Move to Jagran APP

ख्वाबों की ऊंची पतंग

ये बच्चे हर जगह हैं। इनकी आंखों में ढेरों सपने हैं। इनकी प्रतिभा के आगे तो बड़े भी नतमस्तक हो जाते हैं। ये सूरज की पहली किरण से मासूम हैं.. पंछियों सा आजाद उड़ता है इनका मन। इनके ख़्वाबों की पतंग बहुत ऊंची है और हौसलों की डोर को मजबूती से थामे हैं ये। उम्र में छोटे हैं तो क्या हुआ, काम तो इनके बड़े हैं। इन बच्चों से मिलें इंदिरा राठौर के साथ।

By Edited By: Published: Fri, 01 Nov 2013 02:45 PM (IST)Updated: Fri, 01 Nov 2013 02:45 PM (IST)
ख्वाबों  की ऊंची पतंग

केवल बच्चा ही स्थितियों और घटनाओं को स्पष्टता के साथ देखता है, इसलिए कि वह पूर्वाग्रहों से मुक्त है। उसके पास वे तमाम फिल्टर्स नहीं हैं, जो बडों को ऐसी चीजें देखने से रोकते हैं, जिन्हें वे देखना नहीं चाहते।

loksabha election banner

डगलस  एडम्स 

हर तरह के गाने गाना चाहती हूं

अंजना पद्नाभन डीपीएस, बैंगलोर में पांचवीं कक्षा की छात्रा हैं। इस दस वर्षीय बच्ची की दिल को छू लेने वाली मीठी-रेशमी सी आवाज ने इन्हें इस वर्ष इंडियन आइडल जूनियर का खिताब दिलाया है। बेहद विनम्र और हर बात पर थैंक यू बोलने वाली अंजना की खासियत है कि हर गाने को ये अपने ही मौलिक अंदाज से गाने की काबिलीयत रखती हैं। गाने की धुन कैसे सवार हुई, बता रही हैं वह हमें..

मेरे पापा को गाने का शौक है, हालांकि वे प्रोफेशनल सिंगर नहीं हैं। उन्हें सुनते-सुनते मेरा भी मन हुआ कि गाऊं। वैसे मैंने लगभग एक साल कर्नाटक म्यूजिक सीखा है और तीन महीने हिंदुस्तानी क्लासिकल। इसके अलावा कोई फॉर्मल ट्रेनिंग नहीं ली। मैं टीवी पर गाने वाले शोज देखती थी तो सोचती थी कि शायद कभी मैं भी इस तरह गा पाऊंगी। स्कूल के प्रोग्राम्स में गाती थी तो टीचर्स को मेरी आवाज  अच्छी लगती थी। मेरी टीचर ने कहा कि मैं इंडियन आइडल के लिए ट्राई करूं। हालांकि तब मुझे नहीं लगता था कि मैं जीत जाऊंगी। वहां सारे बच्चे बहुत अच्छा गाते थे। हम चार महीने मुंबई में रहे। रोज 2-3 घंटे रियाज  करते थे। मम्मी मेरे साथ थीं। यहां आकर मुझे पता चला कि माइक के सामने कैसे गाना चाहिए, कहां पर सांस लेनी चाहिए और कहां अपना अंदाज दिखाना चाहिए। सबने मेरी मदद की। जजेज ने भी मुझे बहुत सपोर्ट किया। जीतने के बाद मेरे जीवन में बहुत चेंज आया है। अभी मेरे पास केनेडा टीवी की ओर से एक शो में गाने का ऑफर भी है।

मेरे मम्मी-पापा ने मुझे कभी गाने से नहीं रोका, न कभी पढने के लिए दबाव डाला। मैं संगीत की ट्रेनिंग लेना चाहती हूं। जीतने के बाद मेरा आत्मविश्वास भी बढ गया है। मैं हर तरह के गाने गाना चाहती हूं। मुझे टेनिस, बैडमिंटन, स्विमिंग भी बहुत पसंद है। पहले मैं हिंदी ठीक से नहीं बोल पाती थी, पर इस शो में जाने के बाद मेरी हिंदी बहुत अच्छी हो गई है। बच्चों को अच्छा बनाने के लिए जरूरी  है कि उन्हें प्रसन्न बनाएं..।

