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अंधविश्वास... टूटता तिलिस्म

शताब्दियों से किसी सलेब्रिटी की मानिंद हज़ारों-लाखों की फैन फॉलोइंग रखने वाली भीड़ का जलवा अब कम होने लगा है। इसके पीछे भागने वाले कई कदम अब अपनी दिशा ख़्ाुद तय कर रहे हैं। रैशनल विचारधारा की यह आहट असल में जीवन के अविरल हो जाने की आहट है। इस

By Edited By: Published: Fri, 29 May 2015 11:40 AM (IST)Updated: Fri, 29 May 2015 11:40 AM (IST)
अंधविश्वास... टूटता तिलिस्म

शताब्दियों से किसी सलेब्रिटी की मानिंद हजारों-लाखों की फैन फॉलोइंग रखने वाली भीड का जलवा अब कम होने लगा है। इसके पीछे भागने वाले कई कदम अब अपनी दिशा ख्ाुद तय कर रहे हैं। रैशनल विचारधारा की यह आहट असल में जीवन के अविरल हो जाने की आहट है। इस विचारधारा के असर को टटोला ज्योति द्विवेदी ने।

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भारतीय क्रिकेट टीम एक मैच हारती है और इल्जाम आता है दर्शकदीर्घा में बैठी एक एक्ट्रेस पर, भूकंप आने के बाद आसमान में उलटा चांद निकलने की अफवाहें जोर पकड

लेती हैं...

ये कुछ उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि किसी बात पर आंख मूंदकर विश्वास करने की प्रवृत्ति आज की स्मार्टफोन जेनरेशन से किस कदर तर्कहीन काम करा सकती है।

वैसे तो यह प्रवृत्ति समाज के एक वर्ग में हमेशा से रही है, लेकिन अब एक ऐसा वर्ग तेजी से अपना दायरा बढा रहा है जिसका हर काम प्रकृति की तरह तर्कसंगत है। यह वर्ग आज के माहौल में घुल चुकी कृत्रिमता से परे है और मानता है कि प्रकृति का हर कतरा, हर रेशा व्यक्ति को आंख-नाक-कान खोलकर फैसले करना सिखाता है। इस वर्ग के लोग नदी की तरह उन्मुक्तता के साथ जीते हैं, अपने अस्तित्व को लेकर ख्ाुद से सवाल करते हैं और रास्ता मुफीद न लगे तो उसे बदलने में भी गुरेज नहीं करते। अच्छी ख्ाबर यह है कि वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण से जिंदगी जीने का यह फलसफा तेजी से अपनी जगह बना रहा है। इस वर्ग के लोग आंखें मूंदकर दूसरों का अनुसरण करने की जगह अपने विवेक का इस्तेमाल करके निर्णय ले रहे हैं। वे किसी काम को सिर्फ इसलिए नहीं करते, क्योंकि वह सालों से होता आ रहा है, या उसे बहुत सारे लोग कर रहे हैं, बल्कि यह देखकर करते हैं कि उसकी उपयोगिता क्या है। दूसरे शब्दों में कहें, तो ऐसे लोग सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और भावनात्मक अंधविश्वासों से परे होते हैं।

