क्रांतिकारी भगत सिंह की जीवन-गाथा शहीद
स्वतंत्रता की लड़ाई में क्रांतिकारी दल के नायक शहीद भगत सिंह हर युग के युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं। पंजाब की जीवंत धरती पर पैदा हुए भगत सिंह के लिए आजादी उनकी महबूबा थी, जिसकी खातिर इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते हुए वह फांसी के फंदे पर झूल गए।
स्वतंत्रता की लडाई में क्रांतिकारी दल के नायक शहीद भगत सिंह हर युग के युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं। पंजाब की जीवंत धरती पर पैदा हुए भगत सिंह के लिए आजादी उनकी महबूबा थी, जिसकी खातिर इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते हुए वह फांसी के फंदे पर झूल गए। निर्माता केवल पी. कश्यप और अभिनेता मनोज कुमार की फिल्म 'शहीद' इसी क्रांतिकारी की जीवन-गाथा है। फिल्म से जुडी दिलचस्प कहानियां सुना रहे हैं अजय बह्मात्मज।
वर्ष 1965 में बनी 'शहीद' केपीके मूवीज की फिल्म थी। मनोज कुमार ने इसमें शहीद-ए-आजम भगत सिंह की भूमिका निभाई थी। माना जाता है कि परोक्ष में मनोज कुमार इसके निर्माता-निर्देशक थे। सच जो भी हो, लेकिन पर्दे पर निर्देशक एस. राम शर्मा का नाम आता है। निर्माता केवल पी. कश्यप थे। उनकी और मनोज कुमार की पुरानी दोस्ती थी। मनोज कुमार ने उन्हें बताया था कि स्कूल-कॉलेज के दिनों में एक बार उन्होंने अपने नाटक में भगत सिंह की भूमिका निभाने की कोशिश की थी, मगर भीड देख कर घबराहट में वे पंक्तियां भूल गए और दर्शकों की हंसी के बीच शर्मिंदगी के साथ नेपथ्य में गए। उन्होंने कहा कि वे सिनेमा के पर्दे पर भगत सिंह की भूमिका निभाना चाहेंगे। केवल पी. कश्यप भी पंजाब के है। उन्होंने बचपन में भगत सिंह के िकस्से सुने थे। फिल्म निर्माण में उतरने की इच्छा थी। दोनों दोस्तों के प्रयास से 'शहीद' का निर्माण शुरू हुआ। आरंभिक निवेश बिहार से आए कलाकार मनमोहन ने किया। केवल पी. कश्यप पत्रकार एवं पीआरओ थे। मनमोहन की सहायता से ही फिल्म निर्माता बन सके।
बालक भगत सिंह
फिल्म शुरू होती है तो वॉयस ओवर सुनाई पडता है 'शहीद', आजादी के सुनहरे सवेरे से पहले गुलामी की अंधेरी रातों की कहानी है, जब देश पर अंग्रेजों का राज था। हुकूमत के जुल्म और फांसी के फंदों पर झूलने वाले शहीदों की कहानी है। उन दिनों की कहानी है, जब सूरज की रोशनी नित नए कानून के अंधेरे लेकर आती थी...।
इसके बाद फिल्म शुरू होती है और हम बाल भगत सिंह को उनके पिता व चाचा के साथ देखते हैं। लोहडी का माहौल है। नंबरदार के यहां गाना-बजाना चल रहा है। तभी एक व्यक्ति अपनी पगडी नंबरदार के पांव पर डालते हुए कर्ज और लगान माफ करने की गुहार करता है। भगत सिंह के चाचा को यह बात बर्दाश्त नहीं होती और वे आह्वान करते हैं, 'पगडी संभाल जट्टा, पगडी संभाल'। बाद में यह गीत पंजाब और पूरे देश में राष्ट्रीय अभिमान का प्रतीक बना। चाचा की कही बात बालक भगत सिंह को मथती है। चाचा ने कहा था, 'अपने घर और जीवन का तो सोच लेते हैं। देश