ऑस्कर वाइल्ड 

पिछले दिनों करनाल (हरियाणा) के साढे पांच वर्षीय गूगल  ब्वॉय  कौटिल्य की चर्चा रही। छोटे से इस बच्चे को माता-पिता ने एटलस थमा दिया। शब्द भी ठीक से न पढ पाने वाले इस बच्चे के दिमाग  की हार्ड डिस्क में एटलस कुछ ऐसे फीड  हुई कि कहीं से कुछ भी पूछ लो-जवाब हाजिर! दुनिया के सभी देशों के नाम, राजधानियां, क्षेत्रफल, आबादी, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से लेकर वहां की मशहूर नदियों, पहाडों व लोगों तक के बारे में उसे जानकारी है। वह सौरमंडल के बारे में बता सकता है। इस अद्भुत बच्चे का कहना है कि अगर वह किसी सवाल का जवाब नहीं दे पाता तो उसे बुरा लगता है। ऐसा लगता है, मानो बच्चे के दिमाग में कोई चिप फिट है। उसे देख कर फिल्म रोबोट का रजनीकांत याद आता है, जिसके पास हर प्रश्न का सही जवाब होता है..।

यह बच्चा इसलिए पढ रहा है कि पढना उसे अच्छा लग रहा है। उस पर स्कूल का दबाव नहीं है, न वह अच्छे नंबरों की होड में शामिल है। उसका दिमाग अभी कई दुश्वारियों से परे है..। कई बार दिलचस्प चीजों का आनंद इसलिए नहीं मिलता क्योंकि वह कोर्स का हिस्सा होती हैं। जब कोई पुस्तक आनंद के लिए पढी जाती है, तो दिमाग पर यह बोझ नहीं होता कि इसे पढ कर परीक्षा भी पास करनी होगी। एक ओर है दबाव-दूसरी ओर है इच्छा, जिज्ञासा और आनंद।

सफलता का पैमाना क्या हो

क्या सफलता सौ प्रतिशत अंक लाने या मेडिकल-इंजीनियरिंग की परीक्षाएं पास करके लाखों-करोडों के पैकेज पा लेने में है? सफल विद्यार्थी तो वह भी है, जो मुश्किलों से जूझते हुए शिक्षा हासिल कर रहा है, जो हुनरमंद है, पढाई में अव्वल न सही-जिंदगी के अन्य स्तरों पर अव्वल है, जो साइंस, संगीत, कला, खेलकूद या अन्य क्षेत्रों में आगे बढ रहा है..। शिक्षा का मकसद महज आइएएस, डॉक्टर, इंजीनियर, एमबीए बनाना ही तो नहीं है।

हर साल बोर्ड परीक्षाओं में अव्वल रहे छात्रों के साक्षात्कार सचित्र प्रकाशित होते हैं, इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स को लाखों-करोडों का पैकेज मिलने की खबरें मिलती हैं..। सफलता के ये आंकडे क्या साबित करते हैं? क्या जो छात्र नब्बे-सौ प्रतिशत अंक नहीं ला पाते, वे सफल नहीं हैं या फिर सफलता का हमारा पैमाना संकुचित है?

कोई स्टूडेंट आविष्कार करना चाहता है, कोई खोज करना चाहता है, कोई गणितज्ञ बनना चाहता है, कोई संगीत-कला-नृत्य में नाम कमाना चाहता है तो कोई समाज-सेवा में जाना चाहता है। हर बच्चा अलग है-ख्ास है और इसीलिए हर बच्चा महत्वपूर्ण है। सफलता की कहानियां एकतरफा नहीं होनी चाहिए, क्योंकि विकास में हर कार्य का बराबर योगदान है। इसी से समाज में सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक संतुलन बना रहता है।

बडा बनने की होड

वॉल्ट डिजनी का कथन है, इस दुनिया की बडी मुश्किल यही है कि यहां ज्यादातर  लोग बडे हैं। मुश्किल यह भी है कि बच्चों की मासूम दुनिया पर भी यह बडापन हावी होता जा रहा है।

अर्पित दिल्ली के प्रतिष्ठित स्कूल में नवीं कक्षा के छात्र हैं। आर्ट-म्यूजिक में विशेष योग्यता है। माता-पिता चाहते हैं, वह साइंस पढें, जबकि अर्पित तो म्यूजिक बैंड बनाने की तैयारियों में जुटे हैं। पिछले दो-तीन वर्ष से म्यूजिक  सीख रहे हैं। नवीं कक्षा में आते ही उन पर दबाव बढ गया है। कहते हैं, कोई मेरी परेशानी नहीं समझता।

