कंटेंट बैकबोन है मेरा: आमिर खान
हिंदी फिल्मों में मिस्टर परफेक्शनिस्ट के रूप में चर्चित अभिनेता आमिर खान मानते हैं कि उन्होंने अब तक के फिल्मी सफर में इतनी मुश्किल भूमिका कभी नहीं की। क्या उनकी पिछली रिलीज फिल्म पीके की भूमिका उनके लिए वाकई चैलेंजिंग थी? कुछ सवाल सखी के साथ।
हिंदी फिल्मों में मिस्टर परफेक्शनिस्ट के रूप में चर्चित अभिनेता आमिर खान मानते हैं कि उन्होंने अब तक के फिल्मी सफर में इतनी मुश्किल भूमिका कभी नहीं की। क्या उनकी पिछली रिलीज फिल्म 'पीके की भूमिका उनके लिए वाकई चैलेंजिंग थी? कुछ सवाल सखी के साथ।
1. आपको काम करते हुए बहुत समय हो गया है। ऐसा क्या मुश्किल था 'पीके के रोल में?
अपने करियर में मैंने इससे मुश्किल फिल्म नहीं की थी। दरअसल मेरा जो कैरेक्टर था, वह करता कुछ और, सोचता कुछ और है। उसके मन में एक साथ कई बातें चलती रहती हैं। यह सब करना आसान नहीं था।
2. कहते हैं कि आपका दखल हर फिल्म में होता है?
ऐसा कुछ नहीं है। आप राजू हिरानी से पूछ लीजिए या मेरे किसी और निर्देशक से बात करिए। मैं बस राय देता हूं वह भी अपनी सोच के हिसाब से। मानना और न मानना उनकी मर्जी है।
3. किसी फिल्म को लेकर आपके मन में यह बात पहले से होती है कि वह सौ या दो सौ करोड के क्लब में शामिल होगी?
मैं यह सब नहीं सोचता। बस यही सोचता हूं कि लोग मेरी फिल्में देखें और उन्हें याद रखें। एक कलाकार के लिए यही बडी सफलता है। मैं पैसों को बडी अहमियत नहीं देता और न ही किसी फिल्म को इस तरह से देखता हूं कि वह कितनी कमाई करेगी।
4. यानी कमाई आपके लिए मायने नहीं रखती?
मेरी उम्मीद यही होती है कि लेखक की लिखी हुई कहानी ने जितना असर मुझ पर डाला है, वह दर्शकों पर भी असर करे। सच यही है कि मैं अपनी फिल्म को किसी अन्य के साथ तुलना नहीं करता। मैं 'पीपली लाइव के कलेक्शन की तुलना '3 इडियट्स से नहीं कर सकता। 'धोबी घाट की तुलना 'गजनी के कलेक्शन से नहीं कर सकता। मेरे लिए अहम है कि मेरी फिल्म को कितने लोगों ने देखा। मैं तो मीडिया से पिछले चार सालों से कह रहा हूं कि वे नंबर्स और कलेक्शन के बारे में न लिखें। मेरी दो बेहद ही पसंदीदा फिल्मों में से 'प्यासा और 'मुगल-ए-आजम हैं, पर क्या मुझे उनके आंकडे पता हैं? नहीं...। मैं नहीं जानता कि इन फिल्मों ने कितना कमाया था, पर मुझ पर इनका प्रभाव आज भी है, आगे भी रहेगा।
5. आपकी फिल्म के प्रमोशन का तरीका हमेशा अलग होता है। यह आपकी सोच होती है या...?
हम सभी की सोच होती है। यह टीम वर्क की तरह होता है। हम हमेशा फिल्म से ही पोस्टर निकालते हैं। ऐसा कभी नहीं करते कि पोस्टर कुछ और, फिल्म में कुछ और...।
6. आजकल फिल्मों के नाम और कैरेक्टर के नाम काफी अलग रखे जा रहे हैं। 'पीके और 'भैरों सिंह बैंड। इस बारे में क्या कहेंगे?
यह फिल्म की क्रिएटिव टीम का कमाल होता है। वे लोग ही कैरेक्टर का नाम कुछ ऐसा चुनते हैं, जो सुनकर अलग लगे। वह कैची हो...। आप भी तो इसीलिए पूछ रहे हैं...?
7. आपको काफी कम स्क्रिप्ट पसंद आती है। जो फिल्म आप साइन करते हैं, उसमें क्या खास देखते हैं?
मैं कहानी पर गौर करता हंू कि आिखर उसमें नया क्या है? मैं किसी किरदार को तभी अपना सौ प्रतिशत दे सकता हंू, जब कुछ नया करने को मिलेगा। रोल पढऩे के बाद अगर लगता है कि वह चैलेंज दे रहा है, तभी मेरे भीतर रोमांच पैदा होता है। कहानी पसंद आने के बाद ही मैं बैनर व डायरेक्टर के बारे में जानकारी हासिल करता हंू। कहानी दिल को नहीं छूती है, तो फिर बैनर या डायरेक्टर का मेरे लिए कोई महत्व नहीं होता है।
8. अपने किरदार में पूरी तरह ढल जाने के लिए आप क्या करते हैं?
इस मामले में स्क्रिप्ट से मदद मिलती है। कहानी से ही मेरे मन में हलचल मचती है। मैं ऐसे में अपने रोल के लिए नई संभावनाएं तलाशना शुरू कर देता हंू। मेरे लिए कंटेंट बैकबोन की तरह है।
9. आपकी नजर में प्यार का कोई मजहब होता है?
मेरी समझ से नहीं होता। दो लोग, चाहे वे हिंदू हों, मुसलमान, सिख, इसाई या किसी मजहब के हों। अगर बालिग हैं तो उन्हें अपनी मर्जी से जीने का हक है। यह अधिकार उन्हें हमारा कानून देता है। प्यार एक ऐसा जज्बा है, जो किसी भी धर्म से परे है। हर मजहब प्यार करना ही सिखाता है।
रतन