संगीत मेरा हमसफर
भारतीय शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत की दुनिया में जिन स्त्रियों ने अपनी पहचान बनाई है उनमें शुभा मुद्गल एक महत्वपूर्ण नाम हैं। संगीत के साथ-साथ अपने परिवार के प्रति उनका जो समर्पण है और जो कृतज्ञता उनमें दिखाई देती है, वह दुर्लभ है। हमेशा कुछ नया सीखने का जुनून और गायन में भी हर बार कुछ नया कर गु•ारने की धुन उनमें सा़फ तौर पर देखी जा सकती है। मिलिए सखी की संपादक प्रगति गुप्ता के साथ बिंदास गायकी की इस चर्चित हस्ती से, उन्हीं के बिंदास अंदा•ा में।
संगीत में एक ख्ास मुकाम हासिल कर चुकीं शुभा मुद्गल जितनी खांटी अपनी गायकी में हैं, उतनी ही पर्सनल लाइफ में भी। हमें भी उनके इस खांटी अंदाज का स्वाद मिला, जब मुलाकात के लिए समय तय होने पर उन्होंने कहा, मैं ख्ाुद ड्राइव करके पहुंच जाऊंगी। शुभा जी को मध्य दिल्ली के पहाडगंज से नोएडा में हमारे कार्यालय आना था, जो करीब 20-22 किलोमीटर दूर है। हमें िफक्र थी कि कहीं हमारा पता ढूंढने में उन्हें परेशानी न हो, लेकिन वह बेिफक्र थीं। फोन पर बोलीं, निश्चिंत रहिए, मैं पूछते-पूछते पहुंच जाऊंगी। वाकई घडी की सुइयों से सुर-ताल मिलातीं वह हमारे पास एकदम सही वक्त पर पहुंच गई। फिर मिलीं तो ख्ाूब वक्त दिया और खुलकर बातें की। जिस तरह उनका संगीत हमें मंत्रमुग्ध करता है, उसी तरह व्यक्तिगत रूप से उनसे मिलना भी अपने आपमें एक अलग तरह का सुखद अनुभव है। सहज और विनम्र तो कलाकार आमतौर पर होते ही हैं, शुभा जी से मिलकर यह एहसास और पुख्ता हो गया।
आपके माता-पिता इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर्स थे। संगीत में आप अपने परिवार से पहली पीढी की प्रतिनिधि हैं। संगीत की ओर आपका रुझान कैसे हुआ?
मेरे पेरेंट्स को कला में बेहद रुचि थी। कला ही नहीं, थिएटर, विजुअल आर्ट्स..। कला के लिए एक सम्मान, जुडाव था। ऐसा कभी नहीं हुआ कि माता-पिता ने कहा हो कि अब बोर्ड एक्जैम्स हैं, आर्ट एक्टिविटीज्ा बंद कर दें और पढाई करें। कला हमारी ज्िांदगी का ही हिस्सा थी। डायनिंग टेबल पर होने वाली हमारी बातचीत कला को लेकर ही होती थी। कोई किताब पढी हो तो उस पर बातचीत करते, कोई म्यूजिक सुना हो तो उस पर चर्चा होती। कई बार ऐसा भी होता था कि आज जिन्हें हम साहित्य के दिग्गज मानते हैं, जब बच्चे थे तो हमें पता ही नहींथा कि हम इतनी बडी विभूतियों के सामने खडे हैं। जैसे महादेवी वर्मा, सुमित्रा नंदन पंत, रघुनाथ सेठ जी (बांसुरीवादक) जो इलाहाबाद रेडियो में काम करते थे। मेरे पिता उनसे बांसुरी सीखते थे। घर का पूरा माहौल ऐसा था कि उसमें कला हॉबी नहीं, कंपेनियन की तरह हमेशा रही हमारे साथ। इस वजह से मुझे और मेरी बहन को एक्सपोजर मिला और अवसर भी दिया पेरेंट्स ने कि हम सीखें। वह भी बिना किसी अपेक्षा के। मैं बहुत छोटी थी.., चार साल की थी जब कथक सीखना शुरू किया। लेकिन कभी घर में किसी ने यह नहीं पूछा कि स्टेज पर कब डांस करोगी? या जब मैंने गाना सीखना शुरू किया तो कभी नहीं पूछा गया कि इतने साल हो गए हैं तो अब रेडियो पर कब गाओगी। जैसे स्कूल में हम लिटरेचर सीखते हैं, मैथ्स सीखते हैं तो हमें यह नहीं कहा जाता कि आप आगे जाकर मैथ्मेटीशियन ही बन जाइए। वैसे ही हमारी पढाई, हमारी लर्निग में एक इंपॉर्टेट कंपोनेंट आर्ट्स का है। हमसे यह अपेक्षा नहीं की गई और न हमारे लिए कोई ऐसे मानक ही तय किए गए कि आपको यह करना है या वह करना है। आपकी उपलब्धियां क्या हैं, यह भी हमसे कभी नहीं पूछा गया।
कला और संघर्ष का आपसी रिश्ता बहुत गहरा है। आपको अपनी कला को इस मुकाम तक लाने में कितना संघर्ष करना पडा। उन उतार-चढावों में जिंदगी ने कितना साथ दिया?
