मूल्यों में आए बदलाव की कहानी है गुरु
गुजरात के एक व्यवसायी की कहानी है गुरु। गुरुकांत अपनी महत्वाकांक्षाओं के आगे पिता की भी नहीं सुनता और अपने सपने पूरे करने मुंबई चला जाता है। व्यापार में सब जायज है, यह विश्वास करने वाले गुरुकांत के अपने नियम हैं। फिल्म गुरु से अभिषेक बच्चन को पहली बार शोहरत का स्वाद चखने को मिला। फिल्म से जुड़े चंद रोचक किस्से सुना रहे हैं अजय ब्रह्मात्मज।
छठे दशक के गुजरात में रहने वाले गुरुकांत देसाई की कहानी है फिल्म गुरु। गुरुकांत देसाई ने गांव में सपने देखे और पिता के मना करने के बावजूद उन सपनों को पूरा करने के लिए पहले तुर्की और फिर मुंबई की यात्रा की। दृढनिश्चयी गुरुकांत तमाम बाधाओं को पार करता सब हासिल करता है। व्यापार बढाने के लिए अपनाए गए भ्रष्ट आचरणों का आरोप लगने पर वह अपनी सफाई देकर उनसे बरी भी हो जाता है। कहते हैं कि यह फिल्म रिलायंस के संस्थापक धीरू भाई अंबानी के जीवनांश पर आधारित थी। गुरु एक साथ तमिल, तेलुगु और हिंदी में रिलीज हुई थी।
संभावनाएं जगाई फिल्म ने
दक्षिण के फिल्मकार मणिरत्नम ने रोजा से हिंदी भाषी दर्शकों के बीच पहचान बनाई। बांबे और दिल से में उन्होंने हिंदी फिल्म कलाकारों के साथ तमिल फिल्मों से बाहर निकलने की सफल कोशिश की। इन दोनों फिल्मों को हिंदी भाषी दर्शकों ने स्वीकार किया। उनकी फिल्मों के चरित्र की ऊर्जा और गानों के फिल्मांकन ने दर्शकों को बहुत प्रभावित किया। कोलकाता की पृष्ठभूमि में बनी युवा समाज के विभिन्न वर्गो के युवकों की समेकित कहानी कहती है। फिल्म के निर्माण और निर्देशन के दौरान उन्होंने अभिषेक बच्चन को गुरु का आइडिया सुनाया था। गुरु को लेकर अभिषेक बच्चन उत्साहित हुए। उन्होंने सहयोग का वादा किया। युवा से पहली बार अभिषेक बच्चन चर्चा में आए। करियर के आरंभ से ही अमिताभ बच्चन के बेटे होने की वजह से उनके मूल्यांकन के लिए अलग प्रतिमान रखे गए। फिल्म की रिलीज के बाद उनकी कमियों की अधिक चर्चा हुई। पिता की सलाह पर आलोचनाओं को समझने और खुद को सुधारने की कोशिश करते हुए अभिषेक लगातार फिल्में करते रहे। उन्होंने हिट या फ्लॉप से अधिक फिल्मों की विविधता पर ध्यान दिया। उन्हें ऐसा मौका गुरु में मिला। हालांकि इस फिल्म में उम्दा अभिनय के बावजूद उन्हें अवॉर्ड नहीं मिला। वह कहते हैं, दिलीप साहब को गंगा जमुना और पापा को दीवार के लिए कभी अवॉर्ड नहीं मिला, लेकिन दोनों फिल्मों का महत्व सबको पता है। मुझे इस फिल्म से दर्शकों की सराहना मिली। आज भी कभी-कभार कोई गुरु भाई कह कर बुलाता ही है।
जोड-तोड का बिजनेस
