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नई शुरुआत फिर से

बदलाव प्रकृति का नियम है। बदलाव की प्रक्रिया को कभी हम सहज भाव से लेते हैं और कई बार हमें यह भीतर तक हिला देती है। बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करती है। यह तब सबसे ज़्यादा साहस का काम होता है जब जान बूझकर जोख़्िाम लिया गया हो। एक से दूसरे स्थान, व्यवसाय या एक संबंध से दूसरे संबंध की ओर बढ़ा जाए। कुछ हस्तियों के साथ बदलाव की स्थितियों का विश्लेषण कर रहे हैं इष्ट देव सांकृत्यायन।

By Edited By: Published: Mon, 01 Oct 2012 04:17 PM (IST)Updated: Mon, 01 Oct 2012 04:17 PM (IST)
नई शुरुआत फिर से

कहने को चाहे कोई कुछ भी कह ले, पर यह सच है कि अपनी चाहत के अनुसार सब कुछ कर पाने का मौका कम लोगों को ही मिल पाता है। ऐसे लोग बहुत हैं, जिन्हें अपनी इच्छानुसार सब कुछ करने का अवसर नहीं मिल पाता है। यह कभी घर-परिवार की स्थितियों के कारण होता है तो कभी अपनी सीमाओं के कारण और कभी समाज या समय भी इसका कारण बन जाता है। ऐसे हालात के शिकार हो गए लोगों में से अधिकतर परिस्थितियों से समझौता कर लेते हैं और जीवन भर अपने को, परिवार को, समाज को या फिर हालात को कोसते रहते हैं। कुछ लोग बिलकुल समझौता नहीं करते। वे हालात से जूझते हैं। यह संघर्ष कुछ दिनों का भी हो सकता है और कुछ वर्षो का भी। ऐसे संघर्ष में कुछ लोग जीत जाते हैं और कुछ हार भी जाते हैं। इन दो से भिन्न एक तीसरे प्रकार के लोग भी होते हैं। वे फौरी तौर पर समझौता कर लेते हैं, लेकिन इस फौरी समझौते के बावजूद अपने पवित्र उद्देश्यों की अग्नि को अपने भीतर जीवित बनाए रखते हैं। वे तब तक वही करते रहते हैं, जो कर पाने का उन्हें उस समय अवसर मिलता है। उनके लिए यह अपने आपमें एक तरह का संघर्ष होता है, अपने अस्तित्व को बचाए रखने का संघर्ष। बाद में वे जैसे ही उचित अवसर और परिस्थितियां हासिल कर पाते हैं, अस्तित्व को बचाए रखने का संघर्ष छोड कर, अपने अस्तित्व का महत्व स्थापित करने के संघर्ष में जुट जाते हैं। जब वे अपने इस महत्व को स्थापित कर लेते हैं तो दुनिया इसे एक बडे बदलाव के रूप में देखती है। जरूरी नहीं कि यह बदलाव हमेशा सकारात्मक ही हो। कई बार यह बदलाव नकारात्मक भी होता है और कभी-कभी तो अपने को ही या दूसरों को तोडने वाला भी, पर होता तो है और बदलाव से इनकार नहीं किया जा सकता।

