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बेहद खूबसूरत है ये मुकाम

बढ़ती उम्र के साथ खुशियों का क्या रिश्ता है, क्यों बदल रही है हमारी सोच, क्या प्रौढ़ावस्था में लोग वाकई ज़्यादा खुश रहते हैं? कुछ विशेषज्ञों के साथ जिंदगी से जुड़े ऐसे ही सवालों के जवाब ढूंढ रही हैं विनीता।

By Edited By: Published: Thu, 26 May 2016 12:50 PM (IST)Updated: Thu, 26 May 2016 12:50 PM (IST)
बेहद खूबसूरत है ये मुकाम

समय के साथ समाज बदल रहा है। कल तक बढती उम्र को नकारात्मकता के साथ जोडकर देखा जाता था, पर अब ऐसा नहीं है। आज मिडिलएज में लोग सबसे ज्यादा खुश होते हैं। बढती उम्र के साथ खुशियों का क्या रिश्ता है, क्यों बदल रही है हमारी सोच, क्या प्रौढावस्था में लोग वाकई ज्यादा खुश रहते हैं? कुछ विशेषज्ञों के साथ जिंदगी से जुडे ऐसे ही सवालों के जवाब ढूंढ रही हैं विनीता।

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एक दौर ऐसा भी था, जब उम्र बढऩे के साथ लोग यह मान लेते थे कि अब तो हम जीवन के अंतिम पडाव पर पहुंचने वाले हैं। यह जमाना युवाओं का है। हमारा क्या है, बची-खुची जिंदगी भी किसी तरह कट ही जाएगी। इसी सोच की वजह से चालीस पार करते ही लोग अपनी जिंदगी का लेखा-जोखा शुरू कर देते और जिम्मेदारियों की लंबी चेकलिस्ट उन्हें भयभीत करने लगती थी। उनका यही डर मिडलाइफ क्राइसिस का सबब बन जाता था, पर अब ऐसी मनोवैज्ञानिक समस्याएं उन्हें नहीं डरातीं। समय के साथ न केवल लोगों की सोच, बल्कि उनके जीने के अंदाज में भी नयापन नजर आने लगा है।

बदला है बहुत कुछ

समय के साथ आने वाले इस बदलाव को अगर हम बडे सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो पिछले ढाई दशकों में यानी 1990 से अब तक बदलाव की रफ्तार इतनी तेज थी कि उसका असर जीवन के हर पहलू पर नजर आने लगा। आज उम्र के चौथे पडाव के करीब पहुंचने वाली पीढी न केवल इस सामजिक संक्रमण की सबसे बडी गवाह है, बल्कि इस प्रक्रिया में भी उसकी सक्रिय भागीदारी रही है। ग्लोबलाइजेशन के बाद देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की संख्या तेजी से बढने लगी। लोगों को रोजगार के अच्छे अवसर मिले। छोटे शहरों और कस्बों की शिक्षित युवा पीढी तेजी से महानगरों का रुख करने लगी। ऊंची सैलरी पैकेज के साथ होम लोन, क्रेडिट कार्ड और ईएमआइ की सुविधाओं ने उनके जीवन को बेहद आरामदायक बना दिया। इस तरह निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की शिक्षित युवा पीढी को समाज के मध्यम वर्ग में जगह मिलने लगी। समाज के इस तबके ने अपने करियर के शुरुआती दौर में ही वो सारी सुविधाएं जुटा लीं, जिन्हें पिछली पीढी के लोग ताउम्र कोशिश करने के बाद भी हासिल नहीं कर पाते थे।

