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सुपर वुमन परवाह नहीं बैरियर्स की

कई भूमिकाएं हैं स्त्री की, मगर सबसे नई भूमिका है करियर वुमन की। पूरी मेहनत व लगन से विकास की दौड़ में शामिल हैं वे। सफलता की राह में कई उतार-चढ़ाव हैं, लेकिन संतुलन की कला इनबिल्ट है स्त्रियों में। यह कला उन्हें सुपर वुमन बना देती है। विपरीत स्थितियों से जूझने का हौसला हो तो बैरियर्स की परवाह कौन करे! करियर वुमन की चुनौतियों और सफलताओं की दास्तान है यह कवर स्टोरी, जिसे कलमबद्ध कर रही हैं इंदिरा राठौर।

By Edited By: Published: Mon, 03 Mar 2014 03:14 PM (IST)Updated: Mon, 03 Mar 2014 03:14 PM (IST)
सुपर वुमन परवाह नहीं बैरियर्स की

पुरुष ब्रेडविनर है, स्त्री होममेकर..। क्या यह खयाल अब बासी नहीं लगता? करियर बनाने और घर चलाने की जिम्मेदारी अब सिर्फ पुरुषों के कंधों पर नहीं है। स्त्री के कंधे भी इतने मजबूत हो चुके हैं कि घर-बाहर दोनों संभाल सकें। आज वह ब्रेडविनर भी है और होममेकर भी। करियर की चुनौतियां जुझारू बनाती हैं तो घर की दुनिया धैर्य और क्षमताओं की परीक्षा लेती है।

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यही है सुपरवुमन, जो घर-बाहर की दुनिया को संतुलित करने की लगातार कोशिशों में जुटी है। अरे नहीं..! कहीं ये न समझ लें कि दोहरी जिम्मेदारियां उसे तंग कर रही हैं। वह अपनी हर जिम्मेदारी को प्यार से संभालती है, बशर्ते उसमें परिवार और प्रोफेशनल लाइफ की संवेदनशीलता शामिल हो। परिवार में सपोर्ट सिस्टम मजबूत हो और करियर में उसकी कडी मेहनत की अनदेखी न हो तो वह भी उस ऊंचे पायदान तक पहुंच सकती है, जहां अभी तक ज्यादातर पुरुष काबिज रहे हैं।

सफलता तुम कहां हो

पुरुष-स्त्री दोनों को बाहरी दुनिया में सफलता के लिए मजबूत सपोर्ट सिस्टम चाहिए। एक नए ग्लोबल अध्ययन के अनुसार 70 फीसद भारतीय स्त्रियां मानती हैं कि करियर में सफलता की उनकी परिभाषा वर्क-लाइफ बैलेंस पर निर्भर करती है। जबकि महज 40 प्रतिशत पुरुष ऐसा मानते हैं। 48 प्रतिशत स्त्रियां घरेलू उलझनों और काम के तनावपूर्ण घंटों के कारण जॉब छोडती हैं, जबकि 24 प्रतिशत पुरुष ही इन कारणों से नौकरी छोडते हैं।

दो-तीन वर्ष पहले सरकार की ओर से एक सकारात्मक पहल की गई। कंपनी एक्ट के मुताबिक पांच या उससे अधिक बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स वाली कंपनियों के बोर्ड में कम से कम एक महिला का होना जरूरी है। इस फैसले के समय ही कॉर्पोरेट जगत में स्त्रियों की भागीदारी से जुडी एक सर्वे रिपोर्ट भी जारी हुई। इसके अनुसार, लगभग 70 फीसद भारतीय कंपनियों के बोर्ड में महिला डायरेक्टर्स नहीं हैं। फाइनेंस में वे हैं, लेकिन मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में कम हैं। फिर भी पिछले लगभग एक दशक में विकास का ग्राफ आगे जा रहा है।

