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रिश्तों के ट्रैक पर लाइफ इन अ मेट्रो

महानगरीय आपाधापी के बीच संबंधों के बदलते समीकरण की कहानी है लाइफ इन अ मेट्रो। इसके किरदार काफी जाने-पहचाने और अपने से लगते हैं। फिल्म ने महानगरों में अच्छा बिजनेस किया। अनुराग बसु ने कैसे बनाई यह फिल्म, बता रहे हैं वे अजय ब्रह्मात्मज को।

By Edited By: Published: Fri, 31 Aug 2012 05:01 PM (IST)Updated: Fri, 31 Aug 2012 05:01 PM (IST)
रिश्तों के ट्रैक पर लाइफ इन अ मेट्रो

अनुराग बसु की लाइफ इन अ मेट्रो वर्ष 2007 में आई थी। महानगरों में स्त्री-पुरुष संबंधों की पडताल करती यह फिल्म आधुनिक समाज के भावनात्मक द्वंद्वों को जाहिर करती है। मुंबई शहर के नौ चरित्रों को लेकर गढी गई इस फिल्म में अनुराग बसु ने समाज के हर तबके के प्रतिनिधि चरित्रों को छूने की कोशिश की थी। फिल्म को पसंद किया गया। कलाकारों को पुरस्कार भी मिले थे। अनुराग बसु की फिल्मों के चरित्र अच्छी तरह परिभाषित नहीं होते। वे संबंधों के मामले में अस्थिर और भंगुर होते हैं। वर्तमान दौर की भावनात्मक असुरक्षा और संकट को उनकी हर फिल्म में भांपा जा सकता है। यहां अनुराग बसु सुना रहे हैं इस फिल्म की मेकिंग से जुडे चंद किस्से।

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महेश भट्ट ने किया इंकार

गैंगस्टर के साथ ही मैंने लाइफ इन अ मेट्रो का ख्ाका भी तैयार कर लिया था। हर फिल्म सेल्युलाइड और कागज पर उतरने के पहले दिमाग में बनती है। अपने किरदारों को जहन में गढने के बाद ही मैं फिल्म शुरू करता हूं। मेरे निर्माता और कलाकार भी मेरी इस आदत से वाकिफ हैं। वे परेशान जरूर होते हैं, लेकिन मेरी कार्यशैली पता चलने के बाद दिक्कतें खत्म हो जाती हैं। बहरहाल इस फिल्म को अनेक किरदारों की वजह से कागज पर उतारने में समय लग रहा था, जबकि गैंगस्टर मैंने फटाफट लिख ली थी। वही पहले बनी।

मैंने पहले सारी फिल्में महेश भट्ट और मुकेश भट्ट के साथ की थीं। उन्होंने इस फिल्म में रुचि नहीं दिखाई। विशेष फिल्म्स मल्टीस्टारर एवं महंगी फिल्में नहीं बनाता। भट्ट साहब की खास शैली है। मुझे आश्चर्य भी होता है कि आख्िार क्यों भट्ट साहब अपने बैनर के निर्देशकों को प्रयोग नहीं करने देते, जबकि उन्होंने स्वयं शानदार फिल्में बनाई हैं। उन्होंने कहा भी कि बाहर जाकर फिल्म बना लो। फिर लौट आना। तबसे बाहर ही काम कर रहा हूं, लौट नहीं सका। लाइफ इन अ मेट्रो की स्क्रिप्ट लेकर मैं दो-तीन प्रोड्यूसर्स के पास गया। यूटीवी के रोनी स्क्रूवाला से भी बात चल रही थी। तब तक गैंगस्टर रिलीज हो गई। वह चल गई तो निर्माताओं का रवैया बदला। वे फिल्म प्रोड्यूस करने को तैयार हो गए, मगर हमने यूटीवी के साथ ही फिल्म बनाई। मल्टीस्टारर होने बावजूद हमारा बजट कम था। मैं स्टारों से मिलने गया। चूंकि सभी की भूमिकाएं छोटी थीं, इसलिए उन्हें अधिक दिन नहीं देने पडे। मैंने उनके पारिश्रमिक को दिनों के हिसाब से बांटा और फिल्म के लिए पैसे कम करवा लिए। कुछ माने, कुछ नहीं माने।