युवा के फिल्मांकन के दौरान ही मणिरत्नम ने देश के सोच में आए बदलाव पर गौर किया। उन्होंने स्कूल के दिनों के आदर्श को ढहते देखा। वे दिखाना चाहते थे कि कैसे व्यक्ति के लिए सामाजिक हित हाशिए पर चला गया है। पहले हम देश और समाज के लिए सोचते थे। दूसरों की परवाह करते थे, लेकिन अब सब मैं तक सीमित हो गया है। मैं ज्यादा महत्वपूर्ण हूं। कुछ ऐसी ही सोच बन गई है कि अगर मेरा भला हुआ तो दूसरों का भी हो जाएगा। इस स्वार्थ में नियम-कानून का दुरुपयोग भी किया जा सकता है तो गलत नहीं है। गुरुकांत देसाई अपने हिसाब से कानून के अंदर रहते हुए भी जोड-तोड से बिजनेस को बढाता है। उसके लिए परिणाम ज्यादा जरूरी है, न कि तरीके। मणि रत्नम कहते हैं, पहले हम संयम और परहेज का जीवन जीते थे। लाल बहादुर शास्त्री के आह्वान पर देश ने हफते में एक वक्त के भोजन का त्याग कर दिया था। पच्चीस-तीस सालों के बाद अब वैसी स्थिति नहीं रही।
सही और गलत का फर्क
मणि रत्नम ने गुरु फिल्म गुरुकांत देसाई के सामने माणिक दास गुप्ता (मिथुन चक्रवर्ती) को खडा किया। पुरानी सोच व मूल्यों वाले माणिक सही और गलत के फर्क को समझते हैं। वे इस पर अमल भी करते हैं। गुरु से लगाव और प्रेम के बावजूद अपने अखबार में उसके ख्िालाफ लिखने से नहीं चूकते। अभिषेक गुरु में माणिक के साथ अपने संबंधों को अलग नजरिये से देखते हैं। उनके मुताबिक, फिल्म के आरंभ में ही स्पष्ट हो जाता है कि गुरुकांत की अपने पिता से नहीं बनती है। वह उनकी इच्छा के विरुद्ध व्यवसाय के लिए निकल पडता है। मुंबई आने पर उसे माणिक मिलते हैं। माणिक दास गुप्ता के रूप में उसे पिता मिलते हैं। दुखी और नाराज होने के बावजूद मिथुन के प्रति उसका आदर खत्म नहीं होता। मिथुन भी गुरुकांत यानी मुझे पुत्रवत स्नेह देते हैं। स्ट्रोक होने पर वे मुझसे मिलने भी आते हैं। मणि रत्नम ने गुरु और मिथुन के किरदारों के जरिये कहानी में कंट्रास्ट पैदा किया है।
लंबी बैठकों का असर
अभिषेक बच्चन बताते हैं, फिल्म शुरू होने के पहले ही मणि रत्नम के साथ अनेक बैठकें हुई। युवा के समय मैंने महसूस किया था कि मणि सर अपनी फिल्म और चरित्रों के बारे में काफी बातें करते हैं। वे बताने के साथ ही कलाकार को टटोलते हैं और कलाकार के खयालों पर गौर करते हैं। युवा में तो मैं अनेक कलाकारों में से एक था, लेकिन गुरु में मेरी केंद्रीय भूमिका थी। इसलिए हर बैठक में मैं बहुत गंभीर और एकाग्र रहा कि कहीं कुछ छूट न जाए। समझना जरूरी था कि मणि सर गुरुकांत देसाई के बारे में क्या सोचते हैं और मुझसे क्या-क्या अपेक्षाएं रखते हैं। वे मेरी राय भी सुनते थे। मुझे लगता है कि हर फिल्म के क्रिएटिव प्रोसेस में लेखक और निर्देशक से लंबी बातचीत की जानी चाहिए।
आसान नहीं था गुरु बनना
गुरु अभिषेक बच्चन के लिए आसान फिल्म नहीं थी। उन्हें वजन बढाने से लेकर चाल-ढाल तक पर मेहनत करनी पडी। किरदार के बाहरी रंग-रूप के साथ उसके अंतस को भी समझना पडा। संवाद अदायगी पर विशेष ध्यान देना पडा। फिल्म के हिंदी संवाद विजय कृष्ण आचार्य और अनुराग कश्यप ने लिखे थे। उन संवादों से गुरु की सोच की झलक मिलती है। अभिषेक गुरु में अपनी तैयारी के बारे में बताते हैं, मुझे निश्चित समय में 20 किलो वजन बढाना पडा।