व्यवस्थित होती जिंदगी

यह सच है कि पैसा ही सब कुछ नहीं है, पर इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आरामदायक और व्यवस्थित जीवन की जरूरतें सिर्फ इसी से पूरी होती हैं। पहले लोगों के पास कोई फाइनेंशियल प्लैनिंग नहीं होती थी। सारी तनख्वाह बच्चों की परवरिश में ही खर्च हो जाती। अगर वे रोजमर्रा की जरूरतों में से कटौती करके थोडे-बहुत पैसे बचा भी लेते तो जागरूकता न होने की वजह से सही ढंग से उसका निवेश नहीं कर पाते थे। दिल्ली के आकाश गर्ग एक विदेशी बैंक में कार्यरत हैं। वह कहते हैं, मेरे पिताजी सरकारी सेवा में क्लास वन ऑफिसर थे। हमारा रहन-सहन बेहद मामूली था। मुझे अच्छी तरह याद है, लंबे इंतजार के बाद जब हमारे घर में पहली बार कलर्ड टीवी आया था तो उसे देखने के लिए पडोस के बच्चों की भीड जमा हो गई थी। हम सरकारी फ्लैट में रहते थे। रिटायरमेंट के बाद मेरे पिता के पास पेंशन के अलावा आमदनी का कोई दूसरा जरिया नहीं था, लेकिन समय के साथ हालात बदल गए। नौकरी के शुरुआती दौर से ही मैं अपने बच्चों की शिक्षा और प्रॉपर्टी के लिए बचत करने लगा था। अब मेरा बेटा जॉब में है और छह महीने बाद बेटी की शादी हो जाएगी। मेरी फाइनेंशियल प्लैनिंग ऐसी है कि आज से पांच साल बाद जब मेरे पास नौकरी नहीं होगी, तब भी मैं अपनी सारी जरूरतें अच्छी तरह पूरी कर पाऊंगा।

बात सिर्फ पैसों की नहीं है

पिछले कुछ वर्षों में जागरूकता, स्वस्थ जीवनशैली और सकारात्मक दृष्टिकोण ने बुजुर्गों को जीवन के प्रति आशावान और ऊर्जावान बना दिया है। इसीलिए अब वे पुराने जमाने की तरह बोरिंग रिटायर्ड लाइफ जीना पसंद नहीं करते। आज उनके सामने करियर के कई अच्छे विकल्प मौजूद हैं। आजकल बडी कंपनियां रिटायर्ड लोगों के अनुभवों से फायदा उठाना चाहती हैं। स्वास्थ्य सेवाओं, इंजीनियरिंग, शिक्षा, प्रशासन और बैंकिंग जैसे फील्ड में काम कर चुके लोगों को कंपनियां कई अच्छे जॉब ऑफर देती हैं। विदेशी बीमा कंपनियों को भी ग्रास रूट से जुडे अनुभवी लोगों की तलाश होती है। इसके लिए वे मार्केटिंग के फील्ड से रिटायर्ड लोगों को एजेंट बनने का अवसर देती हैं। एनजीओ सेक्टर में उच्च पदों पर नियुक्ति के लिए उम्मीदवारों के चयन में अवकाश प्राप्त लोगों को प्राथमिकता दी जाती है। इसके अलावा आजकल रिटायर्ड लोग कंसल्टेंसी भी देते हैं, जिससे घर बैठे उनकी अच्छी आमदनी हो जाती है। घर से बाहर युवाओं के साथ मिलकर काम करने से उनका दिल जवां बना रहता है। उन्हें यह एहसास होता है कि मैं भी परिवार का उपयोगी सदस्य हूं। अपने पैसे जैसे चाहे, वैसे खर्च कर सकता हूं। यही सक्रियता जीवन के प्रति उनका उत्साह बढाती है और वे हर पल को एंजॉय करते हैं।

