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वक्त के आइने में बदलता अक्स

यह सच है कि स्त्रियों की दुनिया तेजी से बदल रही है, पर पुरुष भी इस बदलाव से अछूते नहीं हैं। पिछले कुछ दशकों में भारतीय पुरुष की एक नई छवि उभर कर सामने आई है। स्त्रियों के प्रति उसका उदार दृष्टिकोण और सहयोगी प्रवृत्ति सकारात्मक सामाजिक बदलाव का संकेत है, पर यह बदलाव अचानक नहीं आया। क्यों और कैसे बदल रही है भारतीय पुरुष की छवि, क्या यह बदलाव उसकी जरूरत है, क्या उसके इस नए रूप को समाज सहजता से स्वीकार पा रहा है.. विशेषज्ञों और मशहूर शख्सीयतों के साथ कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब ढूंढ रही हैं विनीता।

By Edited By: Published: Tue, 02 Jul 2013 02:32 PM (IST)Updated: Tue, 02 Jul 2013 02:32 PM (IST)
वक्त के आइने में बदलता अक्स

मुझे आज भी याद है। रोजाना शाम को पापा के ऑफिस से लौटते ही हमारे घर में कफ्र्यू सा माहौल बन जाता था। हम अपनी किताबें खोल कर बैठ जाते। मम्मी उनके सामने हमेशा डरी-डरी सी नजर आती थीं। जरूरत की हर चीज उनके आने के पहले से ही सही जगह पर रखी होती। मैंने पापा को पानी लेने के लिए भी किचन की तरफ जाते नहीं देखा। ऐसा नहीं था कि पापा हम लोगों से प्यार नहीं करते थे, लेकिन उन्हें ऐसा लगता था कि परिवार में अनुशासन बनाए रखने के लिए मुखिया के व्यवहार में सख्ती जरूरी है। आज तीस साल बाद तसवीर बिलकुल बदल चुकी है। मेरी पत्नी भी जॉब करती हैं। हम दोनों में से जो भी पहले घर पहुंचता है, वही डिनर की तैयारी शुरू कर देता है। हमारा रिश्ता बिलकुल बराबरी का है और हम एक-दूसरे को पूरी आजादी देते हैं।

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ऐसा कहना है दिल्ली के 38 वर्षीय आइटी प्रोफेशनल अभिनव शर्मा का। यहां बात सिर्फ किसी व्यक्ति के निजी अनुभव की नहीं है, बल्कि इस छोटे से प्रसंग में हमें भारतीय पुरुष की बदलती सोच दिखाई देती है। अब वह स्त्री पर शासन करने के बजाय उसे साथ लेकर चलने में यकीन रखता है।

शासक नहीं सहयोगी

पहले घर में कोई भी बडा निर्णय लेने का एकाधिकार केवल पति के पास होता था, पर वक्त के साथ पुरुष के इस रवैये में काफी बदलाव आया है। अब वह अपना कोई भी निर्णय पत्नी पर जबरन नहीं थोप सकता। परिवार से जुडे हर मामले में पत्नी की भी सहमति जरूरी होती है। वर्षो के संघर्ष के बाद भारतीय स्त्री अब अपना वजूद पहचानने लगी है। जब वह पुरुष के साथ मिलकर अपनी गृहस्थी बसाती है तो उसे यह एहसास होता है कि यह घर जितना उसके पति का है, उतना ही उसका भी। उसकी मेहनत और आत्मविश्वास ने पुरुषों को भी उनका नजरिया बदलने पर मजबूर किया है। अब उन्हें शासक के बजाय सहयोगी बनना ज्यादा पसंद है।

अचानक नहीं आया बदलाव

भारतीय पुरुष की सोच में यह बदलाव अचानक नहीं आया है, बल्कि इसके पीछे उसके अंतर्मन में वर्षो से चल रहे वैचारिक मंथन का बहुत बडा योगदान रहा है। इतिहास गवाह है कि राज राम मोहन राय और ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे महापुरुषों ने न केवल सती प्रथा और बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई, बल्कि विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा जैसे सामाजिक सुधारों की शुरुआत भी की। स्त्री की दयनीय दशा हमेशा से पुरुषों को व्यथित करती रही है। स्त्री के प्रति संवेदनशील नजरिया रखने वाले पुरुषों की संख्या भले ही सीमित हो, लेकिन यह उनके सतत प्रयासों का ही नतीजा है कि धीरे-धीरे पुरुष वर्ग के दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव आने लगा।