डिपेंडेंट पर्सनैलिटी

बिना सोचे-समझे दूसरों की बात पर यकीन कर लेने वाले लोग आज भले ही बहुसंख्यक हों, लेकिन असल में इनके व्यक्तित्व में ख्ाामियां होती हैं। एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज हॉस्पिटल की कंसल्टेंट क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. ट्रिंका अरोरा कहती हैं, 'जो लोग व्यक्ति विशेष और घटनाओं से बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं, वे असल में डिपेंडेंट पर्सनैलिटी वाले लोग होते हैं। वे आत्मनिर्भर नहीं होते और हमेशा किसी ऐसे व्यक्ति या विचारधारा को तलाशते हैं जिस पर वे आंख मूंद कर विश्वास कर सकें। आतंकवादी भी इसी श्रेणी के लोग बनते हैं। इस तरह की ट्रेनिंग लेने वालों को हाल ही में एक फिल्म में स्लीपर सेल के रूप में दिखाया गया था। यानी एक ऐसा आदमी जो हमारे-आपके बीच रह कर आम जिंदगी जी रहा है। पर जो एक दिन अचानक किसी जगह पर ब्लास्ट कर देता है। इन लोगों का आइक्यू बेहद कम होता है और इन्हें बेहद आसानी से प्रभावित किया जा सकता है। ये रैशनली नहीं सोचते, पर इमोशनली बेहद चाज्र्ड होते हैं। इनके दिल में आसानी से किसी चीज के लिए लगाव या नफरत पैदा की जा सकती है और ऐसा होने पर ये किसी भी हद तक जा सकते हैं। आंख मूंद कर किया गया विश्वास न सिर्फ इनके लिए बल्कि दूसरों के लिए भी घातक साबित होता है।

परवरिश की ख्ाामियां

अब सवाल यह उठता है कि समाज में अतार्किक विचारधारा वाले इतने अधिक लोग कहां से आ गए? जवाब है, वह परवरिश और माहौल जो हम अपने बच्चों को देते हैं। मनोवैज्ञानिक डॉ. विचित्रा दर्गन आनंद कहती हैं, 'सवाल न करने की प्रवृत्ति मनुष्य के व्यक्तित्व विकास में सबसे बडी बाधक है और इसे जन्म देता है वह माहौल जिसमें हम पलते-बढते हैं। परिवार में अगर कोई बच्चा पूछता है - मैं यह काम क्यों करूं? तो बडों का जवाब होता है - क्योंकि इसे सब करते हैं। असंख्य

बार यह वाक्य सुनने के बाद बच्चे को ऐसा लगने लगता है कि जो काम ज्य़ादा लोग करें, वही ठीक होता है। इसी तरह एक दूसरा वाक्य जो वह बडों से अकसर सुनता है, वह है - बहस मत करो! इन दो वाक्यों का बच्चे के मनोविज्ञान पर यह असर पडता है कि वह रीएक्शन देना भूल जाता है और ताउम्र दूसरों का अनुसरण करता रहता है। कहीं कुछ गलत भी हो रहा होता है

तो उसका विरोध नहीं करता। इसलिए यह जरूरी है कि बच्चों को सवाल करने की छूट दी जाए। अपनी बात थोपने की जगह उनसे विभिन्न विषयों पर चर्चा की जाए। कोरी स्लेट सरीखे उनके मन पर उन्हें ख्ाुद ही अपनी विचारधारा बनाने की छूट दी जाए। ताकि वे बडे होकर कठपुतली-सा जीवन जीने की जगह कुछ नया करें और अपनी जगह बनाएं।

हर वर्ग में है अंधविश्वास

आजकल विभिन्न सामाजिक वर्गों में अलग-अलग िकस्म के अंधविश्वास प्रचलित हैं। इतने जागरूकता अभियानों के बावजूद आज भी आपको गांव-कस्बों में भूत-प्रेत के िकस्से सुनने को मिल जाएंगे। वहीं हायर क्लास के अंधविश्वास अलग हैं। इस क्लास में भी असुरक्षा की भावना कम नहीं है। इस वर्ग के लोग यूं तो अत्याधुनिक होने का दावा करते हैं, लेकिन इसके बावजूद वे एयरकंडिशंड आश्रमों वाले गुरुओं के यहां लाखों का चढावा चढाने से लेकर अपनी सफलता/

असफलता की वजह लकी चार्म को मानने से भी गुरेज नहीं करते। ऐसी मान्यताएं भारत ही नहीं बल्कि विश्व के सभी देशों में पाई जाती हैं।