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प्रतिभा की पहचान

बदलाव की यह प्रक्रिया केवल उचित परिस्थितियां न मिल पाने के कारण घटित होती हो, ऐसा भी नहीं है। ऐसा कई बार अपनी प्रतिभा और अपनी क्षमताओं को ठीक से पहचान न पाने के कारण भी होता है। कुछ लोग बने कुछ और करने के लिए होते हैं, लेकिन करने कुछ और लगते हैं। जो करने के लिए वे बने होते हैं, वह करने की प्यास भी उनके भीतर तब तक नहीं जगती, जब तक कि परिस्थितियां ही उन्हें इसका एहसास न कराएं। अपनी प्रतिभा या काम के बजाय वे लाभ या उपलब्धियों को अधिक महत्व देने लगते हैं। कई बार समसामयिक स्थितियों को महत्व देने के कारण भी ऐसा हो जाता है। बाद में जब उनके जीवन में ऐसा कुछ घटित होता है, जिससे उन्हें अचानक अपनी वास्तविक प्रतिभा की पहचान होती है, तब जाकर उन्हें जीवन की सही दिशा का बोध होता है। यह बोध ही उन्हें उस दिशा में ले आता है, जिसके लिए वे बने होते हैं। परिस्थितियां इसमें बडी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। महात्मा गांधी और महर्षि अरविन्द के जीवन इसके जीवंत उदाहरण हैं। गांधी जी कोई दक्षिण अफ्रीका में क्रांति करने नहीं गए थे। वे वहां वकालत करने गए थे, लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें इसके लिए मजबूर कर दिया कि वे स्वतंत्रता के लिए संघर्ष शुरू करें और दक्षिण अफ्रीका से शुरू हुआ संघर्ष ही उन्हें भारत तक ले आया। ठीक इसी तरह महर्षि अरविंद ने योग-अध्यात्म की दिशा में सोचा भी नहीं था। उन्होंने भारत को अंगे्रजी शासन से स्वतंत्र कराने का स्वप्न देखा था और इसके लिए क्रांति का मार्ग अपनाया। उन्होंने लंबे समय तक संघर्ष भी किया, लेकिन इसके बाद राजनीति या किसी अन्य रास्ते पर जाने के बजाय उन्होंने अध्यात्म का मार्ग चुना। बाद में इन दोनों ही विभूतियों को जिन कारणों से दुनिया भर में जाना गया, वे परिस्थितियों के चलते उनके जीवन में आए बदलाव के परिणाम थे। परिस्थितियों ने ही उनके सामने उनके उद्देश्य को स्पष्ट किया और उन्होंने अपने वास्तविक लक्ष्य की दिशा में प्रयास शुरू किए।

क्षमताओं की पहचान

ऐसी परिस्थितियां कभी किसी संकट के रूप में आती हैं तो कभी किसी जरूरत और कभी जगह के बदलाव के रूप में। कई बार ये हमारी सोच से लेकर व्यक्तित्व तक को झकझोर कर रख देती हैं, लेकिन इन्हीं स्थितियों में आदमी अपने बारे में नए सिरे से सोचने के लिए विवश होता है। हालात का शॉक ही कई बार हमारे भीतर छिपी अनंत क्षमताओं को उजागर करता है। व्यक्ति उन दिशाओं में प्रयास शुरू करता है, जिनके बारे में वह जानता ही नहीं कि वह यह भी कर सकता है। हालांकि शुरुआत अकसर प्रयोग के तौर पर होती है। प्रयोग कभी सफल होता है और कभी विफल भी हो जाता है। समझदार लोग एक प्रयोग विफल हो जाने पर दूसरा शुरू करते हैं। कई बार तीसरी-चौथी दिशाओं में भी प्रयास करने पडते हैं, लेकिन अंतत: वे सफल होते हैं।

इसका एक मार्मिक उदाहरण है स्वतंत्रता के बाद भारत का विभाजन। इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकती कि यह एक बडी त्रासदी थी। न केवल देश, बल्कि उन लाखों परिवारों के लिए भी जिन्हें पाकिस्तान बन जाने के बाद अपनी जमीन और संपत्ति छोडकर भारत में विभिन्न स्थानों पर जाना पडा। इस त्रासदी के शिकार होकर बहुत लोगों ने हिम्मत खो दी, लेकिन बहुत लोगों ने संघर्ष भी किया। उनके लिए यह संघर्ष सबसे पहले अपने अस्तित्व को बचाए रखने का था। उन्हें कई जगहें बदलनी पडीं, व्यवसाय और रास्ते बदलने पडे। हर बार नए प्रयोग करने पडे। लेकिन अंतत: वे सफल हुए और आज उनमें से कई अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। ऐसी परिस्थितियां स्वतंत्रता के बाद भी आई जब लोगों को किसी संकट के कारण एक से दूसरे स्थान पर जाना पडा और वहां नए सिरे से अपने को स्थापित करने के लिए संघर्ष करना पडा।