बदलाव की छोटी शुरुआत

वक्त के साथ पुरुषों के मन से जेंडर पर आधारित भेदभाव का पर्दा हटने लगा। किसी भी बडे सामाजिक बदलाव की छोटी शुरुआत हमारे घरों से ही होती है।पारंपरिक ढांचे में पति ही परिवार का मुखिया होता है और उसकी सहमति के बिना स्त्री के लिए कोई भी कदम उठाना संभव नहीं होता। अगर पचास के दशक में ज्यादातर परिवारों की बेटियां स्कूल जाने लगीं तो यह उनके पिता के प्रयास से ही संभव हुआ। भारतीय पुरुष को जल्द ही इस सच्चाई का एहसास हो गया कि परिवार की खुशहाली के लिए स्त्री का स्वस्थ और शिक्षित होना जरूरी है। इस संबंध में समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत कहती हैं, अगर सब कुछ सामान्य हो तो कोई भी समाज समय के साथ हमेशा बेहतरी की दिशा में आगे बढता है। मिसाल के तौर पर किसी जमाने में जिस परिवार के मुखिया ने पत्नी के प्रति थोडा उदार रवैया बरतते हुए अपनी बेटियों को भी शिक्षित होने का अधिकार दिया होगा, उसकी अगली पीढी भी इन नियमों का पालन करेगी। फिर इससे आगे वह अपनी बेटियों को आत्मनिर्भर बनाना चाहेगी और उन्हें स्वेच्छा से जीवनसाथी चुनने की भी आजादी देगी।

दूर होती गैर बराबरी

स्त्री की बढती सक्रियता की वजह से पुरुष के कंधों से पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ भी थोडा हलका हुआ है। अब वह कुछ घरेलू मामलों को पूरी तरह पत्नी के लिए छोड देता है, क्योंकि उसे अपनी जीवनसंगिनी पर पूरा भरोसा होता है । वह मानता है कि उसका कोई भी निर्णय परिवार के लिए अच्छा ही होगा। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता का कहना है, आज प्राफेशनल लाइफ में पुरुषों की व्यस्तता बढ गई है। उन्हें हमेशा नई चुनौतियों का सामना करना होता है। खुद को बेहतर साबित करने के लिए वे दिन-रात कडी मेहनत करते हैं। ऐसे में जब पत्नी उन्हें ज्यादातर घरेलू जिम्मेदारियों से मुक्त कर देती है तो वे तनावमुक्त होकर अपना सारा ध्यान करियर की बेहतरी में लगाते हैं।

बदलते वक्त की जरूरत

आज की स्त्री यह सोच कर खुश हो रही है कि उसके प्रति पुरुषों का दृष्टिकोण उदार हो रहा है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि अचानक पुरुषों का हृदय-परिवर्तन हो गया है। स्त्रियों के प्रति अपना पारंपरिक दृष्टिकोण बदल पाना उनके लिए इतना आसान नहीं था। आज आर्थिक आत्मनिर्भरता ने स्त्रियों का आत्मविश्वास बढाया है। आज की स्त्री तेजी से आगे बढ रही है। यह सही है कि कुछ पुरुषों को यह बदलाव रास नहीं आ रहा है, पर वक्त के साथ कदम मिलाकर चलना अब उनकी मजबूरी है, वरना वे पीछे छूट जाएंगे। इस संबंध में समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत आगे कहती हैं, पिछले कुछ दशकों में भारतीय स्त्री की दुनिया बहुत तेजी से बदली है। अब वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है। देर से ही सही, लेकिन पुरुष भी अब स्त्री की इस नई छवि को स्वीकारने लगा है। अब उसे एहसास हो गया है कि अगर स्त्री खुद आगे बढकर बाहर के कार्यो में उसका सहयोग कर रही है तो उसे भी अपना रवैया बदलना चाहिए।