सीसीई सिस्टम से हमारी परेशानी कम नहीं हुई है। मम्मी-पापा को लगता है, पढाई के अलावा कहीं और ध्यान दूंगा तो ग्रेड पर असर पडेगा। मुझे 12वीं के बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी में एडमिशन कैसे मिलेगा? लगातार दबाव से मैं इतना तनावग्रस्त हुआ कि मुझे काउंसलिंग करानी पडी। मम्मी को लगता है कि पढाई पर ध्यान नहीं दे रहा और सिर्फ म्यूजिक कर रहा हूं। हम तीन-चार दोस्त मिल कर एक म्यूजिक बैंड बनाना चाहते हैं। पढाई जरूरी है, लेकिन जब मेरी तुलना 100 प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चों से की जाती है तो ऐसा लगता है मानो मैं नालायक हूं..।

प्रतिस्पद्र्धा में टिकना है जरूरी 

अर्पित की मम्मी अंजली सुधाकर कहती हैं, 12वीं तक पढाई पर ध्यान देना जरूरी  है। मैं अर्पित से कहती हूं कि संगीत सीखें मगर पहले करियर सुनिश्चित करें। हम मिडिल क्लास लोग इतना अफोर्ड नहीं कर सकते।

दिल्ली स्थित यूनीक साइकोलॉजिकल  सर्विसेज की मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. गगनदीप  कौर कहती हैं, 10वीं कक्षा में सीसीई सिस्टम लाने के पीछे मकसद था कि इससे बच्चों को पढाई बोझ न लगे और वे अन्य गतिविधियों में भी आनंद ले सकें। लेकिन इसे सही ढंग से लागू नहीं किया जा सका। टीचर्स क्लास के 45-50 बच्चों पर ध्यान नहीं दे सकते। निरंतर आकलन विकास व रचनात्मकता के लिए था, लेकिन बच्चों को लग रहा है कि इसमें उनकी परीक्षाएं कभी खत्म ही नहीं हो रही हैं। पढाई का बोझ कम करने के लिए कई अन्य प्रयास भी हो रहे हैं, लेकिन वे ख्ार्चीले हैं। दिल्ली में कुछ स्कूल्स में दो टीचर्स का कॉन्सेप्ट है। हालांकि यह व्यवस्था स्पेशल चाइल्ड के हिसाब से बनाई गई है। इसमें एक टीचर पढाती है जबकि दूसरी टीचर जरूरत पडने पर छात्र को मदद देती है। एक क्लास में 15-20 बच्चे होते हैं। टीचर्स का ख्ार्च पेरेंट्स की जेब से जाता है। एक कॉन्सेप्ट यह भी है कि स्कूल्स बच्चों से फीस लेते हैं, लेकिन उन्हें स्कूल में उपस्थित होने को बाध्य नहीं करते। बच्चे कभी-कभी स्कूल जाते हैं। इसके अलावा स्टडी फ्रॉम होम का कॉन्सेप्ट भी है। बच्चा स्कूल में एडमिशन नहीं लेता, डायरेक्ट सीबीएसई में रजिस्ट्रेशन कराता है। यह सुविधा बच्चों को मेडिकल आधार पर दी गई थी।

यह सच है कि स्कूल जाने से बच्चे का सर्वागीण विकास होता है, वह पढाई के साथ-साथ सामाजिक स्किल्स भी सीखता है, जबकि घर में रहने से बच्चे का चौतरफा विकास नहीं हो सकता। मेरा स्कूल्स को सुझाव है कि वे बच्चों को अलग-अलग ऐक्टिविटीज न देकर एक ऐक्टिविटी दें, ताकि बच्चे इसमें आनंद लें, इसे बोझ न समझें। एक समस्या यह भी है कि स्कूल्स में काउंसलर्स कम हैं। दिल्ली-एनसीआर के लगभग ढाई हजार स्कूल्स में से केवल 500 स्कूल्स में काउंसलर हैं। इससे बच्चों की सही काउंसलिंग नहीं हो पाती।

