युवा मस्ती और संजीदगी का मेल रंग दे बसंती
क्या युवा वर्ग समाज से कट चुका है? क्या पैसे कमाना ही उसका मकसद रह गया है? फिल्म रंग दे बसंती यूथ कनेक्ट की बात करती है, हर युवा को सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से जोड़ती है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की यह फिल्म ढर्रे पर चलती फिल्मों की फेहरिस्त में नहीं है, फिर भी इसका कलेक्शन अच्छा हुआ। इसे सराहना के साथ अवॉर्ड्स भी मिले। अजय ब्रह्मात्मज बता रहे हैं फिल्म कैसे बनी।
वर्ष 2006 में आई फिल्म रंग दे बसंती पिछले दशक की ऐसी फिल्म थी, जिसने भारतीय जनमानस के मनोरंजन के साथ उसकी सोच को भी बदला। युवाओं को इससे प्रेरणा मिली। देश की ऐतिहासिक व राजनीतिक विरासत के प्रति उनका रुझान बढा। निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा की पत्नी व सहयोगी भारती ने फिल्म के व्यापक प्रभाव का डॉक्युमेंटेशन किया है। अगस्त में वह फिल्म जारी होगी।
भगत सिंह बने प्रेरणा
विज्ञापन जगत में अपनी खास जगह बनाने के बाद राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने फिल्मों की ओर रुख्ा किया। उनकी पहली फिल्म अक्स में अमिताभ बच्चन और मनोज बाजपेयी केंद्रीय भूमिकाओं में थे। इसके पहले आवाज्ा और समझौता एक्सप्रेस के निर्माण और निर्देशन की विफल कोशिशें भी उन्होंने की थीं। अक्स से उन्होंने अलग पहचान बनाई। इस फिल्म के बाद वह मनोज बाजपेयी के साथ रंग दे बसंती की प्लानिंग कर रहे थे। अमूल की एड फिल्म के सिलसिले में राकेश ओमप्रकाश मेहरा अपनी टीम के साथ गुजरात के किसी गांव में थे। फिल्म लिखने के लिए कमलेश पांडे भी वहां पहुंचे। गांव में शाम के वक्त मनोरंजन और समय बिताने का और कोई साधन नहीं होने की वजह से टीम के सदस्य समूहगान किया करते थे। मेरा रंग दे बसंती चोला गीत सभी के बीच पॉपुलर था। इस गीत पर बातचीत करते हुए एक शाम कमलेश पांडे ने बताया कि उनके पास भगत सिंह के जीवन पर आधारित आइडिया है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की जिज्ञासा बढी। साथ ही यह भी विचार घुमडा कि भगत सिंह के जीवन पर बन रही फिल्में चल नहीं रही हैं। ऐसी स्थिति में क्या भगत सिंह के जीवन पर एक और फिल्म लेकर आना उचित होगा?
यूथ कनेक्शन के नतीजे
फिल्म के विचार के साथ यूथ कनेक्शन की बात उठी। राकेश इस तथ्य से अचंभित थे कि युवा क्रांतिकारी भगत सिंह में युवा समूह का इंटरेस्ट नहीं है। उन्होंने खुद पहले मुंबई और फिर दिल्ली के कॉलेज छात्रों के बीच सर्वेक्षण करवाया। नतीजे निराशाजनक निकले। भगत सिंह के बारे में भी छात्रों को सही जानकारी नहीं थी। मुंबई के छात्रों से निराश होने पर उन्होंने कमलेश पांडे से विमर्श किया कि मुंबई के छात्र तो 25 साल में अरबपति बनना चाहते हैं। वे भला क्रांतिकारी की जिंदगी में क्यों रुचि लेंगे? हम दिल्ली के छात्रों के बीच चलते हैं। लेकिन दिल्ली के छात्रों का डिस्कनेक्ट तो उन्हें और हतप्रभ कर गया। वहां कुछ ऐसे जवाब मिले कि क्रिकेटर कीर्ति आज्ाद क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के बेटे हैं.., भगत सिंह आज होते तो किसी बैंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर होते.., देशभक्ति की गहरी भावना रहती तो सेना में चले गए होते। राकेश ओमप्रकाश मेहरा को इस पीढी की प्रतिक्रियाओं पर आश्चर्य हुआ। उन्हें सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब ही नहीं था। राकेश ओमप्रकाश मेहरा बताते हैं, सर्वेक्षण की निराशा में ही सोचना शुरू किया तो पाया कि हम भी तो युवावस्था में ऐसे ही थे। कॉलेज में मस्ती और धूमधाम करते थे। मैंने कमलेश पांडे से कहा कि भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के किरदारों पर डायरेक्ट फिल्म नहीं बनाई जा सकती। बेहतर होगा कि अप्रत्यक्ष फिल्म बनाई जाए। कमलेश पांडे जीनियस लेखक हैं। उन्होंने तीन दिनों में कहानी का फॉर्मेट बदल दिया। सच्चाई यही है कि यूथ का एक बडा हिस्सा सोसाइटी से कटा रहता है। वह अपनी धुन में मस्त रहता है। हां, अगर उसे वजह मिल जाए तो कुछ भी कर सकता है।
दोस्तों की कहानी
राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने फिल्म की कहानी अपने दोस्तों को लेकर बुनी। उसी आधार पर कमलेश पांडे ने फिल्म का ढांचा तैयार किया। राकेश बताते हैं, हम तीन-चार दोस्त थे, जो दुनिया बदलना चाहते थे। फिल्म के चार किरदारों में मैं और मेरे दोस्त हैं। एक दोस्त यानी मैं फिल्ममेकर बना। एक यू.एस. में है। एक ने ट्रैवल एजेंसी खोल ली है। एक जो एस्केपिस्ट था, आमिर खान के किरदार डीजे की तरह.. वह वास्तविक जिंदगी में प्रिंटिंग प्रेस की मशीनें बेच कर खूब पैसे कमा रहा है। रंग दे बसंती बनाते समय मुझे परवाह नहीं थी कि फिल्म चलेगी कि नहीं? मेरी चिंता यह थी कि आज का यूथ भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद से क्यों नहीं कनेक्ट कर रहा है? भगत सिंह में आम युवा की रुचियां थीं। कम ही लोग जानते हैं कि वे फिल्मों के शौकीन थे। एक बार बमुश्किल खाने के लिए मिले पैसों से उन्होंने फिल्म देखी और चंद्रशेखर आजाद के पूछने पर कहा कि इस फिल्म से पिस्तौल चलाने का तरीका सीख कर आए हैं।
आरंभ में रंग दे बसंती में मनोज बाजपेयी थे, लेकिन उन्हें लेकर फिल्म आगे नहीं बढ पा रही थी। तभी आमिर ने फिल्म में रुचि दिखाई। उनके आने के बाद अचानक फिल्म बडी होने के साथ मुमकिन हो गई। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने आमिर खान को केंद्र में रख कर नए सिरे से कास्टिंग की। एक रोचक जानकारी है कि मुकदमे और अनावश्यक विवादों में फंसने की वजह से फिल्म छह महीने तक अटकी रही। राकेश ने आमिर को सलाह भी दी कि वे अपनी अगली फिल्म फना की शूटिंग आरंभ कर दें, लेकिन आमिर राजी नहीं हुए। छह महीने तक रंग दे बसंती की स्क्रिप्ट पर काम चलता रहा। उसी पर प्रतिक्रियाएं ली जाती रहीं और सुधार किया जाता रहा। आमिर ख्ान की खूबी है कि फ्लोर पर जाने के पहले वह स्क्रिप्ट को अच्छी तरह बांच लेते हैं। राकेश ओमप्रकाश मेहरा मानते हैं कि आमिर के आने के बाद रंग दे बसंती की संभावनाएं बडी होने के साथ मजबूत हो गई।
आमिर खान का जुडना