ऐसा बदलाव केवल त्रासद ही नहीं, सामान्य परिस्थितियों में भी होता है। तब जब लोग अपने विकास के लिए एक स्थान छोडकर दूसरी जगह जाते हैं। ऐसा बदलाव दुनिया भर के युवाओं के लिए लगभग अनिवार्य माना जाता है। बेशक एक अलग तरह का संघर्ष यह भी होता है। संकट में कोई जगह छोडने की तुलना में यह संघर्ष कम होता है, लेकिन साहस, धैर्य और समझ की आवश्यकता ऐसे मामलों में भी कम नहीं होती है। दिल्ली विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग में प्रोफेसर आनंद प्रकाश के अनुसार, मुश्किल तब होती है जब कुछ लोग किसी मुश्किल से बचने के लिए ऐसा करते हैं। जब कोई नकारात्मक धारणा के साथ बदलाव करता है तो वह आगे भी उसी नकारात्मक मन:स्थिति में बना रहता है और यह उसके विकास में बाधक होता है। इसलिए किसी भी बदलाव से पहले एक बार यह मूल्यांकन अवश्य करना चाहिए कि हम बदलाव क्यों कर रहे हैं। साथ ही, नई परिस्थितियों के लिए अपनी क्षमताओं का ठीक-ठीक आकलन भी जरूर कर लेना चाहिए।

संबंधों की त्रासदी

बदलाव उन स्थितियों में उतना कष्टप्रद नहीं होता, जबकि संबंधित व्यक्ति अपनी जडों से जुडे रहते हुए ही किसी नए स्थान या व्यवसाय में स्थापित होने का प्रयास करे। सबसे जोख्िाम भरा होता है यह उन स्थितियों में जब किसी को अपनी जडें छोडकर बिलकुल नए सिरे से स्थापित होने की कोशिश करनी पडती है। इसमें भी सबसे त्रासदीपूर्ण अनुभव होता है रिश्तों में बदलाव का। क्योंकि पहले दो बदलावों में सारा संघर्ष बाहरी होता है। अकसर भीतर से उसे सहारा देने के लिए उसके अपने लोग होते हैं। जो हर हाल में उसका हौसला बनाए रखते हैं। किसी भी संघर्ष में कई बार ऐसी स्थितियां आती हैं जब व्यक्ति अपना धैर्य खोता हुआ महसूस करने लगता है। ऐसी स्थिति में वे उसे धैर्य बंधाते हैं। जरूरत पडते पर साहस, संयम, आत्मविश्वास और समझ भी देते हैं। लेकिन संबंधों में बदलाव की स्थिति ऐसी होती है जब व्यक्ति भीतर का सहारा चूक जाता है। संबंधों का टूटने पर, चाहे वह जीवनसाथी से हो या भाई-बहन या मित्र से, हर हाल में व्यक्ति अपना भरोसा खोता हुआ दिखाई देता है। ख्ासकर जीवनसाथी से अलगाव की स्थिति उसे एक अपराध बोध से भी भर देती है। कुछ लोग तो ऐसे अलगाव के बाद टूट ही जाते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो कुछ समय बाद गर्द-गुबार झाडकर नए सिरे से उठ खडे होते हैं। वे नए संबंध की ओर कदम बढाते हैं और अपनी जिंदगी सिरे से शुरू करने की कोशिश करते हैं। प्रो. आनंद प्रकाश कहते हैं, यह मामला अति संवेदनशील है और उतनी ही संवेदनशीलता के साथ सूक्ष्मतम आत्ममूल्यांकन की मांग भी करता है। अगर किसी को ऐसा कदम उठाना पडे तो उसे यह जरूर सोचना चाहिए कि ऐसा उसे करना क्यों पडा? जिन कारणों से कोई रिश्ता टूटता है, अगर वे कारण मौजूद रहे तो नए रिश्ते का कोई अर्थ नहीं है। बेहतर होगा कि पहले उन कारणों का समाधान किया जाए। यह किसी मामले में अंतिम विकल्प ही हो सकता है। इसी विषय पर फिल्म सेकंड शादी डॉट कॉम बना चुके निर्माता विनोद मेहता कहते हैं, दूसरी शादी करने की सलाह किसी को नहीं दी जा सकती। यह सिर्फ एक समाधान हो सकता है.. ऐसे लोगों के लिए है, जो किसी वजह से अपने जीवनसाथी को खो चुके हैं, या किसी कष्टप्रद संबंध से उबरे हैं। ऐसी स्थिति में किसी संबंध के साथ जीवन का अंत नहीं होना चाहिए। बेशक संबंध हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं, ख्ासकर जो परंपरागत परिवेश में पले-बढे लोग हैं, उनके लिए पारिवारिक संबंध ही जीवन की धुरी होते हैं। वे बहुत मुश्किल में फंसने और एक संबंध टूट जाने के बाद भी दूसरे संबंध के बारे में नहीं सोच पाते। उनके लिए यह और भी मुश्किल होता है जिनके बच्चे थोडे बडे होते हैं। निहायत एकाकी जीवन जीते हुए भी वे बार-बार यही सोचते रहते हैं कि अगर कहीं हमने दूसरा संबंध स्थापित किया तो बच्चे उसे स्वीकार कर सकेंगे या नहीं। कई बार इसके ख्ाराब परिणाम देखे भी गए। लेकिन अगर हम सोच-समझ कर संबंध स्थापित करें और बच्चों को भी किसी गलतफहमी में न रखें तो ऐसे संबंध माता-पिता के साथ-साथ बच्चों के लिए भी अच्छे साबित हो सकते हैं। ध्यान रखना होगा कि इस प्रकार के संबंध किसी लालच, दबाव या वासना के वशीभूत होकर न किए जाएं। वरना यह संतुष्टि के बजाय केवल भटकाव देता है।