नए जमाने की नई सोच समय के साथ सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी बढने लगी। अब तक पुरुषों के परिचय का दायरा केवल अपने घर के भीतर रहने वाली स्त्रियों, मां, बहन, पत्नी..आदि तक ही सीमित था। अब उसके साथ ऑफिस में अलग-अलग परिवेश से आने वाली स्त्रियां काम करती हैं। उनके संपर्क में आने के बाद पुरुषों को स्त्रियों के जीवन से जुडी परेशानियों को जानने का अवसर मिला। उनके संपर्क में आकर पुरुषों की सोच का दायरा काफी विस्तृत हुआ। उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि कोई भी स्त्री केवल मां, बहन, पत्नी या प्रेमिका नहीं होती, बल्कि उसका भी अपना वजूद होता है। उसे केवल किसी रिश्ते की वजह से नहीं, बल्कि उसकी काबिलीयत की वजह से पहचाना जाता है। यह अपने आप में ऐसा क्रांतिकारी बदलाव था, जिसने इस पुरुष प्रधान समाज की कई गलत धारणाओं को सिरे से खारिज कर दिया। इस खुली सोच की वजह से भारतीय पुरुष का नजरिया बदल गया। अब वह स्त्री को देवी बनाकर पूजने के बजाय, उसे अपने ही जैसा इंसान समझता है। वह विकास की मुख्यधारा में स्त्री को अपने साथ लेकर आगे बढ रहा है और उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व को सहजता से स्वीकारने लगा है।

दांपत्य का अर्थशास्त्र

कोई माने या न माने, पर पति-पत्नी का रिश्ता कहीं न कहीं पैसों से भी प्रभावित होता है। जब तक स्त्री आर्थिक जरूरतों के लिए पति पर निर्भर थी, उसके सामने पति की हर बात मानने के सिवा कोई चारा न था। जब स्त्री ने घर से बाहर निकल कर काम करना शुरू किया तो उसकी अलग पहचान बनी। अब उसे पति के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पडती। परिवार की जरूरतें पूरी करने में उसकी बराबर की भागीदारी है। ऐसे में पुरुष को यह एहसास होता है कि घर-बाहर की जिम्मेदारियां एक साथ निभाते हुए पत्नी उससे कहीं ज्यादा मेहनत करती है। इसलिए उसकी नजरों में पत्नी की इज्जत बढ जाती है। आर्थिक आत्मनिर्भरता ने स्त्री को सम्मान के साथ सिर उठाकर जीना सिखाया है।

पुरानी पीढी भी हुई उदार

आज से दो-तीन दशक पहले तक अगर कोई बेटा किचन में बहू का हाथ बंटा रहा होता तो शायद उसके माता-पिता को यह बात अच्छी नहीं लगती, पर अब ऐसा नहीं है। परिवर्तन के इस दौर में पुरानी पीढी न केवल इस बदलाव को सहजता से स्वीकार रही है, बल्कि वह खुद भी बदलने को तैयार है। इस संबंध में वयोवृद्ध कहानीकार सुरजीत कहते हैं, पिछले 50 वर्षो के अनुभवों के आधार पर मुझे ऐसा महसूस होता है कि हमारा समाज बहुत तेजी से बदल रहा है। परिवारों में पुरानी और नई पीढी की जीवनशैली में बहुत अंतर देखने को मिलता है। कुछ नई बातों के साथ हम उतने सहज नहीं होते। फिर भी अपने बच्चों की ख्ाुशी की ख्ातिर उन्हें अपनाने की पूरी कोशिश करते हैं। पहले हमें बदलाव स्वीकारने में थोडी झिझक जरूर होती है, पर धीरे-धीरे हम उसके आदी हो जाते हैं।

आज के बुजुर्ग यह समझने लगे हैं कि बदलाव की इस तेज बयार को रोक पाना असंभव है। इसीलिए वे खुद को ही बदल लेना बेहतर समझते हैं। आजकल महानगरों में ऐसे परिवार आसानी से देखे जा सकते हैं, जहां बेटे के साथ बहू भी काम पर जाती है और बुजुर्ग माता-पिता बडी खुशी से उनके बच्चों की देखभाल करते हैं। बेटे-बहू की आजाद जीवनशैली को आज के बुजुर्ग सहजता से स्वीकारने लगे हैं। अब उनके लिए बहू का व्यवहार ज्यादा अहमियत रखता है।

