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सिस्टम को बदल जाने भी दो यारो

रोमैंस नहीं, आइटम नंबर्स नहीं, न सुखद अंत, लेकिन फिल्म जाने भी दो यारो न सि़र्फ चली, बल्कि छा गई। लगभग तीन दशक के बाद जब यह दोबारा चुनिंदा सिनेमाघरों में रिलीज़्ा हुई तो युवा दर्शकों ने इसे ़खूब सराहा। कुंदन शाह के कसे हुए निर्देशन और कई दिग्गजों के सहयोग से बनी यह फिल्म आज भी प्रासंगिक है। फिल्म से जुड़े अनुभवों से रूबरू करा रहे हैं अजय ब्रह्मात्मज।

By Edited By: Published: Sat, 01 Dec 2012 11:04 AM (IST)Updated: Sat, 01 Dec 2012 11:04 AM (IST)
सिस्टम को बदल जाने भी दो यारो

29 साल के बाद पिछले महीने 2  नवंबर को जाने भी दो यारो फिर से देश के कुछ शहरों के चुने हुए सिनेमाघरों में रिलीज्ा हुई। सीमित शो की इस रिलीज्ा में लगभग सारे शो हाउसफुल रहे। फिल्म में कुछ ऐसी बात है कि 29 साल के बाद भी यह प्रासंगिक है। दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करती है। कथ्य में निहित कटाक्ष हंसने के साथ सोचने पर भी मजबूर करता है।

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जाने भी दो यारो 1983 में आई थी। नसीरुद्दीन शाह, रवि वासवानी, भक्ति बर्वे, ओम पुरी, पंकज कपूर, सतीश शाह, नीना गुप्ता और सतीश कौशिक अभिनीत यह फिल्म अनेक संयोग और प्रयोग से बनी। फिल्म के निर्देशक कुंदन शाह हैं। उनके साथ कई महत्वाकांक्षी युवा फिल्मकार  जुडे। मुख्य रूप से विधु विनोद चोपडा, सुधीर मिश्र और रेणु सलूजा ने कुंदन को भरपूर सहयोग दिया। सम्मिलित प्रयास से ऐसी फिल्म बनी, जो अभी तक दर्शकों की प्रिय है। यह मॉडर्न  क्लासिक  मानी जाती है। हिंदी फिल्मों में ब्लैक कामेडी और व्यंग्य की ऐसी धार कम दिखती है। यह हिंदी की फॉम्र्युला फिल्म नहीं है। न इसमें पारंपरिक हीरो-हीरोइन हैं और न नाच-गाने। यहां तक कि फिल्म समकालीन यथार्थ से पलायन नहीं करती। फिल्म का अंत सुखांत नहीं है, फिर भी दर्शक बार-बार देखते हैं।

सिस्टम बदलने की चाह

फिल्म के लेखन और निर्माण में सहयोगी रहे सुधीर मिश्र की आज ख्ास पहचान है। हज्ारों ख्वाहिशें ऐसी जैसी राजनीतिक और संवेदनशील फिल्म के निर्देशक सुधीर मिश्र उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, एक जुनून सा था। हम मुंबई में फिल्म निर्माण के लिए भटक रहे थे, लेकिन नए निर्देशक के लिए फाइनेंस जुटाना कठिन था। हम सभी दोस्तों में कुछ बातें कॉमन थीं। हम सिस्टम से दुखी थे, बदलाव चाहते थे और वामपंथी रुझान वाले थे। हमें जोश था कि हम सिनेमा के ज्ारिये दुनिया बदल सकते हैं।

कुंदन शाह को फिल्म के दृश्यों और संवादों की प्रेरणा अपने और दोस्तों के अनुभवों से मिली। उन्हें सुधीर मिश्र और सतीश कौशिक ने अपनी सोच और समझदारी से सजाया और विकसित किया। एफटीआइआइ के दोस्त रवि ओझा की ज्िांदगी से स्टूडियो और फोटोग्राफर का विचार आया। रवि फोटो स्टूडियो चलाने में विफल रहे थे। मज्ोदार वाकया है कि जिन दिनों कुंदन शाह जाने भी दो यारो के बारे में सोच रहे थे, उन्हीं दिनों उन्हें रिचर्ड ऐटनबरा की फिल्म गांधी में सहायक का काम मिल रहा था। उस इंटरनेशनल फिल्म से वे लाखों कमा लेते। उन्होंने सईद मिज्रा से सलाह ली कि क्या करें तो सईद ने दो टूक कहा कि अपनी स्क्रिप्ट लिखो। यह भी आसान नहीं था। भ्रष्टाचार के कुछ स्फुट विचार और चरित्र दिमाग्ा में थे, लेकिन उन्हें संजो कर स्क्रिप्ट का रूप देना मुश्किल था। कुंदन और सुधीर मिश्र रोज्ा मिलने लगे। कुछ लिखा जाता और ज्यादा रद्द कर दिया जाता। स्क्रिप्ट धीमी गति से लिखी जाती रही।

फाइनेंसर की कमी

स्क्रिप्ट लिखने के बाद समस्या थी कि निर्माता कहां से लाएं। वह अमिताभ बच्चन का दौर था। सिनेमा के लिए ख्ास िकस्म की स्क्रिप्ट पसंद की जा रही थी। पैरलेल सिनेमा के प्रभाव में आए दर्शकों और फिल्मकारों को निर्माताओं की खोज में चप्पल घिसने पडते थे। उनके लिए तब एनएफडीसी ही एक सहारा था। तब इंडस्ट्री आज की तरह संगठित नहीं थी। उसे इंडस्ट्री की मान्यता भी नहीं मिली थी। काले धन वाले व्यापारी जल्दी अमीर होने की कोशिश में चालू फिल्मों में निवेश करते थे। लोकप्रिय स्टारों के समीप होने का भी आकर्षण था। यह फिल्म न तो मुनाफे का सौदा लग रही थी और न इसमें नामी स्टार थे। एनएफडीसी से मदद लेने के बारे में सोचा गया।

