Move to Jagran APP

अच्छा तो हम बदलते हैं..

ये कहां आ गए हम? ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन तक, रील से रीअल, ट्रंक कॉल्स से मोबाइल, दाल-रोटी से पास्ता, राशन की दुकानों से मॉल्स, एन्साइक्लोपीडिया से विकीपीडिया और लाइब्रेरी से गूगल तक.., हमारा जीवन पूरी तरह बदल चुका है। विकास की आंधी में बहुत कुछ मिला तो बहुत कुछ छूटा भी। तेज-रफ्तार जिंदगी के रोचक, रंगीन और खट्टे-मीठे अनुभवों का कोलाज ले आई हैं इंदिरा राठौर।

By Edited By: Published: Fri, 02 Aug 2013 12:23 AM (IST)Updated: Fri, 02 Aug 2013 12:23 AM (IST)
अच्छा तो हम बदलते हैं..

कोई सभ्यता इसलिए नहीं बचती कि वह बहुत ताकतवर या बुद्धिमान है, अंतत: वही सभ्यता जिंदा रहती है, जो बदलाव को सहर्ष स्वीकार करती है।

loksabha election banner

चा‌र्ल्स डार्विन

हर चीज बदलती है। आगे बढने का नाम ही जिंदगी है। कई बार हम खुद बदलना चाहते हैं तो कभी जीवन-स्थितियां हमें बदलती हैं। सच यह है कि अतीत के रथ पर सवार होकर हम भविष्य की फास्ट-ट्रैक लाइन पर जिंदगी की गाडी नहीं दौडा सकते। समय के साथ कदमताल करते हुए आगे बढना अनिवार्य है।

बदलाव का बाइस्कोप

पिछले तीस-चालीस वर्षो में कितना कुछ बदल गया! ब्लैक एंड व्हाइट तसवीरें रंगीन हो गई, खेत-खलिहान छूटे तो शहरों में गांव बस गए। पाठशाला में टाट-पट्टी-तख्ती वाले बच्चे स्मार्ट क्लास का हिस्सा हो गए। दाल-रोटी वाले घरों में इंटरनेशनल प्लैटर ने अपनी जगह बना ली। गर्मियों की छुट्टियां रंगबिरंगी चित्रकथाएं पढते या कैरम खेलते हुए नहीं, दूर कहीं खूबसूरत वादियों या टूरिस्ट प्लेसेज पर गुजरने लगीं। राशन की दुकान के मोटे चावल और सस्ती चीनी की जगह मॉल्स के लंबे-लंबे बिलों ने ले ली। चिट्ठी न कोई संदेश जैसे गाने पुराने हो गए। पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र और गली के नुक्कड पर लाल लेटर-बॉक्स एकाएक गायब हो गए। टेलीग्राफ सेवा भी बंद हो गई। ट्रंक कॉल्स बुक कराते-कराते हाथों में छोटा सा डिवाइस यानी सेलफोन आ गया..इसने हमारी दुनिया ही बदल दी।

कुछ बदला-कुछ छूट गया

नया कुछ स्वीकार्य तभी होता है, जब पुराने को छोडने की मंशा हो। ऐसा नहीं हो पाता तो मानव-सभ्यता त्रिशंकु बन कर रह जाती है। बदलाव हमेशा कुछ अप्रत्याशित लेकर आता है। कुछ बदलता है तो कुछ टूटता-बिखरता और छूटता भी है। हर बदलाव अच्छा हो, यह भी जरूरी नहीं। कई बार यह हमें चौंकाता है-हैरान करता है। कई बार लगता है, बदलाव एक भ्रम है, जो बाहरी स्तर पर दिख रहा है, भीतर से बदलाव आने में अभी देरी है। समाजशास्त्री डॉ. रितु सारस्वत कहती हैं, समाज जरूरतों के हिसाब से बदलता है, लेकिन ये जरूरतें लोगों को किस हद तक या कितना बदलेंगी, यह सटीक तौर पर नहीं कहा जा सकता। दरअसल हम बहुत स्वार्थी हैं। हम अपनी सोच को उतना ही बदलते हैं, जितने में वह हमारे लिए फायदेमंद हो..। आज समाज की दिशा व दशा मध्यवर्ग तय कर रहा है। लेकिन उसके मूल्यों में कितना बदलाव आया है? अगर सिर्फ स्त्रियों की बात करें तो लोगों में यह चेतना तो जरूर आई कि बेटियों को पढाएं, क्योंकि शिक्षा व करियर आज सबकी जरूरत है। लेकिन आज भी लडकी के लिए उसका घर-परिवार ही पहली प्राथमिकता है। बेटियां वही नौकरियां करें, जिनमें उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां प्रभावित न हों। हां, घूंघट और पर्देदारी कम हुई है और बाहरी दुनिया में उनका दखल बढा है, मगर ऑनर किलिंग, एसिड अटैक जैसी घटनाएं जताती हैं कि मेकअप करने से किसी का बाहरी चेहरा भले बदल जाए, वास्तविक शक्ल वही रहती है। उसे बदलने में अभी कई पीढियां लग सकती हैं।