वैज्ञानिक, उर्दू कवि एवं ऐक्टिविस्ट  गौहर  रजा कहते हैं, शिक्षा की इस स्थिति के लिए राजनेता काफी हद तक जिम्मेदार  हैं। हमारे पूर्व नेता शिक्षा के तौर-तरीकों पर गंभीरता से विचार करते थे। पं. नेहरू का मानना था कि शिक्षा में वैज्ञानिक नजरिया जरूरी है। इसके लिए नेताओं, बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों व शिक्षाविदों को मिल कर काम करना होगा और शिक्षा को आधुनिक सोच से लैस करना होगा। हम उन देशों की स्थिति देख रहे हैं, जहां लोग समय के साथ नहीं बदले। आज उन देशों की स्थिति बुरी है। हमने शिक्षा को भी जातियों में बांट दिया है। मेडिकल या इंजीनियरिंग ऊंची जातियां हैं, बाकी इसके बाद हैं। यदि देश में आर्टिस्ट या इंजीनियर्स कम हो रहे हों तो बच्चों को उस दिशा में जाने को प्रेरित कर सकते हैं, लेकिन हम इनका वर्गीकरण तो न करें। देश को हर तरह का काम करने वाले लोग चाहिए।

शिक्षा का मकसद

भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का कहना है कि छात्रों को सही ज्ञान मिलना चाहिए। ज्ञान का अर्थ है रचनात्मकता, सदाचार और साहस। चिंतक जे. कृष्णमूर्ति अपने एक वक्तव्य में कहते हैं, क्या शिक्षा का अर्थ सिर्फ परीक्षा पास करना या नौकरी पा जाना है? इल्म का मामला इससे कहीं आगे है। शिक्षा दुनिया का सामना करने में बच्चे की मदद करे। संसार में चारों ओर प्रतिस्पद्र्धा है। सभी संघर्ष कर रहे हैं। सम्यक शिक्षा वह है जो हर जटिलता का सामना करने योग्य बनाए, ताकि व्यक्ति जीवन को समझ सके।

शिक्षाविद मीता मोहंती कहती हैं, मुझे लगता है, शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। सीबीएसई की सोच बहुत आगे की है, उनका दृष्टिकोण रचनात्मक है, लेकिन उसका क्रियान्वयन कैसे हो, इसे लेकर दुविधा और भ्रम की स्थिति है। हालांकि अब अल्टरनेट  स्कूल सिस्टम भी हैं, लेकिन ये कम हैं और इतने महंगे हैं कि आम माता-पिता की पहुंच से बाहर हैं। धीरे-धीरे ऐसे स्कूलों की तादाद बढेगी। स्कूलों कीलीडरशिप में भी चेंज लाना होगा। स्कूल एक पदानुक्रम  का पालन करता है। ऊपर से जो आदेश आता है, नीचे वाले उसका पालन करते हैं, जबकि होना यह चाहिए कि नीचे के लोग भी लीडरशिप से वैचारिक असहमति जता सकें। अकादमिक स्तर पर चेंज आया है लेकिन सिस्टम के स्तर पर अभी बदलाव आना है। बदलाव संस्था, व्यवस्था और नेतृत्व के स्तर पर लाना होगा।

प्रतिभा को स्वीकारें

एल्कॉन इंटरनेशनल स्कूल, मयूर विहार दिल्ली के प्रधानाचार्य डॉ. अशोक पांडे कहते हैं, हर बच्चा प्रतिभाशाली है, लेकिन उसकी प्रतिभा को स्वीकारना और उसका आकलन करना स्कूल की जिम्मेदारी है। इसके लिए कई स्तरों पर काम करने की जरूरत  है। स्कूल्स  का पाठ्यक्रम कैसा हो, उसका संचालन कैसे हो, उसके लिए मूलभूत सुविधाएं कैसे जुटाई जाएं। अकादमिक व शैक्षिक विकास के साथ ही बच्चे के रचनात्मक-कलात्मक, भावनात्मक और सामाजिक विकास की जिम्मेदारी  भी स्कूल की है। प्रोग्रेसिव स्कूल कॉन्सेप्ट  लाना होगा। समाज में कई तरह के काम हैं। समाज को जितनी जरूरत डॉक्टर या इंजीनियर की है-उतनी ही आर्टिस्ट, कार्पेटर, लेबर की भी है। समाज में सभी डॉक्टर या इंजीनियर हो जाएंगे तो बाकी काम कौन करेगा? इससे संतुलन बिगडेगा और विकास अवरुद्ध हो जाएगा। मेरा मानना है कि एक योग्य टीचर मिट्टी के ढेर से भी काम की चीजें  निकाल लेता है। बच्चों को बुद्धिमान बनाने के साथ ही उनमें सामाजिक स्किल्स पैदा करना हमारा मकसद है। एक शिक्षक को आगामी 20-30 साल बाद के समाज की कल्पना करनी चाहिए। यदि हम सुख-शांति, समृद्धि चाहते हैं तो पढाई के तौर-तरीकों में बदलाव लाना होगा, तभी एक बेहतर-संतुलित नागरिक की रचना हो सकेगी।

