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सपनों का साझा सफर

सपने सच भी होते हैं। यही विश्वास हमें मंजि़ल की ओर चलने को प्रेरित करता है लेकिन अपने किसी भी सपने में हम अकेले नहीं होते...

By Edited By: Published: Tue, 04 Apr 2017 01:24 PM (IST)Updated: Tue, 04 Apr 2017 01:24 PM (IST)
सपनों का साझा सफर

सपने सच भी होते हैं। यही विश्वास हमें मंजिल की ओर चलने को प्रेरित करता है लेकिन अपने किसी भी सपने में हम अकेले नहीं होते बल्कि हमारे साथ कई ऐसे लोग भी होते हैं, जो उन्हें संवार कर उनमें इंद्रधनुषी रंग भर रहे होते हैं। आखिर हम सपने क्यों देखते हैं, क्या कामयाबी का हकदार केवल एक ही व्यक्ति होता है या उसके साथ मिलकर काम कर रहे लोगों को भी इसका श्रेय मिलना चाहिए, अपनों की अहमियत को स्वीकारना क्यों जरूरी है, कुछ विशेषज्ञों और मशहूर शख्सयतों के साथ जिंदगी के इसी अहम पहलू से जुडे सवालों के जवाब ढूंढ रही हैं विनीता।

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अपने वो नहीं होते जिन्हें हम नींद में देखते हैं, बल्कि असली सपने तो वही हैं, जो हमारी रातों की नींद उडा दें। जब भी सपनों का जिक्र होता है तो देश के पूर्व राष्ट्रपति स्व.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम का यह कथन हमें बरबस याद आ जाता है। हर इंसान की आंखों में कोई न कोई सपना जरूर बसा होता है, जिसे साकार करने का संकल्प लिए वह निरंतर प्रयासरत रहता है। कोई अपने सुनहरे भविष्य के लिए सपने देखता है, कोई अपने परिवार को खुशहाल बनाना चाहता है तो कोई इससे भी आगे समाज, देश और पूरी दुनिया को खूबसूरत बनाने का हसीन ख्वाब देखता है। यह जरूरी नहीं है कि हमारा हर सपना सच हो जाए। कभी मनचाही मुराद पूरी होती है तो कभी निराशा का भी सामना करना पडता है। फिर भी हम सपने देखना नहीं छोडते क्योंकि अंधेरे में भी रोशनी की एक किरण तलाशना हमारी फितरत है। भले ही कोई आस अधूरी रह जाए, राह में कई रुकावटें आएं, अंधेरे में हम रास्ता भटक जाएं या फिर मंजिल के करीब पहुंचकर भी उसे पाने में असमर्थ हों, फिर भी हम अपने सपनों का पीछा करना नहीं छोडते और छोडऩा भी नहीं चाहिए क्योंकि उम्मीदों की डोर से बंधे सपने ही हमें हर हाल में खुश रहने को प्रेरित करते हैं। सही मायने में सपने ही हमें जीने की ताकत देते हैं, हमें ऊंची उडान भरना और अपनों से प्यार करना भी सिखाते हैं। अपने आने वाले कल को खूबसूरत बनाने के लिए कुछ सपने संजोना बेहद जरूरी है क्योंकि व्यक्ति के मन में सकारात्मक विचारों का पहला अंकुर किसी सुहाने स्वप्न से ही फूटता है। इसीलिए बचपन से ही हमारी आंखों में अनगित चमकीले सपने सितारों की तरह झिलमिला रहे होते हैं और उन्हें हासिल करने चाहत हमें निरंतर नई बातें सीखने को प्रेरित करती है।

इक नन्हा-मुन्ना सपना मस्तिष्क के विकास के साथ जैसे ही बच्चों में कल्पना शक्ति और तार्किक क्षमता विकसित होने लगती है, उनके सपनों को भी नए पंख मिल जाते हैं। छोटी-छोटी इच्छाएं सपनों का रूप धर कर उनके मन में मचलने लगती हैं। बाल साहित्यकार मंजरी शुक्ला बच्चों के मनोविज्ञान को बखूबी समझती हैं। वह कहती हैं, 'बच्चों का मन जितना कोमल होता है, उनके सपनों की दुनिया भी उतनी ही सुंदर और मासूम होती है। दुनियादारी की तमाम चालाकियों और ऊंच-नीच के भेदभाव से बेखबर बच्चे छोटी-छोटी बातों से भी बेहद खुश हो जाते हैं। चॉकलेट, आइसक्रीम और रिमोट वाली कार जैसी चीजें हासिल करना बच्चों के मासूम सपने में शामिल होता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के दौरान स्कूल, पास-पडोस और दोस्तों के संपर्क में आने के बाद रोजमर्रा के अनुभवों से भी वे बहुत कुछ सीखते हैं और वहीं से उनके सपने बडे होने लगते हैं। इच्छाएं महत्वाकांक्षा में तब्दील हो जाती हैं। अब क्लास में फस्र्ट आने, स्पोट्र्स, म्यूजिक और डांस जैसी ऐक्टिविटीज में पुरस्कार हासिल करने की चाहत भी बच्चों के सपने में शामिल हो जाती है। यहीं से नन्हे बच्चों के सपने न केवल बडे होने लगते हैं, बल्कि वे उनकी शेयरिंग भी सीखते हैं।