वक्त के साथ कदमताल

आज के लोग बदलते वक्त के साथ कदम मिलाकर चलना सीख रहे हैं। मध्यवर्गीय समाज में यह सकारात्मक बदलाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। आजकल ज्यादातर परिवारों के बच्चे स्कूल की पढाई खत्म होने के बाद उच्च शिक्षा और करियर के लिए दूसरे शहरों में चले जाते हैं। ऐसे में आज के पेरेंट्स पहले से ही खुद को इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लेते हैं कि अब हमें अकेले ही रहना होगा। अब वो जमाना नहीं रहा कि युवाओं को हर कदम पर माता-पिता के मार्गदर्शन की जरूरत पडे। इसलिए वे भी उनके जीवन में न्यूनतम हस्तक्षेप की नीति अपनाते हैं। बेटे या बेटी के विवाह को लेकर उनके मन में स्वाभाविक सी चिंता जरूर होती है, पर उन्हें यह मालूम है कि यहां भी हमारी जिम्मेदारी बेटे या बेटी की पसंद पर अपनी सहमति की मुहर लगाने तक ही सीमित है। नए दौर के माता-पिता को अपनी संतानों पर पूरा भरोसा होता है कि वे अपने लिए गलत जीवनसाथी का चुनाव नहीं करेंगे। इन्हीं वजहों से आज के पेरेंट्स खुद को काफी हद तक निश्चिंत महसूस करते हैं और एक खास उम्र के बाद वे अपने लिए और अपने ढंग से जीना पसंद करते हैं।

घट रहे हैं फासले

अब लोग अपने जीवन के प्रति स्पष्ट नजरिया रखते हैं और उनके सकारात्मक प्रयासों से ही दो पीढियों के फासले तेजी से घट रहे हैं। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं, 'भारतीय समाज में जेनरेशन गैप हमेशा से गंभीर मुद्दा रहा है, पर पिछले कुछ वर्षों से इस मामले में यह सकारात्मक बदलाव दिखाई दे रहा है कि पुरानी पीढी की ओर से भी इसे दूर करने की कोशिश की जा रही है। अब बुजुर्गों के व्यवहार में बहुत लचीलापन दिखाई देता है, जिससे रिश्तों में मधुरता बनी रहती है। वर्तमान समाज में शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर स्त्रियों का एक ऐसा तबका भी मौजूद है, जो अब रिटायरमेंट के करीब है। इनमें से कुछ स्त्रियां सास भी बन चुकी हैं और वे अपनी कामकाजी बहू की परेशानियों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। इसलिए वे पुराने जमाने की सासों की तरह रोक-टोक करने के बजाय उन्हें पूरा सहयोग देती हैं। आज साथ मिलकर ब्यूटी पार्लर जाने वाली सास-बहुओं की जोडी को शहरों में आसानी से देखा जा सकता है। अब बढती उम्र के लोग भी युवा पीढी की तरफ दोस्ती का हाथ बढा रहे हैं। वे विज्ञान-तकनीक, खानपान और रहन-सहन के तौर-तरीके में आने वाले बदलाव को सहजता से स्वीकारते हुए उन्हें अपनाने की कोशिश करते हैं। इसी वजह से युवा पीढी को भी उनका साथ बहुत पसंद आता है। अब पुरानी पीढी को इस सच्चाई का एहसास हो गया है कि खुश रहने के लिए वक्त के साथ कदम मिलाकर चलना बहुत जरूरी है। ऐसा नहीं करने पर वे बहुत पीछे और अकेले छूट जाएंगे।

सेहत से समझौता नहीं

जीवन में कामयाबी हासिल करने के लिए वक्त के साथ कदम मिलाकर चलना सचमुच बहुत जरूरी है पर यह तभी संभव होगा, जब हमारी सेहत अच्छी होगी। अब लोग अच्छी सेहत की अहमियत को समझने लगे हैं। पहले लोग रिटायरमेंट के बाद स्वस्थ जीवनशैली अपनाते थे, लेकिन अब वे शुरू से ही अपनी सेहत और खानपान के प्रति पूरी सजगता बरतते हैं, ताकि उम्र बढने पर उन्हें कोई समस्या न हो। नियमित मॉर्निंग वॉक और एक्सरसाइज के अलावा अब लोग रूटीन मेडिकल चेकअप के लिए भी समय जरूर निकालते हैं। भविष्य में उपचार संबंधी खर्च की समस्या से बचने के लिए लोगों के पास मेडिकल इंश्योरेंस भी होता है। अच्छी स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं की उपलब्धता की वजह से अब लोगों में बुढापे के लक्षण काफी देर से नजर आते हैं। यही वजह है कि आज 60-65 साल के बुजुर्ग भी 50-55 के नजर आते हैं और सामाजिक गतिविधियों में भी उनकी सक्रिय भागीदारी होती है। वास्तव में अच्छी सेहत ही उनके खुशहाल और सक्रिय जीवन का सबसे बडा आधार है।