देखिए संघर्ष दो तरह के होते हैं। एक तो कलाकार का निजी संघर्ष है, यानी अपने को एनालाइज करना और सुधारने की कोशिश। ये समझ पाना कि हमारी कमियां क्या हैं-ख्ाूबियां क्या हैं, उनमें कैसे बैलेंस बनाया जा सकता है.. तो यह संघर्ष हर कलाकार का है। लेकिन बाकी जो संघर्ष है, उसकी बात करूंतो मेरे जीवन में इतना संघर्ष नहीं रहा। मेरे पेरेंट्स ने हमेशा साथ दिया। एक कलाकार के लिए ऐसा सपोर्ट बडी बात है। मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि माता-पिता ने आजीवन मुझे वह सपोर्ट दिया। मैं बार-बार उन्हें धन्यवाद इसलिए भी करती हूं कि उन्होंने सपोर्ट तो दिया, लेकिन यह कभी नहीं कहा कि उनकी बेटी ही सबसे अच्छा गाती है। मेरे ज्ाबर्दस्त आलोचक भी वही रहे। फिर मेरे पति, उनके परिवार के लोग, मेरा बेटा, मेरी बहन और उसका बेटा.. सभी ने मुझे सहयोग दिया.. मेरे फ्रेंड्स ने भी। ..तो मेरा संघर्ष तो कुछ है ही नहीं। अगर हम पढें अन्य कलाकारों के बारे में.. जिस तरह का संघर्ष खासतौर पर महिला कलाकारों ने झेला है, वैसा तो हमने देखा ही नहीं। सौ साल पहले की बात करें तो संभ्रांत परिवारों की महिलाएं संगीत भले ही सीख लें, लेकिन मंच प्रदर्शन का तो सवाल ही नहीं उठता था। मेरी नानी (याद करते हुए) की पैदाइश 1900 में हुई। उन्होंने मैथमेटिक्स में एमएससी किया। इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स रहीं। उनको संगीत का बेहद शौक था, लेकिन जब उन्होंने अपने पिता से संगीत सीखने की बात की तो उन्होंने साफ कहा कि भारतीय संगीत तो तुम नहीं सीख सकती। उन्होंने पियानो की एक टीचर उनके लिए बुला दी और कहा कि इनसे सीख लो। उस जमाने में ऐसी धारणा थी कि भारतीय संगीत से जो महिलाएं जुडती हैं, वे चाहे ख्ाुद को कितना ही बडा कलाकार मान लें, समाज में उन्हें अच्छी नज्ार से नहीं देखा जाता। मेरी नानी ने मेरी मां और उनकी दोनों बहनों को पूरा एक्सपोज्ार दिया। उन्होंने तीनों को संगीत, डांस सिखाया, थिएटर के लिए प्रोत्साहन दिया। लेकिन साथ में यह भी कहा कि इसे आप प्रोफेशन नहीं बना सकते..
यानी म्यूज्िाक एक हॉबी की तरह सिखाया गया..