मीडिया की भूमिका

टीवी सीरियल, सिनेमा और विज्ञापनों में स्त्रियों के प्रति पुरुषों के उदार दृष्टिकोण की झलक साफ तौर पर देखने को मिलती है। आजकल टीवी पर दिखाए जाने वाले कई विज्ञापनों में खाना बनाते, बच्चों की नैपी चेंज करते और वॉशिंग मशीन में कपडे धोते पति आसानी से देखे जा सकते हैं। दरअसल ये प्रचार माध्यम किसी भी समाज के आईने की तरह होते हैं, जिनमें हम अपना चेहरा साफ तौर पर देख सकते हैं। विज्ञापन फिल्म बनाने वाली कंपनियां भी इस बात को बख्ाूबी समझती हैं कि आज का पुरुष पहले की तुलना में स्त्रियों के प्रति ज्यादा संवेदनशील है। वह उसकी परेशानियों को समझने की पूरी कोशिश करता है। जहां एक ओर लोगों की इसी भावना को भुना कर कंपनियां अपना प्रोडक्ट बेच रही हैं। वहीं दूसरी ओर ऐसे विज्ञापनों के प्रभाव से समाज में यह संदेश भी जा रहा है कि वाकई आज का पुरुष स्त्री की खुशियों का खयाल रखना जानता है।

लुभाती है केयरिंग छवि

हमारी पारंपरिक धारणा में स्त्रियों और पुरुषों के व्यक्तित्व को अलग-अलग खांचे में फिट करके रखा जाता है। आमतौर पर स्त्रियों में विनम्रता, सेवा-भाव और करुणा की भावना स्वाभाविक रूप से देखने को मिलती है। जबकि पुरुषों के व्यक्तित्व में साहस और नेतृत्व जैसे गुणों की प्रधानता होती है। सच तो यह है कि कोई भी इंसान सर्वगुण संपन्न नहीं होता। फिर भी ऐसा माना जाता है कि अगर किसी इंसान में स्त्री और पुरुष दोनों के सद्गुणों का मेल हो तो उसका व्यक्तित्व संतुलित होता है। आधुनिक महानगरीय संस्कृति में रेट्रो सेक्सुअल मैन की नई छवि उभर कर सामने आई है, जिसके अनुसार आज का पुरुष स्त्री की भावनाओं और उसकी पसंद-नापसंद को समझता है, घर के कामकाज और बच्चों की देखभाल में पत्नी की मदद करता है। स्त्रियों के साथ उसका व्यवहार बेहद शालीन और सहयोगपूर्ण होता है। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं, आज हर लडकी अपने भावी लाइफ पार्टनर में ऐसी खूबियां तलाशती है। वक्त की जरूरत को समझते हुए आज के लडके अपने भीतर इन गुणों को उभारने की कोशिश कर रहे हैं। यह एक तरीके से उनका सॉफ्ट स्किल है, जो पर्सनल ही नहीं, बल्कि प्रोफेशनल लाइफ में भी उनके लिए मददगार साबित होता है।

अब भी हावी है ईगो

यह सच है कि पुरुषों की सोच में सकारात्मक बदलाव आया है, पर सब कुछ बहुत अच्छा हो, ऐसा नहीं है। पुरुष चाहे कितने ही आधुनिक क्यों न हों, लेकिन उनमें जन्मजात रूप से अहं की प्रबल भावना होती है। पुरुषों की इस सोच को पूरी तरह बदल पाना बहुत मुश्किल है। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अनु गोयल कहती हैं, यह पुरुषों की सहज प्रवृत्ति है, जिसे पूरी तरह बदल पाना असंभव है, पर सचेत प्रयास से इसे काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। मेरे पास दांपत्य जीवन में अनबन के जितने भी मामले आते हैं, उनमें से लगभग 80 प्रतिशत झगडे पति के ईगो की वजह से होते हैं। चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, अहं किसी भी व्यक्ति के लिए नुकसानदेह होता है। इससे बचने के लिए लोगों को दूसरों की अहमियत स्वीकारने की आदत डालनी चाहिए।

सफर अभी बाकी है..