कहते हैं, बचपन हर गम  से बेगाना होता है। एक बेहतर समाज के लिए भी यह जरूरी  है कि बचपन को सदा प्रसन्नचित्त रखा जाए। उसे खेलने को विस्तृत मैदान व उडने को ख्ाुला आसमान मिले, ताकि उसके सपनों की पतंग बेखौफ उडना सीख सके। पतंग की डोर माता-पिता, शिक्षक व समाज के हाथों में है। वे बच्चे की पतंग को सही दिशा में उडना सिखाते हैं, उसे भटकने से बचाते हैं। डोर मजबूत होगी, तभी पतंग हर मुकाबले को पार कर ऊंची उड सकेगी।

कुकिंग बच्चों का खेल नहीं

खाना बनाना इनका शौक ही नहीं-रोजगार भी है। ये हैं देहरादून के सार्थक, जो स्टार प्लस के जूनियर मास्टर शेफ में टॉप 10 कंटेस्टेंट  हैं। सेवन लेयर्स रेनबो केक के लिए फ्लेवरे-आजम के खिताब के साथ इन्हें मिला शेफ हेड, साथ में 50 हजार का नकद इनाम भी। ये आठवीं कक्षा में पढते हैं और स्कूल के बाद अपनी मम्मी के मैगी पॉइंट पर उनका हाथ बंटाते हैं। कुकिंग की आर्ट कैसे सीखी, बता रहे हैं हमें-

मेरी मां देहरादून में आंगनबाडी शिक्षिका हैं। पापा नहीं हैं। मां ने ही मेरे और छोटे भाई की परवरिश की है। मैंने शुरू से घर के कामों में मां का हाथ बंटाया है। मम्मी सुबह 9 से 12 तक आंगनबाडी में रहती हैं और इसके बाद हम घर के पास ही एक छोटा सा मैगी पॉइंट चलाते हैं। छुट्टी वाले दिन मैं अकेले ही उसे संभालता हूं। मैं पहले बहुत इंट्रोवर्ट था, लेकिन यहां आकर मेरे कई दोस्त बने। शूटिंग के बाद हम लोग खूब मस्ती करते हैं। अब तो मुझे कई नए इन्ग्रीडिएंट्स के बारे में पता चल गया है। मैंने यहां आकर जाना कि अगर कोई डिश खराब बन जाए तो उसे ठीक करने के लिए क्या करना चाहिए। यहां हमें रोज किसी न किसी चुनौती का सामना करना होता है। अब जाकर समझ आता है कि हम मम्मी से कुछ भी खाने की फरमाइश कर देते हैं, मगर कुकिंग कितनी मुश्किल चीज है। मेरी फेवरिट डिश इटैलियन कॉर्न और सोया पिज्जा है। वैसे मुझे लिट्टी-चोखा बनाना भी बहुत पसंद है। कुकिंग मेरी हॉबी है और पैशन भी। हालांकि बडा होकर मैं आर्मी में जाना चाहता हूं। देहरादून में हमारे घर के पास कैंट एरिया है, वहां आर्मी के जवानों को देख कर मेरा भी मन करता है कि आर्मी में जाऊं।

मेघ बरसें और सब पर बरसें

क्या लडकियां वाकई साइंस से दूर भागती हैं? बादलों को एक से दूसरी जगह ले जाने और एक्सपायरी दवाओं के कलर चेंज का आइडिया देने वाली श्वेता शर्मा के सपने तो साइंस से ही जुडे हैं। उन्हें इस वर्ष भारत सरकार के साइंस और टेक्नोलॉजी विभाग राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान (एनआईएफ) की ओर से काइट फ्लाइंग आइडिया अवॉर्ड मिला है। जरा देखें, इनके ख्वाबों की पतंग कितनी ऊंची है-

