Move to Jagran APP

वास्तविक घटनाओं का काल्पनिक चित्रण गंगाजल

भ्रष्ट व्यवस्था, बीमार तंत्र और त्रस्त जनता के ताने-बाने से बुनी गई है फिल्म 'गंगाजल' की कहानी। समानांतर सिनेमा के दौर से निकले निर्देशक प्रकाश झा अपने निजी फॉम्र्युले वाली फिल्मों के लिए जाने जाते हैं।

By Edited By: Published: Tue, 24 Feb 2015 03:13 PM (IST)Updated: Tue, 24 Feb 2015 03:13 PM (IST)
वास्तविक घटनाओं का काल्पनिक चित्रण गंगाजल

भ्रष्ट व्यवस्था, बीमार तंत्र और त्रस्त जनता के ताने-बाने से बुनी गई है फिल्म 'गंगाजल' की कहानी। समानांतर सिनेमा के दौर से निकले निर्देशक प्रकाश झा अपने निजी फॉम्र्युले वाली फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। 'गंगाजल-दो' में वह ख्ाुद भी भूमिका निभाते नज्ार आएंगे। फिल्म-निर्माण से जुडी कई घटनाओं के बारे में बता रहे हैं अजय ब्रह्मात्मज।

loksabha election banner

इन दिनों गंगाजल 2' की तैयारियां चल रही है। निर्देशक प्रकाश झा की यह फिल्म 'गंगाजल' की फ्रेंचाइज्ाी होगी। इसमें प्रियंका चोपडा आइपीएस पुलिस अधिकारी की भूमिका में होंगी। उनके साथ प्रकाश झा भी अहम भूमिका में नज्ार आएंगे। पर्दे पर आने के लिए वे अपने शरीर का विशेष ध्यान रख रहे हैं। आम दर्शक इस बात को नहीं समझ पाते कि अपनी फोटो में वे मोटे क्यों नज्ार आते हैं? वास्तव में कैमरा आयतन बढाता है। हमारा आकार बढ जाता है। यही वजह है कि जब हम कलाकारों को साक्षात देखते हैं तो वे काफी दुबले-पतले दिखते हैं। प्रियंका चोपडा के लिए भी यह ख्ाास फिल्म होगी। 'मैरी कॉम' के बाद यह उनकी लीड भूमिका वाली अगली फिल्म होगी। 'गंगाजल 2' की कहानी में कथा-भाव 'गंगाजल' का ही रहेगा। शहर और किरदार बदल जाएंगे। स्थितियां नई होंगी।

विवादों में फिल्म

'गंगाजल' की शूटिंग महाराष्ट्र के वाई और सतारा इलाके में हुई थी। 'गंगाजल' के लिए मध्य प्रदेश के होशंगाबाद और भोपाल को चुना गया है। 'गंगाजल' को भागलपुर के अंखफोडवा कांड और तत्कालीन बिहार में सरकार, पुलिस और बाहुबली की मिलीभगत की पृष्ठभूमि में देखा जाता है। फिल्म वास्तविक घटनाओं पर आधारित नहीं, बल्कि रीअल घटनाओं को लेकर लिखी काल्पनिक कहानी थी। अपने देश में फिल्म लेखकों और निर्देशकों को बच-बचा कर काम करना पडता है। पहले सेंसर और फिर संगठनों, व्यक्तियों और समूहों से जूझने का अंदेशा रहता है। 'गंगाजल' में कुछ किरदारों को लेकर भी विवाद हुए थे। पटना में इसके प्रदर्शन पर आपत्ति उठी थी। फिल्म को प्रतिबंधित करने की कोशिश की गई थी।

