जीवन और फिल्मों का सच
जीवन में जो लगभग नामुमकिन है, फिल्मी परदे पर आसानी से होते देखा जा सकता है। हद तो यह है कि वैज्ञानिक चेतना संपन्न नई पीढ़ी भी इस होने से कोई नाइत्त़फाकी नहीं रखती है। शायद उसे लगता है कि यह सब वास्तव में सच है।
भारतीय जिंदगी पर फिल्मों का प्रभाव है या भारतीय फिल्मों को जीवन ने प्रभावित किया है, मन में यह सवाल यकायक उभरा, जब साहबजादे साड्डा हक, इत्थे रख चीखते घर में घुसे। पंद्रह साल की उम्र में यह आलम है तो आगे क्या होगा? हक-चैतन्य यह पीढी उन्नीस-बीस साल तक जायदाद में अपना हिस्सा भी मांग सकती है। बेटे पप्पू को पता है कि जिस घर में वह रह रहे हैं, उसे उनके बाबा बनवा गए हैं। उन्हें अपने ठेकेदार बाबा पर गर्व है। हमें भी अपने पिता पर है, पर हमारे लाडले को हम पर नहीं है। सरकार के बाबू के पास ऐसे गर्व करने को धरा ही क्या है? खास कर यदि वह वर्तमान व्यवस्था में ईमानदारी की उल्टी गंगा बहाए!
एक हद तक हम पप्पू से सहमत हैं। सरकार के कल-पुर्जो के पास अधिकार हैं, पर यह उनके इरादतन दुरुपयोग से ही साबित होता है। पप्पू को भी पिता की ईमानदारी की बीमारी की खबर है। वह इसे लेकर काफी परेशान हैं। उन्होंने कई हिंदी फिल्में देखी हैं। उनमें ईमानदार बाप को घर में घुस कर गुंडे पीटते हैं। उसने नाजायज काम न करने का जुर्म किया है। पप्पू हक-सजग भले हों, पर उनके मन में पिता के प्रति लगाव भी है। दीगर है कि वह इसका दिखावा नहीं करते हैं। शायद यह नई पीढी का गुण है। हम जिस लिहाज का आडंबर करते हैं, उससे वह कोसों दूर है! ऐसा न होता तो वह हमसे क्यों कहते, पापा, हमारे लिए एक बढिया रिवॉल्वर खरीद दो।
हम अंदर ही अंदर डरे-सहमे। उन्होंने कहीं अमिताभ बच्चन की कोई पुरानी फिल्म तो नहीं देख ली, जिससे प्रेरित होकर अस्त्र-शस्त्र हथियाने के अरमान पाल रहे हैं। हमने जानना चाहा, आपको यह खयाल कैसे आया?
उन्होंने हमारी शंका मिटाई, आप ईमानदार हैं न। हम आपकी गुंडों से रक्षा करना चाहते हैं। कभी घर में घुसे तो भून के रख देंगे।
हम उनके पितृप्रेम से अभिभूत हुए। फिर उन्हें आश्वस्त किया कि नागरिकों की सुरक्षा का जिम्मा पुलिस का है, उनका नहीं। पप्पू को हमारी बात रास नहीं आई। उन्होंने समझाया कि पुलिस मौका-ए-वारदात पर पहुंचती ही तब है, जब हिंसा का तांडव थम जाए। ऐसा उन्होंने हिंदी फिल्मों में देखा है, पापा! आप वर्दी वालों की हरकतों से अनजान हैं। इनकी गुंडों से सांठ-गांठ है। इन दोनों का वैसा ही रिश्ता है जैसा हमारे मास्साब का ट्यूशन से। वह क्लास में आधा-अधूरा पढाते हैं ताकि हमें ट्यूशन के लिए उनके घर जाना ही पडे।
जब हम पप्पू की आयु के थे तब पिताश्री से अपना संवाद हां-ना तक सीमित था। कानून-व्यवस्था तो दूर, उनसे गुरु जी की योग्यता-अयोग्यता की चर्चा करने की कभी हिम्मत पडी हो, ऐसा हमें याद नहीं। शाम को जब वह लौटते, चाय पीते और हमसे एक ही जिज्ञासा दोहराते, खेलने गए थे? हम कहते जी। नाश्ता किया? हम हां बोलने की जगह मुंडी हिलाते। उन्हें जैसे अचानक याद आता, होमवर्क कर लिया? हम अपराध-भावना से सिर झुका कर बुदबुदाते, अभी नहीं। तो जाओ, करो। हम खुद-बखुद निष्कासित हो जाते।
हमें सुखद बदलाव की अनुभूति हुई। पप्पू हमें दिल की बातों का भागीदार तो बनाते हैं। हमारे अंतर में संशय जागा। यह आज की शिक्षा का असर है या सिनेमा का? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जैसे बाजार आज केमिकल से वक्त से पहले फल पका देता है, वैसे ही इन दोनों ने समय से पहले बच्चों का बचपन और भोलापन छीन लिया है? रही-सही कसर कंप्यूटर और इंटरनेट ने पूरी कर दी। पप्पू की उम्र तक हमारे लिए टेलीफोन अजूबा था। कामयाबी से नंबर डायल करना हम एक उपलब्धि मानते और मन ही मन ताज्जुब करते कि यह कैसे मुमकिन हो गया? पप्पू इंटरनेट से वैसे ही खेलते हैं जैसे तब हम फोन के वार्तालाप से। कौन कहे, इस पूरी पीढी का दृष्टिकोण ही वैज्ञानिक है। उन्हें तकनीक के दैनंदिन प्रयोग पर ताज्जुब हो तो कैसे हो?