एनएफडीसी की स्क्रिप्ट कमेटी ने जाने भी दो यारो के निर्माण की मंजूरी दी। साथ ही फिल्म को पूरा फाइनेंस किया। तब ज्यादातर फिल्मकारों को अनुमानित बजट का 75 प्रतिशत ही मिला करता था। स्क्रिप्ट कमेटी की राय थी कि यह फिल्म भ्रष्टाचार और अनैतिकता पर कटाक्ष है, इसलिए यह ठीक से बननी चाहिए। 10 लाख का बजट था। कुंदन शाह फिर भी आशंकित थे, क्योंकि एनएफडीसी की फिल्मों को ढंग की रिलीज्ा नहीं मिल पाती थी। थिएटर मालिक ज्यादातर कमर्शियल फिल्में दिखाना पसंद करते थे। कुंदन शाह ने फिल्म अंग्रेजी में सोची थी और कुछ संवाद भी अंग्रेजी में लिखे थे। एनएफडीसी की मंजूरी मिलने के बाद सवाल उठा कि इसे हिंदी में कौन लिखेगा, जिसकी भाषा चुटीली और व्यंग्यपूर्ण हो। विनोद चोपडा ने कुंदन शाह को रंजीत कपूर से मिलने की सलाह दी। एनएसडी  ग्रेजुएट रंजीत कपूर रंगमंच के जमे हुए लेखक और निर्देशक थे। दिल्ली जाकर कुंदन ने उनसे मुलाकात की। इस दौरान सतीश कौशिक रंजीत कपूर के यहां मौजूद थे। रंजीत कपूर ने सतीश कौशिक को लेखन से जोड दिया। बाद में उन्होंने फिल्म में एक अहम किरदार भी निभाया। जब रंजीत ने सतीश कौशिक का नाम सुझाया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, मैंने अभी तक हस्ताक्षर के अलावा कुछ नहीं लिखा है। बहरहाल सतीश कौशिक भी लेखन से जुड गए। कुंदन शाह को रंजीत कपूर इतने पसंद आए थे कि उन्होंने सोच लिया कि अगर वे फिल्म डायरेक्ट न कर सके तो रंजीत कपूर पर निर्भर कर सकते हैं।

ख्ास सीन जो निकल गए

फिल्म की प्लानिंग के दौरान मुंबई के भायखला में बना ओवरब्रिज गिर गया था। कुंदन शाह ने एफटीआइआइ से निकले सहयोगी कैमरामैन राजन कोठारी से आग्रह किया कि वे मलबे का स्टॉक शॉट ले लें। पटकथा में उसका इस्तेमाल किया गया। लेकिन फ्लोर पर जाने से पहले फिल्म छोटी करनी पडी। इसके अलावा एक गोरिल्ला सीन था। कॉटेज में तरनेजा और आहुजा की मीटिंग के समय इसे शूट करना था। गोरिल्ला का कॉस्ट्यूम रंजीत कपूर को पहनना था। वह सीन कट गया। एक पूरा सीन डिस्को  किलर  का था। तरनेजा  को जब शक होता है कि विनोद और सुधीर को डिमेलो की हत्या की जानकारी मिल गई है, तो वह उन छछूंदरों को जान से मार देने के लिए अशोक से एक कातिल खोजने के लिए कहता है। अशोक डिस्को  किलर  को ले आता है। यह भूमिका अनुपम खेर को निभानी थी। डिस्को  किलर  चश्मा पहनता है तो उसे एक की जगह दो और चश्मा उतारने पर एक की जगह चार लोग दिखते हैं। ऐसे कई दृश्य लिखे गए थे जो फिल्म को और रोचक बनाते, लेकिन 2  घंटे 25  मिनट से छोटी फिल्म बनाने के चलते ये छोडने पडे।

युवा दर्शकों की तालियां

जाने भी दो यारो  बडे पैमाने पर बनी डिप्लोमा फिल्म की तरह लगती है। एनएसडी  और एफटीआइआइ  से आए कलाकारों और तकनीशियनों को जोडा गया। मुख्य किरदारों का नाम विनोद चोपडा और सुधीर मिश्रा रखा गया। ये दोनों आज सुप्रसिद्ध फिल्मकार  हैं। दोनों इस फिल्म में छोटी भूमिकाओं में नज्ार आते हैं। महाभारत दृश्य को दर्शक याद करते हैं। इसमें मंचित नाटक में फिल्म के किरदार मिल जाते हैं और मज्ोदार  हडबोंग मचता है। दृश्य थिएटर के इंप्रूवाइज्ोशन  तकनीक से रचा गया था। फिल्म में डिमेलो की लाश की कल्पना रोचक और हाइलाइट  रही। इस भूमिका के लिए सतीश शाह को काफी मेहनत करनी पडी।

यह फिल्म 29  साल के बाद भी प्रासंगिक लगती है। समय और परिवेश बदल गया है, लेकिन भ्रष्टाचार समाज के गोसे-गोसे में पैठा है। व्यवस्था से खीझे किरदारों के मारक डायलॉग आज भी पुराने नहीं हुए हैं। यही वजह है कि पिछली नवंबर में रिलीज्ा  किए जाने पर थिएटरों में दर्शकों की ख्ासी भीड जुटी। युवा दर्शकों ने भी तालियां बजाई।


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