अपने लिए जीने का सुख

वैवाहिक जीवन के शुरुआती दौर में लोग घर-गृहस्थी और बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारियों के साथ इतने व्यस्त होते हैं कि उन्हें पल भर के लिए भी अपनी खुशियों और सपनों के बारे में सोचने की मोहलत नहीं मिलती। जीवन के बीस-पच्चीस साल बच्चों का होमवर्क कराते, उनके लिए अच्छा कोचिंग इंस्टीट्यूट और परफेक्ट लाइफ पार्टनर ढूंढते हुए यूं निकल जाते हैं कि पीछे मुडकर देखने पर ऐसा लगता है कि जैसे कल की ही बात हो। जब संतानें अपनी गृहस्थी में रम जाती हैं, तब माता-पिता को अपना खयाल आता है कि अब तो थोडा सुस्ता लें, जरा चैन से मनपसंद नॉवेल पढें, साथ बैठकर पुराने एलबम के पन्ने पलटें, मॉर्निंग वॉक के लिए निकल जाएं... ऐसी छोटी-छोटी खुशियों की एक लंबी फेहरिस्त है, जो उन्हें एहसास दिलाती है एक-दूसरे के साथ होने का। उनके लिए यह अनुभव कुछ वैसा ही होता है, जिस तरह पंछियों का जोडा बडे जतन से अपने नन्हे बच्चों की हिफाजत करता है, लेकिन पंख निकलते ही वे फुर्र से उड जाते हैं और कहीं दूर जाकर अपने लिए नया घोंसला बनाते हैं। आखिर अपनी आजादी सभी को प्यारी होती है। मनोवैज्ञानिक मिडिलएज दंपतियों की इस मनोदशा को 'एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम का नाम देते हैं। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार विचित्रा दर्गन आनंद कहती हैं, 'ऐसी स्थिति में उन्हें कुछ समय के लिए थोडा अकेलापन जरूर महसूस होता है पर वे जल्द ही नए सिरे से अपनी जिंदगी को संवार कर उसे खुशनुमा बना देते हैं। अब वे दोबारा उन्हीं दिनों को जीने लगते हैं, जब उनके बच्चों का जन्म नहीं हुआ था। किसी भी दंपती के लिए यह बेहद खूबसूरत दौर होता है, जब वे सही मायने में एक-दूसरे के दोस्त बन जाते हैं और जीवन के हर पल को जी भरकर एंजॉय करते हैं।

टेक्नोलॉजी बनी मददगार

सूचना और संचार के क्षेत्र में आने वाले क्रांतिकारी बदलाव ने लोगों का जीवन बहुत आसान बना दिया है। खासतौर पर बढती उम्र के लोगों के लिए यह टेक्नोलॉजी बहुत फायदेमंद साबित हो रही है। अब इंटरनेट बैंकिंग और ऑनलाइन शॉपिंग की वजह से बडे आरामदायक माहौल में उनका सारा काम हो जाता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स और मोबाइल के व्हॉट्स एप जैसे एप्लीकेशंस की वजह से वे चौबीसों घंटे पूरी दुनिया से कनेक्ट रहते हैं। इसलिए अब उन्हें जरा भी अकेलापन महसूस नहीं होता। इतना ही नहीं, अब लोग सोशल साइट्स पर अपने बचपन के दोस्तों और दूर के रिश्तेदारों को बहुत आसानी से ढूंढकर उनसे दोबारा संपर्क स्थापित कर लेते हैं। इससे उनके सामाजिक दायरे का तेजी से विस्तार हो रहा है।