सुविधा का बदलाव

बदलाव को सहज व सकारात्मक ढंग से लिया जाना चाहिए, कहती हैं, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ काउंसलिंग की चेयरपर्सन डॉ. वसंता आर. पत्रे। वह कहती हैं, हां, रिश्ते बदले हैं। उनमें भरोसा कम हुआ है, कंट्रोल करने की प्रवृत्ति बढी है, लेकिन यह स्वाभाविक है। शादी जैसी संस्था आज की तेज-रफ्तार जिंदगी से मेल नहीं खा रही है, क्योंकि जीवनशैली के हिसाब से इसमें कोई बडा बदलाव नहीं हो पाया। लिव-इन जैसे संबंधों का एक बडा कारण यही है कि शादी पुरानी पडने लगी है। लोग सुविधा के रिश्ते की ओर बढ रहे हैं। नैतिकता के आधार पर इसकी आलोचना नहीं की जा सकती, क्योंकि बदलाव के क्रम में कई चीजें बदलती हैं-टूटती हैं और बनती हैं। यह एक संक्रमण-काल है। सकारात्मक ढंग से सोचें तो बुरी शादी में जबरन रहने से अच्छा है लिव-इन में रहना। इसका नकारात्मक पक्ष है कि इसमें बच्चों की जिम्मेदारी स्पष्ट नहीं है। एक-दूसरे से अपेक्षाएं भी बढ जाती हैं और चूंकि इस व्यवस्था में टिकने की कोई शर्र्ते नहीं हैं तो अलग होने में भी देर नहीं लगती।

संख्या व गुणवत्ता का द्वंद्व

बदलाव की बात करें तो शिक्षा क्षेत्र की बात करना लाजिमी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज से अवकाश-प्राप्त प्रधानाचार्य डॉ. एस.सी. शर्मा कहते हैं, मैं शिक्षा में आए बदलावों का साक्षी रहा हूं। मैंने खुद इसके ढांचे को गिरते देखा। अपने समय में मैंने कभी यह महसूस नहीं किया कि कॉलेज जाकर मैंने कुछ खोया है। लेकिन अध्यापन के दौरान मैंने टीचर्स-स्टूडेंट्स के संबंध बदलते देखे, टीचर्स और शिक्षा की गुणवत्ता को घटते देखा है। मैं मानता हूं कि बहुत सारी चीजें बेहतर हुई हैं। लेकिन इस बदलाव में संख्या ज्यादा है-गुणवत्ता कम। पहले सभी सरकारी स्कूल्स में पढ कर बेहतर कर लेते थे, फिर प्राइवेट स्कूल्स की बाढ आई और सरकारी स्कूल्स की हालत बिगडती गई। वहां कभी शिक्षक नहीं होते तो कभी बच्चों के लिए जरूरी चीजें। प्राइवेट स्कूल्स का रुतबा बढ गया। आज बच्चा बिना ट्यूशन के पढ ही नहीं सकता, यह कैसा बदलाव है भाई?

बदलाव तो आया है..। जीवन के हर स्तर पर हम बदले हैं, मगर बदलाव सही और गलत दोनों दिशाओं में समान रूप से हुआ है। कहते हैं, विकास की कीमत चुकानी पडती है और बदलाव कई बार खुशी देता है तो कभी इससे निराशा भी होती है। मगर यह भी सच है कि कोई भी समाज रातों-रात नहीं बदल सकता। बाहरी बदलाव जितनी जल्दी होता है, मानसिक बदलाव उतनी तेजी से नहीं हो पाता। भारतीय समाज अभी इस आंतरिक बदलाव के रास्ते पर है, जहां से उसे इसकी दिशा तय करनी है।