हां। लेकिन मेरी मां ने, जिन्होंने मुझे और मेरी बहन को सिखाया, एक्सपोज्ार भी दिया, मेरे बीए कर लेने के बाद उन्होंने कहा, मुझे तो लग रहा है कि संगीत का तुम्हें जुनून सा है। अगर तुम यही करना चाहती हो तो कैसे काम करोगी? तुम्हें पूरा समय इसके लिए समर्पित करना चाहिए। संगीत सीखना है तो इसे पूरा समय दो, अकेडमिक्स करना है तो फिर उसे सारा समय दो। मैं बात कर रही हूं सत्तर के दशक की। उस ज्ामाने में इतना बडा अवसर मिलना बहुत बडी बात थी, जबकि कोई साधन नहीं थे।
स्त्री होने के चलते आपको कभी कुछ झेलना नहीं पडा?
बिलकुल नहीं, सवाल ही नहींउठा।
आपकी वॉयस क्वॉलिटी बहुत अलग है। रेनकोट, ल"ा जैसी चर्चित फिल्मों में आपकी आवाज्ा का जादू दिखा। लेकिन फिल्मों में आपका गाना कम ही सुनाई देता है। क्या क्लासिकल म्यूज्िाक की कुछ सीमाएं हैं?
मैंने कभी भी फिल्मों के लिए ज्यादा नहीं गाया। ल"ा, अक्स, लागा चुनरी में दाग.. दो-तीन और ऐसी फिल्मों में गाया। इसमें शास्त्रीय संगीत की सीमा का सवाल नहीं है। सवाल है अपनी काबिलीयत का, जिसमें एक तरह का ओरिएंटेशन चाहिए। आपको गाना भी नहीं मालूम, लेकिन आप स्टूडियो में चले जाएं। तुरंत गाना याद करके ऐसे रिकॉर्ड करें कि लगे वही किरदार गा रहा है, जिस पर यह फिल्माया गया है। तो यह अलग िकस्म की साधना है, जो मेरे पास नहीं है। दूसरी बात यह है कि फिल्मों में अलग तरह की आवाज्ा सफल रही है। मेरी आवाज वैसी नहीं है। जो ऐक्टर है या ऐक्ट्रेस है, उसकी आवाज्ा चाहे जैसी हो, लेकिन जब वह गाती है पर्दे पर तो उसकी आवाज्ा मधुर-सुरीली सुनाई देने लगती है। यानी दोनों आवाज्ाों में कोई तालमेल नहींहोता...। इसलिए जब हमें बुलाया जाता है, तो एक क्लीशे (ढर्रे) में डाल दिया जाता है। मेरी आवाज्ा (हंसते हुए) किसी जोगन या बंजारन के लिए यूज हो जाएगी या फिर बडा दर्दनाक कोई सीन चल रहा हो तो बैकग्राउंड के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
आपकी गायकी में हमें एक आज्ाद स्त्री का स्वर सुनाई देता है। इस आज्ाद स्त्री की आपकी परिभाषा क्या है? अपनी शर्तो पर जीने की चाह कितनी मुश्किल है?
आज्ादी तो.. आपको कला ही देती है, आनंद लेने की। मुझे लगता है कि कलाकार वही चीजें गाए, जिनके लिए उसे बाद में ये खेद न जताना पडे कि मैंने इसे ग्ालती से गा दिया या मजबूरी में गाया। मैं तो अपने को आजीवन विद्यार्थी कहूंगी। आज मुझे किसी दूसरी विधा में गाने का निमंत्रण मिले तो मैं पहले यही कहती हूं कि मुझे इसकी जानकारी नहीं है। हां, यदि आप मुझे जानकारी दें तो मैं सीख कर कोशिश कर सकती हूं। तो सीखने का रुझान बना रहे और ये न लगे कि ये मैं इसलिए सीख रही हूं कि आज बाजार इस चीज के लिए गरम है.. तो मुझे लगता है कि फिर कोई समस्या नहीं आती। जिस आज्ादी की बात आप कर रही हैं, मेरे लिए वह आज्ादी नहीं, एक मज्ा लेने की बात है। अगर मैं ही अपने गाने या अपनी कला में आनंद नहींले पाऊंगी तो दूसरों तक उसे कैसे पहुंचाऊंगी।
आपका बेटा धवल भी एक रॉकबैंड में है। आपकी प्रेरणा कितनी रही इसमें?