सफलता का फॉम्र्युला

'गंगाजल से प्रकाश झा ने निर्माण और निर्देशन की नई राह पकडी। उनकी फिल्मों में कंटेंट तो रीअल और सामाजिक होता है, लेकिन उन्हें कहने के लिए लोकप्रिय स्टारों का सहारा लिया जाता है। इस फिल्म में उन्होंने अजय देवगन का साथ लिया, जिनके साथ वे पहले भी 'दिल क्या करे जैसी फिल्म कर चुके थे।

'गंगाजल कंटेंट और कॉमर्स का नया प्रयाण है। 'हिप हिप हुर्रे से बतौर निर्देशक हिंदी फिल्मों में आए प्रकाश झा ने 'दामुल से पहचान बनाई। वे पैरेलल सिनेमा के दौर के प्रमुख फिल्मकार रहे। वर्ष 1989 में विजय दानदेथा की कहानी पर बनी फिल्म 'परिणीति के बाद उन्होंने हिंदी फिल्मों से अवकाश लिया। अगले पांच-छह सालों तक वे बिहार में सामाजिक-सांस्कृतिक कार्य करते रहे। लौटने पर उन्होंने 'बंदिश से शुरुआत की। इस फिल्म की आलोचना और विफलता ने उन्हें सचेत किया कि हिंदी फिल्मों की प्रचलित धारा में वे नहीं बह सकते। फिर उन्होंने 'मृत्युदंड की योजना बनाई। माधुरी दीक्षित अभिनीत 'मृत्युदंड की सफलता ही 'गंगाजल का आधार बनी। प्रकाश झा को अपनी फिल्मों के लिए निजी फॉम्र्युला मिल गया। उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए अलग भाषा गढी। कालांतर में इस भाषा में वे प्रवीण होते गए। उनकी फिल्मों के परिवेश में हिंदी प्रदेश के रंग और व्यवहार मिलते हैं। उनकी हर फिल्म में जनसमूह का सुंदर और उपयोगी इस्तेमाल होता है।

कानून व्यवस्था का चित्रण

'गंगाजल में आइपीएस अधिकारी अमित कुमार की पोस्टिंग तेजपुर होती है। तेजपुर में बाहुबली साधु यादव और उसके बेटे सुंदर यादव का राज है। अपराध और राजनीति की सांठ-गांठ में पुलिस भी शामिल है। डीएसपी से लेकर थाने के सिपाही तक इसमें लीन हैं। तेजपुर पहुंचने पर इन सभी से अमित कुमार का साबका होता है। वह इलाके को अपराध मुक्त करना चाहता है और कानून-व्यवस्था के प्रति भरोसा लौटाना चाहता है। हालांकि यह काम मुश्किल है। लोगों में अपराधियों का ख्ाौफ है। वे शिकायत करने से भी डरते हैं। फिल्म में दो-तीन घटनाओं के हवाले से पुलिस और अपराधियों की मिलीभगत को उजागर किया गया है। अपराधी सरगना साधु यादव की पहुंच प्रदेश के गृह मंत्री तक है। प्रकाश झा ने चरित्रों और घटनाओं के सघन ताने-बाने से स्पष्ट किया है कि किसी समाज को वैसी ही पुलिस मिलती है, जैसा समाज होता है। ऐसे में आम आदमी निराश होकर कानून को अपने हाथों में ले लेता है।

'गंगाजल की कहानी प्रकाश झा को लंबे समय से मथ रही थी। तीन साल से काम चल रहा था। शूटिंग आरंभ होने तक स्क्रिप्ट के नौ ड्राफ्ट बने। प्रकाश झा प्री-प्रोडक्शन पर बहुत ध्यान देते हैं। उनकी फिल्म काग्ाज्ा पर पहले बन जाती है। वे कलाकारों के चयन में भी एहतियात बरतते हैं कि सब किफायती ढंग से हो। अजय देवगन को प्रकाश झा सबसे किफायती अभिनेता मानते हैं। यूनिट समय की पाबंदी के साथ संतुलित बजट में काम करती है। उनकी फिल्मों की ज्य़ादातर शूटिंग आउटडोर लोकेशंस और छोटे शहरों में होती है। छोटी भूमिकाओं में स्थानीय कलाकारों को मौका दिया जाता है। उनकी फिल्मों में सडक पर चल रहा व्यक्ति भी अभिनेता होता है। 'मृत्युदंड और 'गंगाजल में यही तरीका अपनाया गया। मुंबई से जूनियर आर्टिस्ट नहीं बुलाए गए। दोनों फिल्मों से उन्होंने वाई और सतारा को हिंदी फिल्मों में हिंदी प्रदेश के तौर पर स्थापित किया। स्थानीय चेहरों की मौजूदगी से फिल्म में परिवेशगत वास्तविकता आती है।

