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दूसरी पारी की दमदार तैयारी

अब वो जमाना नहीं रहा, जब लोग उम्र के चौथे पड़ाव के बारे में सोच कर घबराते थे। आज अपनी दूसरी पारी को लेकर लोग बेहद संजीदा हैं। उनके लिए बुढ़ापा बोझ नहीं, बल्कि सुकून भरा पड़ाव है। लोगों की सोच और जीवनशैली में यह सकारात्मक बदलाव कैसे आ रहा है, उम्र के इस दौर को ख़्ाुशनुमा बनाने के लिए उनकी क्या कोशिशें होती हैं, आज के बुजुर्ग देश और समाज के बारे में क्या सोचते हैं, कुछ मशहूर शख्सीयतों और विशेषज्ञों के साथ इस बदलाव से जुड़े विविध पहलुओं का विश्लेषण कर रही हैं विनीता।

By Edited By: Published: Thu, 03 Oct 2013 11:21 AM (IST)Updated: Thu, 03 Oct 2013 11:21 AM (IST)
दूसरी पारी की दमदार तैयारी

उम्रेदराज  मांग के लाए थे चार दिन, दो आरजू में कट गए दो इंतजार में..

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आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का यह खूबसूरत  शेर हमारी जिंदगी के फलसफे के बारे में बहुत कुछ कह जाता है। वक्त  मुट्ठी से रेत की मानिंद खिसकता जाता है। फिर एक ऐसा दौर आता है, जब मुट्ठी खाली  होने की चिंता सताने लगती है, लेकिन समय के साथ लोगों ने अपनी खाली मुट्ठी में खुशियों को दोबारा समेटना सीख लिया है। यह बहुत बडा सामाजिक बदलाव है। आज की व्यस्त जीवनशैली में लोग ज्यादा  ऐक्टिव हैं। उन्हें मालूम है कि सिर्फ चिंतित होने से समस्या का कोई हल नहीं निकलेगा। इसी वजह से अब वे भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए पहले से ही योजना बनाकर चलते हैं। अब उनके लिए रिटायरमेंट हौवा नहीं रह गया, बल्कि इसके बाद वे जिंदगी की दूसरी पारी को पूरी जिंदादिली से जीने की तैयारी करते हैं।

बढ रही है सजगता

आज लोग उम्र के चौथे पडाव को लेकर बेहद संजीदा हैं। अब उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती कि बुढापा कैसे कटेगा? आज के मिडिल एज लोगों को यह मालूम है कि उन्हें अपने भविष्य की तैयारी किस तरह करनी है। इस संबंध में वरिष्ठ नागरिकों के हितों के लिए काम करने वाली संस्था एजवेल  फाउंडेशन के अध्यक्ष हिमांशु रथ कहते हैं, स्वास्थ्य सुविधाओं में आने वाले सुधार की वजह से पिछले 20  वर्षो में भारतीय लोगों की औसत आयु तेजी से बढ रही है। पिछली पीढी की मुश्किलों भरी जिंदगी देखकर आज के मिडिल एज  लोग सचेत हो गए हैं। वे अपने बुढापे को आरामदायक और सुरक्षित बनाने की तैयारी में अभी से ही जुट गए हैं। उनकी इस तैयारी में बाजार भी उनका साथ दे रहा है। बैंक बुजुर्गो के लिए निवेश की कई आकर्षक योजनाएं लेकर आ रहे हैं। बिल्डर्स उनकी जरूरतों के अनुकूल आरामदायक फ्लैट्स  बना रहे हैं। अब लोग यह समझ गए हैं कि अपने भविष्य के लिए उन्हें पहले से ही तैयारी करनी होगी।