संवेदनशील होता समाज

बदलाव के इस दौर में सबसे अच्छी बात यह है कि आज लोग एक-दूसरे की आजादी की भावना का सम्मान करते हैं और हर रिश्ते में वे दूसरे व्यक्ति को पूरा पर्सनल स्पेस देते हैं। आज की युवा पीढी के पास भले ही समय की कमी है, फिर भी वह अपने बुजुर्ग माता-पिता के जीवन को ज्यादा से ज्यादा आरामदायक बनाने के लिए हरसंभव कोशिश करती है। दिल्ली के विपुल मेहरा एक ट्रैवल एजेंसी में कार्यरत हैं। वह बताते हैं, 'पहले हमारे पास पैकेज टूर की बुकिंग के लिए ज्यादातार युवा दंपती ही आते थे पर आजकल बेटे/बेटियां अपने पेरेंट्स को उनके जन्मदिन या वेडिंग एनिवर्सरी पर भी पर्यटन स्थलों के पैकेज टूर का गिफ्ट दे रहे हैं। आज के पेरेंट्स भी अपने बच्चों को पूरा पर्सनल स्पेस देते हैं। रिश्तों के प्रति यही संवेदनशीलता बढती उम्र में भी लोगों को जिंदादिल बनाए रखती है।

बेशक यह सकारात्मक बदलाव बेहद सुखद है, लेकिन चटख रंगों से सजी इस तसवीर के दूसरे पहलू को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। छोटे शहरों और गांवों में, जहां लोग जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं, वहां बुढापे की आहट उन्हें तनावग्रस्त कर देती है, लेकिन उम्मीद पर ही दुनिया कायम है और हमें पूरा विश्वास है कि शहरी समाज में बहने वाले बदलाव की यह बयार जल्द ही छोटे शहरों और गांवों तक भी पहुंचेगी।

दिल की सुनता हूं हमेशा

आमिर खान, अभिनेता

जेहनी तौर पर मैं आज 51 की उम्र में भी खुद को 18 का ही पाता हूं। हालांकि, कई बार लोग आपको उम्र का एहसास करा देते हैं। एक बार मैं किसी शादी में गया था। मैंने गलती से दूल्हे की मां को आंटी कह दिया। तब मुझे दुलहन ने याद दिलाया कि वह मेरी हमउम्र हैं। बहरहाल, उम्र मेरे दिमाग में कभी नहीं होती। मैं खुद को हमेशा जवान महसूस करता हूं। 'थ्री इडियट्स के समय मैं 45 साल का था। उसमें मुझे कॉलेज के लडके रैंचो की भूमिका निभानी थी। जब आप युवा होते हैं तो आपमें बहुत एनर्जी होती है। बातचीत के लहजे में भी अलग किस्म का उत्साह नजर आता है। मैं ट्रेंड ऐक्टर नहीं हूं। लिहाजा मैं अपने आसपास के लोगों के हाव-भाव और उनकी बॉडी लैंग्वेज को बहुत ध्यान से देखकर, जरूरत के हिसाब से कहानी के कैरेक्टर में उतारने की कोशिश करता हूं। 'थ्री इडियट्स में रैंचो की भूमिका के लिए मैंने मंसूर खान के बेटे पैबलो की बॉडी लैंग्वेज को बहुत ध्यान से देखा तो मुझे ऐसा लगा कि आज के अति उत्साही युवा पल भर के लिए शांत नहीं बैठ पाते। वे हमेशा अपने हाथ-पैर हिला रहे होते हैं। 'थ्री इडियट्स में रैंचो का किरदार निभाते समय मैंने भी इसी बॉडी लैंग्वेज को अपनाया। अपनी नई फिल्म 'दंगल के लिए मैंने 30 किलोग्राम वजन बढाया था। अभी तक मैंने अपनी फिल्मों में युवा किरदार निभाए हैं। पहली बार करीब 40 साल के शख्स की भूमिका में हूं। बढे हुए वजन के कारण मुझे अपने शू लेसेज बांधने में दिक्कत होती थी। सीढियां चढने पर सांस फूल जाती थी, फिल्म के किरदार को बिलकुल असली जैसा दिखाने के लिए मैंने अपनी इन परेशानियों को दरकिनार कर दिया। अपने वास्तविक वजन को वापस पाने के लिए जीतोड मेहनत की। प्रशिक्षित ट्रेनर की निगरानी में वर्कआउट किया। मैंने मिल्क प्रोडक्ट्स का सेवन पूरी तरह बंंद कर दिया है। अब मैं बिलकुल नपी-तुली डाइट लेता हूं। मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने अपने जीवन में कोई समझौता नहीं किया और न ही कभी पैसे के पीछे भागा। मैं हमेशा अपने दिल की ही सुनता हूं।