अनिश्चित थी सफलता

हमने सभी किरदारों की कहानी अलग-अलग शूट की। फिर दृश्य शूट किए। वैसे भी फिल्ममेकिंग स्क्रिप्ट के हिसाब से अंत तक नहीं जाती। स्टार्स की उपलब्धता और बाकी सुविधाओं को देख कर शूटिंग एडजस्ट करनी पडती है। हम शूटिंग तो कर रहे थे, लेकिन डर भी रहे थे कि जोडने में कहीं फांक रह गई तो दर्शक गालियां देंगे। भट्ट साहब जिस वजह से फिल्म नहीं बनाना चाह रहे थे, मैं उसी वजह से फिल्म बनाना चाह रहा था। उन्हें फिल्म में कोई स्ट्रक्चर नहीं दिख रहा था। उनका सवाल था कि हीरो कौन है? मेरा जवाब था कि कोई नहीं है। फिर उन्होंने पूछा, फिल्म क्यों बनाना चाह रहे हो? मेरे पास ठोस जवाब नहीं था। उन्होंने ना कह दिया। मुझे तो बस कहानी परेशान कर रही थी। शूटिंग के दरम्यान भट्ट साहब की बात याद आती तो मैं बौखला जाता था। मैंने ख्ाुद से सवाल किया। भट्ट साहब ने इतनी सारी फिल्में क्यों बनाई? अंदर से जवाब आया कि तुम्हारी तरह वे भी बनाना चाहते होंगे। ख्ौर फिल्म पूरी हो गई। उसके आसपास सलाम-ए-इश्क पिट चुकी थी। फिल्म के न चलने का डर काफी था।

बिना स्क्रिप्ट बन गई फिल्म

सबसे पहले मैंने कहानी इरफान को सुनाई थी। उसने कहानी सुन कर कहा कि यह फिल्म वह दोस्ती खाते में कर रहा है। फ‌र्स्ट हाफ की कहानी सुनते-सुनते वह स्विच ऑफ हो गया, सेकंड हाफ की कहानी भी ध्यान से नहीं सुनी। बाद में पहले दिन की शूटिंग के बाद उसने कहा, अगर मैं फिल्म नहीं करता तो यह मेरी भूल होती। शाइनी आहूजा व कंगना रनौत की कास्टिंग सबसे पहले हुई थी। गैंगस्टर की शूटिंग के समय ही मैंने उन्हें कहानी सुनाई थी। वे राजी हो गए। शरमन जोशी के किरदार के लिए पहले इमरान हाशमी को अप्रोच किया था, लेकिन वे भट्ट कैंप के बाहर की फिल्म नहीं करते थे। कोंकणा सेन शर्मा और शिल्पा शेट्टी पहली च्वॉइस थीं। मैं कागज का कमजोर हूं और कोंकणा जिस स्कूल से आती हैं, वहां बाउंड स्क्रिप्ट का चलन है। शुरू में उन्हें परेशानी हुई। मैं कलाकारों को सीन बता देता हूं और चाहता हूं कि वे याद रखें। कोंकणा ने स्क्रिप्ट मांगी थी, जो फिल्म खत्म होने तक उसे नहीं मिल सकी। मैं डरा भी कि कहीं वह फिल्म न छोड दे। मैंने उसे समझाया कि मैं अच्छी स्क्रिप्ट नहीं लिखता हूं, इसलिए नहीं दे रहा हूं। कहानी सुनाते समय भी मैंने गलती से उसके किरदार में शिल्पा का किरदार मिला दिया। शायद बंगाली होने की वजह से उसने मेरी हर गलती माफ कर दी और यह फिल्म की। शिल्पा और केके के साथ ज्यादा परेशानी नहीं हुई। शूटिंग मुंबई की सडकों पर अधिक हुई थी। कुछ सीन लोकल स्टेशन पर भी थे। जूनियर आर्टिस्ट बुलाते तो ख्ार्च बढ जाता। भीडभाड के सीन मैंने कैमरा छुपा कर किए। एक सीन में इरफान घोडा लेकर रेलवे स्टेशन पहुंच जाता है। मैंने सारी व्यवस्था की थी, ट्रेन रुकते ही इरफान की एंट्री दिलवा दी। वह सीन बहुत नैचरल है। लोगों को पता रहे कि शूटिंग हो रही है तो वे कैमरे की तरफ देखते हैं। यहां किसी को पता भी नहीं चल पाया। मैंने शूटिंग की परमिशन ले ली थी। फिल्म के हर दृश्य में रीअल क्राउड है। कभी कोई कैमरे के तरफ देखता हुआ नहीं मिलेगा।

विवाहेतर रिश्तों की कहानी

फिल्म का कोई उद्देश्य नहीं था। मैं स्वयं विवाहेतर संबंध में रहा। मैं उसी को दूसरे किरदारों के माध्यम से एक्सप्लोर कर रहा था। इस फिल्म में मैं हूं, मेरे दोस्त हैं। फिल्म के चलने की बडी वजह यह भी रही कि दर्शकों को यह अपनी कहानी लगी। वे इन किरदारों को या तो जी चुके थे या देख चुके थे। स्क्रिप्ट में फिल्म में शिल्पा का किरदार केके मेनन के मुंह पर दरवाजा बंद कर देता है, लेकिन शूटिंग के दौरान मैंने सीन बदल दिया। मैं छोटे शहर से आता हूं। मेरा नजरिया मिडिल क्लास का है। मैंने फिल्म में उसी को रखा। मैंने रिश्तों में परफेक्शन व एडजस्टमेंट देखा है। मुझे ख्ाुशी है कि फिल्म को दर्शकों ने पसंद किया। अपने अनुभवों, दोस्तों के किस्सों के साथ पास-पडोस की कहानियों को भी मैंने इस फिल्म में डाल दिया था।


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