सामाजिक अंधविश्वास

पुरुष प्रधान मानसिकता के चलते समाज में स्त्रियों को लेकर भी कई तरह के वहम मौजूद हैं। उनमें से एक यह है कि वे सिर से पैर तक ढंकी रहने पर सुरक्षित रहेंगी। छोटी बच्चियों और वृद्धाओं के साथ होने वाली निर्मम आपराधिक वारदातें बार-बार इसे झूठ साबित करती रहती हैं, पर इस बात को मानने वाले अपनी आंखों पर बंधी पट्टी खोलने को तैयार नहीं होते। इसी तरह कई जगहों पर आज भी विधवा स्त्रियों को अपशकुन माना जाता है।

वहम का टर्नओवर

लोगों में वहम पैदाकर फायदा उठाने की कला बाजार ने भी सीख ली है। यही वजह है कि बाजार के जन्म दिए हुए बहुत सारे त्योहार आज परंपरा के नाम पर कुछ दूसरा ही रूप ले चुके हैं। किसी त्योहार पर गहने ख्ारीदने का प्रचलन है तो किसी पर महंगे जानवरों की कुर्बानी देने का। साधारण से रिवाज आज पूरी तरह आर्थिक रंग में रंग चुके हैं। लोग भी इन्हें मानते रहते हैं बिना यह महसूस किए कि इससे नुकसान उन्हीं का हो रहा है। छोटे शहरों में आज भी पाखंडी बाबाओं और फकीरों का भी जाल फैला हुआ है जिनकी नेमप्लेट अकसर इनके मल्टीटैलेंटेड(?) होने का आभास कराती है। ये अकसर ख्ाुद को ट्रैवल एजेंट (विदेश यात्रा करवाने का दावा), फाइनेंशियल एक्सपर्ट(फंसा हुआ धन निकलवाने का दावा), रिलेशनशिप एक्सपर्ट (प्रेम विवाह करवाने का, सौतन से छुटकारा दिलाने का दावा) और मेडिकल एक्सपर्ट (एड्स, कैंसर जैसी बीमारियां ठीक करने का दावा) आदि बताते हैं। कई लोग इनके झांसे में आ भी जाते हैं और इनका बैंक बैलेंस बढाते हैं।

संतुलित होते हैं रैशनलिस्ट

इंटरनेट से आई सूचनाओं की बाढ ने समाज में जानकारी का स्तर बढाया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स लाइकमाइंडेड लोगों को एकसाथ ले आई हैं। इस नए तरह के माहौल ने लॉजिकल थिंकिंग को बढावा दिया है। डॉ. ट्रिंका अरोरा कहती हैं, 'रैशनल थॉट प्रोसेस वाला व्यक्ति दिल

और दिमाग के बीच संतुलन बनाकर रखना जानता है। ऐसे लोगों का प्रतिशत समाज में जितना बढेगा, समाज उतना ही अधिक तरक्की करेगा।

अंधविश्वास यानी कॉग्निटिव एरर

अंधविश्वास को मनोविज्ञान की भाषा में कॉग्निटिव/थॉट प्रोसेस एरर कहते हैं। अगर इसका जिंदगी पर जरूरत से ज्य़ादा प्रभाव पडऩे दिया जाए तो यह बेहद घातक साबित हो सकता है। इस वजह से एंग्जायटी डिसॉर्डर और ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसॉर्डर जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं।

गैजेट्स के नहीं, लोगों के साथ बिताएं वक्त

आज की गूगल एज में विचार करने और लोगों से इंटरैक्ट करने की प्रवृत्ति कम हुई है। छोटी-छोटी चीजों के लिए भी तकनीक पर निर्भरता बढी है। लोगों की जगह गैजेट्स के साथ वक्त बिताने से आकलन क्षमता कम होती है।

