सत्या रीअल अंडरवर्ल्ड का चित्रण
अंडरवर्ल्ड पर बनी एक कल्ट फिल्म है सत्या। गैंगस्टर्स की वास्तविक जिंदगी और उनके दुख-सुख को करीब से दिखाने वाले डायरेक्टर राम गोपाल वर्मा पर आरोप लगे कि उन्होंने बुराई का महिमामंडन किया है। मगर फिल्म को दर्शकों की वाहवाही तो मिली ही, छह फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिले। फिल्म से जुड़े रोचक किस्से सुना रहे हैं अजय ब्रह्मात्मज।
वर्ष 1998 में राम गोपाल वर्मा की फिल्म सत्या पिछली सदी के अंतिम दशक की कल्ट फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म ने हिंदी फिल्मों में गैंगस्टर का चित्रण बदल दिया। सत्या के प्रभाव के बाद अनेक फिल्में आई, लेकिन उनमें से कोई भी इतनी प्रभावशाली नहीं बनी। यहां तक कि राम गोपाल वर्मा सत्या 2 में भी वह प्रभाव नहीं ला सके। सत्या से हिंदी फिल्मों में अनेक प्रतिभाओं का पदार्पण हुआ। आज वे सभी फिल्म निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित हस्ताक्षर हैं। इस फिल्म ने राम गोपाल वर्मा को मुंबई में टिकने और फिल्में बनाते रहने की हैसियत दी।
अंडरवर्ल्ड का चित्रण
अंडरवर्ल्ड को देखने-समझने के एक नए दृष्टिकोण से सत्या की शुरुआत हुई। राम गोपाल वर्मा बताते हैं, हैदराबाद से जिन दिनों मैं मुंबई आया था, उन दिनों अंडरवर्ल्ड काफी ऐक्टिव था। अखबारों में मरने-मारने की खबरें आती रहती थीं। हफ्ता वसूली, धमकी और हत्या तक की सूचनाएं अखबारों में भरी रहती थीं। मेरे लिए यह शब्द नया था। हिंदी फिल्मों के दर्शक होने के नाते हमारी समझ यश चोपडा की दीवार के विजय (अमिताभ बच्चन) के अंडरवर्ल्ड तक ही सीमित थी। यहां आने के बाद उनकी जिंदगी के बारे में पता चला। मैं जानना चाहता था कि इस मरने-मारने के बीच में उनकी ज्िादगी कैसी है। उनका भी तो कोई परिवार होता होगा। रोजमर्रा की जिंदगी की अपनी मुश्किलें और तकलीफें होंगी।
रिसर्च और यथार्थ
हर दृष्टिकोण के साथ राम गोपाल वर्मा ने सोचना और रिसर्च करना शुरू किया। रंगीला की कामयाबी से उन्हें हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अवसर मिल रहे थे। संजय दत्त के साथ उनकी दौड आरंभ हो चुकी थी। इस फिल्म के दरम्यान उनकी मुलाकात मनोज बाजपेयी से हुई। बैंडिट क्वीन जैसी फिल्म से बडे पर्दे पर आ चुके मनोज बाजपेयी तब मुंबई में संघर्ष कर रहे थे। फिल्म दौड में उन्हें छोटी सी भूमिका मिली थी। उनकी स्फूर्ति और ऊर्जा से राम गोपाल वर्मा बहुत प्रभावित थे। उन्होंने वादा किया कि उनकी अगली फिल्म में मनोज बाजपेयी ही मुख्य किरदार होंगे। मनोज को पहले तो यकीन नहीं हुआ। उन्हें लगा कि रामू ने यों ही कहा होगा। नए कलाकारों को जोश दिलाने के लिए डायरेक्टर अकसर ऐसे आश्वासन देते रहते हैं।
