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हंसो की सब रंज मिट जाए

लतीफे, कॉमेडी शो, हास्य-व्यंग्य की किताबें, कार्टून, कॉमेडी फिल्में और हंसाने वाले फनी कैरेक्टर्स.. ये सब आज ही पसंद नहीं किए जाते, पहले भी ऐसी ही चीजें खूब पसंद की जाती थीं। इसकी वजह सिर्फ यह नहीं है कि हंसना सबको पसंद है, असल में हंसी ही वह चीज है जो दुख पर मनुष्यता की जीत की घोषणा करती है। तो चलिए इस जयघोष में शामिल होने इष्ट देव सांकृत्यायन के साथ।

By Edited By: Published: Mon, 03 Jun 2013 11:20 AM (IST)Updated: Mon, 03 Jun 2013 11:20 AM (IST)
हंसो की सब रंज मिट जाए

मोनू :  मैंने ऐसी दवाई बनाई है, जिसे पीते ही इंसान सच बोलने लगता है। ले, पी के देख।

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सोनू (पीने के बाद): आक् थू.. ये तो पेट्रोल है।

मोनू :  देखा, तूने बिलकुल सच बोला। ये वाकई पेट्रोल ही है।

लैक्टोज इंटॉलरेंस : इससे ग्रस्त लोगों की संख्या बहुत कम है। इतनी कि अगर आप उनके चेहरे पर पूरा एक कटोरा दही पोत दें, तो भी वे बेचारे आपकी हरकत से आहत होने तक की स्थिति में नहीं है।

ऐसे कई लतीफे आप रोज कहते-सुनते और पढते भी हैं। ढेरों लतीफे आपको एसएमएस और मेल के जरिये या फिर सोशल नेटव‌र्क्स पर भी मिलते हैं। आम तौर पर इन्हें पढ-सुन कर आपके होंठों पर मुस्कान तैर जाती है। तब आप अपनी खुशी में अपने उन अजीज लोगों को भी शामिल करना चाहते हैं, जिनसे आपके बेतकल्लुफी वाले रिश्ते होते हैं। आज के अधिकतर युवाओं में यह आदत देखी जाती है कि एमएमएस के जरिये कोई लतीफा आया, पहले ख्ाुद पढ कर मुसकुराए और इसके बाद तुरंत किसी दोस्त को फॉरवर्ड किया। बहुत लोगों ने ऐसे एसएमएस फॉरवर्ड करने के लिए अपने मोबाइल में दोस्तों के बाकायदा ग्रुप्स बना रखे हैं। ताकि कोई जोक आने पर उसे फॉरवर्ड करने के लिए एक-एक नाम अलग सेलेक्ट न करना पडे। बस पढा, एक-दो बटन क्लिक किया और भेज दिया, एक साथ कई दोस्तों को।

ऐसा तो दुनिया भर में शायद ही कोई मिले जिसे लतीफे पसंद न हों और अगर पूछा जाए कि आपको लतीफेक्यों पसंद हैं तो अधिकतर लोगों का जवाब यही मिलेगा कि उन्हें पढकर या सुनकर हंसी आती है। हंसी आती है यानी किसी न किसी तरह ख्ाुशी होती है, पर क्या कभी आपने सोचा है कि लतीफे पढ-सुन कर या किसी ख्ास सिचुएशन में ख्ाुद पडकर या किसी को पडे देखकर ख्ाुशी होने की वजह क्या है। यह भी कि वह सुकून, जो हमें इस पल भर की खुशी के बाद मिलता है, क्यों मिलता है। असल में लतीफों का भी अपना एक अलग मनोविज्ञान है। यही कारण है कि ये हर समय और समाज में ख्ाूब पसंद किए जाते रहे हैं और आज तो संचार का शायद ही कोई ऐसा माध्यम हो, जिस पर इनका बोलबाला न हो।

