हवा हवाई: जिंदगी के सबक बच्चों से
अमोल गुप्ते अलग किस्म के फिल्मकार हैं। पिछले दिनों आई फिल्म हवा हवाई भेदभाव व असमानता के खिलाफ सार्थक फिल्म है, जिसमें गहरा आशावाद झलकता है। घोर मुश्किलों के बीच महत्वाकांक्षाओं व इच्छाओं की राह पर चलने का सबक देती है यह फिल्म। इस फिल्म से जुड़ी घटनाओं की जानकारी दे रहे हैं अजय ब्रह्मात्मज।
कुछ समय पहले आई अमोल गुप्ते की फिल्म हवा हवाई में बच्चे मुख्य भूमिकाओं में थे, इसलिए इसे बच्चों की फिल्म माना गया। गौर करें तो यह सिर्फ बच्चों की फिल्म नहीं है। फिल्म अनेक स्तरों पर अभिव्यक्त होती है। समाज में जारी असमानता और भेदभाव के बावजूद बालसुलभ आकांक्षा और जीत की यह कहानी सकारात्मकता का संचार करती है।
ताकि बचपन गुम न हो
अमोल गुप्ते इस पीढी के अनोखे फिल्मकार हैं। लंबे समय तक एक स्वयंसेवी संस्था में बच्चों के साथ काम करने के बाद उन्होंने फिल्म लेखन और निर्देशन की तरफ ध्यान दिया। तारे जमीन पर उनके निजी अनुभवों पर आधारित पहली फिल्म थी। इस फिल्म का निर्माण आमिर खान ने किया था। आरंभ में फिल्म के निर्देशक अमोल गुप्ते थे, बाद में आमिर खान ने निर्देशन की कमान अपने हाथ में ली। वे फिल्म के क्रिएटिव डायरेक्टर हो गए। कुछ साल के बाद उन्होंने फिल्म स्टेनली का डब्बा बनाई। फिल्म की शूटिंग की योजना और प्रक्रिया से स्वयं अमोल गुप्ते ने सीखा। उन्होंने बच्चों के साथ काम करने के नियम तय किए। उन्होंने फिल्म निर्माण का उदाहरण स्थापित किया है कि कैसे बाल प्रतिभाओं के सहयोग से फिल्म और कंटेंट तैयार करते समय हम संयम से बचपन का दुरुपयोग किए बिना उनसे काम ले सकते हैं।
बच्चों की इच्छा और सुविधा
हवा हवाई की निर्माण प्रक्रिया भी उनकी सोच और आदर्शो के अनुसार रही। अमोल गुप्ते को एहसास है कि फिल्मों एवं टीवी शो में बच्चों की प्रतिभा का दुरुपयोग हो रहा है। वह कहते हैं, आप किसी भी बाल कलाकार से बात करके देखें। कमल हासन, सारिका, हनी-डेजी ईरानी सभी ने बडे होने के बाद इस पीडा को महसूस किया कि वे बचपन की मासूमियत का आनंद नहीं उठा पाए। इन दिनों टीवी शोज में बच्चों की प्रतिभा के दुरुपयोग में मां-बाप भी शामिल हैं। वे ताली बजा-बजा कर अपने ही बच्चों का बचपन बर्बाद कर रहे हैं। बच्चों को तो मालूम नहीं रहता कि उनका क्या नुकसान हो रहा है। वे तो अभिभावक, शिक्षक और मां-बाप के निर्देशों का पालन करते हैं। बडे होने के बाद पता चलता है कि दबाव में उन्होंने क्या-क्या खो दिया? अमोल गुप्ते ने स्टेनली का डब्बा और हवा हवाई की शूटिंग एक ही तरीकेसे की है। वे बताते हैं, मेरी फिल्मों की एक स्क्रिप्ट रहती है। मैं बच्चों के साथ वर्कशॉप करता हूं। बगैर किसी दबाव के उन्हें उनकी इच्छा से सब कुछ करने देता हूं। इसी के बीच फिल्म भी बनती जाती है। मैं शिफ्ट और घंटों के हिसाब से काम नहीं करता। स्टेनली का डब्बा और हवा हवाई में मैंने बच्चों के साथ हफ्ते में सिर्फ एक दिन शनिवार को काम किया। मैंने उनकी छुट्टियों और सुविधा का खयाल रखा। ऐसे में फिल्म बनाने का समय लंबा और अनियोजित तो होता है मगर सभी खुश रहते हैं। बच्चों का योगदान भी नैसर्गिक रहता है। उन्हें यह महसूस नहीं होता कि उनसे जबरन काम करवाया जा रहा है।
फिल्म का घरेलू पक्ष