स्थानीय कलाकार

प्रकाश झा ने इस फिल्म में भी हमेशा की तरह थिएटर के कलाकारों को सहयोगी भूमिकाओं में चुना। मोहन आगाशे तो उनके प्रिय कलाकार रहे हैं। इस फिल्म में मोहन जोशी, मुकेश तिवारी, यशपाल शर्मा, चेतन पंडित, दयाशंकर पांडे, अखिलेंद्र मिश्र, अनूप सोनी जैसे अनुभवी थिएटर अभिनेताओं ने भी हर छोटे-बडे किरदार को संजीदगी से निभाया था। इनकी मौजूदगी से हर किरदार दमदार और प्रभावशाली लगता है। अखिलेंद्र मिश्र ने भ्रष्ट और चापलूस इंस्पेक्टर के तौर पर ज्ाबर्दस्त बॉडी लैंग्वेज का इस्तेमाल किया है। एनएसडी से आए कलाकार मुकेश तिवारी, यशपाल शर्मा, चेतन पंडित, अनूप सोनी की यह पहली मुख्यधारा की हिंदी फिल्म थी। मुकेश तिवारी ने बच्चा यादव के द्वंद्व को बडी शिद्दत से निभाया है। वे उसकी असुरक्षा और पीडा को पूरे प्रभाव के साथ व्यक्त करते हैं। यशपाल शर्मा ने भी सुंदर यादव की निगेटिविटी को पकडा और हिंदी फिल्मों के लार्जर दैन लाइफ विलेन से अलग रूप दिया।

भ्रष्ट तंत्र-त्रस्त लोग

भारतीय समाज में पुलिस की छवि काफी नकारात्मक है। माना जाता है कि पुलिस स्वयं क्राइम में शामिल रहती है। सिस्टम इतना सड गया है कि ईमानदार पुलिस अधिकारी भी कुछ नहीं कर पाता। वह पिस जाता है। 'गंगाजल' में अपराधियों को अंधा बनाने के लिए तेजाब और सुए के इस्तेमाल की तहकीकात में लगा अमित कुमार मानता है कि लोगों को कानून-व्यवस्था अपने हाथों में नहीं लेनी चाहिए। फिल्म के आख्िारी दृश्यों में जब वह साधु और सुंदर यादव को गिरफ्तार करके ले जा रहा होता है तो वे भागने की कोशिश करते हैं। धड-पकड में हाथापाई होती है और वे ख्ाुद ही दुर्घटना के शिकार होते हैं। संयोग देखें कि दोनों की आंखें ही चोटिल होती हैं। अमित कुमार विवश होकर उनके इस अंत का साक्षात्कार करता है। कहीं न कहीं उसके चेहरे पर यह भाव और स्वीकार भी है कि जो हुआ अच्छा ही हुआ। क्योंकि वह बार-बार उन्हें पकडता है, लेकिन वे कोर्ट और बाकी सहारों से हमेशा छूट जाते हैं। फिल्म बताती है कि कई बार स्थितियां बेकाबू हो जाती हैं। निराश और हताश आम जनता मुश्किलों से निकलने की अपनी राह खोज लेती है।

अजय ब्रह्मात्मज


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.