जोख्िाम की तैयारी

भटकाव की यह बात केवल संबंधों ही नहीं, दूसरे मामलों में भी साबित होती है। अगर केवल अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर कोई भी बदलाव किया जाता है तो अकसर वह केवल भटकाव का कारण बनता है। बदलाव चाहे जगह का हो, या व्यवसाय, या फिर संबंधों का, इसके लिए सबसे जरूरी तत्व है लक्ष्य की स्पष्टता। आपके सामने यह बात पूरी तरह स्पष्ट होनी ही चाहिए कि आप बदलाव क्यों कर रहे हैं। क्यों आप एक स्थान, व्यवसाय या संबंध छोडकर दूसरे की कामना कर रहे हैं। दूसरी बात हर बदलाव के साथ जोख्िाम का तत्व जुडा ही होता है। बदलाव आपको बहुत सारी उपलब्धियां दे सकता है, लेकिन कई बार यह केवल कष्टकर साबित हो कर रह जाता है। मिलता कुछ नहीं, जो पास होता है वह भी चला जाता है। किसी बडे बदलाव के समय इन दोनों ही स्थितियों के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। बदलाव हमें हमेशा अपनी रुचि की दिशा में करना चाहिए, न कि केवल भौतिक उपलब्धियों के लालच में। एक क्षेत्र का बदलाव करें तो ऐसी जगह जाएं जहां आप अपनी मेधा का सही और पूरा उपयोग कर सकें।

मंदी ले आई सिनेमा में

फिल्मों में आने के लिए मैंने बचपन से नहीं सोच रखा था और न दीदी प्रियंका चोपडा को देखकर मैंने इस इंडस्ट्री में आने की सोची। मैं इन्वेस्टमेंट बैंकर बनना चाहती थी। अंबाला से 12वीं पूरा कर लंदन में बिजनेस फाइनेंस इकॉनमी से ग्रेजुएशन किया। ख्ाूब पढाकू थी। वहां हमेशा टॉप फाइव में रहती थी। पता था, कोर्स ख्ात्म होते ही जहां चाहूंगी, जॉब मिल जाएगी। दुर्भाग्य से जब प्लेसमेंट का समय आया, तो वहां मंदी आ चुकी थी।