हमें इस सकारात्मक बदलाव को सहजता से स्वीकारना चाहिए, लेकिन बदलाव की इस खूबसूरत तसवीर की सच्चाई यह भी है कि इसमें केवल महानगरों के मध्यवर्गीय पुरुष का अक्स दिखाई देता है। हमारे समाज का एक बडा तबका ऐसा है, जो आज भी उसी पुरानी दकियानूसी सोच से जकडा हुआ है, जिसमें स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है। केवल महानगरों में आने वाले बदलाव को देखकर खुश होने से बात नहीं बनेगी। सामाजिक बदलाव की इस मुख्यधारा में गांव और छोटे शहरों के आम आदमी की भागीदारी बहुत जरूरी है। कोई भी क्रांतिकारी परिवर्तन तभी संभव है, जब उसमें स्त्रियों के साथ पुरुषों की भी साझेदारी हो। अभी हमें बहुत लंबा सफर तय करना है। वैचारिक आदान-प्रदान और स्वस्थ बहस के माध्यम से समाज के हर व्यक्ति तक यह संदेश पहुंचाना होगा कि नई सुबह की किरणें चारों ओर अपनी रुपहली आभा बिखेर रही हैं, बस आप अपने मन के दरवाजे खोल दें ..फिर देखें कि खुशियों की धूप से आपकी जिंदगी कैसे रौशन होती है!

ज्यादा प्रोग्रेसिव हैं आज के पुरुष

माधुरी दीक्षित, अभिनेत्री

मेरे पिता काफी हद तक आधुनिक सोच रखते थे। मेरी मां को संगीत में गहरी रुचि थी। हम चारों भाई-बहनों के जन्म के बाद भी मेरे पिता ने उनकी संगीत सीखने की इच्छा पूरी की। वह मां को संगीत के क्षेत्र में आगे बढने के लिए प्रोत्साहित जरूर करते थे, पर घर के कामकाज और बच्चों की देखभाल में उनका हाथ नहीं बंटाते थे। अब जमाना बदल चुका है। मेरे पति दोनों बच्चों का पूरा खयाल रखते हैं। जब कभी मैं ज्यादा व्यस्त रहती हूं तो वह मुझसे कहते हैं कि तुम घर का कोई काम मत करो, मैं सब संभाल लूंगा। उनके व्यक्तित्व में मुझे आज के जमाने की प्रोग्रेसिव सोच दिखाई देती है। जहां तक मेरी प्रोफशनल लाइफ का सवाल है तो मेरे पुरुष सहयोगियों ने मेरी सफलता को पूरी तरह स्वीकार किया है। वक्त के साथ पुरुषों का नजरिया तेजी से बदल रहा है। आज के पुरुष स्त्री भावनाओं और जरूरतों को समझते हैं। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण मेरे पति हैं। मुझे सपोर्ट करने व मेरे पेशे को पूरा सम्मान देने के लिए वे अमेरिका से मुंबई आए। अगर उनमें जरा भी ईगो होता तो वह सिर्फ मेरे करियर की खातिर मुंबई नहीं आते।

स्त्री की नई भूमिका पसंद है उसे

जूही चावला, अभिनेत्री

पहले किचन सिर्फ स्त्रियों की जागीर थी, पर अब ऐसा नहीं है। आज के पुरुष भी किचन के कामकाज में आगे बढकर पत्नी की सहायता करते हैं। मेरी कई सहेलियां बताती हैं कि उनके पति को कुकिंग बहुत पसंद है। ऐसी बातें आज से 20-30 साल पहले सुनने को नहीं मिलती थीं। किचन में पत्नी का सहयोग करते हुए आज के पुरुषों को कोई झिझक महसूस नहीं होती, बल्कि आजकल ऐसे पुरुषों को स्मार्ट और केयरिंग माना जाता है। बिजनेस की व्यस्तता के बावजूद मेरे पति जय घर के कामकाज में मेरी मदद के लिए समय जरूर निकालते हैं। मुझे उनमें वो सारी खूबियां नजर आती हैं, जो किसी आइडियल मैन में होनी चाहिए। आजकल ज्यादातर स्त्रियां घर से बाहर निकल कर काम कर रही हैं और आधुनिक पुरुष उनकी इस नई भूमिका को सहजता से स्वीकारने लगा है। हां, जो लोग अपनी किसी कमजोरी की वजह से ख्ाुद को असुरक्षित महसूस करते हैं या जिन्हें इस बात का डर होता है कि मौका मिलने पर उनकी पत्नी कहीं उनसे आगे न निकल जाए। ऐसे ही लोगों को स्त्रियों की सफलता स्वीकारने में तकलीफ होती है।