वक्त की जरूरत है रैशनल

थिंकिंग सुभाष घई, फिल्म निर्देशक

सिनेमा तेजी से बदल रहा है। स्पेशल इफेक्ट्स और एनीमेशंस से लैस आज की फिल्मों में ऐसे कई तत्व हैं जिनकी कुछ साल पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लेकिन एक सबसे जरूरी चीज जो मुझे अधिकांश फिल्मों और टीवी कार्यक्रमों से नदारद लगती है, वह है रैशनल अप्रोच जो आज के दौर की सबसे बडी जरूरत है। फिल्मों में अगर बायस्ड कंटेंट परोसा जाता है तो इसके जिम्मेदार फिल्मकार ही होंगे। रैशनल थिंकिंग आज सिनेमा ही नहीं, बल्कि समाज के लगभग सभी सेक्टर्स से नदारद है। इसका सबसे बडा कारण यह है कि आज अच्छे शिक्षकों की बहुत कमी है। शिक्षा व्यवस्था के तहत बच्चों में वैज्ञानिक सोच विकसित करने के उतने प्रयास नहीं हो रहे जितने होने चाहिए। हर साक्षर व्यक्ति शिक्षित नहीं होता। एजुकेशन और लिट्रेसी में फर्कहै। लोगों को अगर आगे बढऩा है तो उन्हें सही मायने में शिक्षित होना पडेगा। इसके लिए किताबें रट लेना ही काफी नहीं है। चीजों की महत्ता अपने विवेक के आधार पर तय करनी पडती है। आज इंडियन फिल्म इंडस्ट्री में कई ऐसे अभिनेता और निर्देशक भी हैं जो फिल्मों में तो रैशनल थिंकिंग की वकालत करते हैं, लेकिन असल जिंदगी में पूर्वाग्रहों और अंधविश्वासों में जी रहे हैं। ऐसे में उनके फैंस को अपने विवेक का इस्तेमाल करके यह समझ लेना चाहिए कि अगर उनके रोल मॉडल अभिनेता और निर्देशक अंधविश्वास का सहारा लेते हैं, तो वे डरपोक हैं। उन्हें ख्ाुद पर और अपने काम पर विश्वास नहीं है। मुझे लगता है कि बिना किसी लॉजिक के सिर्फ मन के अंधेरे कोने में बैठे किसी डर की वजह सेकोई काम करना कायरता है।

फिल्में सिर्फ मनोरंजन का जरिया

शक्ति कपूर, अभिनेता

सिनेमा का लोगों की सोच पर गहरा असर पडता है। कई फिल्में इंसान की हौसलाअफजाई करती हैं और साथ ही उन्हें शिक्षित भी करती हैं। हाल के कुछ वर्षों में फिल्मों को रेशनल दृष्टिकोण से देखने की प्रवृत्ति बढी है। आज डायरेक्टर बहुत से टैबू विषयों पर फिल्म बना रहे हैं जिन पर लोग बात करने से भी कतराते हैं। स्पर्म डोनेशन, एचआइवी जैसे कई विषयों पर बनी फिल्में दर्शकों को पसंद आई हैं। फिल्म 'पीकू में कब्ज पर बात की गई। वहीं कई फिल्में असल जिंदगी से प्रेरित होती हैं। इस तरह की ऑफबीट फिल्में बनाने और पसंद करने वालों की तादाद बढी है। मुझे लगता है कि तीस प्रतिशत लोग सिनेमा को रैशनल दृष्टिकोण से देखते हैं। आज का दर्शक समझदार है। वह जानता है कि सुपरनैचरल किरदारों वाली फिल्में काल्पनिक होती हैं। यही वजह है कि उन्हें फैंटसी फिल्म कहा जाता है। ये फिल्में महज मनोरंजन का जरिया हैं जो हमें कल्पना की दुनिया में ले जाती हैं। इनमें खोकर आप तनाव को भूल जाते हैं। हालांकि इनमें साइंस का समावेश भी होता है, लेकिन इनका ज्य़ादातर हिस्सा काल्पनिक होता है। मुझे लगता है कि इन्हें इस प्रकार पेश करना चाहिए जिससे लगे कि ये चीजें असल जिंदगी में संभव नहीं हैं। इन फैंटसी फिल्मों से दर्शक कुछ गेन नहीं करते। ये सिर्फ मनोरंजन का जरिया हैं। इन्हें राइटर इस प्रकार लिखता है जिससे लोगों का मनोरंजन हो। लोगों को फिल्म देखने के मामले में बहुत सेलेक्टिव होना चाहिए।