बहुत खूबसूरत है जिंदगी

सुधा चंद्रन, अभिनेत्री

बढती उम्र के प्रति चिंता सिर्फ भारत में होती है। पश्चिमी देशों के लोगों की सोच ऐसी नहीं है। वहां तो 45 के बाद जिंदगी की शुरुआत मानी जाती है। उससे पहले लोगों का सारा समय करियर बनाने, घर-गृहस्थी को संभालने में व्यतीत हो जाता है। मेरे कई दोस्त कहते हैं कि हम 45 साल के हो गए, अब अपनी लाइफ कहां रही ? यह नेगेटिव सोच है। मैं इसमें यकीन नहीं रखती। मेरा मानना है कि पहले आप खुद से प्यार करें। जिंदगी बेहद खूबसूरत है। इसे उम्र से जोडकर न देखें। आप हर पल को खुशी से एंजॉय करें। मैं बहुत पॉजिटिव इंसान हूं। खुद को हमेशा खुश रखने में यकीन रखती हूं। फिटनेस के लिए अपने खानपान का ध्यान रखती हूं। नियमित व्यायाम करती हूं। बढती उम्र का अपना मजा है। अगर आप खुद को फिट रखें तो बढती उम्र का एहसास ही नहीं होगा। मैं नई पीढी के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए खुद को अपडेट रखती हूं। नई पीढी के साथ काम करके मुझे काफी कुछ सीखने को मिला है। आज के युवा अपनी अपियरेंस को लेकर बेहद सजग रहते हैं और उनके साथ काम करते हुए इन बातों के प्रति मैं भी सचेत रहती हूं।

खुशी देता है अपनों का साथ

दविंदर मदान, मॉडल

हमें अपने शौक को उम्र की ांजीर से बांधकर नहीं रखना चाहिए। जब मैंने काम की शुरुआत की थी, तब मेरी उम्र 50 के ऊपर थी। इससे पहले मैंने घर से बाहर निकलकर कोई काम नहीं किया था। जब लोगों ने पहली बार सुना तो चौंक गए कि मॉडलिंग और इस उम्र में? ... लेकिन, मुझे ऐसा लगा कि सपने पूरे करने की कोई आयु सीमा नहीं होती। मैंने काम शुरू कर दिया और जब लोग मुझे पहचानने लगे तो और भी मजा आने लगा। मुझे वक्त के साथ चलना बहुत अच्छा लगता है। मैंने कंप्यूटर पर काम करना सीख लिया है और अपनी कई सहेलियों को भी जबरन इंटरनेट का इस्तेमाल सिखाया। मैं अपनी सहेलियों और विदेश में रहने वाले रिश्तेदारों के साथ अकसर चैटिंग करती हूं। अपनों का साथ मुझे सबसे ज्यादा खुशी देता है।

अभिनय ही मेरी जिंदगी है

मेघना मलिक, अभिनेत्री

मैं दिल से चिर युवा हूं और बढती उम्र मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती। जीवन में खुश रहने के लिए जागरूकता और सक्रियता जरूरी है। खासतौर पर हमें अपने प्रोफेशन से जुडी सारी जानकारी होनी चाहिए। बढती उम्र के साथ इंसान अधिक खुश होता है या नहीं, यह हालात पर निर्भर करता है। अपने जीवन में हम जिस तरीके से आगे बढते हैं, वही हमारे भविष्य का रास्ता तय करता है। जहां तक मेरी बात है, मैं हमेशा से अपने काम पर फोकस करती आई हूं। कैमरा, ऐक्शन और कट जैसे शब्द मुझे बेहद रोमांचित करते हैं। अभिनय ही मेरी दुनिया है। खाली बैठना मुझे बिलकुल पसंद नहीं। जब भी फुर्सत मिलती है, मैं सुकून के पलों की तलाश में अपने माता-पिता के साथ मुंबई से कहीं दूर चली जाती हूं।