बदलाव के इस बाइस्कोप में अभी और भी कई चित्र बाकी हैं, देखते रहिए आगे..।

सिनेमाई दुनिया में आई क्रांति

कहते हैं सिनेमा समाज का दर्पण होता है। समय के हर बदलाव को सिनेमा में देखा जा सकता है। पहले नायिकाएं प्रेमिका, पत्‍‌नी और मां बनकर ख्ाुश थीं, मगर आज वे लीड रोल में आ रही हैं। तकनीकी रूप से फिल्में बहुत बेहतर हुई हैं। आज भारतीय फिल्में ऑस्कर की होड में हैं। बॉलीवुड में रोजगार की संभावनाएं बढ गई हैं।

मोनोपोली खत्म हो गई है

आशा पारेख, अभिनेत्री

मुझे तो हिंदी सिनेमा का आज का माहौल ज्यादा भाता है। हमारे जमाने में नॉन-ग्लैमरस हीरोइंस बिलकुल नहीं चल पाती थीं, लेकिन आज ऐसी कई अभिनेत्रियां आगे बढ रही हैं, जिनमें टैलेंट है, भले ही वे उतनी ग्लैमरस न हों। सिनेमा के जरिये सत्य व वास्तविकता को तलाशने वाले कलाकारों और फिल्मकारों की एक बडी फौज तैयार हो चुकी है। हेल्दी कंटेंट वाली फिल्में बन रही हैं। हमारे समय में तकनीक बहुत कमजोर थी, मगर आज पिक्चर क्वॉलिटी और स्पेशल इफेक्ट में बेहतर तकनीक की झलक दिख रही है। सिंगल स्क्रीन थिएटर्स की जगह मल्टीप्लेक्सेज ने ले ली। इससे सिनेमा और ऑडिएंस की दशा व दिशा बदल गई है। बडे फिल्मकारों का एकाधिकार ध्वस्त हुआ और इंडिपेंडेंट फिल्मकारों के लिए जगह बनी। अब छोटे बजट की फिल्में भी हिट होने लगी हैं। हमारे समय के मुकाबले आज फिल्मों में अभिनेत्रियों की स्थिति मजबूत हुई है।

हमारा स्पेस बढा है

श्रद्धा कपूर, अभिनेत्री

आज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सबसे बडा बदलाव यह आया है कि यहां अभिनेत्रियों के लिए स्पेस बढा है। पुरुषों के एकाधिकार में कमी आई है। पहले की तरह अभिनेत्रियां शादी करके गायब नहीं हो रही हैं और न शादी से उनकी एक्सपायरी डेट तय हो रही है। जबकि पहले की नायिकाओं ने या तो जिम्मेदारियों के कारण संन्यास ले लिया या उनके पास ऑफ र आने बंद हो गए। जिन्होंने गैर-फिल्मी जीवनसाथी चुना, उन्हें भी पारिवारिक-सामाजिक दबाव में आकर इंडस्ट्री छोडनी पडी। पति लेखक, निर्माता या निर्देशक हुआ तो भी शादी के बाद हदें तय होने के साथ पाबंदियों का शिकंजा बढ गया। लेकिन अब दर्शक विवाहित अभिनेत्रियों को स्वीकार कर रहे हैं। महिला-केंद्रित फिल्में बन रही हैं। गैर-फिल्मी माहौल की लडकियों के लिए व्यवस्था बन रही है। सबसे अच्छी बात यह है कि अभिनेत्री को अभिनेता के बराबर ही समझा जा रहा है और उसे महत्वपूर्ण भूमिकाएं मिल रही हैं।

सुर, लय और तान का सफर

सीधी-सादी धुनें, सीमित वाद्य यंत्रों के साथ आवाज का जादू.. पुराने गाने आज भी मन को भाते हैं। बीच के दौर में संगीत ने अपनी मधुरता खोई, मगर अब नए प्रतिभाशाली गायकों, गीतकारों व म्यूजिक कंपोजर्स के चलते संगीत में प्रयोग हो रहे हैं। एक बार फिर से संगीत को कर्णप्रिय बनाने की कोशिशें जारी हैं।