रिअलिस्टिक हों किताबें दिव्य प्रकाश दुबे, लेखक

कबीर की शिक्षाओं का निचोड यही है कि हर तथ्य पर सवाल उठाएं। जब तक ख्ाुद उसे परख न लें, तब तक उस पर विश्वास न करें। दार्शनिक प्लूटो ने भी यही कहा है कि शासक हमेशा अनबायस्ड व्यक्ति को ही होना चाहिए। आज बहुत सारे लोगों में भीड का अनुसरण करने की मानसिकता है। इसकी सबसे बडी वजह यह है कि जो व्यक्ति समाज में सबसे ज्य़ादा प्रभावशाली होता है, उसमें लोग लीडर को देखने लगते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह परिवार में पिता को। जिस तरह ज्य़ादातर परिवारों में पिता के फैसले को सभी सदस्य चुपचाप मान लेते हैं, उसी तरह समाज में भी अगर किसी नेता की प्रभावशाली छवि है तो लोग उस पर आंख मूंद कर यकीन कर लेते हैं। उसकी कही बातों पर सवाल करने या ख्ाुद उसे परखने की कोशिश नहीं करते। पर कई बार इस तरह का अतार्किक विश्वास समाज के हित के लिए घातक साबित होता है। इसलिए लोगों को अपना नेता परख कर ही चुनना चाहिए। साथ ही उसके कार्यकाल के दौरान भी उसके कामों पर सवाल उठाना चाहिए। मुझे लगता है कि आम लोग सपनों की दुनिया में न जिएं, इसके लिए साहित्य और फिल्म से जुडे लोगों की बडी जिम्मेदारी है। हकीकत के करीब रचनाएं रची जानी चाहिए। मुझे समझ में नहीं आता कि वो लोग कौन हैं जो फिल्मों में हेलिकॉप्टर से उतर रहे होते हैं और जिनके पास मौज-मस्ती करने के सिवा कोई काम नहीं होता है। ऐसे विषयों पर आधारित फिल्में और किताबें लोगों की सोचने की क्षमता को कम करती हैं। यह सच है कि आज लोग महज मनोरंजन के लिए फिल्म देखते हैं और किताबें पढते हैं। पर मनोरंजन परोसने के भी रिअलिस्टिक और तथ्यपरक तरीके हो सकते हैं।

बायस्ड नहीं हूं एकता कपूर, फिल्म प्रोड्यूसर

मैं भक्ति भाव में लीन रहती हूं और ढेरों अंगूठियां भी पहनती हूं। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मैं अपने धारावाहिकों और फिल्मों में भी इन चीजों को सपोर्ट करती हूं। शो के जरिए मैं दर्शकों पर अपनी आस्था नहीं थोपती। यह बेहद व्यक्तिगत मसला है। मैं धर्म में नहीं, बल्कि अध्यात्म में यकीन रखती हूं। कोई रिटर्न पाने की उम्मीद के साथ मैं पूजा-पाठ नहीं करती। जो कुछ भी करती हूं, वह सिर्फ आंतरिक ऊर्जा हासिल करने के लिए करती हूं। अंधभक्ति को नहीं, बल्कि विश्वास को प्रमोट करती हूं। हर व्यक्ति किसी की किसी न किसी चीज में अपार श्रद्धा रखता है, जो उसे संबल देता है। मुझे नहीं लगता कि इसमें कुछ गलत है। हालांकि मैं इस बात से पूरी तरह इत्तेफाक रखती हूं कि मैं ऐसे माध्यमों से जुडी हूं जिनकी पहुंच जन-जन तक है। ऐसे में मैं प्रोफेशनली बेहद रैशनल अप्रोच अपनाती हूं। कभी भी बायस्ड नहीं होती।

ताकि सच बयां करें तसवीरें...