लेकिन राम गोपाल वर्मा ने दौड खत्म होने के समय मनोज बाजपेयी को बुलाया और सत्या का आइडिया शेयर किया। फिल्म मुख्य रूप से मुंबई नए-नए आए सत्या की है, जो नौकरी की तलाश में मुंबई आया है। डांस बार में वेटर का काम करते हुए एक लोकल गैंगस्टर से उसकी झडप होती है, जो उसे जेल भिजवा देता है। जेल में सत्या की मुलाकात भीखू म्हात्रे से होती है। दोनों में दोस्ती हो जाती है। भीखू अपने साथ सत्या को भी जेल से निकलवाने में सफल होता है। सत्या जेल से बाहर आने पर सबसे पहले लोकल गैंगस्टर से बदला लेता है और फिर भीखू के साथ काम करने लगता है। इसके बाद अंडरवर्ल्ड की गतिविधियां आरंभ होती है, जिनमें एक-एक कर अंडरवर्ल्ड के सारे सदस्य मारे जाते हैं या कुछ भाग जाते हैं। अंडरवर्ल्ड की इस आम कहानी को राम गोपाल वर्मा अपने ट्विस्ट और ट्रीटमेंट से अलग रंग देना चाहते थे। उन्हें जरूरत थी ऐसे लेखक की, जो उनकी सोच को रिसर्च के आधार पर स्क्रिप्ट का रूप दे सके।
सशक्त लेखन
स्क्रिप्ट के लिए राम गोपाल वर्मा ने इस रात की सुबह नहीं के लेखक सौरभ शुक्ला को चुना था। एक और लेखक की ज्ारूरत थी तो उन्होंने दिल्ली से आए मनोज बाजपेयी से सलाह मांगी। मनोज दिल्ली से आए लेखकों और कलाकारों के नियमित संपर्क में थे। उन्हें अनुराग कश्यप में एक कौंध सी दिखी थी। अनुराग कश्यप तब फिल्मों-टेलीफिल्मों के लिए छिटपुट लेखन कर रहे थे। इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में यथार्थवादी फिल्में देखकर फिल्मों में आने के लिए प्रेरित हुए अनुराग कश्यप की रुचि मेनस्ट्रीम सिनेमा में नहीं थी। वे कुछ नया और रिअलिस्टिक लेखन करना चाहते थे। संयोग से रामू को उनका एटीट्यूड और रवैया पसंद आया। अनुराग कश्यप के लिए सत्या का लेखन चुनौतियों से भरा होने के साथ ही काफी अनुभवपूर्ण भी रहा। उन्होंने रामू से बहुत कुछ सीखा। फिल्म के कैमरामैन जेराल्ड हूपर के साथ काम करने का भी लाभ उठाया।
जबर्दस्त कारोबार
मनोज बाजपेयी कहते हैं, हम सभी के लिए सत्या का अनुभव नया था। मुंबई में हमारी शुरुआत थी। अनुराग कश्यप मेरे कहने पर फिल्म से जुडे थे। सौरभ शुक्ला और आदित्य श्रीवास्तव के लिए भी यह बडा मौका था।
रामू की मानसिकता के बारे में मनोज बाजपेयी बताते हैं, शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन देखने के बाद राम गोपाल वर्मा वैसी फिल्म का ख्ायाल लेकर घूम रहे थे। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री इसके लिए तैयार नहीं थी, लेकिन जिद के धनी रामू ने ठान लिया कि उन्हें बैंडिट क्वीन की तर्ज पर ही फिल्म बनानी है। उन दिनों वे यही कहते थे कि मुझे अपनी बैंडिट क्वीन बनानी है। सत्या राम गोपाल की बैंडिट क्वीन है। दर्शकों ने उसे स्वीकार भी किया। सिर्फ दो करोड की लागत से बनी इस फिल्म ने 15 करोड से अधिक का कारोबार किया था।
रीअल डॉन