बदलता रहा रूप

गुजरे जमाने और आज के बीच फर्क सिर्फ इतना है कि तब इनका रूप भिन्न था और पहुंच सीमित। आज चूंकि सामाजिक परिवेश पहले की तुलना में बहुत बदल चुका है, इसलिए इनका रूप भी बहुत हद तक बदल गया है। पहले अधिकतर सामाजिक-पारिवारिक परिवेश हास्य कलाकारों के निशाने पर होते थे और स्वांग के मंचों पर सिचुएशन से ही कॉमेडी पैदा करने की कोशिश की जाती थी। आम तौर पर लोग व्यक्तियों की बेवकूफी पर हंसते थे। अब लोकतंत्र का बोलबाला है। भारत तो दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र है ही, जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है वहां भी किसी न किसी रूप में इसके लिए संघर्ष जारी है। इसीलिए ताकि लोग अपना दर्द बयान कर सकें। बदले जमाने में अपना दर्द बयान करने के लिए सबसे सशक्त माध्यम के रूप में लतीफे ही सामने आए हैं। शायद यही वजह है कि अब लतीफेबाजों के निशाने पर व्यक्तियों के बजाय व्यवस्थाएं हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि समाज में अभी भी विसंगतियां हैं, लेकिन हम बहुत सारी विसंगतियों से बाहर भी निकल आए हैं। दूसरी तरफ राजनीतिक व्यवस्थाएं दूसरी तरह की विसंगतियों में फंस गई हैं। इसके चलते अकसर लोग हताशा के शिकार होते हैं और तब अपने क्षोभ को हल्का करने का सबसे सशक्त तरीका उन्हें लतीफा ही मिलता है। इसीलिए सिर्फ व्यवस्थाएं ही नहीं, बल्कि व्यवस्था के लिए जिम्मेदार लोगों पर भी भरपूर चुटकुले बने, फिल्में बनीं और उपन्यास भी लिखे गए। जॉर्ज ओर्वेल का एनिमल फार्म और हरिशंकर परसाई का रानी नागफनी की कहानी इसी श्रेणी के उपन्यास हैं।

केंद्र में तंत्र

व्यवस्थाएं आज हास्य और व्यंग्य कलाकारों एवं लेखकों का निशाना बन रही हैं, इसका कारण केवल इतना ही नहीं है कि लोकतंत्र है और हमें कहने की आजादी है। समाजशास्त्री प्रो. सत्यमित्र दुबे के अनुसार, अंग्रेजी शासनकाल के दौरान बालमुकुंद गुप्त का स्तंभ शिवशंभु के चिट्ठे ख्ासा चर्चित और लोकप्रिय रहा है। तब लोकतंत्र नहीं था और अंग्रेजी शासन अपने खिलाफ कुछ भी लिखा-पढा जाना बर्दाश्त नहीं कर पाता था। दूसरी तरफ, आम जनता उनके शासन को बिलकुल पसंद नहीं करती थी। तब अपनी व्यंग्य रचनाओं से बालमुकुंद गुप्त जी ने लगातार अंग्रेजी शासन की खिल्ली उडाई।

बात अंग्रेजी शासनकाल की करें तो भारतेंदु हरिश्चंद्र की कई कविताएं और नाटक अंधेर नगरी चौपट राजा भी इस लिहाज से उल्लेखनीय हैं। इनमें न सिर्फ अंग्रेजी शासन, बल्कि अंग्रेजियत की भी ख्ाूब खिल्ली उडाई गई है। ये ऐसी रचनाएं हैं, जो आम जनता को गुदगुदाने-हंसाने के साथ ही उसे उन हालात की सच्चाई से भी परिचित करा देती थीं, जिनमें वह जी रही थी। प्रो. दुबे के अनुसार, सही पूछिए तो किसी व्यवस्था के ख्िालाफ सीधे बिगुल बजाने वाली रचनाओं का काम इनके बाद शुरू होता है। हंसाने वाली रचनाएं सिर्फ हंसाती ही नहीं हैं, ये आपको बहुत कुछ सोचने के लिए भी मजबूर करती हैं। जो बात सुनकर तुरंत आपको हंसी आती है, बाद में जब सोचते हैं, उसी पर गहरा क्षोभ उत्पन्न होता है। इस तरह हास्य रचनाएं गहरी बंदिशों में भी बडी आसानी से अपना काम कर गुजरती हैं।