जब मैं नवीं कक्षा में थी, स्कूल से मुझे एक असाइनमेंट मिला था, जिसमें घर में रखी दवाओं के लेबल और एक्सपायरी डेट्स देखनी थीं। मैंने पाया कि कई दवाएं एक्सपायरी डेट के बावजूद घर में मौजूद थीं। मुझे आश्चर्य हुआ कि शिक्षित लोग भी लापरवाही कर सकते हैं! तब मुझे लगा कि ऐसा तरीका खोजा जाना चाहिए कि लोगों को पता चल सके कि दवा एक्सपायरी है। इसी बात ने मुझे आइडिया दिया। मुझे लगा कि क्यों न ऑटोमेटिक कलर चेंज से दवाओं के एक्सपायरी होने का पता चल सके। इस खोज के लिए मुझे वर्ष 2011  में आइजीएनआइटीई अवॉर्ड मिला।

पंजाब में कम वर्षा और ठीक उसी समय असम में बाढ की स्थिति जैसी ख्ाबरें भी मुझे परेशान करती थीं। मुझे लगा काश कुछ ऐसा हो पाता कि असम से बादलों को पंजाब तक लाया जा सकता और दोनों जगह बारिश समान रूप से होती। रीलोकेशन ऑफ क्लाउड्स आइडिया के लिए इस साल मुझे पुरस्कार मिला। यह पुरस्कार मुझे ऊर्जा व पर्यावरण श्रेणी के तहत राष्ट्रपति भवन दिल्ली में मिला। साइंस में आगे बढने की प्रेरणा मम्मी-पापा सहित टीचर्स से मिली। अभी मैं 11वीं कक्षा में हूं और मेरा फेवरिट सब्जेक्ट केमिस्ट्री है। आगे मैं क्वांटम थ्योरी में रिसर्च करना चाहती हूं। इस क्षेत्र में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। मुझे लगता है, हमारे यहां प्रैक्टिकल्स पर कम ध्यान दिया जाता है, जबकि जीवन में यही काम आता है। यहां इक्विप्मेंट्स की कमी है और अच्छे लैब कम हैं, इन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। साइंस के अलावा मुझे म्यूजिक और क्रिकेट पसंद है। विराट कोहली मेरे पसंदीदा क्रिकेटर हैं। फेसबुकिंग करती हूं, लेकिन अब मुझे नेटसर्फिग करना और अपने विषय को गहराई से पढना ज्यादा पसंद आने लगा है।

जीवन की पाठशाला

पैदा होते ही मां ने उसे दूसरे की गोद में डाल दिया, क्योंकि वह उसे नहीं पाल सकती थी, पिता ने जिम्मेदारियों से पल्ला झाड लिया, पैसे नहीं थे, इसलिए पढ नहीं सका, रोज कई किलोमीटर चल कर एक मंदिर में जाता था ताकि खाना मिल सके, वही शख्स एक दिन मिसाल बन गया। उसने दुनिया को अपनी मुठ्ठी में किया। ये थे स्टीव जॉब्स, जिन्होंने साबित किया कि गुदडी में भी लाल छिपे होते हैं। स्टीव ने बचपन में कोल्ड ड्रिंक्स की ख्ाली बोतलें बेच कर खाने के लिए पैसा जुटाया, लेकिन एक दिन उन्होंने एप्पल जैसी कंपनी खडी की। हालांकि उसी कंपनी से कुछ समय के लिए उन्हें निकलना भी पडा। स्टीव कहते थे, आपके पास सीमित समय है, किसी और की जिंदगी मत जिओ, औरों की सोच के हिसाब से जीने के बजाय दिल की आवाज सुनो।

माइक्रोबायोलॉजी में रिसर्च करना चाहती हूं

लुका-छिपी की उम्र में मोटी-मोटी साइंस की किताबें थामने वाली सुषमा वर्मा के सपनों की पतंग बहुत ऊंची है। महज 13 वर्ष की सुषमा अभी लखनऊ विश्वविद्यालय से माइक्रोबायोलॉजी में एम.एससी. कर रही हैं। इतनी कम उम्र में पोस्टग्रेजुएशन करने के कारण इनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉ‌र्ड्स में दर्ज है। इनके भाई ने भी नौ साल की उम्र में हाईस्कूल उत्तीर्ण कर लिया था। सुषमा मेडिकल लाइन में जाना चाहती थीं। हो सकता है रिसर्च के बाद नाम के आगे डॉक्टर लग जाए।