नतीजतन जॉब नहीं मिली। फिर मुंबई आ गई और प्रियंका के साथ रहने लगी। उनके साथ शूट पर भी जाने लगी। उन दिनों वे प्यार इंपॉसिबल कर रही थीं। मैं उनके साथ यशराज स्टूडियो चली गई। वहां उस प्रोडक्शन हाउस के मार्केटिंग हेड रफीक से मिली। तब भी फिल्मों में काम करने की मेरी कोई चाहत नहीं थी। मैं ख्ाली थी, तो सोचा क्यों न यहां इंटर्नशिप कर लूं। ट्रेनिंग भी हो जाएगी और समय भी कट जाएगा। मैंने रफीक से बात की, तो उन्होंने मुझे बतौर पब्लिसिस्ट रख लिया। मैं कलाकारों के इंटरव्यू करवाने लगी। जब उनके काम को देखा तो लगा कि यह तो मैं भी कर सकती हूं। फिर सोच लिया कि मुझे भी ऐक्टिंग ही करनी है। मैंने बैंड बाजा बारात के निर्देशक मनीष शर्मा सर से बात की। ऐक्टिंग करने की इच्छा जताई। उनसे कहा कि मैं जॉब छोडने जा रही हूं। वे हंसे। उन्होंने कास्टिंग डायरेक्टर शानु मैम से मिलने को कहा। मैं शानु मैम के पास गई और ऑडिशन दिया। दरअसल, वे पहले ही तय कर चुके थे कि मुझे बतौर अभिनेत्री लॉन्च किया जाएगा। बाद में जब मनीष ने मुझसे कहा कि मेरे साथ तीन फिल्मों का कॉन्ट्रैक्ट होने वाला है, तो मेरा मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। उसके बाद लेडी•ा वर्सेस रिकी बहल और फिर इशकजादे मिली। संयोग से दोनों लोगों को ख्ाूब पसंद आई। पुराने संबंधों का कोई ख्ास फायदा नहीं हुआ। मेरा काम और मुझमें संभावनाएं देखकर मुझे काम मिला। इसके बाद विकल्प के तौर पर भी मेरे जेहन में कभी नौकरी करने का ख्ायाल नहीं आया। कुछ एक्स्ट्राऑर्डिनरी करने के लिए आप को एक्स्ट्राऑर्डिनरी त्याग और दुस्साहस करना पडता है। मेरी ख्ाुशिकस्मती यह रही कि मुझे बहुत जल्दी और अचानक बडी सफलता हाथ लग गई। इसलिए यह बात तो फिर कभी मेरे खयाल में ही नहीं आई कि अगर मैं पुराने व्यवसाय में रहती, तो बेहतर होता।

रो•ा होती हैं अग्निपरीक्षाएं

राजनीति में जब मैं आया तो यह मेरे लिए कोई बिलकुल अनजाना क्षेत्र नहीं था। इसके पहले मैं बोकारो स्टील में काम करता था और चाहता था तो क्रिकेट के बाद भी उसे जारी रख सकता था। लेकिन एक भावना थी देश के लिए और आम जनता के लिए काम करने की। वह वहां रह कर पूरी नहीं हो सकती थी। मेरे पिताजी कांग्रेस में थे, लेकिन मैं अटल जी और आडवाणी जी से बहुत प्रभावित था। यह बात मुझे बहुत प्रभावित करती थी कि एक देश है तो एक कानून होना चाहिए। क्रिकेट खेलने के लिए मैं कई जगह जाता था तो यह बात मेरे मन में बार-बार उठती थी कि पूरी दुनिया में ऐसा तो है तो हमारे यहां क्यों नहीं हो सकता। हालांकि पिताजी ने मुझे बडी चेतावनी दी कि तुम देख लो कहां जा रहे हो, पर तुम स्वतंत्र हो जहां चाहो जा सकते हो। क्रिकेट और राजनीति में एक बात समान है। दोनों इंस्टैंट हैं। घोर अनिश्चितताओं का खेल है। कोई नहीं कह सकता कि अगले पल क्या होने वाला है। यहां अग्निपरीक्षाएं रो•ा होती हैं और जो इससे निकलता है, वही कुंदन बनता है। मैं राजनीति में कोई कमाने नहीं आया हूं। मैं यहां आया हूं सेवा करने और अगर सेवा की भावना आपके अंदर है तो फिर इस तरह का बदलाव करने में कोई हर्ज नहीं है। हां, अगर कोई अन्य उद्देश्य से ऐसा करता है तो उसे पछतावा हो सकता है।