विदेशों का हाल

इस्राइल ने वर्ष 1993 में एक कानून बनाया कि सरकारी कंपनियों के बोर्ड में स्त्रियों की तादाद बढाई जाए। 1998 तक वहां स्त्रियों की संख्या 7 से बढ कर 30 फीसद हो गई। वर्ष 2004 में नॉर्वे ने भी सरकारी कंपनियों में महिलाओं की 40 प्रतिशत भागीदारी कानूनन अनिवार्य की। स्वीडन ने इसे 25 फीसद किया। आज इन तमाम देशों में निर्णायक पदों पर महिलाएं हैं। न सिर्फ उनकी कंपनियों को इससे फायदा हुआ, बल्कि उनके महत्वपूर्ण पदों पर काबिज होने से आम स्त्रियों को भी अप्रत्यक्ष रूप से लाभ मिला है।

भारत में भी अब मल्टीनेशनल कंपनियां महिलाओं को आगे बढाने की पहल कदमी ले रही हैं। विवाहित स्त्रियों के लिए काम के लचीले घंटे और वर्क फ्रॉम होम का कॉन्सेप्ट यहां नया है, लेकिन महानगरों में यह शुरू हो चुका है।

बैंकर्स क्लब

भारत में सबसे ज्यादा महिलाएं बैंकिंग सेक्टर में हैं। फॉरच्यून की शीर्ष 50 महिलाओं की सूची में जो चार भारतीय महिलाएं हैं, उनमें आइसीआइसीआइ बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी चंदा कोचर चौथे स्थान पर हैं, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की प्रमुख चित्रा रामकृष्ण 17वें पायदान पर, एक्सिस बैंक की शिखा शर्मा 32वें और एचएसबीसी की नैना लाल किदवई 42वें स्थान पर हैं। चित्रा रामकृष्ण भारत में एक्सचेंज की अगुवाई करने वाली पहली महिला हैं। इस तरह आज सात राष्ट्रीय बैंकों में महिला चीफ हैं। स्टेट बैंक के इतिहास में पहली बार महिला चेयरपर्सन अरुंधति भट्टाचार्य आई हैं। बैंक ऑफ इंडिया की एमडी विजयलक्ष्मी अय्यर, इलाहाबाद बैंक की एमडी शुभ लक्ष्मी पण से, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया की चेयरमैन और एमडी अर्चना भार्गव ने महिलाओं के लिए नए द्वार खोले हैं। भारतीय बैंकिंग सेक्टर यूएस की तुलना में ज्यादा वुमन-फ्रें ड्ली है। अमेरिकन बैंकर मैगजीन की एक सूची के मुताबिक वहां बैंकिंग सेक्टर में 25 में से तीन महिलाएं ही टॉप पॉजिशन पर हैं।

बोर्डरूम में महिलाएं

वर्ष 2009 में फॉरच्यून 500 कंपनी के सर्वे के अनुसार, बोर्डरूम प्रमुख महिलाओं की भागीदारी ग्लोबल वर्कफोर्स में महज 13.5 फीसद थी। भारत में दस में से केवल एक कंपनी में महिलाओं के लिए टॉप पद हैं। इनमें भी आधे फाइनेंशियल सेक्टर में हैं। यह अध्ययन कुछ वर्ष पहले एक एग्जिक्युटिव सर्च फर्म ईएमए पार्टनर्स इंटरनेशनल का था। फिर भी यहां स्थितियां उतनी निराशाजनक नहीं हैं। इटली, स्पेन, न्यूजीलैंड, पुर्तगाल, जापान जैसे देशों के मुकाबले यहां वे बेहतर स्थिति में हैं। इंडिया इंक में महिला सीईओज की भागीदारी 11 फीसद है। यूएस में भी टॉप पॉजिशंस पर महज 15 फीसद महिलाएं हैं, जबकि यूरोप में 7 प्रतिशत। पिछले कुछ वर्षो में सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग, आइटी, मैन्युफैक्चरिंग से लेकर रीटेल तक स्त्रियों की महत्वपूर्ण भागीदारी दिखी है। यूएस, यूके में पिछले 4-5 वर्षो में कई भारतीय व एशियाई मूल की महिलाएं महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हुई हैं।