परिवार है पहला साझीदार अगर साझेदारी की बात की जाए तो आमतौर पर व्यक्ति का परिवार उसके सपनों का पहला साझीदार होता है, जिसके साथ वह अपनी भावनाओं और भविष्य की योजनाओं की शेयरिंग करता है। इस संदर्भ में समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत कहती हैं, 'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए करीबी लोगों के साथ भविष्य की योजनाओं पर विचार-विमर्श करना उसकी आदत में शामिल है लेकिन यह जरूरी नहीं है कि अपने सपनों को साकार करने में हर व्यक्ति को उसके परिवार का सहयोग मिले। आम तौर पर जब कोई इंसान पैसा, नाम और प्रसिद्धि हासिल करने का सपना देखता है तो उसका परिवार उसे पूरा सहयोग देता है। इसके विपरीत कुछ भावुक और संवेदनशील लोग केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि देश और समाज के बारे में भी सोचते है। जब भी कोई ऐसा व्यक्ति निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर दूसरों की भलाई के लिए कुछ करना चाहता है तो उसके अपने उसका साथ छोड देते हैं। ऐसे लोगों को शुरुआती दौर में अकेले ही संघर्ष करना पडता है। जब वे अपनी मंजिल के करीब पहुंचने वाले होते हैं तो धीरे-धीरे उनके साथ लोग जुडऩे लगते हैं। भारतीय समाज में अगर कोई लडकी बडे सपने देखती है तो उसे ढेर सारी चुनौतियों का सामना करना पडता है। अपवाद स्वरूप कुछ खुशकिस्मत लडकियों को उनके परिवार और समाज का सहयोग जरूर मिलता है। किसी बडे सपने को साथ लेकर आगे बढऩे का जोखिम हमेशा अकेले ही उठाना पडता है क्योंकि ज्य़ादातर लोग नाकामियों से घबराते हैं इसलिए वे लीक से हटकर काम करने वाले लोगों का साथ नहीं देते। इतना ही नहीं, हर समाज में कुछ ऐसे स्वार्थी लोग भी होते हैं, जो किसी अच्छे उद्देश्य के लिए काम करने वाले लोगों के रास्ते में कई तरह की रुकावटें डालते हैं। इसलिए हर सपने की शुरुआत केवल दो जोडी आंखों से होती है। संघर्ष के दिनों में इंसान को हर मुश्किल का सामना अकेले ही करना पडता है क्योंकि परिवार भी उसकी प्राथमिकताओं को समझने में असमर्थ होता है। दरअसल हर सपने की शुरुआत किसी खूबसूरत सोच के साथ होती है लेकिन परिवार के सदस्यों के मन में इस बात की आशंका बनी रहती है कि क्या वह व्यक्ति अपने सपने को साकार कर पाएगा? इसीलिए कई बार करीबी लोग भी उसकी हसरतों पर सवाल उठाने लगते हैं, फिर भी वह सपने देखना नहीं छोडता।