व्यावहारिक होता समाज

भारतीय समाज बहुत तेजी से बदल रहा है। लोगों की सोच पर भी इसका असर दिखाई देने लगा है। इस संबंध में जेएनयू  की समाजशास्त्री डॉ. रेणुका सिंह कहती हैं, पुराने समय में माता-पिता पहले से यह मानकर चलते थे कि बुढापे में संतान ही हमारी देखभाल करेगी। इसलिए अभी से भविष्य के बारे में क्या सोचना? ..लेकिन वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया है। संयुक्त परिवार तेजी से टूट रहे हैं। एकल परिवारों में रहने वाले वाले दंपतियों को इस सच्चाई का एहसास होने लगा है, जब हम माता-पिता से अलग रहते हैं तो अपने बच्चों से ऐसी उम्मीद कैसे पाल सकते हैं कि बुढापे में वे हमारे साथ रहेंगे। इसीलिए आजकल लोग पहले की तुलना में ज्यादा व्यावहारिक ढंग से सोचते हैं। पहले बुजुर्ग यह मानते थे कि हमारी सारी जायदाद और जमा पूंजी बच्चों की अमानत है। हमें बुढापे में उन्हीं के साथ रहना है। यही सोचकर वे पहले से ही सब कुछ अपने बेटे-बेटियों के नाम कर देते थे, लेकिन आज के बदलते हालात को देखते हुए ऐसा करने के बजाय वे भविष्य की आर्थिक सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं। उन्हें मालूम है कि हमें अपना सारा खर्च  खुद  ही उठाना होगा। इसीलिए वे पहले से ही अपना मेडिकल इंश्योरेंस करवाते हैं। आजकल ज्यादातर  लोग प्राइवेट सेक्टर में जॉब करते हैं। इसलिए वे किसी ऐसी योजना के तहत निवेश करते हैं, जिससे उन्हें प्रतिमाह निश्चित रकम मिलती रहे।

बदलाव की बयार

आजकल ज्यादातर मध्यवर्गीय  परिवारों के बच्चे स्कूल की पढाई खत्म  होने के बाद उच्च शिक्षा और करियर  के लिए दूसरे शहरों में चले जाते हैं। ऐसे में आज के पेरेंट्स  पहले से ही इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार रहते हैं कि अब हमें अकेले ही रहना होगा। अब वो जमाना नहीं रहा कि युवा संतानों को हर कदम पर माता-पिता के मार्गदर्शन की जरूरत पडे। आज के पेरेंट्स को भी पूरा विश्वास है कि उनके बच्चे सही निर्णय लेने में सक्षम हैं। इसलिए आज के पेरेंट्स अपनी संतान के जीवन में न्यूनतम हस्तक्षेप की नीति अपनाते हैं और  खुद  को काफी हद तक निश्चिंत महसूस करते हैं। एक खास  उम्र के बाद वे अपने लिए और अपने ढंग से जीना पसंद करते हैं।

इस संबंध में डॉ. रेणुका सिंह आगे कहती हैं, एक दौर ऐसा भी था जब संयुक्त परिवारों के टूटने की वजह से लोग बहुत चिंतित थे, पर पिछले दो दशकों में भारतीय बुजुर्गो ने इस बदलाव के साथ बहुत अच्छी तरह एडजस्ट  करना सीख लिया है। अब वे आत्मनिर्भर और संतुष्ट हैं। अपनी खुशियों के साथ कोई समझौता नहीं करते। उनका सामाजिक दायरा विस्तृत है। इसलिए उनके जीवन में अकेलापन और उदासी जैसे शब्दों के लिए कोई जगह नहीं है।