रंग दे बसंती में आमिर खान ने डीजे का किरदार निभाया था। डीजे पलायनवादी है। वह दुनिया का मुकाबला नहीं करना चाहता और जिंदगी की कठोर सच्चाइयों से दूर कॉलेज की जिंदगी में डूबा रहना चाहता है। रंग दे बसंती में युवा व विश्वसनीय दिखने के लिए आमिर ने खास हेयरस्टाइल अपनाने के साथ अपनी वेशभूषा भी चुनी। उन्हें युवा कलाकारों (कुणाल कपूर, सिद्धार्थ, आर. माधवन और अतुल कुलकर्णी) के साथ खुद को मैच करना था। आमिर कहते हैं, मेरी उम्र से सभी परिचित हैं। रंग दे बसंती के पहले लगान, दिल चाहता है और मंगल पांडे जैसी फिल्में आ चुकी थीं। उनमें मैं डीजे से बडी उम्र का था। इस फिल्म के लिए अपने शरीर और लुक पर मुझे मेहनत करनी पडी। मेरा मानना है कि आप जैसा चाहते हैं, वैसे ही दिखने लगते हैं। युवा दिखने के लिए जरूरी है कि आप खुद को हमेशा युवक के रूप में देखें। फिल्म में किरदार को निभाते समय चाल-ढाल और बॉडी लैंग्वेज पर भी मेहनत करनी पडती है। मुझे 25-30 साल के बीच का दिखना था।
इस फिल्म के लिए आमिर खान को फिल्मफेयर का क्रिटिक अवार्ड मिला था। यह फिल्म विदेशी भाषा की फिल्म-श्रेणी में भारत से ऑस्कर के लिए भेजी गई थी। वहां इसे सफलता नहीं मिली। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की रंग दे बसंती को सराहना के साथ अच्छी कमाई भी मिली थी।
दमदार गीत-संगीत
2006 में आई इस फिल्म का कलेक्शन सबसे अधिक रहा था। रंग दे बसंती की लोकप्रियता में फिल्म के गीत-संगीत का भी बडा योगदान रहा। प्रसून जोशी के जोशीले और भावपूर्ण शब्दों को ए. आर. रहमान ने ओजपूर्ण ध्वनियों से सजाया। रहमान ने फिल्म में पंजाब की संस्कृति, संगीत की गति और ऊर्जा को पिरोया। दलेर मेंहदी की आवाज में फिल्म का टाइटल ट्रैक दर्शकों को फिल्म से जोड देता है। गीत लिखते समय प्रसून जोशी ने समकालीन युवकों की सोच और मानसिकता को ध्यान में रखा। उन्होंने गीतों में उनकी शब्दावली को प्रभावपूर्ण तरीके से इस्तेमाल किया।
समकालीन सच्चाइयों को दिखाने की वजह से रंग दे बसंती विवाद में भी रही। पहली आपत्ति तो सरकारी एजेंसियों की तरफ से आई। मिग घोटाले के दृश्य इस फिल्म में थे। मिग दुर्घटना में फिल्म का एक किरदार मरता है और उसके दोस्त लामबंद होकर इंडिया गेट पर शांतिपूर्ण धरना करते हैं। उन पर पुलिस दमन और अत्याचार करती है तो उनका अभियान उत्तेजक और विशाल हो जाता है। वे दिल्ली के रेडियो स्टेशन पर कब्जा कर लेते हैं। हालांकि आखिर में वे गोलियों से छलनी होते हैं, लेकिन लापरवाह से दिख रहे लडके एक मुद्दे के लिए मौत का भी दोस्त की तरह आलिंगन करते हैं। फिल्म के अंतिम दृश्यों में उनकी सम्मिलित हंसी वास्तव में देश की विडंबनाओं को उजागर कर देती है।
रंग दे बसंती हिंदी सिनेमा की चंद उल्लेखनीय फिल्मों में एक है। हाल-फिलहाल कोई दूसरी फिल्म प्रभाव, मनोरंजन और लाभ में इसके समकक्ष नहीं दिखती। हालांकि राकेश ओमप्रकाश मेहरा इसके निर्माण-निर्देशन के समय सशंकित थे, लेकिन फिल्म के परिणाम ने उन्हें लाभ-हानि से परे जाकर अच्छी फिल्मों के लिए प्रेरित किया। उनके इसी विश्वास को दर्शकों ने दिल्ली 6 में देखा। इसी महीने रिलीज हो रही फिल्म भाग मिल्खा भाग में भी राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने एक प्रेरक विषय और व्यक्तित्व चुना है।
अजय ब्रह्मात्मज