रघु राय, फोटोग्राफर

फोटोग्राफी की दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव आए हैं। आज स्मार्टफोन के जरिये इसकी एडिटिंग के टूल्स आम लोगों तक पहुंच गए हैं। इन्हें फोटो को बेहतर बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाए तो कोई समस्या नहीं है, लेकिन अगर इनका दुरुपयोग किया जाए तो अफवाहें भी फैलाई जा सकती हैं। फोटो पर आम लोग शब्दों से ज्य़ादा यकीन भी करते हैं। कहा भी गया है, 'ए पिक्चर इज वर्थ ए मिलियन वड्र्स! आज जब हर व्यक्ति के हाथ में कैमरा है और हर व्यक्ति ख्ाुद को फोटोग्राफर समझ रहा है, तो उसे इस कला के उसूलों से भी वािकफ होना पडेगा। आप दुनिया की किसी भी अच्छी तसवीर को देख लीजिए, उसमें आपको फोटोग्राफर की ईमानदारी और निष्पक्षता नजर आएगी। वहीं अगर फोटोग्राफर बायस्ड होगा, तो वह या तो तसवीर को मैनिप्युलेट करेगा या उसी पल तसवीर खींचेगा जब उसके मत (प्री कंसीव्ड आइडिया) को साबित करने वाला नजारा सामने हो। ऐसी तसवीरें सिर्फ भ्रम फैलाती हैं क्योंकि इन्हें कुछ मिनटों के अंदर ही सोशल साइट्स के जरिये हजारों लोगों तक पहुंचाया जा सकता है। एक वाकया याद आ रहा है। एक ब्लाइंड स्कूल में एक नेता को आना था। कई घंटे बीत जाने के बाद भी उनका अता-पता नहीं था। उनके इंतजार में उस स्कूल की एक बच्ची फूलों का हार लेकर खडे-खडे इतना थक गई कि उसे नींद आने लगी। आलम यह था कि उसकी शिक्षिकाएं उसे जगाए रखने की कोशिशें कर रही थीं और वह गिरी जा रही थी। इस दृश्य को मैंने कैमरे में कैद कर लिया। मैं चाहता तो कई घंटों बाद आए नेता के स्वागत की तसवीरें ले सकता था। पर उस परिस्थिति में मुझे बच्ची को नींद आने का दृश्य ही हकीकत के सबसे करीब और प्रभावी लगा। यह वाकया मैं कभी नहीं भूल सकता। मुझे लगता है कि तर्कशक्ति और विवेक के आधार पर ही तय करना चाहिए कि किस पल की तसवीर सबसे अधिक प्रभावी है।

बढी है रिश्तों की स्वीकार्यता

बी एल यादव, अध्यक्ष, द रैशनलिस्ट सोसायटी

आज समाज में नए कलेवर के रिश्तों को लेकर स्वीकार्यता बढी है। सिंगल विमेन, सिंगल मेन और लिव-इन कपल्स को अब पहले जैसी मुश्किलों का सामना नहीं करना पडता। छोटे शहरों में ऐसा कम देखने में आता है क्योंकि वहां 'समाज क्या कहेगा? एक प्रमुख सवाल है। लेकिन बडे शहरों में यह 'समाज नदारद होता है। लोग अपने पडोसी तक को नहीं जानते हैं। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि वे सब बहुत खुले विचारों वाले हैं। पर चूंकि शहरों में दूसरों के मामले में दखल देने का चलन नहीं है, इसलिए लोग अपने मन मुताबिक रहते हैं। हालांकि यह भी आदर्श स्थिति नहीं है। आदर्श स्थिति तब मानी जाएगी जब समाज में लोग वाकई खुले विचारों के हों, एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आएं, लेकिन उनकी व्यक्तिगत आजादी में सिर्फ इसलिए बाधक न बनें क्योंकि वे समाज के बहुमत का अनुसरण नहीं कर रहे।