कुछ भी नहीं बदला

अर्पणा कौर, चित्रकार

पिछले पचास वर्षो में भारतीय पुरुष की सोच में कोई खास बदलाव नहीं आया है। अगर ऐसा होता तो देश में रेप की इतनी घटनाएं न होतीं। हां, स्त्रियों की सोच में काफी बदलाव आया है। मुझे याद है हमारे कॉलेज के जमाने में लडकियां सडक पर हमेशा अपनी निगाहें नीचे करके चलती थीं। रास्ते में अगर कोई उनके साथ छेडखानी करता तो उनमें जवाब देने की हिम्मत नहीं होती थी। मैं खुद भी वैसी ही थी, पर अब वे ऐसी घटिया हरकतों का जवाब देना सीख गई हैं। आज की स्त्री आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। वर्षो के संघर्ष के बाद उसने समाज में अपने लिए एक सम्मानजनक स्थान बनाया है। अब पुरुषों को भले ही उसकी तरक्की पसंद आए या न आए, पर उन्हें स्त्री की इस कामयाबी को स्वीकारना ही पडता है। प्रोफेशनल लाइफ में अगर कोई युवती अपनी मेहनत के बल पर तरक्की पाकर पुरुष सहकर्मियों से आगे निकल जाती है तो इससे उनके ईगो को ठेस पहुंचती है। उनके लिए किसी स्त्री की कामयाबी को सहजता से स्वीकारना मुश्किल होता है और इससे हताश होकर कुछ लोग तो उसके चरित्र पर लांछन लगाना शुरू कर देते हैं। जहां तक मेरे कार्य क्षेत्र का सवाल है तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि आज से 30 साल पहले जब मैंने अपना काम शुरू किया था, तब इस फील्ड में स्त्रियां बहुत कम थीं। उस जमाने में लोग फीमेल आर्टिस्ट के काम को गंभीरता से नहीं लेते थे, पर अब ऐसा नहीं है। आज उन्हें अपने काम की सराहना के साथ उसकी सही कीमत भी मिल रही है।

ईगो के शिकार हैं पुरुष ऋचा चड्ढा, अभिनेत्री स्त्री के प्रति किसी भी पुरुष की सोच को बनाने में उसकी परवरिश का बहुत बडा योगदान होता है। अगर कोई आदमी औरत की इज्जत नहीं करता तो इससे साफ जाहिर होता है कि बचपन में उसकी मां ने उसे स्त्रियों का सम्मान करना नहीं सिखाया होगा। पुरुष चाहे कितने ही आधुनिक क्यों न हो जाएं, लेकिन खुद को स्त्री से ज्यादा श्रेष्ठ समझने का ईगो आज भी उनके भीतर जिंदा है। आज भी पुरुष यही मानते हैं कि घर संभालना सिर्फ औरत का काम है। अगर वह घर की दहलीज पार करके बाहर की दुनिया में काम करती है तो यह उसकी गुस्ताखी है। आगे बढने में पुरुष उसकी कोई मदद नहीं करता, उसे अकेले ही स्ट्रगल करके अपनी पहचान बनानी पडती है। हालांकि धीरे-धीरे स्थितियां बदल रही हैं। आर्थिक आत्मनिर्भरता ने आज की औरत को सम्मान के साथ जीना सिखाया है।