बंदिशों में विनोद

बंदिशों से भरे समाज में विनोद की कला कितनी शिद्दत से फलती-फूलती है, इसका जीवंत उदाहरण पाकिस्तानी लेखक इब्ने इंशां का व्यंग्य उपन्यास उर्दू की आखिरी किताब है। पूरी किताब में शायद ही कोई ऐसी पंक्ति मिले, जिसे पढकर हंसी न आए और साथ ही जो आपको सोचने पर भी मजबूर न करे। दो दशक पहले जब डीवीडी प्लेयर जैसी चीजें नहीं आई थीं और टीवी पर हास्य के इतने कार्यक्रम भी नहीं आते थे, तब बुड्ढा घर पर है और बकरा किस्तों पे जैसे कई पाकिस्तानी नाटक घर-घर में वीसीपी मंगाकर देखे जाते थे। इनकी लोकप्रियता आज भी कम नहीं हुई है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो. एन. के. चड्ढा की बात काबिले गौर है, असल में हंसी-मजाक के जरिये आप ऐसी बातें भी बडी आसानी से कह लेते हैं, जिनको कहना गंभीर माहौल में संभव ही नहीं है।

तकनीक ने बढाया दायरा

अब हास्य नाटक देखने के लिए कहीं से वीसीपी लाने की जरूरत नहीं रही। टेलीविजन के ज्यादातर मनोरंजन चैनलों पर ऐसे कई कार्यक्रम आ रहे हैं, जिनके केंद्र में हंसी है। चाहे नौटंकी कॉमेडी थिएटर हो या तारक मेहता का उल्टा चश्मा, लॉफ्टर चैलेंज हो या फिर लापतागंज .. इन सबकी लोकप्रियता का कारण इनमें मौजूद हास्य का तत्व ही है। ऐसी फिल्मों की भी कमी नहीं है, जो सार्थक संदेश देने के साथ-साथ दर्शक को भरपूर हंसाती भी हैं। गोलमाल रही हो, या अतिथि तुम कब जाओगे, या फिर जॉली एलएलबी सभी को भरपूर दर्शक मिले और कई लोगों ने तो इन्हें एक से अधिक बार देखा। छोटे बजट की होने के बाद भी पीपली लाइव जिस वजह से लोकप्रिय हो सकी, उसमें सबसे बडी भूमिका हास्य की ही मानी जाती है। यह अलग बात है कि यह हास्य सिर्फ चुटीला नहीं, बेहद चुटीला है। लेकिन यही उसकी ख्ाूबी भी है। यह अकारण नहीं है कि गंभीर फिल्मों के भी वे सिचुएशन और संवाद ही लोगों को सबसे ज्यादा याद रह जाते हैं जो हंसी पैदा करते हैं।

राहत का विज्ञान

हंसी महंगी भले हो रक्खी हो, पर साहित्य से लेकर फिल्मों तक जीवन के हर पहलू पर इतनी जरूरी क्यों है? इसका कारण स्पष्ट करते हैं प्रो. चड्ढा, समय के साथ जीवन में सुविधाएं बढी हैं, लेकिन तनाव भी बढे हैं। भौतिकता के साथ-साथ प्रतिस्पर्धा बढी है। यहां तक कि बहुत लोगों के लिए निजी संबंध भी तकलीफदेह हो गए हैं। कुल मिलाकर माहौल तनाव का है। ऐसी स्थिति में राहत के लिए कॉमेडी से बेहतर रास्ता ही नहीं हो सकता। यह पूछने पर कॉमेडी का राहत से क्या संबंध है, वह कहते हैं, किसी भी कॉमेडी का पहला उद्देश्य हंसाना होता है। भले आगे चलकर वह आपको सोचने के लिए मजबूर करे, बाद में आप कुछ सोचें-समझें और गंभीर हो जाएं, पर तुरंत तो हंसते ही हैं। यह हंसना ही इंसान को बहुत सारे रोगों से बचा लेता है। क्योंकि हंसने से मांसपेशियां और नसें रिलैक्स हो जाती हैं।