..इन फील-गुड न्यूज के बावजूद एक नया अध्ययन कहता है कि केवल 26 प्रतिशत कंपनियों ने अपने बोर्ड रूम में महिलाओं को रखा है। इस हिसाब से भारत चीन से बहुत पीछे है, जहां 91 प्रतिशत कंपनियों में सीनियर स्तर पर महिलाएं हैं। भारत में यह आंकडा केवल 36 फीसद है।

टूट रहे हैं मिथक

कुछ मिथक टूट भी रहे हैं। कंपनियां स्त्रियों के प्रति उदार हुई हैं। प्रीमियम लिकर ब्रैंड और कॉफी चेन तक महिलाओं का स्वागत कर रहे हैं। कुछ इंटरनेशनल फूड ब्रैंड, कंज्युमर गुड्स, ब्रेकफस्ट सीरियल्स ब्रैंड्स ने भारत में महिला चीफ एग्जिक्युटिव्स को रखा है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर महिला सीईओज अपॉइंट कर रहे हैं। फिलहाल भारत के कॉर्पोरेट जगत में सीनियर मैनेजमेंट स्तर पर 14 फीसद महिलाएं हैं। कुछ टॉप भारतीय कंपनियों ने महिलाओं के लिए अपने द्वार खोल दिए हैं।

बैरियर्स भी कम नहीं

फोर्टिस एस्कॉर्ट हार्ट इंस्टीट्यूट में कार्डिएक पेसिंग और इलेक्ट्रोफिजियोलॉजी की सीनियर कंसल्टेंट डॉ. अपर्णा जसवाल वर्क-लाइफ बैलेंस के बारे में बताती हैं, कार्डिएक डिवाइस स्पेशलाइजेशन के लिए बडी मुश्किल परीक्षा होती है। मुझे याद है कि तैयारी के लिए मुझे लगभग पांच महीने मिले थे। इस बीच हॉस्पिटल और घर की जिम्मेदारियां भी पूरी करनी थीं। मैंने 14 वर्षीय बेटी गौरी के स्टडी टाइम-टेबल के हिसाब से अपना टाइम तय किया। कॉफी ब्रेक्स के दौरान मैं बेटी से बात करती थी और बाकी समय हम पढते थे। करियर वुमन को इसी तरह बैलेंस करके चलना पडता है।

समाजशास्त्री डॉ. रितु सारस्वत कहती हैं, भारत में वे ही स्त्रियां उच्च पदों तक पहुंच रही हैं, जो पहले ही संभ्रांत परिवारों की हैं या जिनके पास मजबूत सपोर्ट सिस्टम है। बैंकिंग सेक्टर में वे टॉप स्तर पर हैं तो इसका कारण यह है कि इस क्षेत्र में पहले भी महिलाएं अधिक हैं। जाहिर है, वे टॉप तक भी पहुंच रही हैं।

दिल्ली की सोशल एक्टिविस्ट टीना शर्मा मानती हैं कि भारतीय महिलाओं के लिए नौकरी आज भी सर्वाइवल का मुद्दा ज्यादा है। उनकी सफलता की राह में परिवार, मातृत्व, परवरिश जैसे मुद्दे रुकावट बनते हैं। एक बडा मसला सुरक्षा से भी जुडा है। आज भी कई कंपनियों में यौन-उत्पीडन निषेध कमेटी नहीं है, मातृत्व अवकाश का लाभ नहीं मिल पा रहा है, हेल्दी कंपिटीशन नहीं है। स्त्रियों को घर-बाहर बोल्ड होकर अपनी बात रखनी होगी। ज्ञान का दायरा बढाना होगा, चुनौतियों को स्वीकार करना होगा। अपनी क्षमताओं को पहचानें, तभी आगे बढ सकेंगी।