मजेदार तथ्य है कि फिल्म के पोस्टर पर सत्या बने कलाकार जेडी चक्रवर्ती की तसवीर थी। प्रचार और पोस्टर में कहीं भी भीखू म्हात्रे का नाम नहीं था। मनोज बाजपेयी को फिल्म इंडस्ट्री के ही कुछ लोग जानते थे, लेकिन फिल्म के प्रदर्शन के बाद फिल्म की शीर्षक भूमिका निभा रहे कलाकार को सभी ने नजरअंदाज कर दिया। हर जगह मनोज बाजपेयी का शोर था। वे रातों रात इंडस्ट्री और दर्शकों के चहेते बन गए थे। मनोज बाजपेयी इसका श्रेय राम गोपाल वर्मा को देने से नहीं चूकते। वह कहते हैं, रामू में गजब का स्पार्क था। वे खुले दिमाग से काम करते थे। लेखकों-कलाकारों की सलाह पर गौर करते थे और उन्हें फिल्म में शामिल करते थे। उनका उत्साह चकित करता था।
सत्या के पहले तक हिंदी फिल्मों में अंडरवर्ल्ड का चित्रण घिसे-पिटे ढंग से होता था। उन्हें लक-दक सफेद कपडों में सिगार पीते दिखाया जाता था। राम गोपाल वर्मा ने पहली बार मुंबई की गलियों से किरदारों को उठाया और उन्हें सत्या में पिरो दिया। अनुराग कश्यप ने सत्या के बारे में एक लेख में कहा था, इस फिल्म का हर किरदार किसी न किसी रीअल लाइफ के कैरेक्टर पर आधारित था। रिसर्च के दौरान रामू अनेक गैंगस्टर्स से मिले थे। उनकी जिंदगी के अनुभवों को ही फिल्म के दृश्यों में उतारने का निर्देश दिया था।
महिमामंडन बुराई का
सत्या की शूटिंग मुंबई के रीअल लोकेशन पर भी की गई थी। गणेश विसर्जन के विहंगम दृश्य पर सभी का ध्यान जाता है। वास्तविक विसर्जन के दृश्यों को फिल्म के लिए शूट किए गए दृश्यों में मिला कर ही वह रोमांच गढा गया था। सत्या के संदर्भ में राम गोपाल वर्मा की आलोचना की जाती है कि उन्होंने अंडरवर्ल्ड को ग्लैमराइजकिया। साथ ही उसके ह्यूमन फेस को दिखा कर अपराधियों के प्रति हमदर्दी जताई। राम गोपाल वर्मा इससे इंकार करते हैं। वह कहते हैं, मैंने अवश्य ही यह बताने और दिखाने की कोशिश की कि अंडरवर्ल्ड के सदस्य भी समाज के दूसरे नागरिकों की तरह होते हैं। उनके जीवन के सुख-दुख दूसरों से बहुत अलग नहीं होते। समाज के भटके और विद्रोही व्यक्ति ही अपराध की दुनिया में प्रवेश करते हैं। अगर उन्हें सही दिशा-निर्देश मिले तो वे समाज के लिए उपयोगी हो सकते हैं। फिल्म बनाते समय मेरी यह मंशा थी कि सत्या देखने के बाद अगर एक भी अपराधी यह महसूस कर सके कि उसके रिवॉल्वर चलाने का अंजाम क्या होता है तो मैं अपने उद्देश्य में सफल हूं। मैं यह बताना चाहता हूं कि बंदूक उठाने वाला भी समाज का नागरिक है। सत्या में अंडरवर्ल्ड से जुडे सारे सदस्य अंत तक मारे जाते हैं। अगर मैं उन्हें सुरक्षित और खुशहाल दिखाता तो अंडरवर्ल्ड को ग्लैमराइज करने का आरोप सही रहता।
फिल्म सत्या उस साल के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के इंडियन पैनोरमा खंड में शामिल हुई थी। इसे फिल्मफेयर के छह पुरस्कार मिले थे।
अजय ब्रह्मात्मज