इसीलिए ऐसे लोग जिंदगी का मजा ज्यादा ले पाते हैं, जिनमें सेंस ऑफ ह्यूमर बेहतर होता है। अब सेंस ऑफ ह्यूमर क्या चीज है, यह बताने की जरूरत तो है नहीं। अरे आप सीरियस क्यों हो गए। नीचे देखिए न, आपके लिए एक लतीफा सजा हुआ है :

जूझना सिखाते हैं कमेडियन

अर्चना पूरन सिंह, अभिनेत्री

स्त्रियों को खूबसूरती का सिंबल माना गया है। माना जाता है कि वे हंसा नहीं सकतीं, हालांकि गांवों में कॉमेडी की परंपरा है। स्त्री के प्रेग्नेंट होने पर उसकी सहेलियां दाढी-मूंछ लगा कर स्वांग करती हैं। वे दृश्य सिर्फ स्त्रियों के बीच ही चलते हैं। आप कह सकते हैं कि हंसी उम्र, लिंग, धर्म, जाति को नहीं देखती। यह सबके लिए जरूरी है और हर किसी को समान रूप से ट्रीट करता है। खुश रहने से मुश्किलें आसान होती हैं। जब से कॉमेडी सर्कस करना मैंने शुरू किया है, रोज लतीफे सुनने-सुनाने की आदत सी लग गई है। खुद पर हंसने और दूसरों का भी मजाक उडाने की आदत सी लग गई है। मेरा मानना है कि जब तक किसी का मजाक न उडाया जाए, किसी पर निशाना न साधा जाए, तब तक कॉमेडी पैदा ही नहीं होगी। लतीफे एक साथ कई मर्ज की दवा हैं। इनसे भीतर की पीडा तो कम होती ही है, अपनी बात प्रभावी तरीके से लोगों के सामने रखने में भी मदद मिलती है। मैं नहीं मानती कि ऐसे किसी समाज या जीवन की कल्पना मुमकिन है, जिसमें लतीफे न हों। हास्य न हो। कम से कम मेरी जानकारी में तो ऐसा संभव नहीं है। अगर किसी समाज में ऐसा है तो वहां जीवंतता तो नहीं हो सकती।

बिना हास्य के बेनूर है जिंदगी

दिलीप जोशी, अभिनेता

जिंदगी में जोक्स और ह्यूमर का होना बहुत जरूरी है। यह बात मेडिकल साइंस भी कहता है। यह हमारे लिए स्ट्रेस बस्टर का काम करता है, जिसकी मेरे खयाल से आज के दौर में हर किसी को जरूरत है। लतीफों से भी ज्यादा जरूरी सेंस ऑफ ह्यूमर है। यह भगवान का दिया हुआ नायाब तोहफा है। एक हाजिरजवाब इंसान किसी भी परिस्थिति में बडी जिंदादिली से रह सकता है। लतीफे हर किसी के लिए अनिवार्य हैं। इनके बिना जिंदगी बेनूर हो जाएगी। मनुष्य हताश, निराश हो जाएगा। ह्यूमर की गैर-मौजूदगी में किसी भी समाज में जिंदगी की कल्पना मुमकिन नहीं है। वह न हो तो जीना मुश्किल हो जाएगा। इसकी अहमियत इस बात से पता चलती है कि आज के दौर में कॉमेडी शो, फिल्में और दूसरे कार्यक्रम की तगडी डिमांड है। हम लोगों को हंसाने का काम करते हैं, पर खुद अपने पास लतीफे सुनने -सुनाने का वक्तनहीं होता। शूट में हमारे 10 से 12 घंटे निकल जाते हैं। घर आने पर हम न्यूज चैनल ही देख पाते हैं।