उम्र का खूबसूरत  दौर

शादी के बाद लोग घर-गृहस्थी और बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारियों के साथ इतने व्यस्त होते हैं कि उन्हें पल भर के लिए भी अपनी ख्ाुशियों और सपनों के बारे में सोचने की मोहलत नहीं मिलती। जीवन के पच्चीस-तीस साल बच्चों का होमवर्क  कराते, उनके लिए अच्छा कोचिंग इंस्टीट्यूट और परफेक्ट  लाइफ पार्टनर तलाशते हुए यूं ही निकल जाते हैं। पीछे मुडकर देखने पर ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो। जब संतानें अपनी गृहस्थी में रम जाती हैं, तब माता-पिता को अपना खयाल  आता है कि अब तो थोडा सुस्ता लें, चाय की चुस्कियों के साथ थोडा गपशप करें, साथ बैठकर पुराने एलबम के पन्ने पलटें, कहीं घूमने निकल जाएं..ऐसी छोटी-छोटी खुशियों  की एक लंबी फेहरिस्त है, जो उन्हें एहसास दिलाती है एक-दूसरे के साथ होने का। उनके लिए यह अनुभव कुछ वैसा ही होता है, जिस तरह पंछियों का जोडा बडे जतन से अपने नन्हें बच्चों की हिफाजत करता है, लेकिन पंख निकलते ही वे फुर्र से उड जाते हैं और कहीं दूर जाकर अपने लिए नया घोंसला बनाते हैं। मनोवैज्ञानिक मिडिल एज  दंपतियों की इस मनोदशा को एंप्टी नेस्ट  सिंड्रोम  का नाम देते हैं। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार विचित्रा दर्गन  आनंद कहती हैं, ऐसी स्थिति में उन्हें कुछ समय के लिए थोडा अकेलापन जरूर महसूस होता है, पर वे जल्द ही नए सिरे से संवार कर अपनी जिंदगी को बेहद खुशनुमा  बना लेते हैं। फिर वे दोबारा उन्हीं दिनों को जीने लगते हैं, जब उनके बच्चों का जन्म नहीं हुआ था। किसी भी दंपती  के लिए यह बेहद खूबसूरत  दौर होता है, जब वे सही मायने में एक-दूसरे के दोस्त बन जाते हैं।

पीढियों का घटता फासला

आज के बुजुर्ग दंपती  न केवल एक-दूसरे के अच्छे दोस्त हैं, बल्कि वे युवा पीढी की तरफ भी दोस्ती का हाथ बढा रहे हैं। आपने भी यह महसूस किया होगा कि खानपान और रहन-सहन के तौर-तरीके में आने वाले बदलाव को जो लोग सहजता से अपनाते हैं, युवा पीढी को उनका साथ बहुत पसंद आता है। अपने नाती-पोतों के साथ बडी आसानी से उनका दोस्ताना रिश्ता बन जाता है। इसके विपरीत जो लोग अपने जमाने की दुहाई देते हुए हमेशा एक ही जुमला दुहराते हैं, बहुत बिगड गए हैं आज के बच्चे, हमारे जमाने में तो ऐसा नहीं होता था, ऐसे लोगों से युवा पीढी कतराने लगती है। अब पुरानी पीढी को इस सच्चाई का एहसास हो गया है कि खुश  रहने के लिए वक्त  के साथ कदम मिलाकर चलना बहुत जरूरी है। ऐसा नहीं करने पर हम बहुत पीछे और अकेले छूट जाएंगे।

जीवन चलने का नाम

अगर पिछले दो-तीन दशकों से आज की जीवनस्थितियों की तुलना की जाए तो बहुत कुछ बदल चुका है। जीवन को आरामदायक बनाने के लिए आज लोगों के पास हर तरह की सुविधाएं मौजूद हैं। इसी वजह से उनकी सोच में भी सकारात्मक बदलाव आ रहा है। अब वे अपनी सेहत के प्रति बेहद जागरूक हैं। स्वस्थ खानपान और नियमित दिनचर्या की वजह से उम्र बढने की प्रक्रिया धीमी हो गई है। जरा याद कीजिए पुराने जमाने में बच्चों के ग्रैंडपेरेंट्स कितने थके और कमजोर नजर आते थे, पर अब ऐसा नहीं है। आज अपने पोते-पोतियों की शादी में दादी मां भी बडी मुस्तैदी से मेहमानों का स्वागत करती नजर आती हैं। पहले साठ साल के बाद लोगों के लिए जिंदगी ठहर सी जाती थी, पर अब ऐसा नहीं है। आज इस आयु वर्ग के लोग न तो बूढे दिखते हैं और न ही अपने लिए ऐसे किसी विशेषण का इस्तेमाल पसंद करते हैं। बिग बी ने तो फिल्म बुढ्ढा होगा तेरा बाप.. के माध्यम से अपने इस विचार की सार्वजनिक तौर पर पुष्टि भी कर दी है। जीवन के क्रिकेट मैच में सेंचुरी  बनाने के बाद भी शानदार बैटिंग करने वाली थिएटर आर्टिस्ट जोहरा सहगल की जिंदादिली से तो आप भी परिचित होंगे। वह मानती हैं कि हमेशा ऐक्टिव  रहना ही उनकी अच्छी सेहत और लंबी उम्र का राज है।