आ रहा है बदलाव

डॉ. नरेंद्र नायक, रैशनलिस्ट

जो वाकया मैं सुनाने जा रहा हूं, वह देश के आधुनिकतम तकनीकी संस्थान का है। वहां मैं साइंटिफिक अप्रोच पर लेक्चर देने गया था। उसी दिन वहां एक गुरुजी आए और लोगों के हाथ पर यह कहकर एक तरल पदार्थ लगाने लगे कि ऐसा करने से उनके जीवन की समस्याएं दूर हो जाएंगी। मुझे लगा था कि कम से कम इस संस्थान के छात्र तो इस व्यक्ति की बातों में नहीं आएंगे। लेकिन मुझे शॉक तब लगा जब सभी छात्र बारी-बारी से (अंध) भक्ति और श्रद्धा के साथ वह पदार्थ लगवाने लगे और उनकी जय-जयकार करने लगे। इस वाकये ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि जब इस संस्थान का यह हाल है तो बाकी संस्थानों में लोगों की क्या सोच होगी। ऐसी शिक्षा का क्या फायदा जो व्यक्ति को यह यकीन करने से न रोक पाए कि उसके जीवन के संघर्ष सिर्फ हाथ पर एक तरल पदार्थ लगवाने से ख्ात्म हो जाएंगे और उसे ख्ाुद कोई प्रयास नहीं करना पडेगा। इस तरह के माहौल में मुझे सिर्फ एक अच्छी बात नजर आती है। वह यह कि अब देश में अंधविश्वास और बेबुनियाद मान्यताओं का ख्ाात्मा करने के लिए कई अभियान चल रहे हैं। केरल में तो इन अभियानों के काफी सुखद नतीजे सामने आ रहे हैं। इसके अलावा भोपाल, रांची और पूर्वोत्तर राज्यों में भी इस दिशा में कई प्रयास हो रहे हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि ये प्रयास एक दिन रंग लाएंगे और देश अंधविश्वास की जंजीरों से मुक्ति पाएगा।

पर्यावरण की सुरक्षा है जरूरी

जीवनदायिनी नदियां आज इंसान की कई गतिविधियों से विषैली होती जा रही हैं। फैक्ट्रियों से निकलने वाले जहरीले केमिकल्स और शहरों के सीवर तो इसके प्रमुख कारणों में शामिल हैं ही, आस्था के नाम पर भी नदियों को प्रदूषित किया जा रहा है। यह भी देखा जा रहा है कि आस्था के नाम पर नदियों में प्रदूषण बढाने की प्रवृत्ति बढती ही जा रही है। ऐसा देश के बडे शहरों से लेकर छोटे कस्बों और यहां तक कि गांवों में भी हो रहा है। इसी संदर्भ में जल संकट से जूझ रहे बुंदेलखंड क्षेत्र में अभियान चला रहे आशीष दीक्षित बताते हैं, 'बांदा नगर पालिका की ओर से जारी आंकडों के अनुसार केन नदी में हर साल तकरीबन 400 मूर्तियां और 200 ताजिये विसर्जित किए जाते हैं। जब इस छोटे से जिले में ऐसे हालात हैं तो बडे जिलों के हालात की कल्पना की जा सकती है। पहले सीमित मात्रा में मिट्टी की मूर्तियां नदी में विसर्जित की जाती थीं जिन पर प्राकृतिक रंगों की सजावट होती थी। इससे नदी को कोई नुकसान नहीं होता था। पहले एक या दो पर्वों पर ही मूर्तियां बनाने का रिवाज था, अब कई पर्वों पर ऐसा होने लगा है। अब प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियां सबसे ज्य़ादा प्रचलित हैं। इनमें केमिकल कलर्स की सजावट होती है। वहीं ताजिये में भी केमिकल कलर्स वाले रंगीन कागजों की सजावट होती है। इस तरह नदियों का प्रदूषण बढाना बेहद ख्ातरनाक है। हालांकि अब लोगों को यह बात समझ में आने लगी है। पर्यावरण की सुरक्षा की अहमियत लोग समझने लगे हैं। कई जिलों में प्रशासन मूर्तियों को भूमि में विसर्जित करने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है।