मैं बहुत ख्ाुश हूं कि उसने यह निर्णय लिया है। मुझे बहुत ख्ाुशी है कि उसने संगीत से ही अपनी ज्िांदगी जोडी। यह अलग बात है कि मुझे उसके संगीत के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। उसे इसमें आनंद मिल रहा है तो मैं उसका पूरा साथ दूंगी, वैसे ही जैसे मेरे माता-पिता ने दिया...लेकिन मुझे इस बारे में (उसके संगीत के) पता नहीं है तो यह भी नहीं कह सकती कि वह बहुत अच्छा गा रहा है। कुछ लोगों को अच्छा लग रहा है तो उम्मीद करती हूं कि सुधरता जाएगा और वह जिन मंज्िालों को छूना चाहता है, वहां तक पहुंचेगा। हम म्यूज्िाक को लेकर बातचीत करते हैं। एक-दूसरे का म्यूज्िाक सुनते हैं। लेकिन वह संगीत के उस प्रकार के बारे में बहुत अच्छा नहीं जानता, जो मैं कर रही हूं और न मैं उसके संगीत के बारे में ज्यादा जानती हूं। इसलिए मैं कभी कमेंट करती हूं तो कहती हूं कि देखो मैं उस व्यक्ति की तरह कमेंट कर रही हूं, जो नहीं जानता। मैं ग्ालत भी हो सकती हूं। वह मुझे नए ढंग का म्यूज्िाक सुनाता है, जो मैं अपने-आपसे नहीं सुन सकती थी। हमारे लिए यह आनंद और गौरव की बात है। एक अलग तरह की म्यूज्िाक शेयरिंग है हमारे बीच।
यंगस्टर्स को कला-संस्कृति से जोडने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
हम सिर्फ इतना कर सकते हैं कि एक्सपोज्ार दें। आर्ट, कल्चर, संस्कार.. इनसे जो भी आपकी परवरिश है, वह दिखती है। परिवार में क्या हो रहा है और एजुकेशन सिस्टम में क्या चल रहा है, ये दोनों जगहें समाज से जुडी हैं। अगर दोनों जगह कलाओं के लिए सम्मान हो तो बहुत अच्छा होगा। मैं केवल यही सुझाव दे सकती हूं कि हमें कला की अलग-अलग विधाओं की जानकारी देनी चाहिए बच्चों को। भारत में बहुत कुछ है। इतनी सामग्री है कि चाहें भी तो पूरा आनंद नहींउठा सकते। मैं सोचती हूं कि विविधता का सम्मान बहुत ज्ारूरी है। इसको सहेजा जाना चाहिए और प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। सभी को इस विविधता का स्वाद मिलना चाहिए। यही एकमात्र उपाय है जो हम कर सकते हैं। बाकी कोई नुस्ख्ा नहीं है।
संगीत के अलावा आपका क्या पैशन है? गाना और खाना.. हमने ऐसा सुना है।
(खुलकर हंसते हुए...) हमेशा तो नहीं, लेकिन हां! मुझे मज्ा आता है। ज्यादा समय तो नहीं होता किचन में जाने का, लेकिन कभी-कभी शौक से बनाती हूं। बाकी मेरे परिवार के लोग हैं, मेरे मित्र हैं जो बहुत अच्छा खाना बनाते हैं और प्यार से मुझे खिलाते हैं। मैं स्वाद लेती हूं।
कला पूरा समर्पण मांगती है। कई बार लगता है कि सिंगल स्त्रियों का करियर ग्राफ बेहतर होता है और घर-परिवार की ज्िाम्मेदारियों में काबिलीयत दब जाती है। आप क्या कहेंगी?