ओल्ड इज  गोल्ड आजकल रिटायरमेंट के बाद ज्यादातर  लोग खाली  बैठना पसंद नहीं करते। आज उनके सामने करियर  के कई अच्छे विकल्प मौजूद हैं। बडी कंपनियां ऐसे लोगों के अनुभवों से फायदा उठाना चाहती हैं। स्वास्थ्य सेवाओं, इंजीनियरिंग, शिक्षा, प्रशासन और बैंकिंग जैसे फील्ड में काम कर चुके लोगों को कंपनियां कई अच्छे जॉब ऑफर देती हैं। आजकल विदेशी बीमा कंपनियों को ग्रास रूट से जुडे अनुभवी लोगों की तलाश होती है। इसके लिए वे मार्केटिंग के फील्ड से रिटायर्ड लोगों को एजेंट बनने का अवसर देती हैं। इसके अलावा एनजीओ  सेक्टर अवकाश प्राप्त लोगों का भरपूर फायदा उठाना चाहता है। वहां काम करके बुजुर्गो को दूसरों का भला करने की संतुष्टि मिलती है। इसके अलावा आजकल अवकाश प्राप्त लोग कंसल्टेंसी  भी देते हैं, जिससे घर बैठे उनकी अच्छी आमदनी हो जाती है।

जियो जी भर के

उम्र हो गई है, भगवान का नाम जपो और घर के एक कोन में चुपचाप पडे रहो। समाज द्वारा तय किए गए इस निराशावादी जीवन-दर्शन को भारतीय बुजुर्ग सदियों से ढोते चले आ रहे थे। क्योंकि अब तक उन्होंने अपनी पिछली पीढी को भी ऐसे ही घुट-घुटकर जीते देखा था। आज से बीस साल पहले तक रिटायर होने वाले व्यक्ति को विदाई समारोह में उपहार स्वरूप कुछ धार्मिक पुस्तकें और वाकिंग  स्टिक जैसी चीजें निश्चित रूप से दी जाती थीं। तब पहले से ही यह मान लिया जाता था कि अब इस व्यक्ति की जिंदगी पूजा-पाठ और सुबह की सैर तक ही सीमित रहेगी, लेकिन वक्त के साथ लोगों की सोच में खुलापन  आने लगा। बुजुर्ग समाज द्वारा बनाई अपनी इस स्टीरियो टाइप इमेज से बुजुर्ग खुद  ही ऊबने लगे हैं। आर्थिक उदारीकरण का चाहे जो भी नुकसान हुआ हो, पर इसने हमारी जिंदगी को पहले की तुलना में बहुत आसान बना दिया है। जब घर में इंटरनेट है तो दादी मां भी अपनी नन्ही पोती के साथ बैठकर गूगल  पर नई रेसिपीज  सर्च करना सीख गई हैं। अगर जीवन में कुछ नया और बेहतर आए तो उसे अपनाने में झिझक कैसी? माना कि मूंग की दाल, लौकी की सब्जी और रूखी रोटी दादा जी के लिए आइडियल फूड है, लेकिन अगर कभी वीकेंड में  बच्चों के साथ पित्जा  खाने के लिए उनका भी मन मचलने लगे तो इसमें बुराई क्या है? आज के बुजुर्ग हर बदलाव के साथ खुद को अपडेट रखते हैं। महानगरों के मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल  में जब भी कोई फिल्म रिलीज होती है तो वहां बुजुर्ग दर्शक अच्छी तादाद में दिखाई देते हैं। एक बार ऐसे ही किसी दर्शक के पडोस में रहने वाला नौजवान इंटरवल में उनसे टकरा गया। उसने कहा, अंकल, यह फिल्म तो आपके मतलब की नहीं है। फिर आप इसे देखने क्यों आए हैं? तब उन्होंने कहा, हमें भी तो मालूम होना चाहिए कि आज के बच्चों को कैसी फिल्में पसंद आती हैं।