अमोल गुप्ते की पत्नी दीपा भाटिया और बेटा पार्थ उनके साथ अवश्य काम करते हैं। दीपा भाटिया एडिटर हैं और पार्थ उनकी फिल्मों में प्रमुख भूमिका में रहते हैं। घरेलू प्रतिभाओं से फिल्म की शूटिंग, एडिटिंग और ऐक्टिंग में सहूलियत हो जाती है। तीनों की टीम हिंदी फिल्मों में कुछ नया जोड रही है। उन्होंने फिल्ममेकिंग का नया बेंचमार्क स्थापित कर दिया है। अच्छी बात हुई कि उनकी फिल्में दर्शक देखना चाहते हैं। कहने को तो उनकी फिल्मों के किरदार और थीम बच्चों की होती है, लेकिन उनकी अपील सभी उम्र के दर्शकों के लिए होती है। अमूमन हम बच्चों के साथ बातें करते समय तुतलाने लगते हैं, जबकि बच्चा समझ रहा होता है कि आप गलत बोल रहे हैं। यही बात उनकी फिल्मों के साथ भी होती है। ज्यादातर फिल्मकार बच्चों की फिल्में बनाते समय स्वयं तुतलाते हैं। नतीजा यह होता है कि फिल्में हास्यास्पद-बचकानी हो जाती हैं। अमोल गुप्ते की फिल्मों में संवेदना और अप्रोच का संतुलन रहता है।
उपदेश या संदेश नहीं
अमोल गुप्ते फिल्मों में उपदेश या संदेश देने की कोशिश नहीं करते। बे बताते हैं, फिल्म में अर्जुन हरिश्चंद्र वाघमारे घरेलू स्थितियों के कारण काम करने के लिए मजबूर होता है, लेकिन उसके नए सपने जागते हैं। आजीविका की कोशिश में नई महत्वाकांक्षा जन्म लेती है। इसमें उसे दोस्तों की नि:स्वार्थ मदद मिलती है। वह अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आगे बढता है। मैंने फिल्म में अर्जुन को पॉजिटिव रखा है। अगर अर्जुन के अतीत और वर्तमान की तकलीफों पर ही रुक जाता तो फिल्म अति नाटकीय और भावुक हो जाती। मेरा उद्देश्य था कि मैं उसके ख्ायालों को मूर्त होते हुए दिखाऊं। इस यात्रा में उसे संघर्ष की मुश्किलों से नहीं गुजरना पडता, लेकिन सब कुछ यों ही नहीं मिलता। अर्जुन की लगन दिखती है, उसे कोच लकी का साथ मिलता है। लकी जैसे युवा शिक्षक थोडा अलग ढंग से सोचते हैं। हवा हवाई में कोच अपने भाई की तरह भौतिकता का मारा नहीं है। अमेरिकी कीडे ने उसे नहीं काटा है। अर्जुन के जोश और सपनों से उसे ज्िांदगी की प्रेरणा मिलती है। वह उसे ट्रेनिंग देकर जीत के लिए तैयार करता है। लकी की भूमिका साकिब सलीम ने निभाई है। साकिब कहते हैं, अमोल सर की स्टेनली का डब्बा देखने के बाद ही मैंने तय किया था कि उनके साथ काम करना है। हवा हवाई में एक ऐक्टर के तौर पर मुझे बहुत सीखने को मिला। अमोल सर पूरी आज्ादी देते हैं। बाल कलाकारों के मौलिक अभिनय ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। मैंने स्केटिंग सीखी। इसके दो कोच से मेरी मुलाकात हुई थी। मैंने देखा कि वे बच्चों के साथ कैसे व्यवहार करते हैं। इस ऑब्जर्वेशन से मुझे मदद मिली। अब बच्चों के साथ आसानी से घुल-मिल जाता हूं।
ताजगी का एहसास
हवा हवाई का संपादन दीपा भाटिया ने किया है। उनके लिए इसका संपादन काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। वह कहती हैं, बच्चों की प्रतिक्रियाएं नियोजित नहीं होतीं। वे एक ही तरीकेसे रिएक्ट करते हैं। हमारी कोशिश है कि दर्शकों को ताजगी का एहसास हो। वक्त और धैर्य के साथ ऐसी फिल्म एडिट की जाती है। फिल्म की शूटिंग वर्कशॉप के दौरान ही होती है।
हवा हवाई में समाज के विभिन्न वर्ग के बच्चे हैं। दूसरी फिल्मों में निर्देशक अपनी सोच से बच्चों में प्रतिस्पर्धा दिखाते हैं। हवा हवाई में जीतने की जिद है, लेकिन दूसरों से घृणा, द्वेष या ईष्र्या नहीं है। वे हीन भावना से ग्रस्त नहीं हैं। फिल्म में जिंदगी के सबक हैं। अर्जुन का चरित्र विषम परिस्थितियों में भी खुश रहता है, अपने सपनों को पूरा करता है। गौर करें तो हवा हवाई अलग िकस्म की फीलगुड फिल्म है। अर्जुन का किरदार पार्थ ने निभाया है। पार्थ की मौलिकता चरित्र की भिन्नता स्थापित करती है। अमोल गुप्ते के चरित्र चित्रण में अतिरिक्त ढंग से किसी को नहीं उभारा गया है।
अजय ब्रह्मात्मज