वजन हासिल करने के बाद भी मुझे चाल-ढाल में फुर्ती रखनी थी। मैंने निर्माता वासु भगनानी की नकल की। वासु भगनानी की चुस्ती और तेजी देखने लायक रहती है। थोडे मोटे होने के बावजूद उनमें शिथिलता नहीं है। मैंने उन्हें यह बात बताई थी तो वे बहुत हंसे थे। मुझे फिल्म में गुरु का एटीट्यूड तय करने में थोडा वक्त लगा। गुरुकांत किसी भी चुनौती में हार नहीं मानता। दांव नहीं मालूम रहने पर भी वह मुकाबले के लिए तैयार रहता है। मणि रत्नम ने फिल्म में ऐसे कई दृश्य रखे थे, जिनमें गुरु का यह गुण उभर कर आता है। फिल्म का आखिरी दृश्य कथ्य के लिहाज से महत्वपूर्ण है। इस दृश्य में गुरुकांत देसाई अपने ऊपर लगे आरोपों की सफाई देता है और खुद को बेगुनाह साबित करने में सफल होता है।
स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्त्रियां
फिल्म में मल्लिका सहरावत ने झुंपा का किरदार निभाया था। उन पर फिल्माया गया मय्या मय्या गाना काफी पॉपुलर हुआ था। दर्शकों को नहीं मालूम कि गुरु के व्यक्तित्व पर झुंपा का असर था। तुर्की में झुंपा ने गुरु को दुनियावी जानकारी दी थी। झुंपा से अपने संबंध के बारे में अभिषेक बच्चन नई बात सुनाते हैं, गुरुकांत देसाई के लिए झुंपा बडी बहन के समान थी। उसी ने मुझे दुनियादारी सिखाई। व्यावहारिकता के तौर-तरीके सिखाए। उसकी सिखाई तरकीबें मेरी जिंदगी में काम आई। गुरुकांत का झुंपा से रोमैंटिक रिश्ता नहीं था। मेरे दोस्त घनश्याम भाई (मनोज जोशी) से उसका रोमैंस था। मणिरत्नम की राय में झुंपा गुरुकांत की जिंदगी में आई पहली महत्वाकांक्षी लडकी थी। बॉयोपिक होने के कारण मुझे गुरुकांत देसाई के चरित्र पर अधिक फोकस करना था। फिल्म की लंबाई भी ज्यादा हो गई थी, लेकिन दृश्य नहीं होने के बावजूद गुरुकांत और घनश्याम की जिंदगी और फिल्म में झुंपा की मौजूदगी बनी रही।
सहयोगी भूमिका के होने के बावजूद सुजाता का अपना महत्व था। फिल्म के आरंभ में ही स्पष्ट हो जाता है कि वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली लडकी है। गुरु से शादी के बाद वह भी मुंबई आती है। गुरु के जीवन का वह मजबूत सहारा बनती है। कुछ मुद्दों पर गुरु से सुजाता का मनमुटाव भी होता है। अभिषेक इस फिल्म में ऐश्वर्या राय की तारीफ करते हुए कहते हैं, ऐश्वर्या राय बेहतरीन अभिनेत्री हैं। उनके साथ और सहयोग से ही फिल्म खास बनी। हालांकि फिल्म में सुजाता का अहम किरदार नहीं था, लेकिन ऐश्वर्या ने सीमित दृश्यों में ही अपनी प्रतिभा जाहिर की। दोनों के झगडे और प्रेम के दृश्य भावपूर्ण और प्रभावशाली हैं।