मूलचंद मेडिसिटी, दिल्ली की क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. वंदना तारा कहती हैं, स्त्री-पुरुष समान क्षमताओं के साथ प्रोफेशनल लाइफ शुरू करते हैं। लेकिन स्त्री को शादी-बच्चों के कारण ब्रेक लेना पडता है और प्रमोशन के समय उसका यह ब्रेक उसे पीछे ले जाता है। कई बार करियर के लिए लडकियां देर से शादी करती हैं, बच्चा प्लान नहीं करतीं। इससे उनकी सेहत पर प्रभाव पडता है। हालांकि अब महानगरों में जॉइंट फेमिलीज या एक्सटेंडेड फेमिलीज का चलन बढ रहा है। इससे वर्क-लाइफ बैलेंस में आसानी होती है।

लगभग सभी कॉर्पोरेट प्रमुख मानती हैं कि घर-बाहर संतुलन बिठाना करियर की सबसे बडी चुनौती है। बच्चों व घर की देखभाल, काम के लंबे घंटे, प्रोफेशनल मौकों का फायदा न उठा पाने के कारण उनका करियर ज्यादा आगे नहीं बढ पाता।

अध्ययन बताते हैं कि जब कोई स्त्री नेतृत्व करना चाहती है या बौद्धिक निर्णयों का हिस्सा बनना चाहती है तो शुरू में लोग नकारात्मक रवैया दिखाते हैं, लेकिन जब वे ख्ाुद को साबित करती हैं तो लोग उनका सम्मान करते हैं। कहा जा सकता है कि बैरियर्स को खत्म करना काफी हद तक अपने हाथ में है। इसके लिए महत्वाकांक्षा, मजबूत इच्छाशक्ति, सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ ही चुनौतियों से जूझने का जज्बा होना चाहिए।

टाइम मैनेजमेंट जरूरी है

काजोल, अभिनेत्री

शादी के बाद भी मेरी डिमांड है, जाहिर है मैंने वर्क-लाइफ बैलेंस किया है। मां बनने के बाद कुछ समय ब्रेक लिया, मगर जितना काम करती हूं, पूरी शिद्दत से करती हूं। शायद मैंने दर्शकों की उम्मीदों को पूरा किया है।

वर्क-लाइफ बैलेंस सूत्र

मुझे नहीं पता कि मैं कैसे सब मैनेज कर पाती हूं। मगर मानती हूं कि जहां चाह है, वहां राह है। हम किसी एक चीज पर डटे रहें तो उसमें सफलता जरूर मिलती है। सुपर वुमन बनना आसान प्रक्रिया नहीं है। इसके लिए सबसे जरूरी है टाइम मैनेजमेंट।

प्राथमिकता तय करें

आज की हर स्त्री जो घर संभाल रही है, साथ ही बाहर काम कर रही है, उसे मैं सुपर वुमन मानती हूं। लेकिन मैं सबसे यही कहना चाहती हूं कि अपनी सीमाएं तय करना बहुत जरूरी है। उतना ही काम करें, जितना आप कर सकती हैं। उस लिमिट से आगे न जाएं, क्योंकि यह सच है कि एक स्त्री के लिए पहली प्राथमिकता उसका घर है, फिर अपनी सेहत और क्षमता भी उसे ही देखनी है। हो सकता है, मेरे विचारों से कुछ लोग न भी सहमत हों, लेकिन ये मेरे निजी अनुभव हैं। इसके लिए काम से समझौता कर सकती हूं। परिवार की कीमत पर काम नहीं कर सकती। मेरे बच्चे हुए तो काफी समय मैं अपने करियर से थोडा दूर रही। फिर बच्चे बडे हुए तो मैंने दोबारा काम शुरू किया। मैंने दोनों जगह अपना बेस्ट देने की कोशिश की, इसलिए आज संतुष्ट हूं।

चुनौतियां हैं हर कदम

मधुरीता आनंद, डॉक्यूमेंट्री फल्ममेकर, दिल्ली डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकिंग में कम ही स्त्रियां हैं। मैंने 1995 से काम शुरू किया था। मैं दिल्ली की हूं, लेकिन काम के लिए मुझे मुंबई शिफ्ट होना पडा। मुझे शुरू से ही रचनात्मक काम करना था। इसलिए दूसरे शहर में जाकर काम करने की चुनौती मैंने स्वीकार की।