काश ऐसा होता 'काश ऐसा होता तो कितना अच्छा होता...। यह मामूली सा वाक्य सभी के मन को कुरेदता है पर कुछ लोग यह मान कर इससे अपना पीछा छुडा लेते हैं कि ख्वाब और हकीकत में बहुत फर्क होता है। इस तरह शुरुआत से पहले ही किसी सुंदर सपने का अंत हो जाता है। इसके विपरीत कुछ लोग लगातार अपने सपनों का पीछा कर रहे होते हैं, रास्ते में कई तरह की मुश्किलें भी आती हैं, फिर भी वे अपना लक्ष्य हासिल करने की कोशिश में जी जान से जुटे रहते हैं। यही जज्बा एक न एक दिन उनकी जीत का सबब बन जाता है। हो सकता है कि हमारी कुछ कोशिशें नाकाम हो जाएं पर उस दौरान हासिल होने वाले अनुभव भी बेहद कीमती होते हैं, जो कभी भी बेकार नहीं जाते। फिल्म अभिनेता मनोज बाजपेयी ने बचपन से ही ऐक्टर बनने का सपना देखा था, जिसे साकार करने के लिए दिल्ली स्थित नेशनल स्कूल ऑफ ड्रॉमा में एडमिशन लेना ही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था। यही सोच लेकर वह बिहार से दिल्ली चले आए। ग्रामीण परिवेश में पले-बढे मनोज अपना लक्ष्य हासिल करने की कोशिश में जी-जान से जुटे रहे। एनएसडी की प्रवेश परीक्षा में लगातार तीन साल तक असफल होने के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी। दिल्ली में ही रहकर वह यहां की दूसरी नाट्य मंडलियों के साथ जुडकर काम करते रहे। रंगमंच से जुडे समीक्षकों और रंगकर्मियों के बीच उनकी बेहतरीन अदाकारी की चर्चा होने लगी। यह उस दौर की बात है, जब फिल्म निर्माता-निर्देशक शेखर कपूर 'बैंडिट क्वीन बनाने की तैयारी में जुटे थे। किसी छोटे से रोल के लिए उन्हें एक नए चेहरे की तलाश थी और उन्होंने मान सिंह की भूमिका के लिए मनोज को चुना, उसके बाद वह दिल्ली से मुंबई शिफ्ट हो गए और उनके लिए कामयाबी के नए दरवाजे खुलने लगे।

सपनों के सौदागर यह केवल किसी एक अभिनेता की कामयाबी की कहानी भर नहीं है। जब बात सपनों की चल रही हो तो बॉलीवुड की थोडी और चर्चा तो बनती ही है। साहित्य की तरह सिनेमा भी समाज का आईना है। सच कहा जाए तो आज भी आम आदमी की सोच को फिल्में सबसे ज्य़ादा प्रभावित करती हैं क्योंकि वे कहीं न कहीं उनकी ही भावनाओं को ही गीत-संगीत और कहानियों के रूप में रुपहले परदे पर पेश कर रही होती हैं। तभी तो फिल्म इंडस्ट्री से जुडे लोगों को सपनों का सौदागर कहा जाता है। सिनेमा जिंदगी से इस तरह जुडा हुआ है कि हमारे समाज में उसे लेकर कई तरह के मुहावरे, चुटकुले और किंवदंतियां प्रचलित हैं। 'ऐसा तो केवल फिल्मों में ही होता है, बातचीत के दौरान अकसर लोग इस जुमले का इस्तेमाल करते हैं पर इसका दूसरा पहलू यह भी है कि फिल्में इंसान को न केवल सपने दिखाती हैं, बल्कि उन्हें सच साबित करने का हौसला भी देती हैं। अपने ऐसे ही जुनूनी सपनों की तलाश में देश के अलग-अलग हिस्सों से न जाने कितने लोग माया नगरी मुंबई का रुख कर लेते हैं। उनमें से कुछ कामयाबी की नई इबारतें लिखते हैं तो कुछ को नाकामी भी मिलती है, फिर भी वे सपने देखना नहीं छोडते। निर्देशक सुधीर मिश्रा की फिल्म 'धारावी एशिया के सबसे बडे स्लम धारावी में रहने वाले लोगों की जिंदगी पर केंद्रित है, जिसका नायक राजकरण पेशे से टैक्सी ड्राइवर है। वह जिल्लत भरी जिंदगी से बाहर निकलने की तमाम कोशिशें करता है। इस दौरान न केवल उसकी सारी जमा पूंजी खत्म हो जाती है, बल्कि पत्नी भी उसका साथ छोड देती है। फिर भी वह हार नहीं मानता। फिल्म के अंत में इस बात को बडी खूबसूरती से दर्शाया गया है कि सब कुछ नष्ट हो जाने के बावजूद वह व्यक्ति सपने देखना नहीं छोडता।