गांवों में बसता है हास्य

कपिल शर्मा, निर्देशक

मेरे लिए कॉमेडी आपके लालन-पालन से जुडी विधा है। अगर आप किसी को हंसाना चाहते हैं तो आपको दुनिया की यथास्थिति से अवगत होना होगा। शायद बहुत सुविधाओं में पला हुआ आदमी अच्छी कॉमेडी न कर पाए, क्योंकि उसने वह दुनिया और दर्द नहीं देखा होता है जो एक कॉमेडियन देख चुका होता है। मैं जब कभी मुंबई से बाहर शो करने जाता हूं तो अकसर अकेले बैठकर लोगों को ऑब्जर्व करता हूं। साथ ही, यह भी देखता हूं कि कैसे गांव कस्बों में और कस्बे शहरों में बदल रहे हैं। मेरा आज भी मानना है कि बेहतरीन कॉमेडी गांवों में ही बसती है। मैं सतही चुटकुलों पर बिलकुल यकीन नहीं करता, क्योंकि अधिकतर बिना किसी समझ के सिर्फलोगों को हंसाने के लिए क्रिएट किए जाते हैं। मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि हंसी किसी को उन्हीं मसलों पर आती है, जिन पर पहले कभी वह रो चुका हो। स्टैंड अप कॉमेडी करना तो और भी कठिन है, लेकिन जिसके सरोकारा रंगमंच से रहे हों, उसके लिए यह विधा उतनी मुश्किल नहीं है। कॉमेडी सर्कस में काम करने के दौरान कभी-कभी लगता है कि कहीं मेरी धार कुंद तो नहीं हो रही है। इसी वजह से मैं बाहर देश-विदेश घूमना पसंद करता हूं। हिंदी भाषा में कॉमेडी करना मुश्किल भी है और आसान भी। साउथ में हम अगर कोई स्टेज शो करने जाते हैं तो वहां हिंदी लोगों को कम समझ आती है। वहां हमें थोडा आसान स्थितियों के साथ काम करना होता है। लेकिन हमें ंिहंदी को लेकर विदेशों में बहुत ही अच्छा रेस्पॉन्स मिलता है। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि विदेशों में अपनी मातृभाषा की अधिक कदर है। मैं उस दिन खुश हो सकूंगा जब अपनी भाषा के जरिये कॉमेडी कर इस देश में कुछ परिवर्तन ला सकूं।

देशकाल की जानकारी से बनती है कॉमेडी

सुभाष कपूर, निर्देशक

अगर आपने जीवन भरपूर नहीं जिया तो आप कॉमेडी नहीं बना सकते। फंस गए रे ओबामा और जॉलीएलएलबी दोनों ही मेरे आसपास की फिल्में हैं। मैंने उसमें उतना ही मसाला मिलाया जिससे ये दूर की न लगें। दर्शकों को लगे कि वे अपने आसपास की चीजों पर ही हंस रहे हैं, भले ही वह समाज हो या फिर सिस्टम। हर समाज और सिस्टम में बहुत तरह की विसंगतियां हैं। उनसे आदमी के भीतर गुस्सा पैदा होता है। यही बात जब एक बडे संदेश के साथ हल्के-फुल्के तरीके से कह दी जाती है तो कॉमेडी बन जाती है। मैं अगर जॉली की कहानी को जर्मनी में बताता तो कहां से कॉमेडी पैदा होती। एक अच्छी सिचुएशनल कॉमेडी के लिए देश, काल और परिस्थति की जानकारी होना आवश्यक है।

सिचुएशन से आती है कॉमेडी

रूमी जाफरी, निर्माता-निर्देशक

लतीफे न होते तो मुस्कुराहट नहीं होती। मुस्कुराहट न होती तो जिंदगी में खुशी कैसे आती? वास्तव में लतीफे तो हर इंसान के लिए जरूरी हैं। यह एक ऐसा माध्यम है, जिससे आप कडवी से कडवी और गहरी से गहरी बात बडी आसानी से और प्रभावी तरीके से कह सकते हैं। फंस गए रे ओबामा और तेरे बिन लादेन के जरिये अमेरिकी नीति की जमकर खिल्ली उडाई गई थी। अगर अमेरिकी नीतियों पर प्रहार करने के इरादे से कोई सीरियस फिल्म गढी गई होती तो उसकी रिलीज ही मुमकिन नहीं हो पाती। लेकिन फंस गए रे ओबामा और तेरे बिन लादेन को कोई समस्या नहीं हुई। लोगों ने दोनों फिल्मों को भरपूर प्यार दिया, सो अलग। आज के दौर में हास्य की दरकार बहुत ज्यादा है, क्योंकि अधिकतर लोग चिंता और निराशा से घिरे हुए हैं। उन्हें मुसीबतों से लडने के लिए हंसी और आशा पुरजोर हिम्मत प्रदान करती है, जो लतीफों से आती है। मैं सिचुएशन से कॉमेडी निकालने में यकीन रखता हूं। सिचुएशन अगर सीरियस हो तो उसमें कॉमेडी क्रिएट करने का अलग ही मजा है।