प्रोफेशनल चुनौतियां

चूंकि मैं स्त्री हूं, इसलिए स्त्री से जुडे मुद्दों पर ही फिल्म बना सकती हूं। आज के सिनेमा से रीअल स्त्री गायब है और मैं उसे अपनी फिल्मों में दिखाना चाहती हूं। मेरी फिल्म कजरिया कन्या भ्रूण हत्या पर आधारित है तो आने वाली फिल्म कोठा नं. 2 सेक्स वर्कर्स पर है। मेरे लिए प्रोफेशनल चुनौती प्रोडक्शन को लेकर आती है। मैं लिख सकती हूं, डायरेक्ट कर सकती हूं, लेकिन प्रोडक्शन मुश्किल है। फाइनेंस संभालना मेरे लिए बडी चुनौती है।

निजी चुनौतियां

वर्क-लाइफ बैलेंस एक जटिल प्रक्रिया है। मैं तलाकशुदा ौर एक बेटी की मां हूं। सपोर्टिव पार्टनर न मिले तो स्त्री का बाहरी दुनिया में काम करना मुश्किल होता है। मेरे फील्ड में संवाद, यात्राएं और जनसंपर्क बहुत जरूरी है, इसके लिए घर में सहयोग न मिले तो मैं काम ही नहीं कर सकती। दूसरी ओर हमारा समाज पितृसत्तात्मक है। लडकी को कमजोर करने की पूरी कोशिश की जाती है। मुझे भी इस मानसिकता से बाहर आने में 10 साल लग गए कि मैं खुद को कमजोर या दोषी न समझूं। अगर मजबूत सपोर्ट सिस्टम हो तो लडकियां बहुत बेहतर कर सकती हैं।

करियर और परिवार दोनों महत्वपूर्ण

फराह खान, कोरियोग्राफर

एक मां के लिए परिवार व बच्चे उसकी प्राथमिकता होते हैं और उसका ज्यादा समर्पण भी परिवार के प्रति ही होता है। घर और बाहर के बीच संतुलन बिठाना मुश्किल जरूर है, लेकिन यह जरूरी है। मेरे तीन बच्चे हैं। लिहाजा मैंने बीच का रास्ता अख्तियार किया है। जब जहां मेरा रहना ज्यादा जरूरी हो, मैं वहां होती हूं।

काम भी जरूरी-घर भी

मेरे लिए मेरे तीन बच्चे महत्वपूर्ण हैं तो फिल्में भी मेरे बच्चों की तरह हैं। मेरी फिल्म हैप्पी न्यू ईयर आने वाली है, तो मैं बच्चों से ज्यादा समय उसे दे रही हूं, क्योंकि बच्चों की बेहतरी के लिए मेरे काम का बेहतर होना भी जरूरी है। जिस तरह मेरे बच्चों को प्यार चाहिए, उसी तरह फिल्म को भी प्यार, देखभाल, सुरक्षा देनी पडती है। सच कहूं तो मुझे अपनी क्रिएटिव और बायोलॉजिकल संतानों के साथ ही संतुलन बिठाना पडता है।

होम फ्रंट पर मुश्किल नहीं

अपनी प्रोडक्शन कंपनी का नामकरण मैंने अपने ट्रिपलेट बच्चों जार, दीवा और अन्या के नाम पर थ्रीज कंपनी रखा है। कई बार लोग पूछते हैं, आप पूरी कंपनी, ऐक्टर्स और स्टाफ को एक साथ कैसे संभाल पाती हैं, तो मैं कहती हूं कि यह मुश्किल है। इससे ज्यादा आसान है- तीन बच्चों को संभालना। अगर पेरेंट्स मीटिंग या बच्चों के किसी स्कूल इवेंट में जाना हो तो मैं सारी प्रोफेशनल व्यस्तताएं छोड कर पहले वहां जाती हूं।

