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गांव से शहर जाते लोगों का दर्द सिटीलाइट्स

काम-धंधे की तलाश में गांवों से शहरों की ओर जाते लोगों का दर्द बयां करती है फिल्म सिटीलाइट्स। निर्देशक हंसल मेहता इससे पहले शाहिद के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं। अभिनेता राजकुमार राव और नई अभिनेत्री पत्रलेखा के जीवंत अभिनय ने फिल्म में जान डाल दी है। सीमित बजट में बनने वाली सफल फिल्मों में यह फिल्म शामिल है। फिल्म से जुड़ी कई जानी-अनजानी बातें जानें अजय ब्रह्मात्मज से।

By Edited By: Published: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)Updated: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)
गांव से शहर जाते लोगों का दर्द सिटीलाइट्स

पिछले साल आई फिल्म शाहिद के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हंसल मेहता की सिटीलाइट्स इस साल फरवरी में रिलीज हुई थी। सिटीलाइट्स में एक बार फिर उन्होंने राजकुमार राव को नायक की भूमिका दी। उल्लेखनीय है कि हंसल मेहता की तरह राजकुमार राव भी शाहिद के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मनित किए गए। उन्हें इस फिल्म में भी श्रेष्ठ अभिनय के लिए पुरस्कार मिला। दोनों का साथ आना और फिर से समाज की अचर्चित हकीकत पर रोशनी डालना हिंदी सिनेमा के लिए सुखद घटना है। निर्देशक-अभिनेता की जोडी ने साबित किया कि परस्पर समझदारी से सीमित बजट में भी बेहतरीन फिल्म बनाई जा सकती है।

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सिटीलाइट्स के निर्माण से महेश भट्ट भी जुडे हैं। उन्होंने फिल्म में विश्वास जता कर स्पष्ट कर दिया कि उनके भीतर सारांश, अर्थ और जख्म वाली रचनात्मकता जिंदा है। मौका और विषय मिले तो वे कंटेंट प्रधान फिल्मों के समर्थन में आ सकते हैं।

ऐक्टर-डायरेक्टर केमिस्ट्री

फॉक्स स्टार स्टूडियोज ने ब्रिटेन और फिलिपींस के संयुक्त निर्माण में बनी सीन एलिस की फिल्म मेट्रो मनीला के अधिकार खरीद रखे थे। वे चाहते थे कि भारत में इसका निर्माण हिंदी में हो। फॉक्स स्टार स्टूडियोज और महेश भट्ट की प्रोडक्शन कंपनी विशेष फिल्म्स के बीच करार के तहत फिल्में बन रही हैं। उन्होंने महेश भट्ट को मेट्रो मनीला दिखाई तो महेश भट्ट इस पर फिल्म बनाने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने बीए पास से चर्चित निर्देशक अजय बहल को निर्देशन का निमंत्रण दिया। अजय बहल ने प्री-प्रोडक्शन आरंभ किया, लेकिन मुकेश भट्ट से अनबन के बाद उन्होंने फिल्म छोड दी। बाद में शाहिद के लिए सराहे जा रहे हंसल मेहता का आगमन हुआ। माना जाता है कि उन्होंने राजकुमार राव का चुनाव किया। मगर सच्चाई यह है कि अजय बहल ने राजकुमार को चुना था। यानी हंसल के आने से पहले ही राजकुमार फिल्म में थे। दोनों में बनती थी, लिहाजा संयोग अच्छा रहा।

सीमित बजट की फिल्म

अब तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि फिल्म निर्देशक और कलाकार आउटडोर शूटिंग के लिए ट्रेन से जा सकते हैं। सीमित बजट के कारण हंसल मेहता और उनकी टीम ने तय किया कि वे निर्माता पर अनावश्यक खर्च का बोझ नहीं डालेंगे। सिटीलाइट्स में परिवेश की वास्तविकता के लिए राजस्थान के एक गांव का चुनाव किया गया था। हंसल मेहता ने नायक राजकुमार राव और नायिका पत्रलेखा को शूटिंग से कुछ दिन पहले ही राजस्थान भेज दिया था। वे बताते हैं ,राजकुमार राव हरियाणा के हैं और पत्रलेखा असम की। यह जरूरी था कि वे स्थानीय लोगों से बातचीत का लहजा सीखें। दोनों ने मेरी हिदायत पर अमल किया। उन्होंने दीपक और राखी के किरदार को जीवंत किया। सिटीलाइट्स में खास भूमिका मानव कौल की है। उन्होंने अपने किरदार का सटीक चित्रण किया।