चुटकुले नहीं हैं कॉमेडी

अरबाज खान, अभिनेता

मैं चुटकुलेबाजी को कॉमेडी कहना पसंद नहीं करता। मेरा मानना है कि जो आपके जीवन से निकले और चेहरे पर मुस्कान बिखेर दे, वह कॉमेडी है। मैंने दबंग बनाई थी तो यह नहीं सोचा था कि यह एक कॉमेडी फिल्म बनेगी। मुझे लगा कि एक मनोरंजक फिल्म बनानी चाहिए, जो मैंने बना दी। पब्लिक को पसंद आई और मेरा काम सफल हुआ। मेरे लिए हास्य की परिभाषा सिंपल है कि जिससे आपके चेहरे पर हंसी आ जाए।

सलमान और आमिर से लेकर कई ऐसे छोटे-बडे अभिनेता हैं, जो कॉमेडी कर रहे हैं। ऐसे में मेरा मानना है कि कॉमेडी कोई आसान विधा नहीं है। बहुत सारा टैलेंट इन दिनों टीवी में कॉमेडी कर रहा है। मैं चाहता हूं कि इन सभी प्रतिभाओं का उपयोग फिल्मों में भी हो। किसी को लाउड पसंद है, किसी को डबल मीनिंग पसंद है और किसी को सॉफ्ट कॉमेडी, ऐसे में पैमाना तय करना मुश्किल है। चुटकुलों से मैं इत्तेफाक नहीं रखता और ना ही उन्हें कॉमेडी का हिस्सा मानता हूं।

जिंदगी का हर रंग है लतीफों में

शैलेष लोढा, टीवी कलाकार

मुझे बचपन से ही लतीफेसुनने-सुनाने का शौक रहा है। मेरे पिता का सेंस ऑफ ह्यूमर काफी कमाल का था। मैं तो प्रोफेशनल कमेडियन हूं, पर मेरे पिता प्रफेशनल नहीं थे। इसके बावजूद हंसने-हंसाने में मैं उनकी बराबरी नहीं कर सकता। मुझे डबल मीनिंग वाले लतीफे बिलकुल पसंद नहीं हैं। मुझे अच्छे ह्यूमर वाले लतीफेपसंद हैं। जैसे हृषिकेश दा की फिल्मों में देखने को मिलते थे। स्वस्थ, उच्च गुणवत्ता और लॉजिकल कॉमेडी के वे मिसाल थे। लतीफों के जानकार होने और खुद से बेहतरीन लतीफों को गढ लेने का मतलब है कि आप जीवन को बेहतरीन तरीके से जानते-समझते हैं। आप में लोगों, चीजों और वाकये के अवलोकन की क्षमता बहुत ज्यादा है। मेरे खयाल से ऐसा कोई समाज या जीवन मुमकिन नहीं, जिसमें हंसी-खुशी न हो। आपको यकीन न आए तो आप जरा एक दिन बिना हंसे गुजार कर देख लें। फिर देखिए कि आपकी सेहत और सोच पर क्या असर पडता है। मैं लतीफे बनाते समय संदर्भ विशेष का पूरा खयाल रखता हूं। लतीफों में अगर संदर्भ न हो तो वे खास प्रभावी नहीं होते। कई बार लतीफों में संदर्भ का पुट हो तो आम लतीफेभी खास बन जाते हैं।