अनुभव सिखाता है जीने की कला

शरमन जोशी, अभिनेता

मैं मानता हूं कि बढती उम्र के साथ इंसान ज्यादा अनुभवी और परिपक्व हो जाता है। इसी वजह से मिडिलएज में पहुंचने के बाद उसे ज्यादा खुशी और संतुष्टि मिलती है। कम उम्र में हम छोटी-छोटी मुश्किलों से जल्दी घबरा जाते हैं। जल्दबाजी में लिए गए हमारे फैसले कई बार गलत भी साबित होते हैं। अपने अनुभवों के आधार पर मैं खुद इस फर्क को महसूस करता हूं। मैं अपने काम के प्रति बहुत गंभीर हूं और उस दौरान बाकी चीजों पर ध्यान नहीं देता। काम से फुर्सत मिलने पर सोशल साइट्स पर एक्टिव रहने के बजाय अपने परिवार के साथ सुकून के पल बिताना पसंद करता हूं। अपने बच्चों को हंसता-खेलता देखना ही मेरे लिए जीवन की सबसे बडी खुशी है और इसके साथ मैं कोई समझौता नहीं करता। अपनी हर फिल्म में पहले से बेहतर और कुछ नया पेश करना चाहता हूं। आगे भी मेरी यही कोशिश रहेगी। मुझे जिंदगी से न तो कोई शिकायत है, न ही अफसोस। जीवन से मुझे जितना प्यार मिला है, उसे दूसरों के साथ बांटने की कोशिश करता हूं।

बेहतर हुई है जिंदगी

लाल रत्नाकर, चित्रकार

समय के साथ हमारे समाज में शिक्षा और जागरूकता के स्तर में तेजी से सुधार आ रहा है। इसीलिए बढती उम्र से जुडी समस्याएं अब उन्हें नहीं डराती। बेहतर चिकित्सा सुविधाओं और आरामदायक जीवनशैली की वजह से लोग लंबे समय तक युवा बने रहते हैं। संचार के साधनों ने भी हमारे जीवन को बहुत आसान बना दिया है। पहले अपनों से संपर्क करने के लिए हमारे पास पत्र के सिवा कोई दूसरा साधन नहीं था। मुझे याद है, मेरे पिता जी गांव में रहते थे और उनका समाचार जानने के लिए हम हफ्तों तक उनकी चि_ियों का इंतजार करते थे, पर अब दूसरे शहर में रहने वाला मेरा बेटा जब मेरे लिए कोई सामान खरीद रहा होता है तो दुकान से ही मुझे उसकी फोटो क्लिक करके व्हॉट्स एप के जरिये मेसेज कर देता है और मैं उसे अपनी पसंद बता देता हूं। सोशल साइट्स और मोबाइल जैसे संचार के साधनों की वजह से बढती उम्र में लोगों को अकेलेपन का एहसास नहीं होता। पुराने समय में परिवार में कई बच्चे होते थे और उनकी परवरिश के साधन जुटाने की कोशिश में इंसान की सारी उम्र निकल जाती थी, पर अब ज्यादातर परिवारों में एक या दो ही बच्चे होते है। इसके अलावा आज की तेज रफ्तार जिंदगी में बच्चों के करियर की दिशा हाईस्कूल में ही तय हो जाती है। इसलिए आज के माता-पिता अपने बच्चों के करियर के मामले में बहुत जल्दी निश्चिंत हो जाते हैं। इसी वजह से उम्र के चौथे पडाव में वे पहले से भी ज्यादा खुश और संतुष्ट नजर आते हैं।

इंटरव्यू - मुंबई से स्मिता श्रीवास्तव एवं प्राची दीक्षित, दिल्ली से विनीता


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