पढने का शौक तो बचपन से था मुझे। सात साल की उम्र में हाईस्कूल कर लिया था। इसमें मेरे भाई और टीचर्स ने बहुत मदद की। मेरे भाई ने भी लगभग नौ साल की उम्र में हाईस्कूल पास कर लिया था।

मेरी क्लास में सभी मुझसे काफी बडे हैं। थोडा अजीब तो लगता है, लेकिन सब मुझे सहयोग देते हैं। मेरा सपना था- सीपीएमटी का एग्जैम देकर डॉक्टर बनना। लेकिन भविष्य में मौका मिला तो मैं रिसर्च करना चाहूंगी। वैसे तो मैं अपनी उपलब्धियों से बहुत ख्ाुश हूं, मगर कभी-कभी कुछ लोग ऐसे भी मिलते हैं, जो मेरी सफलता को संदेह की नजर से देखते हैं, तब मैं दुखी हो जाती हूं। अपनी सफलता के लिए मैं अपने भाई के प्रति बहुत कृतज्ञ हूं। आज जो भी हासिल कर सकी हूं, इसमें उनका बडा हाथ है।

पढाई का दबाव तो अब बहुत ज्यादा है, इसलिए खेलने के लिए मेरे पास समय कम है। लेकिन जब भी फुर्सत मिलती है, मां के साथ बैडमिंटन खेलना और किचन में उनका हाथ बंटाना मुझे अच्छा लगता है। मेरी एक छोटी बहन भी है, उसके साथ भी रहना मुझे खुशी देता है। मैं ईश्वर पर अटूट विश्वास रखती हूं, लेकिन पूजा-पाठ नहीं करती। हालांकि मुझे रामायण पढना पसंद है।

इंटरव्यू :  दीपा श्रीवास्तव, लखनऊ

कमाल की ये लडकियां

1.  रानी रामपाल, यह नाम है उस लडकी का, जिसने इस वर्ष जर्मनी में आयोजित जूनियर विश्व हॉकी कप में कांस्य पदक जीता है। इसके पूर्व वर्ष 2009 में हुए एशिया कप में उन्होंने रजत पदक हासिल किया था। हरियाणा के शाहबाद की रानी के पिता ठेला खींचते हैं।

2.  उत्तर प्रदेश में बांदा के एक छोटे से गांव कीलडकी ज्ञान देवी ने शिक्षा की अलख जगाई है। मां नहीं है और पिता थोडी बहुत खेती करके घर चलाते हैं। तीन बहनों और दो भाइयों में से किसी ने स्कूल का मुंह नहीं देखा। लेकिन अपनी धुन की पक्की ज्ञान ने न सिर्फ 12वीं की परीक्षा दी, बल्कि अब वह ग्रेजुएशन करने के लिए रोज नदी पार करके कॉलेज जाती है। क्योंकि वहां तक पहुंचने के लिए न कोई पुल है और न ही नाव। ज्ञान का सपना है कि वह अपने गांव में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करे।

3.  झारखंड के गुमला जिले की 17 वर्षीय सरस्वती ने बाल विवाह को रोकने का साहस दिखाया है। लगभग डेढ वर्ष पूर्व 16 वर्ष की आयु में ही माता-पिता ने इसका विवाह करना चाहा। सरस्वती ने इसका विरोध किया और प्रशासन तक यह बात पहुंचाई। आज वह पढाई कर रही है और अपनी जैसी अन्य लडकियों को पढा रही है। पिछले वर्ष उसे राज्यपाल ने सम्मानित किया, साथ ही इस वर्ष यूनिसेफ उसके माध्यम से राज्य के ग्रामीण इलाकों में बाल-विवाह के खिलाफ मुहिम चला रहा है। इसके लिए सरस्वती को झारखंड का आइकॅन बनाया गया है।

रागों की दुनिया में खो जाता हूं मैं

साढे तीन वर्ष की उम्र में मोहन वीणा बजाने और 45 राग पहचानने वाले सात्विक भट्ट का नाम लिम्का  बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिकॉ‌र्ड्स में दर्ज है। वह मोहन वीणा के सर्जनकर्ता पंडित विश्वमोहन भट्ट के पोते और सात्विक वीणा वादक सलिल भट्ट के सुपुत्र हैं। दादा जी और पिता के साथ देश-विदेश में कंस‌र्ट्स करते हैं और कई सोलो प्रेजेंटेशन दे चुके हैं। दसवीं कक्षा में पढने वाले सात्विक का मानना है कि संगीत की राह आसान नहीं है।

