कई बार इम्तिहान ले चुकी है जिंदगी
अगर चुनौतियां न हों तो जिंदगी बेमजा हो जाती है। हम सबके सामने कभी न कभी कुछ ऐसी स्थितियां आती हैं, जब बनती हुई बात बिगड़ती नजर आती है। गीतकार संदीपनाथ अपना एक ऐसा ही अनुभव बांट रहे हैं सखी के साथ।
हमारी जिंदगी भी किसी पहेली से कम नहीं है। जिसने इसकी गुत्थियों को सुलझाना सीख लिया, समझो जीत उसी की है। इसकी राह में बाधाएं हर कदम पर हमारे हौसले पस्त करने की कोशिश करती हैं, पर हमें अपने मजबूत इरादों के साथ आगे बढने की कोशिश करनी चाहिए।
मंजिल की तलाश में
जहां तक मेरी जिंदगी का सवाल है, मैं मूलत: बंगाली हूं, पर मेरे पिता की जॉब धामपुर (उ.प्र.) में थी। मेरा बचपन वहीं बीता और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पढाई पूरी करने के बाद मैंने दिल्ली में वकालत की। इसके साथ ही पत्रकारिता से भी जुडा, लेकिन इसमें मजा नहीं आ रहा था। मुझे कविताएं लिखने का शौक था, पर व्यस्तता की वजह से अपनी क्रिएटिविटी के लिए समय नहीं निकाल पा रहा था। इसलिए सब कुछ छोड कर सीधा मुंबई चला आया। मेरे इस निर्णय का कई लोगों ने मजाक भी उडाया और अपने नकारात्मक कमेंट्स से मेरा मनोबल तोडने की कोशिश की, पर मैं अपने फैसले पर अडिग रहा।
कभी नहीं रुके कदम
मुंबई पहुंचने के बाद मेरे सामने सबसे बडी समस्या अपने गुजारे की थी। जब तक रहने की जगह और दो वक्त की रोटी का इंतजाम न हो जाए, कोई भी व्यक्ति किसी अजनबी शहर में पहचान बनाने के लिए संघर्ष कैसे कर सकता है? यही सोचकर मैंने तय किया कि शुरुआत में अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए छोटे-मोटे काम भी कर लूंगा। इसके लिए अपने शुरुआती दिनों में मैंने एड फिल्मों के लिए जिंगल्स और स्क्रिप्ट लिखने का भी काम किया। इसी दौरान मेरी मुलाकात अभिनेत्री मनीषा कोइराला से हुई। उन दिनों वह फिल्म पैसा वसूल बनाने की तैयारी कर रही थीं। उन्होंने मुझे पहली बार अपनी इस फिल्म के लिए गीत लिखने का ऑफर दिया और कुछ नामचीन लोगों से मेरी मुलाकात भी करवाई। इसके बाद मुझे कई और फिल्मों के लिए लिखने का मौका मिला और धीरे-धीरे बॉलीवुड में गीतकार के रूप में मेरी पहचान बनने लगी।
बिगडते-बिगडते बन गई बात
एक रोज मेरे पास सांवरिया के निर्माता निर्देशक संजय लीला भंसाली का फोन आया और उन्होंने मुझसे कहा कि आपको हमारी इस फिल्म के लिए एक गीत लिखना होगा। उन्होंने सीन के हिसाब से बताया कि फिल्म के एक दृश्य में चांद दिखाना है। ईद का चांद देखने के बाद लोगों को जो खुशी महसूस होती है। वैसी ही फीलिंग उस गाने में भी आनी चाहिन्ए। उनकी यह बात सुनकर मुझे खुशी के साथ घबराहट भी हुई कि अगर मैं उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया तो क्या होगा? घर आकर मैंने यूं शबनमी पहले नहीं थी चांदनी..। गीत लिखा। फिर मैंने उसेसंगीतकार मोंटी शर्मा को सुनाया, पर उन्हें पसंद नहीं आया। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम घबराओ मत। मैं इसकी धुन बनाता हूं, तुम उस पर दोबारा गीत लिखो। गीत का मुखडा वही रखते हुए उसे थोडा और तराशने की कोशिश करो।
खैर, नई धुन पर जब मैंने उसी गीत को दोबारा लिखा तो भंसाली साहब को वह बेहद पसंद आया। इस तरह मेरी बात बिगडते-बिगडते भी बन गई। इस घटना को कई साल बीत चुके हैं, पर आज भी जब मुझे वह गीत सुनाई देता है तो पूरा दृश्य मेरी आंखों के आगे घूम जाता है, पर मुझे ख्ाुशी होती है कि अपने उस इम्तिहान में मैं अच्छे अंकों से पास हो गया था।
प्रस्तुति : रतन
सखी प्रतिनिधि