फिर भी एक विरोधाभास अपने पल्ले नहीं पडता। वह फिल्मी परदे की घटनाओं को कैसे सच मान लेते हैं? एक अकेला नाटा, दुबला-पतला नायक दस-बारह भीमकाय व्यक्तियों को ऐसी आसानी से पटकता-पीटता है, जैसे वे कमजोर बच्चे हों! उसका एक मुक्का चलता है। ढिशुम की जोरदार आवाज गूंजती है और वह भारी-भरकम इंसानी बोरा दस-बारह कदम जाकर गिरता ही नहीं, ढेर हो जाता है। पप्पू इसे कैसे सच मान लेते हैं? फिर भी हमें खुशी है। उनकी तार्किक बुद्धि कुछ ही देर के लिए सही, अवकाश पर तो जाती है। उनका बाल मन जागता है और एक अवास्तविक स्थिति पर भरोसा कर उठता है। हमें विश्वास है, फिल्मी परदे और जीवन के अंतर को वह एक न एक दिन जान जाएंगे।
फिल्मों की लोकप्रियता के बावजूद और हरे-भरे पार्को के रहते हुए भी किसी युवा जोडे को हमने गाना गाते, पेडों के चक्कर लगाते नहीं देखा। जबकि हर दूसरी-तीसरी फिल्म में यह दृश्य नजर आता है।
हमारे एक मित्र रहते शहर में हैं, पर साल में एक बार अपने गांव में हफ्ता-दस दिन बिताते जरूर हैं। उस दिन शाम को वह हमारे घर आए हुए थे। टीवी पर कोई फिल्मी चैनल लगा था और गांव के एक दृश्य में नायक आंधी-तूफान से टक्कर लेता, मोटर साइकिल पर गाना गाता चला जा रहा था। मित्र ने यह नजारा देखा और बिफर पडे, यार! कैसे-कैसे नमूने निर्देशक बन जाते हैं? मैं शर्त लगा सकता हूं, भारत के किसी गांव में ऐसी चौडी, दोनों तरफ पेडों से भरी और साफ-सुथरी सडक हो तो! गांव तो गांव, आजकल शहरों में भी ज्यादातर सडकों पर भ्रष्टाचार के गढ्डे हैं। कोई ऐसे गाना गाते, इस तरह हैंडल छोड, बाइक दौडा के तो दिखाए। पूरा दिन तो दूर, एक-दो घंटे में हाथ-पैर तुडवा कर किसी अस्पताल में पडा मिलेगा।
हम कभी ड्राइंग रूम में टीवी रखने के पक्षधर नहीं रहे। हमें पहली बार लगा कि गलत परिपाटी के अंधेरे में भी रोशनी की एक किरण है। मित्र की बात से जीवन और फिल्मों में साम्य न होने की अपनी धारणा और पुष्ट हो गई है।
सही हो या गलत, हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि फिल्मी परदे और असली जीवन में उतना ही साम्य है जितना आधुनिक प्रेम-प्रसंगों और लैला-मजनू की कहानी या बच्चों की परी-कथाओं में होता है।
इधर हमें एक खुशनुमा अनुभूति हुई है। पप्पू भी ढिशुम-ढिशुम के भ्रम से कुछ उबरे हैं। उन्होंने हाल ही में हमारा ज्ञानवर्धन किया है, पापा! हमें नहीं लगता कि कोई भी हीरो फिल्मी परदे के अलावा आठ-दस मुस्टंडों से टक्कर ले सकता हो! कल ही हम और हमारे दोस्तों ने मिलकर उस नन्हें हाथी का कचूमर निकाला जो हमारा टिफिन हडप लेता था।
हमें यकीन है, जब तक लोगों में सपने देखने की हसरत है, ज्योतिषियों और हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता घटने वाली नहीं है। सिर्फ इतना है कि कुछ इस मर्ज से उम्र भर पीडित रहते हैं, कुछ जल्दी छुटकारा पा लेते हैं!