मोहन वीणा मुझे दादा जी ने ही सिखाई। अब मुझे गिटार बजाना ज्यादा पसंद है। वैसे मैं कीबो‌र्ड्स भी बजाता हूं और ड्रम्स  सीखना चाहता हूं। मैं जयपुर के महाराजा सवाई मान सिंह विद्यालय में दसवीं कक्षा में पढता हूं। इस साल पढाई का दबाव ज्यादा है, फिर भी थोडी देर रियाज जरूर करता हूं। वैसे तो दादा जी और पापा अपने कंस‌र्ट्स  के लिए ज्यादातर  बाहर रहते हैं। लेकिन दादा जी जब जयपुर में होते हैं तो स्कूल की छुट्टी के बाद मुझे साथ में बिठा लेते हैं और सिखाते हैं। स्कूल में मिलन सर म्यूजिक टीचर हैं, जो पापा के स्टूडेंट रहे हैं, मैं उनसे भी संगीत की छोटी-छोटी बारीकियां सीखता हूं। मैंने कई कंस‌र्ट्स में बजाया है। दादा जी और पापा के साथ तो मैं आराम से बजा लेता हूं लेकिन जब कभी अकेले बजाना होता है तो थोडी नर्वसनेस  होती है। पिछले साल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में दादा जी को पहले मोहन वीणा बजानी थी। लेकिन एंकर ने सबसे पहले मेरे नाम की घोषणा कर दी तो मुझे ही स्टेज पर आना पडा। मुझे बहुत घबराहट हो रही थी। दादा जी स्टेज पर होते हैं तो एक मॉरल सपोर्ट बना रहता है। वैसे हर प्रोग्राम से पहले थोडा बेचैनी और घबराहट होती है, लेकिन जब बजाना शुरू कर देता हूं तो घबराहट भी कम होने लगती है। फिर तो मैं संगीत की दुनिया में खो जाता हूं। मुझे राग बिहाग सबसे ज्यादा पसंद है। इसे मैंने बचपन में सीखा था। फिल्मी गाने भी बजाता हूं। मुझे फिल्म बॉडीगार्ड का तेरी-मेरी प्रेम कहानी और भाग मिल्खा भाग का ओ रंगरेज बहुत पसंद है। ऐसे गानों में हम अपने हिसाब से थोडा चेंज कर सकते हैं। संगीत का क्षेत्र बहुत समर्पण, मेहनत और जुडाव की मांग करता है। रोज रियाज  जरूरी है। मैं इसे करियर नहीं, अपना पैशन बनाना चाहता हूं।

जज्बा हो तो विजय जैसा

फूलमालाएं बेच कर गुजारा करने वाले परिवार के इस बच्चे का मन फूल जैसा ही मुलायम है। पांच भाई और तीन बहनों वाले इस परिवार में पिता का साया नहीं है और भाई फूल बेच कर गुजारा करते हैं। कानपुर के पास एक गांव में दसवीं कक्षा के छात्र विजय को पिछले वर्ष राष्ट्रपति भवन में वीरता पुरस्कार से नवाजा गया, क्योंकि इन्होंने अपनी जान की परवाह न करके तीन बच्चों की जान बचाई थी। कहते हैं विजय, मैं उस दिन नहर के किनारे जा रहा था। यह काफी गहरी नहर थी। मैंने देखा कि ऊंचे पिलर्स से कुछ बच्चे नहर में कूद रहे हैं। मैंने उन्हें रोकना चाहा, मगर वे नहीं रुके। थोडी ही देर में बच्चे डूबने लगे और चिल्लाने लगे। मुझे तैराकी आती थी। मैं नहर में कूदा और तीन बच्चों को बचा कर बाहर निकाला। मुझे अफसोस है कि तीन अन्य बच्चों को मैं नहीं बचा सका। विजय आगे पढना चाहते हैं, लेकिन कहते हैं, हम बहुत गरीब हैं। मैं पढाई में अच्छा हूं। नवीं कक्षा में मेरे सत्तर फीसद मा‌र्क्स  आए हैं। इंटर करने के बाद कुछ काम करूंगा, ताकि परिवार को चला सकूं..।

इंदिरा राठौर

सखी प्रतिनिधि


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.