और धरती मां का नहीं सोचते।' बालक भगत सिंह मां से पूछते हैं, 'गुलाम क्या है? अंग्रेजों का राज क्यों है? अंग्रेजों को बाहर क्यों नहीं निकालते? क्या देश के करोडों लोग कुछ लाख अंग्रेजों का मुकाबला नहीं कर सकते?' मां कहती हैं, 'एक बार इस देश पर मरना सौ जन्मों के समान है।' भगत सिंह के क्रांतिकारी जीवन और विचार की नींव मां के प्यार और शिक्षा में देखी जा सकती है। फिल्म के समय भगत सिंह की मां जीवित थीं। उन्होंने कई जानकारियां भी दी थीं। फिल्म के क्लाइमेक्स में फांसी तय होने के बाद मां-बेटे के बीच के संवाद निश्चित रूप से भगत सिंह के मां के बताए हुए होंगे, क्योंकि उसका कोई दूसरा साक्ष्य नहीं है। उन दृश्यों में भगत सिंह क्रांतिकारी भावनाओं से ओत-प्रोत दिखते हैं।
गीत-संगीत
केवल पी. कश्यप बताते हैं, 'शादी के बाद मुझ पर कुछ बेहतर करने का दबाव पड रहा था। तब पीआरओ के काम को प्रतिष्ठित नहीं समझा जाता था। मनोज कुमार दोस्त थे। वे भगत सिंह की भूमिका करना चाहते थे। मगर यह भी चाहते थे कि निर्माता के तौर पर मैं कोई बडी फिल्म करूं। मैं एचएस रवैल, राज खोसला, शम्मी कपूर, राजेंद्र कुमार का करीबी था, तो मनोज चाहते थे कि इन्हीं लोगों को लेकर फिल्म करूं, मगर मैं मनोज के साथ 'शहीद'बनाना चाहता था। अंतत: वह तैयार हुए। 18 जून 1963 को 'शहीद' का पहला गाना 'ऐ वतन ऐ वतन...' रिकॉर्ड हुआ। गीत-संगीत प्रेम धवन ने तैयार किया था। वे इप्टा से जुडे थे। फिल्म में हमने रामप्रसाद बिस्मिल की ग्ाजल 'सरफरोशी की तमन्ना' को भी लिया। तब 10-12 हजार रुपये में गाना रिकॉर्ड हो जाता था। यह पैसा मनमोहन ने दिया। मनमोहन ने फिल्म में चंद्रशेखर आजाद की भूमिका निभाई थी। वह अपनी फिएट कार रेहन पर रख कर 10 हजार रुपये लाए थे। इस मदद को मैं भूल नहीं पाया, इसलिए फिल्म रिलीज होने के बाद उन्हें सेकंड हैंड मर्सिडीज गिफ्ट की।'
आर्थिक अभाव
केवल पी. कश्यप फिर बताते हैं, 'आठ-नौ रील बनने के बाद धन के अभाव में फिल्म अटक गई। तब एफसी मेहरा ने मुझे पैसा दिया। उन्होंने अपनी कंपनी 'ईगल फिल्म्स' शुरू की थी, जिसमें शम्मी कपूर पार्टनर थे। इसके बाद शूटिंग आगे बढी। फिल्म के फ्लोर पर जाने के समय पंडित नेहरू की मृत्यु हो गई थी और लाल बहादुर शास्त्री देश के नए प्रधानमंत्री बने थे। उनके बेटे मेरे घर आते-जाते थे। इसी के चलते मैं फिल्म के कुछ दृश्य पार्लियामेंट में शूट कर पाया। ऐसा पहली बार हुआ था, जब किसी को पार्लियामेंट में शूटिंग की इजाजत मिली हो। हमें तुगलक फोर्ट में भी शूटिंग की अनुमति मिली। शास्त्री जी के सचिव ललित सेन ने 1964 की दीवाली के दिन मुझे अनुमति दी, क्योंकि उस दिन संसद बंद था। शूटिंग के लिए छह घंटे तक संसद मार्ग बंद किया गया था। लुधियाना की जेल की शूटिंग पंजाब सरकार के सहयोग से पूरी हुई। जेल में मौजूद कैदियों में सिर्फ 18 ही कलाकार थे।'
शास्त्री जी ने की सराहना