मूल्यों और उद्देश्यों का संघर्ष

लखनऊ से मैं अलीगढ आया था विज्ञान पढने, लेकिन वहां मेरी आंखें खुलीं शायरी की तरफ। शायरी का माहौल लखनऊ में भी था, पर लखनऊ की शायरी आत्मा की शायरी थी, जबकि अलीगढ में मुझे लम्हों की शायरी मिली। कलकत्ता गया तो अलग माहौल मिला। बंगाल उस समय ही अपने दर्द को कला में जिस तरह ढाल कर पेश कर रहा था, वह हिंदुस्तान में आज भी और कहीं नहीं है। इसके बाद दिल्ली आया और फिर मुंबई गया। वहां मैंने 11 साल एयर इंडिया में काम किया। उसने मेरे दिमाग को अंतरराष्ट्रीय बना दिया। मुंबई में रहते हुए ही मैंने शहर और गांव का संतुलन बिगडते देखा। इसी अनुभूति को लेकर मैंने अपनी पहली फिल्म गमन बनाई। सिनेमा मेरे लिए परवा•ा का एक दरिया है। यही एक ऐसा माध्यम है जो हिंदुस्तान का सिर पूरी दुनिया में ऊंचा कर सकता है। यह अलग बात है कि बॉलीवुड अभी उसकी संभावनाओं को ठीक से तलाश नहीं सका है। क्योंकि उसके मूल्य गलत हैं। वह हर ची•ा को बिकने के न•ारिये से देखता है। मेरे जो संघर्ष रहे हैं, वह केवल मूल्यों और उद्देश्यों को लेकर रहे हैं। रिश्तों में बदलाव की वजह भी मूल्यों और आदर्शो को लेकर ही हुए। हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि हम हैं तो एक स्वतंत्र इकाई, लेकिन समाज से जुडे हुए हैं। हम इसी समाज की इकाई हैं।

वक्त के साथ आया ख्ायाल

मिडिल क्लास फेमिली से ताल्लुक रखने वालों के साथ यही सबसे बडी समस्या होती है कि उन्हें लीक से हटकर कोई भी काम करने में बहुत वक्त लगता है। इसके लिए अपने-आपको मानसिक रूप से तैयार कर पाना उनके लिए बहुत मुश्किल होता है। मेरे साथ भी यही परिस्थिति थी, मेरे परिजनों के दिमाग में दूर-दूर तक यह बात नहीं थी कि मैं कभी हीरो बन सकता हूं। खुद मुझे भी घर में किसी के सामने अपनी यह इच्छा •ाहिर करने की भी हिम्मत नहीं होती थी कि फिल्मों में जाना है। पुणे के सिंबायोसिस विश्वविद्यालय में एमबीए में एडमिशन हो गया था, तो अनमने ढंग से उसे पूरा कर लिया। इसके बाद मुंबई आ गया और अमेरिकन एक्सप्रेस में नौकरी भी कर ली। छह-सात साल तक तो नौकरी ही करता रहा। हालांकि यह बात मैं कभी भूला नहीं कि मुझे सिनेमा में जाना है और अभिनय करना है। अंदर से हीरो बनने की चाहत बार-बार हिलोरें मारती रही। आख्िारकार एक दिन तय कर ही लिया कि ऐक्टर बनकर रहना है। फिर नौकरी छोड पोर्टफोलियो लेकर फिल्मकारों के दफ्तर के चक्कर काटने लगा। कहते हैं जहां चाह वहां राह। आिखरकार कुछ प्रयासों के बाद मौका मिल गया और फिल्मों का सिलसिला चल पडा। चूंकि कॉरपोरेट कल्चर में रह चुका था, इसलिए नतीजे देने की बात से वािकफ था। इसका फायदा यह हुआ कि सेट पर समय से आता था और शूटिंग डेडलाइन से पहले ख्ात्म करता था। फिल्मों की मार्केटिंग करने में पुराने दोस्तों की मदद मिली। फिल्मों की दुनिया में एक बार कदम रखने के बाद मुझे ऐसा ख्ायाल कभी नहीं आया कि कहीं मैंने गलत कदम तो नहीं उठा लिया। अपने शुभचिंतकों को यही राय दूंगा कि अगर उनमें जुनून है तभी यहां आएं, वरना पैसे कमाने के कई और तरीके हैं।

मुंबई से इंटरव्यू : अमित कर्ण ्र


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