स्वस्थ मन की पहचान जब भी कोई मामूली सा व्यक्ति दूसरों के सामने अपने किसी बडे सपने का जिक्र करता है तो अकसर लोग उसे 'डे ड्रीमर कहकर उसका मजाक उडाते हैं। किस्से-कहानियों और सिनेमा में भी कॉमेडी का पुट डालने के लिए अकसर कुछ ऐसे कैरेक्टर दिखाए जाते हैं, जो दिन-रात भविष्य के सुनहरे सपनों में खोये रहते हैं और हर बार उनका ख्वाब टूट जाता है। पुराने समय में दूरदर्शन पर एक ऐसा ही धारावाहिक आता था-'मुंगेरीलाल के हसीन सपने। बेशक खयाली पुलाव पकाने वाले लोग दूसरों के लिए उपहास का पात्र होते हैं पर वे अपनी इस फितरत को बदल नहीं पाते क्योंकि ऐसे सपने ही उन्हें आने वाले कल को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. जयंती दत्ता कहती हैं, 'किसी भी इंसान के लिए सपने देखना उतना ही सहज है, जितना कि सांस लेना। लगातार मिलने वाली नाकामियां भी उसे ऐसा करने से रोक नहीं पातीं। यह एक स्वस्थ मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। अगर सपने न हों तो लोगों के मन से जीने की इच्छा ही खत्म हो जाए। अब तक किए गए मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों से यह तथ्य भी सामने आया है कि सपने देखने वाले लोग बाकी लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा क्रिएटिव होते हैं।

आविष्कार की पहली सीढी दुनिया में होने वाले हर आविष्कार के पीछे कोई न कोई सपना जरूर छिपा होता है। अमेरिकी वैज्ञानिक इलियास हो ने अठारहवीं सदी में दुनिया की पहली सिलाई मशीन का आविष्कार किया था। उनकी मां देर रात तक जागकर उनके लिए हाथों से कपडे सिलती थीं। यह देखकर उन्हें बहुत दुख होता। वह अकसर यही सोचते रहते कि क्या कपडे सीने के लिए कोई मशीन नहीं बनाई जा सकती, जिससे मेरी मां को इतनी मेहनत न करनी पडे। जब पहली बार उन्होंने अपनी मां के सामने ऐसी इच्छा जाहिर की तो वह इस बात को मजाक समझ कर हंस पडीं पर इलियास सच्ची लगन के साथ अपने काम में जुटे रहे और 1846 ई. में उन्होंने अपने इस सपने को सच साबित कर दिखाया लेकिन यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। जब अमेरिका के दजिर्यों तक इस बात की खबर पहुंची कि किसी व्यक्ति ने कपडे सीने वाली मशीन का आविष्कार किया है तो वे इलियास को जान से मारने की धमकी देने लगे क्योंकि उन्हें इस बात का डर था कि इससे उनका रोजगार खत्म हो जाएगा। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और सरकार ने भी उनका साथ दिया। इस तरह एक बेटे का वह सपना साकार हो गया, जिसे उसने अपनी मां के लिए देखा था और दुनिया को सिलाई मशीन के रूप में एक नायाब तोहफा मिला।

कल्पना के साथ कोशिश भी यह सच है कि क्रिएटिव लोगों की कल्पना की उडान बहुत ऊंची होती है लेकिन जीवन में कामयाबी के लिए केवल सपने देखना ही काफी नहीं है बल्कि उन्हें साकार करने की कोशिश भी बेहद जरूरी है। इसरो सैटेलाइट सेंटर की सीनियर साइंटिस्ट अनुराधा टीके को बचपन से ही चांद-सितारों की दुनिया बेहद आकर्षित करती थी। वह गैलेक्सी और प्लैनेट्स के बारे में बहुत कुछ जानना चाहती थीं। पहली बार चांद पर जाने वाले अंतरिक्ष वैज्ञानिक नील आर्मस्ट्रॉग से वह इतनी प्रभावित थीं कि महज नौ साल की छोटी उम्र में वह उन पर कविताएं लिखतीं और उनके सपनों में भी वही नजर आते थे। अनुराधा ने अपनी मजबूत इच्छाशक्ति के बल पर इस सपने को सच साबित कर दिखाया। अगर ईमानदारी से कोशिश की जाए तो तमाम बाधाओं के बावजूद हर सपने को साकार किया जा सकता है। मशहूर माउंटेनियर अरुणिमा सिन्हा वॉलीबॉल प्लेयर थीं। रेल यात्रा के दौरान कुछ अपराधी उनसे उनका बैग छीनने की कोशिश कर रहे थे और विरोध करने पर उन्होंने अरुणिमा को चलती ट्रेन से नीचे धकेल दिया। इस दुर्घटना में उन्होंने अपना एक पैर खो दिया, फिर भी उनके हौसले बुलंद थे। ऐसे मुश्किल हालात में भी वह माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराने का सपना देखने लगीं। अस्पताल से छुट्टी मिलते ही घर जाने के बजाय वह अपने परिवार के किसी सदस्य के साथ माउंटेनियर बछेंद्री पाल से मिलने जमशेदपुर चली गईं। उसका ऐसा हौसला देखकर बछेंद्री ने उनसे कहा, 'माउंट एवरेस्ट की आधी चढाई तो तुमने अभी ही पूरी कर ली है। अंतत: अरुणिमा ने न केवल माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराया बल्कि अब वह विश्व के सभी महाद्वीपों की सबसे ऊंची चोटियों पर चढाई को अपना लक्ष्य बनाकर निरंतर आगे बढ रही हैं। अगर सपने देखने के साथ उन्हें सच साबित करने की कोशिश की जाए तो निश्चित रूप से कामयाबी मिलती है।

