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लौट रहा है थिएटर का युग

पिछले 20 वर्षो से नाटकों के माध्यम से सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक चेतना फैला रहा है थिएटर ग्रुप अस्मिता। भ्रष्टाचार के मुद्दे से लेकर स्त्री-सवालों तक इसके नाटक जनता को झकझोरते हैं। डायरेक्टर अरविंद गौड़ बता रहे हैं कि थिएटर जिंदगी में क्यों जरूरी है।

By Edited By: Published: Sat, 10 May 2014 11:19 AM (IST)Updated: Sat, 10 May 2014 11:19 AM (IST)
लौट रहा है थिएटर का युग

बेहतर दुनिया के सपने को साकार करने की मुहिम में जुटा है थिएटर ग्रुप अस्मिता। निर्भया कांड हो या भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम, टीम ने नुक्कड नाटकों के जरिये हर जगह सशक्त उपस्थिति दर्शाई। पिछले 20 वर्षो से थिएटर में सक्रिय अस्मिता के डायरेक्टर अरविंद गौड का मानना है कि थिएटर समाज में बदलाव लाता है और लोगों को सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध बनाता है। पिछले दिनों आई फिल्म रांझणा में अरविंद गौड की टीम अहम भूमिका में नजर आई तो कंगना रनौत जैसी सशक्त अभिनेत्री के गुरु व मेंटर भी हैं अरविंद। मुहिम दस्तक के माध्यम से अस्मिता ने स्त्री-विषयों पर आवाज मुखर की है। गली-मुहल्लों, चौराहों, मेट्रो स्टेशनों से लेकर स्कूलों व हाउसिंग सोसाइटीज में जाकर ग्रुप नाटक करता है। छेडखानी, घरेलू हिंसा, दुष्कर्म जैसे तमाम विषयों पर नाटक दिखाए जा रहे हैं।

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कैसे बदलाव लाता है थिएटर और यह जिंदगी में क्यों जरूरी है, बता रहे हैं अरविंद गौड।

परिवर्तन की बयार

दस्तक के जरिये हम लोगों से सीधा संवाद कर रहे हैं। कुछ साल पहले तक लोगों की सोच थी कि कुछ नहीं बदल सकता, मगर अब जागरूकता बढी है। हम अब तक ढाई हजार से ज्यादा शो कर चुके हैं। दिल्ली के बाहर भी नाटक किए हैं। नाटकों के बहाने हम बहस खडी करते हैं। स्त्रियों के खिलाफ अपराध बंद हों, प्रतिरोध का स्वर मुखर हो और लोगों को महसूस हो कि अब ऐसा नहींचलेगा, इसी संदेश के साथ हम लोगों के बीच जा रहे हैं। अस्मिता के 80 लोगों में 24 लडकियां हैं।

बदली है युवा सोच

आज के युवा को बेहतरीन करियर, गाडी, मोबाइल और हर सुख-सुविधा चाहिए। सब कुछ है उसकी मुट्ठी में। उसे वह सब चाहिए, जो जिंदगी को बेहतर बनाए। मगर इसके साथ ही वह सामाजिक-राजनैतिक रूप से भी परिपक्व है। तमाम आंदोलनों में युवाओं की शिरकत काबिले-गौर है। आज के यूथ में बेचैनी है। वह सोशल साइट्स के जरिये अपनी बात रख रहा है। फेसबुक, ट्विटर पर राजनैतिक कमेंट्स युवाओं की वैचारिक परिपक्वता व संवेदनशीलता को दर्शा रहे हैं। राजनैतिक दल भी उन्हें टारगेट कर रहे हैं। हम कॉलेजों में नाटक करते हैं तो युवाओं से जबर्दस्त फीडबैक मिलता है।

हमेशा रहेगा थिएटर

मल्टीप्लेक्सेज और मॉल्स के जमाने में भी थिएटर फल-फूल रहा है, यह सुखद अनुभव है। थिएटर जीवंत कला है, जिसमें दर्शकों से सीधा संवाद होता है। युवाओं की भागीदारी के कारण हिंदी थिएटर तेजी से उभरा है और इसमें रोजगार के अवसर भी बढ रहे हैं। कई स्थानों पर अब स्कूल-पाठ्यक्रम में थिएटर को शामिल किया जा रहा है। थिएटर बच्चों की प्रतिभा को उभारता है, उनका सर्वागीण विकास करता है। थिएटर के प्रति लोगों का रुझान इस तरह बढा है कि लोग हमें संदेश भेजते हैं कि हम उनके क्षेत्रों या सोसाइटीज में जाकर नाटक दिखाएं।

हालांकि थिएटर के सामने कई चुनौतियां भी हैं। सरकारी स्तर पर प्रयास नहीं हो रहे हैं। कारण यह है कि संस्कृति को हाशिये पर डाल दिया गया है, उसे केंद्र में लाना जरूरी है। चूंकि थिएटर व्यवस्था को चुनौती देता है, इसलिए इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। नाटक करने के लिए हमें अधिकारियों की अनुमति लेनी पडती है, लाइसेंस का झंझट होता है। कई बार तो लोकल थानों तक से अनुमति लेनी पडती है। ये सारी चुनौतियां तो हैं..। मुझे लगता है कि थिएटर में हबीब तनवीर जैसे समर्पित लोगों की सख्त जरूरत है। मुझे ख्ाुशी है कि मैंने उनके साथ काम किया।

मेरी जिंदगी का थिएटर

थिएटर मेरी जिंदगी का निचोड है। मैं अपने अनुभवों को नाटकों में ढालता हूं। डायरेक्टर के तौर पर मुझे हर विषय की गहराई में जाना होता है। खबरों के बीच से खबर तलाशना, देश-दुनिया में हो रही घटनाओं और हर नई जानकारी से अपडेट रहना, विश्व का सर्वश्रेष्ठ साहित्य पढना हमारे लिए जरूरी है। अच्छा सिनेमा और किताबें हमारे सर्वश्रेष्ठ संसाधन हैं। डायरेक्टर के तौर पर ऐक्टर्स को ट्रेनिंग देना, ऐक्टिंग के साथ ही उनकी लर्निग स्किल बढाना भी मेरा ही काम होता है।

प्रस्तुति : इंदिरा राठौर


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