जॉम्बी कॉमेडी का दौर

राज निधिमोरू, निर्देशक

आजकल तो कॉमेडी का मतलब एडल्ट चुटकुले हो गया है, जो हमारे हिसाब से कुछ हद तक ठीक भी है। आप प्लेन सिचुएशन पर हंसाना चाहोगे जैसा कि नब्बे के दशक में होता था तो मुश्किल होगा। थोडा सा लाउड और कुछ हद तक मसाला, यही है आजकल कॉमेडी की परिभाषा। मसलन, अपनी आने वाली फिल्म गो गोवा गॉन में हमने जॉम्बी के जरिये हास्य पैदा करने की कोशिश की है।

हंसी है अनमोल तोहफा

तनाज करीम बख्तियार, अभिनेत्री

हंसने की आदत ने मुझे कमेडियन बना दिया। हंसी वाकई महंगी हो गई है। आज लोग इतने व्यस्त और परेशान हैं कि हंसना तक भूल गए हैं। मैं तो कहती हूं कि उस काम या पैसे का क्या फायदा, जो आप की बीपी हाई कर दे। मैं पर्दे पर ही चुलबुली लडकी नहीं दिखती, असल जिंदगी में भी ऐसी ही हूं। बचपन में शरारतों के कारण माता-पिता और टीचर्स सभी को परेशान कर चुकी हूं और डांट खा चुकी हूं, लेकिन मेरी आदतें सुधरी नहीं, बल्कि वे अब मेरी रोजी-रोटी बन चुकी हूं। मुझे आम तौर पर ऐसे लतीफे सुनना पसंद है, जो मुझे हंसाएं तो पर सामने वाले की भावनाओं को ठेस न पहुंचाएं। अगर अपने मजाक से मैंने किसी को दुखी कर दिया तो ऐसे मजाक का क्या फायदा? मैंने फिल्मों में भी विनोदी भूमिकाएं की हैं और अपनी सीमाएं भी तय की हैं। मैं वही करती हूं, जो मेरा दिल चाहता है। सच कहूं तो टेंशन की हालत में भी मैं हास्य कार्यक्रम देखना पसंद करती हूं। मेरे खयाल से कॉमेडी सभी की जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा है। वह न हो तो जिंदगी में उत्साह और ऊर्जा का भी अभाव हो जाएगा।

कॉमेडी मतलब डेविड धवन

दिव्येंदु शर्मा, अभिनेता

मेरे लिए कॉमेडी का मतलब डेविड धवन हैं। उनको देखकर आप मुस्कुराए या हंसे बिना नहीं रह सकते। मैं तो फिल्म संस्थान से पढकर आया हूं, लेकिन मेरे लिए कॉमेडी के मायने यहां आकर बदले हैं। ये कोई नियम नहीं है कि इंस्टीट्यूट से पढकर आने वाला ही अभिनेता होगा और ऐसा कभी कुछ होना भी नहीं चाहिए। कॉमेडी विधा में सबसे महत्वपूर्ण है कि आप ऑडिशन में कैसा कर रहे हैं और आप फिल्म के किरदार के लिए कितने फिट हैं, इससे फर्क पडता है और निर्देशक भी इसी वजह से आपका चयन करता है। डेविड धवन की फिल्म में भी मुझे इसी वजह से काम मिला है। मुझे लगा कि डेविड सर से स्क्रिप्ट मांग लूं और होमवर्क करके आऊं। उन्होंने एक बार स्क्रिप्ट मांगने वाली बात पर मुझसे कहा कि जो अभिनेता सेट पर बेहतर काम कर सकता है, मैं उसका ही चयन करता हूं। साथ ही, उन्हीं दिनों मुझे यह भी बात समझ आई कि कॉमेडी क्रिएट करने की कोई टाइमिंग नहीं होती, हां आपको इतना ध्यान रखना होता है कि आपकी टाइमिंग परफेक्ट रहे। यही मैंने प्यार का पंचनामा में भी किया था और चश्मे बद्दूर में भी।

मुंबई से इंटरव्यू : दुर्गेश सिंह, अमित कर्ण

इष्ट देव सांकृत्यायन


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