विजुअल का प्रभाव ज्यादा

प्यारेलाल, संगीतकार

हाल के वर्र्षो में टीवी चैनल्स की बाढ और हर घर में इनकी अनिवार्य मौजूदगी के चलते संगीत में श्रव्य से अधिक दृश्य का प्रभुत्व हो गया है। जबकि संगीत कानों की चीज है-आंखों की नहीं। मैं अभी 92.7 बिग एफएम पर अन्नू कपूर के साथ पुराने संगीत की यादें साझा कर रहा हूं। मुझे लगता है कि संगीत अब सुनने से ज्यादा देखने की चीज हो गया है। धुन व शिल्प से अधिक उसका प्रस्तुतीकरण महत्वपूर्ण हो गया है। आधुनिक नृत्य की भाव-भंगिमाओं से दर्शकों को बांधने की मनोवृत्ति संगीत की रचनात्मकता पर बहुत भारी पडने लगी है। संगीत अब कालजयी नहीं रहता। गाने बनते हैं, अच्छे लगते हैं मगर कुछ दिन बाद गायब हो जाते हैं। विजुअल से लोगों को चमत्कृत करना ही इस तेज-रफ्तार जमाने में सफलता का शॉर्टकट बन गया है। चाहे पुराने गीतों के रीमिक्स का मामला हो या नए गीत, सभी इसी प्रवृत्ति से घिरे हुए हैं। हालांकि इसके बावजूद कभी-कभी बेहतरीन संगीत भी आ जाता है।

संगीत में प्रयोग बढे हैं

श्रेया घोषाल, गायिका

मुझे लगता है कि बॉलीवुड संगीत में विविधता आई है। हम रोज ही कुछ नया करते हैं, सीखते हैं। कई शैलियों में गा रहे हैं। मैं ऐसे गाने नहीं गा सकती, जिन्हें मैं सुन नहीं सकती। आज के समय में मुझे यही बात सकारात्मक लगती है कि संगीत में कई नई प्रतिभाएं सामने आ रही हैं। नए बच्चों की प्रतिभा से मैं हैरान हो जाती हूं। वे मेहनती, प्रतिभाशाली व आत्मविश्वास से भरपूर हैं। अब पेरेंट्स भी बच्चों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। हमारे समय में इतना प्रोत्साहन नहीं था। मेरे घर में भी मुझसे यही अपेक्षा थी कि मैं मेडिकल या इंजीनियरिंग में जाऊं। मुझे लगता है कि हर समय अलग होता है। आज के दौर में हर गायक-कंपोजर के दिल में यही हलचल है कि हम कुछ नया-अच्छा करें। कुछ अपने मन का करें। स्वतंत्र ढंग से कुछ करें। मेनस्ट्रीम में रहते हुए भी हम अलग कर सकते हैं। जैसे मैं बंगाली गाने, गजलें सब गा रही हूं। अपने अलबम ला रही हूं।

खानपान में पूरब-पश्चिम का मेल

दाल-रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ वाली हमारी पीढी कब पिज्जा-पास्ता वाली हो गई, पता ही नहीं चला। यही भारतीय संस्कृति की विविधता का परिचय है। हमने न सिर्फ दूसरों का खानपान अपनाया बल्कि दूसरों को भी अपनी रेसिपीज का मुरीद बनाया है।

ग्लोबल हो गई है फूड इंडस्ट्री

रितु डालमिया, दिवा, दिल्ली

मैं पिछले 20 सालों से फूड इंडस्ट्री में हूं। पुराने मेन्यू देखती हूं तो आश्चर्य होता है कि कितनी बदल गई है फूड इंडस्ट्री। पहले तो लोग बाहर खाना ही पसंद नहीं करते थे, यह फालतू खर्च लगता था उन्हें। मगर अब लोग अच्छे खाने पर खर्च कर रहे हैं। मार्केट की नीतियां-मांगें और शर्र्ते सब बदल गई हैं। रुचियां बदलीं, डिस्पोजेबल इन्कम बढी और साथ ही पैलेट्स बदल गए। यात्राएं और रोमांच बढा है लोगों की जिंदगी में। इसी से हमारे लिए चुनौतियां भी बढी हैं। मैंने भारतीय खाने को इंटरनेशनल टच दिया है तो ग्लोबल टेस्ट को ट्विस्ट करके भारतीयों की पसंद में भी ढाला है। जब भी बाहर जाती हूं, वहां के बेस्ट स्वाद को अपना लेती हूं और इटैलियन फूड में उसे जोड लेती हूं। जब मैंने इंडस्ट्री में पहला कदम बढाया था, स्थितियां इतनी अच्छी नहीं थीं। लोगों को शेफ व बावर्ची में कोई फर्क नहीं दिखता था। मेरे परिवार वालों को भी बुरा लगता था कि मैं शेफ का काम कर रही हूं। मगर आज युवा तेजी से फूड इंडस्ट्री में आ रहे हैं। क्योंकि यहां उन्हें चुनौतियों के साथ बेहतर करियर नजर आता है।

