ट्री का रवैया बदला है। भविष्य में ध्यानचंद, मैरी कॉम और अन्य खिलाडियों के जीवन पर फिल्मों की योजनाएं बन रही हैं।
अजय ब्रह्मात्मज
अजय ब्रह्मात्मज