विफलता से निकली राह

सिटीलाइट्स के निर्माण और प्रस्तुति में महेश भट्ट की उल्लेखनीय भूमिका रही। अरसे बाद उन्होंने सामाजिक यथार्थ पर बनी फिल्म का न केवल समर्थन किया, बल्कि उसके प्रचार में भी हिस्सा लिया। सिटीलाइट्स उनकी दमित आकांक्षा की अभिव्यक्ति है, जो बाजार और मुनाफे के दबाव में कहीं दब गई है। उन्होंने कहा था कि हंसल मेहता खतरनाक निर्देशक हैं। मैं उनमें खुद को देखता हूं। हंसल ने छोटी फिल्म जयते से करियर शुरू किया। फिर मनोज बाजपेयी के साथ दिल पर मत ले यार निर्देशित की, जो विफल हुई और वे भटक गए। कामयाबी की कोशिश में कमर्शियल सिनेमा की ओर बढे, मगर वहां भी विफल हुए। फिर सिनेमा छोड कर खेती-बाडी करने लगे। मगर जल्दी ही लौटे और इस बार अपनी मर्जी से फिल्म चुनी, शाहिद। यही सही राह थी और सिटीलाइट्स इसी का अगला पडाव है।

महेश भट्ट की प्रेरणा

हंसल मेहता सिटीलाइट्स के निर्माण का पूरा श्रेय महेश भट्ट को देते हैं। वे कहते हैं, शूटिंग के पहले दिन मैंने भट्ट साहब को फोन किया तो उन्होंने यही कहा कि निर्भीक होकर फिल्म बनाओ, दिल की सुनो। उनकी यह बात मन-मस्तिष्क में गूंजती रही। मुंबई में शूटिंग के दौरान मैं उनसे मिलने दफ्तर चला जाता था और रिचार्ज होकर निकलता था। भट्ट साहब आजादी ही नहीं देते, आजाद होने की हिम्मत भी देते हैं। यह बताना इसलिए जरूरी है कि बेहतर सिनेमा के भविष्य के लिए हमें कईमहेश भट्ट चाहिए। ऐसे निर्माता कम होते जा रहे हैं, जो आउट ऑफ बॉक्स प्रयोग करें, संवेदनशील फिल्में बनाने का साहस करें। हंसल मेहता कहते हैं, मैंने मूल फिल्म मेट्रो मनीला नहीं देखी थी। मैं नहीं चाहता था कि निर्देशन में कोई प्रभाव लूं। रितेश शाह की लिखी हिंदी स्क्रिप्ट को मैंने आधार बना कर उसमें अपने हिसाब से फेरबदल किया। सिटीलाइट्स की कहानी किसी भी शहर की हो सकती है। खासतौर पर विकासशील देशों में शहरों के असमान विकास से समस्याएं पैदा होती हैं। बेहतर जिंदगी की तलाश में गांवों-कस्बों के लोग शहरों में आते हैं, जहां उनकी दुर्दशा हो जाती है। माइग्रेशन पर पहले भी कई फिल्में बनी हैं। बिमल राय की दो बीघा जमीन श्रेष्ठ फिल्म है। कुछ समीक्षकों ने सिटीलाइट्स की तुलना फिल्म दो बीघा जमीन से की है।

भावुक और यथार्थवादी

फिल्म में राजकुमार राव ने दीपक की भूमिका निभाई है। वह बताते हैं, हंसल ने मुझे बताया था कि दीपक राजस्थान का है। तो परिवेश को समझने के लिए मैं दो-तीन हफ्ते राजस्थान में रहा, लोगों से बातें कीं, भाषा और संस्कृति को समझा। हर किरदार की एक इमोशनल जर्नी होती है। किरदार की सही जानकारी हो जाए तो दिक्कत नहीं होती। जिंदगी की तरह फिल्म में किरदार का क्रमिक विकास नहीं होता। कई बार हम क्लाइमेक्स पहले शूट कर लेते हैं और पहले के सीन बाद में करते हैं। सिटीलाइट्स इमोशनल फिल्म होने के साथ यथार्थवादी भी है। मेरी कोशिश रहती है कि मैं किरदार को उसका परिवेश जरूर दूं। सिटीलाइट्स में राजकुमार कई दृश्यों में अपने मौन में ज्यादा मुखर और प्रभावशाली लगे हैं। नई पीढी में चंद अभिनेता ही हैं, जो दृश्यों में बंध जाते हैं। इमोशन को जज्ब करने के साथ जाहिर कर पाते हैं। अभिनय की इस प्रक्रिया के बारे में राजकुमार बताते हैं, मेरे लिए संवाद सेकंडरी सुविधा है। मैं प्रशिक्षित अभिनेता हूं। किरदार की मन: स्थिति समझ लेने के बाद आसानी हो जाती है। हम इतने तरल हो जाते हैं कि हर भाव के सांचे में ढल जाते हैं।

सिटीलाइट्स दीपक की उदास कहानी है, जो दुखांत के बावजूद राखी के जरिये उजास लाती है। फिल्म में शुरू से आखिर तक अवसाद रहता है। माना जाना है कि अवसाद से भरी फिल्में दर्शकों को थका देती हैं। हंसल मेहता ऐसी फिल्मों की जरूरत पर जोर देते हैं, हर फिल्म सिर्फ हंसाती और मनोरंजन ही करती रहेगी तो मालूम नहीं हम कहां पहुंचेंगे? दर्शकों को कभी थकना और अपने आसपास भी देखना चाहिए। जिंदगी में सब कुछ सुंदर नहीं है। सच कहूं तो शहरों की चकाचौंध में गहन अंधेरा है।

अजय ब्रह्मात्मज


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