कॉमनवेल्थ की देन

शेफ राजकुमार गुप्ता, ली मेरिडियन, दिल्ली

वर्ष 2004 में पहली बार मैंने और कुछ दोस्तों ने सोचा कि कुछ अलग करना चाहिए। मुझसे पहले की पीढी डॉक्टर व इंजीनियर बनने के सपने देखती थी। स्कूल में करियर काउंसलिंग के दौरान मुझे बताया गया कि कॉमनवेल्थ गेम्स भारत का नक्शा बदल देंगे और फूड इंडस्ट्री तेजी से विकसित होगी। बस, यही बात मेरे मन में बस गई। होटल मैनेजमेंट कोर्स के लिए जब अहमदाबाद गया तो पहले ही दिन हाउसकीपिंग की टीचर ने झाडू थमा दी। अजीब सा लगा, लेकिन इसी सोच को बदलना था। वर्ष 2007 में नौकरी में आ गया। हमारी इंडस्ट्री पिछले एक दशक में ही प्रॉपर शेप में आई है। कॉमनवेल्थ के दौरान होटल्स बढे। चुनौतियां बढीं तो स्टैंडर्ड भी बढा। आज लोग डाइट को लेकर सचेत हैं। तली-भुनी भारतीय डिशेज की जगह यूरोपियन फूड भारतीय घरों में जगह बना रहा है। लोगों का ज्ञान बढा है। वे ब्लैक फॉरेस्ट केक भी ऑर्डर करते हैं तो पहले इंटरनेट सर्च करते हैं। उन्हें पता होता है कि उन्हें क्या चाहिए। यही चुनौती हमें बेहतर बनाती है।

बीमारियां बढीं तो सुविधाएं भी

बदलते दौर की व्यस्त जीवनशैली ने सबसे बुरा असर सेहत पर डाला है। सिटिंग जॉब्स और एक्सरसाइज की कमी से लाइफस्टाइल डिजीज बढी हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि अब सुविधाएं भी ज्यादा हैं। व्यक्ति अपनी हेल्थ की रेग्युलर मॉनिटरिंग कर सकता है। समय रहते इलाज करवा सकता है, बशर्ते जेब इजाजत दे।

उतार-चढाव से भरी यात्रा

डॉ. के.के. अग्रवाल, संस्थापक, हार्ट केयर फाउंडेशन, दिल्ली

हेल्थ सेक्टर में मुझे लगभग तीन दशक हो चुके हैं। इस बीच काफी उतार-चढाव देखे हैं मैंने इस क्षेत्र में। हमने जब शुरुआत की थी, स्मॉल पॉक्स, चिकन पॉक्स, पोलियो जैसी बीमारियां बडी चुनौती थीं। बीच के दौर में प्लेग, कुष्ठ रोग, टीबी और ड्रॉप्सी ने परेशान किया। आज हेल्थ सेक्टर बहुत एडवांस हो गया है, मगर एचआइवी/एड्स, बर्ड फ्लू, डेंगू, चिकनगुनिया और स्वाइन फ्लू जैसी चुनौतियां अभी हैं। लाइफस्टाइल संबंधी बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। ओबेसिटी, डायबिटीज, थाइरॉयड, ब्लड प्रेशर, कैंसर जैसी बीमारियां पहले कम दिखती थीं। लेकिन दूसरी ओर औसत उम्र बढी और शिशु मृत्यु-दर घटी है। गांवों में भी सुविधाएं बढी हैं। मेडिकल टूरिज्म को बढावा दिया जा रहा है। वर्ष 1947 में भारत में बमुश्किल कोई टेक्नोलॉजी दिखती थी, लेकिन आज यूएस में उपलब्ध टेक्नोलॉजी अगले तीन महीने बाद भारत में भी उपलब्ध होती है। यही स्थिति डिवाइसेज और मेडिसिंस की है।