फैलता हुआ फलक समय के साथ हमारी जरूरतें, सोच और प्राथमिकताएं बदलने लगती हैं। जीवन के अनुभव हमें बहुत कुछ सिखाते हैं। इसी से हमारे सपनों का दायरा भी विस्तृत होने लगता है। कई बार कुछ घटनाओं का व्यक्ति के मन पर इतना गहरा असर पडता है कि वह भविष्य को लेकर बहुत बडे सपने देखने लगता है। द.अफ्रीका में जब गांधी जी को टीसी ने ट्रेन की फस्र्ट क्लास बोगी से बाहर निकाल दिया तो इस घटना से वह इतने आहत हुए कि उन्होंने दुनिया से रंग-भेद मिटाने का संकल्प कर लिया। इतना ही नहीं, भारत लौटने के बाद उन्होंने अपने देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने का सपना देखा, जिसका फलक इतना विस्तृत था कि उसमें करोडों भारतवासी शामिल थे। हालांकि यह उनके लिए आसान नहीं था पर उन्होंने मजबूत इच्छाशक्ति के बल पर इसे सच साबित कर दिखाया।

बात करने से बनती है बात महात्मा गांधी का सपना इसीलिए साकार हुआ क्योंकि उसके साथ पूरे देश के लोगों की भावनाएं जुडी थीं। किसी भी सपने को सच साबित करने के लिए यह बहुत जरूरी है कि हम उसे अपने परिवार, समाज और दोस्तों के साथ शेयर करें। बातचीत के जरिये जब हम आसपास के लोगों के साथ अपने सपने शेयर करते हैं तो हमारे सामने कई नए विचार आते हैं। यह जरूरी नहीं है कि दूसरों की हर बात मान ली जाए पर कुछ लोगों के सहयोग और मार्गदर्शन से रास्ते आसान हो जाते हैं। बिहार के मुंगेर जिले के पास स्थित सराधी गांव की रहने वाली जया देवी ने अपने गांव की बंजर जमीन पर हरियाली लाने का सपना देखा था, जिसे उन्होंने कई लोगों के साथ शेयर भी किया। इसी दौरान उनकी मुलाकात एग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी मैनेजमेंट एजेंसी के गवर्निंग मेंबर किशोर जायसवाल से हुई, जिन्हें अब वह अपना मेंटर मानती हैं। उन्हीं की सलाह पर पांचवीं पास जया ने रेन वॉटर हार्वेस्टिंग की ट्रेनिंग ली और अपने गांव के लोगों से भी आग्रह किया कि वे इस कार्य में उनकी मदद करें। वह बताती हैं, 'अपने गांव को हरा-भरा बनाने का सपना लेकर मैं घर से अकेले ही निकली थी लेकिन एक-एक करके लोग साथ जुडते गए और देखते ही देखते पूरे गांव की तसवीर बदल गई। यह केवल एक स्त्री की कामयाबी की कहानी भर नहीं है बल्कि उसने अपने साथ पूरे गांव को खुशहाली के सपने देखना सिखाया।

जब भी सपनों की बात होती है तो मशहूर कवि अवतार सिंह पाश की एक लंबी कविता की अंतिम पंक्ति याद आ जाती है, 'सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना। इसलिए चाहे कितने ही मुश्किल हालात क्यों न हों, हमें सपने देखने की आदत नहीं छोडऩी चाहिए क्योंकि हर बडे लक्ष्य की प्राप्ति छोटे-छोटे सपनों से ही होती है।


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