'शहीद' की शूटिंग के दरम्यान भारत-पाक युद्ध हुआ, जिसमें भारत विजयी रहा। संधि समझौते पर बातें हुई और लाल बहादुर शास्त्री व्यस्त हो गए थे। 1965 के नवंबर में फिल्म पूरी होने के बाद केवल पी. कश्यप ने शास्त्री जी से आग्रह किया कि वे फिल्म देखें। शास्त्री जी ने कहा कि इस मुश्किल वक्त में उनका फिल्म देखना उचित न होगा, मगर बहुत दबाव डालने पर वह थोडा हिस्सा देखने को तैयार हुए। वह बताते हैं, 'फिल्म आगे बढऩे के साथ-साथ मेरी धक-धक बढती जा रही थी कि अब शास्त्री जी उठेंगे। मैंने थोडी चालाकी की। प्रोजेक्शन रूम में जाकर इंटरवल प्लेट हटवा कर रील बदलवा दी। शास्त्री जी ने दो घंटे छत्तीस मिनट की पूरी फिल्म देखी। फिल्म खत्म होने के बाद वे मंच पर आए और उन्होंने बताया कि वे भी उसी स्कूल के छात्र थे, जहां चंद्रशेखर आजाद ने पढाई की थी। शास्त्री जी को फिल्म इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने अपने लेटर हेड पर एक पत्र भेजा, जिसमें लिखा था, 'आजादी के लिए हमने लंबी लडाई लडी। उस दिन मैंने जो फिल्म 'शहीद' देखी, उसमें इसी लडाई के एक हिस्से का चित्रण था। इस हिस्से के नेता थे श्री भगत सिंह और श्री चंद्रशेखर आजाद। यह फिल्म उस समय के जोश और उत्साह को सही ढंग से पेश करती है। इसके लिए कलाकार व तकनीशियन बधाई के पात्र हैं। शिक्षाप्रद होने के अलावा यह फिल्म राष्ट्रीय एकता को बढावा देगी। देश के कल्याण के लिए यह जरूरी फिल्म है।' अगले साल 'शहीद' को नरगिस दत्त पुरस्कार भी मिला।'
हत्यारे का हृदय परिवर्तन
'शहीद' प्रेम चोपडा और मनमोहन की पहली फिल्म थी। प्राण भी इसमें थे। फिल्म में केहर सिंह का किरदार सबकी सहानुभूति ले जाता है। क्रूर हत्यारा केहर सिंह फांसी की सजा पा चुका है। उसे भगत सिंह की बातें समझ नहीं आती। देश, आजादी, राष्ट्रप्रेम जैसी भावनाओं से रूबरू होने के बाद वह भगत सिंह का मुरीद बन जाता है। उसकी आखिरी ख्वाहिश है कि भगत सिंह उससे हाथ मिला लें। वह कहता है, 'जिंदगी में किसी नेक आदमी से हाथ नहीं मिलाया। हाथ मिलाएगा?' बायोपिक के इस दौर में 'शहीद' एक बार फिर से देखी जानी चाहिए। यह फिल्म बिना किसी उद्घोष के एक क्रांतिकारी के जीवन को ढाई घंटे की रोचक फिल्म में प्रस्तुत करती है। एक दृश्य में कोर्ट में 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारों से झुंझलाकर वकील भगत सिंह से इंकलाब का मतलब पूछता है तो भगत सिंह समझाते हैं, 'इंकलाब, जुल्म को खत्म करने का पुरजोर नारा है। अन्याय और दरिंदगी के निजाम को बदल देने का दूसरा नाम है इंकलाब।' फिल्म के अंतिम दृश्यों में भगत सिंह और उनकी मां के अंतिम भेंट के दृश्य अत्यंत भावपूर्ण हैं। मां को मालूम है कि बेटे को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है। वह विचलित हुए बिना गर्व से कहती है, 'वर्षों की तपस्या पूरी करने जा रहा है जिसका बेटा, उसकी मां खुश नहीं होगी क्या?' अंत में फिर एक वॉयस ओवर आता है, 'महान है यह देश, जिसमें ऐसे वीरों ने जन्म लिया..., जिन्होंने देश पर सर्वस्व न्यौछावर कर वीरगति प्राप्त की और अमर हो गए।'
अजय बह्मात्मज