लोग जागरूक हुए हैं

डॉ. उपाली नंदा, कंसल्टेंट, इंटर्नल मेडिसिन, रॉकलैंड हॉस्पिटल, दिल्ली

हाल के कुछ वर्षो में हेल्थ सेक्टर का प्राइवेटाइजेशन होने से यहां निश्चित रूप से अवसर बढे हैं लेकिन डॉक्टर्स के लिए चुनौतियां भी बहुत बढ गई हैं। आज मरीज जागरूक हैं। वे हमारे पास आते हैं तो हमें बीमारी व मेडिसिंस के बारे में हर जानकारी देनी होती है। इसके बाद भी वे गूगल सर्च करके क्रॉस-चेक करते हैं। ऐसे में हमारी जिम्मेदारी बहुत बढ जाती है। हमारे सामने आज सबसे बडी चुनौती डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, ओबेसिटी, स्वाइन फ्लू, ब्रेन फीवर, विटमिंस की कमी से निपटना है। लोगों की जीवनशैली बदली है, काम करने के तरीके बदले हैं, इससे युवाओं में बीमारियां बढ रही हैं। जबकि स्वास्थ्य सुविधाएं बडे शहरों में ही बढी हैं, छोटे शहरों-गांवों में नहीं। डॉक्टर्स गांवों में नहीं जाना चाहते, क्योंकि वहां उन्हें शहरों जैसी सुविधाएं नहीं मिल पातीं। इसके अलावा आज इलाज बहुत महंगा हो गया है। यह आम लोगों के बजट में नहीं समा पाता। ये सारी समस्याएं हमारे लिए चुनौती की तरह हैं।

फैशन का है जलवा

कुछ वर्ष पहले तक किसी कपडे के शो रूम या दुकान में जाते, थान कटवाते और दर्जी को दे देते थे, जो सिंपल सा सूट सिल कर दे देता। पर आज तो डिजाइनर लेबल वाले परिधान हैं यूनीक, ट्रेंडी, स्टाइलिश..। तो फिर फैशन में क्यों न रहा जाए!

मानसिकता बदलना चुनौती था

अंजना भार्गव, फैशन डिजाइनर

नब्बे के दशक में जब मैंने शोज करने शुरू किए थे, मेरे सामने कई चुनौतियां थीं। फैशन के बारे में तब लोग सोचते ही नहीं थे। बहुत कम डिजाइनर थे। प्रोफेशनल कंपिटीशन तो उतना नहीं था, लेकिन लोगों की मानसिकता को बदलना बडी चुनौती था। धीरे-धीरे फैशन इंस्टीट्यूट्स बढे, कंपिटीशन बढा। रेस का नियम है कि ताकतवर और तेज ही आगे निकलेगा। मेरे सामने भी चुनौतियां बढीं, खुद को लगातार अपडेट करना था, ट्रेंडसेटर बनना था। हालांकि मैं कोई बडी महत्वाकांक्षाएं लेकर इस फील्ड में नहीं आई थी, मैं बस काम एंजॉय करती थी। अपने क्रिएशन में मुझे आनंद मिलता था। मेरे लिए जर्मनी में हुआ स्प्रिंग-समर कलेक्शन शो यादगार रहा, जिसमें मुझे बहुत सराहना मिली। पीछे मुड कर देखती हूं तो फैशन इंडस्ट्री 20 सालों में पूरी तरह बदल चुकी है। फैशन की समझ बढी है और इसे स्वीकार्यता मिली है। लोग डिजाइनर्स का महत्व समझ रहे हैं। लेकिन यहां खुद को टिकाए रखने के लिए लगातार कुछ नया देने की शर्त तो है।

पॉजिटिव हुई है सोच

निदा महमूद, फैशन डिजाइनर

फैशन का फील्ड आज बहुत व्यापक हो चुका है। यह पूरी तरह आर्ट और क्रिएटिविटी का फील्ड है। मैं ख्ाुद कई अलग-अलग चीजें कर रही हूं और इसमें मुझे मजा आता है। पिछले सात-आठ सालों में लोग फैशन को लेकर जागरूक हुए हैं। इसे पॉजिटिव तरीके से ले रहे हैं। पहले ऐसा नहीं था, कुछ भी पहन लो, यही धारणा थी। अब हर चीज एक फैशन है। फैशन व्यक्तित्व को उभारता है, आत्मविश्वास देता है और सफलता के लिए भी यह एक जरूरी शर्त है। यह स्मार्ट और प्रभावशाली बनाता है। कोई यह नहीं कह सकता कि वह फैशन फॉलो नहीं करता। एक सिंपल ब्ल्यू शर्ट भी हम लेते हैं तो उसे कोई न कोई तो डिजाइन करता है। हर कपडा फैशन का हिस्सा है। फैशन इंडस्ट्री का भविष्य बहुत सुनहरा है। पिछले पांच-छह सालों में मॉल्स कल्चर के बाद तो इस दुनिया में हलचल सी आ गई है। यही वह समय है, जब भारतीय फैशन उद्योग ने तेजी से दुनिया में अपना प्रभाव फैलाया है। पूरा विश्व आज फैशन के लिए भारत की ओर देखने लगा है।