संदेश को सही डीकोड करें दर्शक

उपासना सिंह, अभिनेत्री

हर फिल्म का मुख्य मकसद मनोरंजन करना होता है। हालांकि कुछ फिल्में आपको सोचने पर मजबूर कर देती हैं। पिछले साल रिलीज फिल्म 'मैरी कॉम में मुक्केबाज और ओलंपियन मैरी कॉम के संघर्ष की दास्तान बताई गई। इस किस्म की फिल्में लोगों को प्रेरित करती हैं कि कोई मुकाम संघर्ष के बगैर नहीं मिलता। इस श्रेणी की फिल्में असल जिंदगी की दास्तान सुनाती हैं। वहीं मारधाड से भरपूर फिल्में काल्पनिक होती हैं, हालांकि उनका मकसद हिंसा का प्रसार करना नहीं होता। उनके अंत में हमेशा बुराई पर अच्छाई की जीत दिखाया जाती है। लिहाजा दर्शकों को भी फिल्मों के सकारात्मक पहलू पर ज्य़ादा ध्यान देना चाहिए। फिल्मों में जब रेप केस दिखाए जाते हैं तो दर्शकों के जेहन में यही बात आती है कि ऐसे लोगों को सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए। इसमें कोई दोराय नहीं है कि फिल्में लोगों के दिलो-दिमाग पर गहरा असर करती हैं। पर लोगों को फिल्म में छुपे संदेश को समझने का प्रयास करना चाहिए। किसी बुरी आदत को आत्मसात नहीं करना चाहिए। फिल्मों का मकसद लोगों को गुमराह करना नहीं होता। उनसे तभी प्रभावित होना चाहिए जब उससे कोई सकारात्मक संदेश मिल रहा हो। मैं अपने संस्कारों को लेकर बेहद संजीदा हूं। वहीं मेरी एक दोस्त बेहद अलग विचारों की है। एक समय ऐसा भी आया था जब सिगरेट-शराब पीने वाली और कई बॉयफ्रेंड रखने वाली इस दोस्त के साथ रहते-रहते मुझे लगने लगा कि यही जिंदगी है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। फिर मेरी अंतरात्मा ने मुझे चेताया। मुझसे कहा कि मेरे लिए ऐसा करना ठीक नहीं है। यही बात फिल्मों के मामले में भी लागू होती है। दर्शकों को हमेशा फिल्मों की अच्छी बातों को ग्रहण करना चाहिए। सुपरनैचरल विषयों पर आधारित फिल्मों को दिखाने से पहले ताकीद कर दी जाती है - यह फिल्म पूरी तरह काल्पनिक है। इसके बावजूद अगर कोई व्यक्ति उसे असल जिंदगी से जोडता है तो यह सही नहीं है। मैं टोटकों में विश्वास नहीं करती। हालांकि मुझे लगता है कि सात नंबर मेरे लिए लकी है। दरअसल सात तारीख्ा को रिलीज मेरी सभी फिल्में हिट रही हैं। मैं यह भी जानती हूं कि यह मेरा वहम है। लेकिन ऐसा मानने से न तो मेरा, न ही किसी और का नुकसान हो रहा है। लिहाजा मैं इसे गलत नहीं मानती।

इंटरव्यू: मुंबई से स्मिता श्रीवास्तव और अमित कर्ण


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