मंजिल मिली तो सफर का दर्द भूल गए

नीलम यादव, डायरेक्टर-सीओओ होटल आमांडा, लखनऊ

मेरी सफलता की यात्रा रोमांचक रही है। कई बार यकीन नहीं होता कि जिस लडकी का बाल विवाह हुआ हो, वह एक ग्रुप की डायरेक्टर बन सकती है। मेरा जन्म, पढाई-लिखाई जबलपुर से हुई। वैसे हम यूपी के हैं। तीन भाइयों की अकेली बहन हूं मैं। पापा फॉरेस्ट डिपार्टमेंट में थे। जैसा कि हमारे सामंती समाज का चलन था, सिक्स्थ क्लास में ही मेरी शादी हो गई। चार साल बाद जब आठवीं में थी, गौना हो गया। किसी तरह 11वीं की परीक्षा दी और 12वीं की परीक्षा तब दे पाई, जब मेरी बेटी 10वीं में आ गई।

ससुराल के प्रतिबंध

ससुराल में भी घोर सामंती परिवेश था। कम उम्र में बहुत कुछ एडजस्ट किया। इस बीच तीन बेटियां और एक बेटा हुआ। बच्चों के बडे होने के बाद मैंने भी पढाई पूरी कर ली। पति प्राइवेट जॉब में थे। मैंने भी एक इंश्योरेंस कंपनी जॉइन की। हमारे पास अपनी थोडी प्रॉपर्टी थी।

ग्लोबलाइजेशन का दौर था, दिमाग्ा में आइडिया आया कि पूंजी लगा कर होटल बनाएं। होटल बना और चल गया। फिर अपनी फूड चेन शुरू की। फिर रीयल इस्टेट बिजनेस में आ गई..।

सहयोगी टीम

मेरे स्टाफ में 90 प्रतिशत लडकियां हैं। जब कोई लडकी कुछ अचीव करती है तो मुझे बहुत ख्ाुशी होती है। मुझे लगता है, छोटे शहरों की लडकियों को बेहतर मौके चाहिए, जो अभी उन्हें नहीं मिल पा रहे हैं। अभी भी उनके विकास में बहुत रोडे हैं।

अब लडकियां ट्रेंड हैं

उषा अनंतसुब्रह्माण्यम, सीएमडी, भारतीय महिला बैंक लिमिटेड

मुझे बैंकिंग सेक्टर में 30 साल हो गए हैं। तब से स्थितियां काफी बदली हैं। सबसे बडा बदलाव यह है कि आज जो भी लडकी प्रोफेशनल जीवन में कदम रख रही है, वह पूरी तरह ट्रेंड और क्वॉलिफाइड हैं। वे उच्चशिक्षा में हैं, टेक्नोलॉजी की जानकारी रखती हैं। जब वे इंटरव्यू में आती हैं तो उन्हें अपनी कंपनी के बारे में सब कुछ पता रहता है। मेरे समय से यह सबसे बडा बदलाव आया है।

करियर की रुकावट

कंपनी प्रबंधन चाहे तो अपने यहां स्त्रियों की तादाद बढा सकता है। बैंकिंग में स्त्रियां इसलिए ज्यादा हैं, क्योंकि यह तुलनात्मक रूप से स्त्रियों के लिए ज्यादा सुविधाजनक जॉब है। लेकिन यहां भी मिडिल स्तर तक महिलाएं ज्यादा हैं। प्रमोशन के साथ ट्रांस्फर होता है, लेकिन वे घर से दूर नहीं जा सकतीं, बच्चों की ख्ातिर वे वीआरएस ले लेती हैं। हालांकि अब लडकियां महत्वाकांक्षी हैं। वे चुनौतियां ले रही हैं।

चुनौतियां कई स्तरों पर हैं

मुझे लगता है कि स्त्री को खुद को साबित करने के लिए डबल मेहनत करनी पडती है। स्त्री भी डरती है कि उससे कोई गलती न हो जाए। जब मैं हेड की भूमिका में आई तो शुरुआत में पुरुष सहकर्मी संदेह से देखते थे, लेकिन एक ही मीटिंग के बाद वे सहज हो गए। मुझे पता है कि काम कैसे होता है, उसकी प्रॉब्लम्स क्या हैं, इसलिए मैं उनके साथ सहज रह सकती हूं।