बदल गया घरों का इंटीरियर

पिता के जमाने में रिटायरमेंट के बाद घर बनाने के बारे में सोचा जाता था, हमारे जमाने में जॉॅॅब के तुरंत बाद इसकी जरूरत महसूस होती है। यह एक बडा फर्क आया है जीवन में। लेकिन नया घर भी पुराने घरों जैसा सिंपल नहीं रहा। यह मॉडर्न, हर सुविधा से युक्त हो गया है। इंटीरियर में तो कमाल का बदलाव आ गया।

तब कहां थी ऐसी सजावट

अमिता कंवर, डायरेक्टर, विंडो पैशंस

मुझे लाइफस्टाइल, खासतौर पर फैब्रिक के फील्ड में 20 साल से ज्यादा हो गए हैं। जब मैंने इंटीरियर में काम शुरू किया था, हम सारा सामान चावडी बाजार से लाते थे। हम एक दुकान में जाकर कपडा देखते और दर्जी को दे देते, वह अपने हिसाब से सिल देता। उच्च वर्ग ही इंटीरियर पर थोडा-बहुत पैसा खर्च करता था। जब हम थिएटर में पर्दे को ऊपर उठता देखते थे तो आश्चर्य होता था, जबकि आज नॉर्मल फ्लैट्स में भी रिमोट वाले ब्लाइंड्स दिखते हैं। इसी तरह कुशंस पर पहले एंब्रॉयडरी के कुछ गिने-चुने पैटर्न थे। एक ही फैब्रिक से पर्दे, कुशन, चादरें बन जाते थे, मगर आज फैब्रिक व डिजाइंस में कई नई चीजें आ रही हैं। रचनात्मकता बढी है। ड्रॉइंग रूम के साथ ही अन्य कमरों केडिजाइंस पर भी ध्यान दिया जा रहा है। स्टाइलिंग पर ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा है। पहले तो खास मौकों जैसे शादी-ब्याह के दौरान ही घर की सजावट पर ध्यान दिया जाता था, मगर अब ऐसा नहीं है।

व्यवस्थित हुआ है इंटीरियर राघव सिंह, इंटीरियर ब्रैंड लैनबिट्ज

मैं विंडो कवरिंग सिस्टम के लिए काम करता हूं। हालांकि मेरी पीढी के लिए मौजूदा वक्त थोडा सुस्त है। रिसेशन के कारण मार्केट बहुत स्लो है। लेकिन मेरा मानना है कि इस फील्ड में प्रोफेशनलिज्म बहुत बढ गया है। अब इंटीरियर के फील्ड में ज्यादा ऑर्गेनाइज्ड ढंग से काम हो रहा है। इसकी एक वजह यह है कि लोगों की इन्कम बढी है, ग्लोबल व‌र्ल्ड में दूरियां घटी हैं। इन सबका प्रभाव निश्चित रूप से रहन-सहन पर पड रहा है। लोगों के पास पैसा है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे खर्च करना सीख रहे हैं। वे अब अपनी लाइफस्टाइल को सुविधाजनक बनाने के लिए निवेश कर रहे हैं। अगर मैं ब्लाइंड्स की बात करूं तो कुछ साल पहले तक इतनी किस्में नहीं थीं। मुझे बिजनेस में पांच-छह साल हुए हैं। मैंने महसूस किया है कि लोगों को हर चीज डेकोरेटिव, डिजाइनर एवं स्टाइलिश चाहिए। फोकल पॉइंट पर लोग ध्यान दे रहे हैं। कई लोग ब्लाइंड्स पर स्वोरोस्की का काम कराना चाहते हैं।

इंटरव्यू : मुंबई से दुर्गेश सिंह और अमित कर्ण

इंदिरा राठौर


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.