मैं ऐसा नहींसोचती। सिंगल शब्द का अर्थ आजकल शादी न होने से लिया जाता है। दोनों स्थितियों के अपने फायदे-नुकसान हैं। मैं जानती हूं आप क्यों पूछ रही हैं यह प्रश्न। मैं अपनी कई ऐसी फ्रेंड्स से मिलती हूं जो मेरे साथ म्यूज्िाक सीख रही थीं। अब मिलती हैं, तो मुझे लगता है कि उन्हें थोडा रंज भी है। वे कहती हैं कि अरे हम तो कुछ नहींकर पाए, घर-परिवार में फंस कर रह गए..। लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह वास्तव में सही है। मैं मानती हूं कि परफॉर्मर की लाइफ अलग है, लेकिन कला से जुडे रहने के लिए कोई बंधन या सीमा नहींहै। मुझे नहीं लगता कि आप सिंगल हों तभी कर पाएंगे। ऐसी कौन सी स्थिति हो सकती है! शादी न भी हो, अन्य रिश्ते तो हैं। माता-पिता, भाई-बहन, दोस्त, समाज तो है। वैरागी बन कर तो नहीं रह सकते। समाज से अलग-थलग होकर कला नहींरह सकती। संबंध और उनसे जुडी अपेक्षाएं ज्िांदगी में बहुत कुछ सिखाती भी हैं। बंधन आपको तोड कर रख दे, आपकी रुचियों को ख्ात्म कर दे, ज्ारूरी नहींहै। उससे भी बहुत सीखने को मिलता है। आर्ट में हम क्या करते हैं? चारों तरफ की हमारी परिस्थितियां, हमारे भाव, संबंध-रिश्ते, ख्ाुशियां, गिले-शिकवे, लुत्फ...यही सब तो आर्ट में अभिव्यक्त होता है। वही नहीं होगा तो कैसे काम चलेगा!
रियाज्ा के लिए आप कितना समय निकाल पाती हैं? क्या इसके लिए बहुत समय चाहिए?
कला बहुत समय मांगती है। हर दिन जब मैं सीख रही होती हूं, अभ्यास कर रही होती हूं, तो मैं यह जानती हूं कि अभी बहुत कुछ सीखने के लिए रह गया है। हर दिन मैं रियाज करती हूं और हमेशा यही लगता है कि अरे यह रह गया..वह रह गया..। और केवल गाने की बात नहीं है, पढने को बहुत कुछ है, समझने को बहुत कुछ है, देखने को बहुत कुछ है। दूसरे कलाकार जो अलग क्षेत्र के हैं, उन्होंने अपनी कला के बारे में क्या कहा, यह भी जानना है। बस एक पिटारा सा है और उसमें से जितना भी निकालते रहिए, वह और आपको देता रहता है। हम यह नहींकह सकते कि मुझे सब कुछ आता है। इसे ही मैं बहुत सुखद स्थिति मानती हूं। यह स्थिति कितनी एकांगी होगी कि हम यह कहें कि मेरे को तो सब कुछ आता है। रोज्ा हमारे पास नया सीखने को है, यही आनंददायक स्थिति है।
एक आख्िारी सवाल, अपनी पहचान बनाने का क्या सुख है?
मुझे नहीं लगता कि मैंने सचेत तरीके से अपनी पहचान बनाई है। समाज ने मुझे यह सम्मान दिया है। आज अगर सडक पर कोई मुझे रोक कर मुझसे पूछता है कि आपने वह गीत गाया था तो यह बहुत बडा सम्मान है। इसके लिए ईश्वर को, गुरुजनों को, परिवार को धन्यवाद देना पडेगा कि उन्होंने हमें इस काबिल बनाया कि लोग हमें पहचान रहे हैं। ये हमारी जिम्मेदारी बढाता है। मेरी भी जिम्मेदारी बनती है कि अगर मेरे पास कोई सीखने आता है तो मैं भी उतनी ही उदारता से उसे सिखाऊं, जितनी उदारता से मुझे मेरे गुरुओं ने सिखाया है। समाज में रहकर समाज के प्रति कई जिम्मेदारियां हैं, उन्हें भी पूरा करना पडता है हमें। ऐसा नहीं है कि हम कलाकार हैं तो कहें कि सारी जिम्मेदारियां आपकी हैं। आप हमें एक पेडस्टल पर खडा करके रख दीजिए और हमारी स्तुति कीजिए। हमें भी समाज के लिए कुछ करना पडेगा। केवल गीत-संगीत से ही नहीं, और भी जुडना पडेगा, चाहे वह छोटी सी चीज्ा क्यों न हो। कई बार कलाकार कहते हैं कि हमें सियासत से क्या लेना-देना, हम तो वोट देने नहीं जाएंगे। बेशक यह छोटी सी बात लग सकती है, लेकिन यह भी हम न कर पाए तो फिर हमने अपनी ज्िाम्मेदारी कहां निभाई!
सखी की संपादक प्रगति जी