सम्मान की हकदार है स्त्री सलिल भट्ट, संगीतकार

यह बताते हुए मुझे बहुत फख्र महसूस होता है कि हमारे परिवार में हमेशा से ही स्त्रियों को बराबरी का दर्जा दिया जाता है। हम राजस्थान के राजपूत परिवार से हैं, जहां स्त्रियों पर बहुत बंदिशें लगाई जाती हैं। फिर भी मेरी दादी चंद्रकला भट्ट अपने जमाने में उत्तर-पश्चिम भारत में संगीत की पहली शिक्षिका थीं। लोगों के तानों की परवाह किए बगैर दादा जी ने हमेशा उन्हें आगे बढने के लिए प्रोत्साहित किया। मेरी पत्नी प्रीति भट्ट राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में प्रोफेसर हैं। वह घर और बाहर की जिम्मेदारियां एक साथ बहुत अच्छी तरह निभाती हैं। इन्हीं गुणों की वजह से मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं। समाज के सुसंस्कृत और शिक्षित वर्ग के पुरुष तो स्त्रियों का सम्मान करना सीख रहे हैं, पर अब भी आबादी का एक बडा हिस्सा ऐसा है, जो स्त्री को बराबरी का दर्जा देने को तैयार नहीं है। हालात चाहे कितने भी बुरे क्यों न हों, हमें इतनी आसानी से हार नहीं माननी चाहिए। अगर देश का हर व्यक्ति केवल अपने भीतर बदलाव लाने की कोशिश करे तभी समाज में स्त्रियों को उनका सम्मानजनक स्थान मिलेगा, जिसकी वे हकदार हैं।

जरूरी है आपसी सहयोग

संतोख सिंह, संगीतकार

समय के साथ पुरुषों के दृष्टिकोण में काफी उदारता आई है। आज का युवक स्त्री के साथ बराबरी का व्यवहार करता है। जहां तक मेरे निजी अनुभव का सवाल है, मैं राजस्थान के छोटे से शहर श्रीगंगानगर का रहने वाला हूं। चाहे आप इसे छोटे शहर की मानसिकता समझें, लेकिन पारंपरिक मूल्यों में मुझे गहरा विश्वास है। मैं अपनी बहनों को पूरी आजादी देता हूं, लेकिन उनकी सुरक्षा के बारे में सोचकर मन चिंतित हो उठता है। इसलिए आज के जमाने में लडकियों को अपनी आजादी का इस्तेमाल सकारात्मक ढंग से करना चाहिए। मुझे यह देखकर खुशी होती है कि आज की लडकियां हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ मिलकर काम कर रही हैं और कुछ जगहों पर तो वे लडकों से भी आगे निकल गई हैं। वक्त के साथ केवल स्त्रियां ही नहीं, बल्कि पुरुष भी बदल रहे हैं। इस बदलाव का असर हर क्षेत्र में नजर आ रहा है। परिवार में अगर पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे को सहयोग देते हुए अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करें तो निश्चित रूप से समाज बेहतरी की दिशा में आगे बढेगा।

अभी काफी वक्त लगेगा

आबिद सुरती, साहित्यकार

मुझे यह देखकर बहुत अफसोस होता है कि भारतीय समाज के वैल्यू सिस्टम में तेजी से गिरावट आ रही है। पुराने समय में ज्ञान की कीमत थी, पर आज पैसे की इज्जत है। शिक्षा और संस्कारों के लिए कोई जगह नहीं है। पुराने समय में स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, पर आज उसे सेक्स सिंबल बना दिया गया है। स्त्रियों के प्रति पुरुषों के नजरिये में मुझे कोई खास बदलाव नजर नहीं आता। चाहे कोई भी जमाना हो पुरुष स्त्री को हमेशा अपने कंट्रोल में रखना चाहता है। मुझे यह सुनकर बहुत दुख होता है जब समाज के तथाकथित शिक्षित लोग रेप जैसी घटनाओं के लिए लडकियों के पहनावे को दोषी मानते हैं। आज अगर औरतों ने अपनी पहचान बनाई है तो इसके लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पडा है, लेकिन पुरुष उनकी कामयाबी को सहजता से स्वीकार नहीं पाते। स्त्रियों को बराबरी का हक तभी मिलेगा जब ज्यादा से ज्यादा स्त्रियां शक्तिशाली भूमिका में आगे आएंगीं। आज जिन क्षेत्रों में नेतृत्व की कमान स्त्रियों के हाथों में है, वहां पुरुष चाहे या न चाहे उसे स्त्री की इज्ज त करनी ही पडती है। इस तरह पुरुष के नजरिये में सकारात्मक बदलाव आएगा, पर इसमें अभी काफी वक्त लगेगा।

इंटरव्यू : अमित कर्ण मुंबई से, रतन एवं विनीता दिल्ली से

विनीता


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