राह बनी खुद मंजिल

डॉ. वनिता अरोडा, एसोसिएट डायरेक्टर-हेड, इलेक्ट्रोफिजियोलॉजी मैक्स हॉस्पिटल, दिल्ली बचपन से मेरा सपना था कि डॉक्टर बनूं। पिता डॉक्टर थे, मां भी मेडिकल करना चाहती थीं, पर नहीं कर सकीं। यह उनकी इच्छा ही थी कि मैं डॉक्टर बन सकी।

ईसीजी में पहली लडकी

ईसीजी (इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफी) एक मुश्किल ब्रांच है, जिसमें बहुत मेहनत की जरूरत होती है। मैंने इसे चुनौती की तरह लिया। मुझसे पहले यह क्षेत्र पूरी तरह पुरुषों का था। दिक्कतें बहुत आई, पुरुष प्रधान क्षेत्र में एक अकेली स्त्री का होना ही समस्या है। बॉस, कलीग्स पुरुष थे। लोगों को लगता था, लडकी है, नहीं कर पाएगी, इससे मेहनत नहीं हो पाएगी, कभी सफल होती तो यह भी सुनने को मिलता कि किसी और ने मदद की होगी..। ख्ाुद को हर आलोचना से परे रखते हुए मजबूती और मेहनत के साथ डटे रहना काम आया। अगर मेरे पुरुष सहकर्मी चार घंटे काम करते तो मैं 12 घंटे करती, लेकिन खुद को साबित करती।

गाइड-मेंटर मिले

मैं पंजाब की हूं। पढाई के लिए दिल्ली आई। सच कहूं तो मुझे बहुत फेमिली सपोर्ट मिला। करियर में डॉ. जसबीर एस. स्रा के रूप में गाइड और मेंटर मिले, लेकिन वह भारत में नहीं, यूएस में मिले।

पारिवारिक मुश्किलें

शादी के सिर्फ नौ महीने बाद पति की दुर्घटना में मौत हो गई थी। तब से सिंगल हूं। ससुराल वालों ने सपोर्ट नहीं किया, माता-पिता के पास लौटी। पेरेंट्स और दो छोटे भाई मेरे सपोर्ट सिस्टम हैं। मैंने एक साल कार्डियोलॉजी में स्पेशलाइजेशन किया। मुश्किलों व आलोचनाओं ने मुझे मजबूत बनाया। अब मुझे 18-20 साल हो गए हैं करियर में। इस फील्ड में अब 2-3 लडकियां और हैं।

संतुलन बिठाना है बडी चुनौती

जूही चावला, अभिनेत्री

मैं अब घर-करियर की जद्दोजहद से काफी हद तक उबर चुकी हूं। मुझे लगता है हर स्त्री को कभी न कभी अपने परिवार को करियर से ज्यादा प्राथमिकता देनी पडती है। घर-बाहर संतुलन बिठाने की चुनौती तो सबके सामने आती है, लेकिन फिर एक समय के बाद वह दोनों को शांति से चला सकती है। मैं भी अब अभिनय की दूसरी पारी शुरू कर चुकी हूं। बच्चे भी कुछ बडे हैं तो परेशानियां कम हो गई हैं।

परिवार है प्राथमिकता

मैं अपने हिसाब से फिल्में चुनती हूं और उतना ही काम करती हूं, जितने में परिवार उपेक्षित न हो। फुर्सत में संगीत सीखती हूं, रियाज करती हूं। अपने बच्चों जाह्नवी और अर्जुन के साथ समय बिताती हूं। मेरा हमेशा से यही मानना रहा है कि मैं उतना ही काम करूंगी, जितने में मेरा परिवार भी ख्ाुश रहे और करियर भी ठीक रहे।

मेहनत तो सभी करते हैं

एक समय में सबको मेहनत करनी पडती है, मैंने भी की है। खूब काम किया और उसका अच्छा नतीजा भी मिला। लेकिन अब आराम से काम करने का वक्त है। जीवन में थोडा सुकून भी जरूरी है।

इंटरव्यू : मुंबई से अमित कर्ण, दिल्ली से इंदिरा राठौर

इंदिरा राठौर


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