तसवीर का दूसरा रुख

यह अच्छी बात है कि आज के बुजुर्ग हमारी पसंद-नापसंद का खयाल  रखते हैं और वक्त के साथ खुद  को बदलने की कोशिश करते हैं। अपनी दूसरी पारी के लिए वे खुद को पूरी तरह तैयार कर चुके हैं, लेकिन उनके प्रति हमारा भी कुछ फर्ज बनता है, जिसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। अगर कभी उन्हें सहारे की जरूरत पडती है तो हमें हर हाल में उनके पास होना चाहिए क्योंकि उन्होंने हमारी अंगुली पकडकर हमें चलना सिखाया है।

हालांकि, सामाजिक बदलाव की इस तसवीर का दूसरा रुख  यह भी है कि इसमें हमें केवल महानगरीय समाज का अक्स दिखाई देता है। छोटे शहरों और गांव का समाज अभी परिवर्तन के शुरुआती दौर से गुजर रहा है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि बदलाव की यह बयार वहां तक भी पहुंचेगी और जल्द ही हम एक ऐसा स्वस्थ समाज बनाने में कामयाब होंगे, जहां बढती उम्र से किसी को भी डर नहीं लगेगा।

वक्त का हमकदम हूं मैं

परेश  रावल, अभिनेता

मैंने अपने जीवन में कभी कोई प्लानिंग नहीं की। यू प्लान,  गॉड लाफ्स  मैं इसी कहावत में यकीन रखता हूं। हां, समय के साथ खुद  को ढालने की कोशिश जरूर करता हूं। उम्र महज स्टेट ऑफ माइंड है। अगर कोई निराश है तो युवावस्था में भी वह वृद्धों की तरह निस्तेज लगेगा। अगर कोई खुश है तो 80  साल की उम्र में भी ऊर्जावान लगेगा। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि आप नई चीजें सीखते रहें। नई पीढी को भी प्यार व सम्मान दें। मैं खुद  को हमेशा काम में व्यस्त रखता हूं।  कडी मेहनत ही मेरी ताकत है। अपनी फील्ड में काम करने वाले युवाओं को मैं यह सलाह जरूर देना चाहूंगा कि वे पुरानी पीढी के सफल लोगों के गुणों को अपनाने की कोशिश करें। इस मामले मैं नसीरुद्दीन शाह की मिसाल देना चाहूंगा। वह जिंदगी को बडी गहराई से ऑब्जर्व  करते हैं और उन्हीं अनुभवों का इस्तेमाल अपनी अदाकारी में करते हैं। उनका टीवी सीरियल मिर्जा गालिब देखकर लोगों को लगता था कि उन्होंने गालिब पर बरसों रिसर्च किया होगा, पर वैसा नहीं था। उन्होंने सिर्फ स्क्रिप्ट पढी और किरदार को जीवंत बना दिया। अच्छी ऐक्टिंग सीखने के लिए अलग से रिसर्च करने की जरूरत नहीं होती, बल्कि लोगों के व्यक्तित्व और व्यवहार को बारीकी से परखने का गुण आपके भीतर होना चाहिए। आपको अपने काम के लायक जो कुछ भी नजर आए, उसे ग्रहण करने की कोशिश करनी चाहिए। इससे समय के साथ आपकी अभिनय क्षमता में निखार आएगा।

जरूरी नहीं है खुद  को बदलना

इला अरुण, गायिका

मैं आज भी बहुत ज्यादा व्यस्त रहती हूं। इसीलिए खुद  को दिल से युवा महसूस करती हूं। एक्सरसाइज और मॉर्निग वॉक के लिए नियमित रूप से समय नहीं निकाल पाती। हां, रियाज के लिए रोजाना सुबह तीन बजे जरूर उठती हूं। वक्त के साथ ख्ाुद को बदलने की बात सिर्फ कहने में अच्छी लगती है, पर व्यावहारिक रूप से ऐसा संभव नहीं होता। इसलिए मैं जैसी हूं, वैसी ही रहना चाहती हूं। मुझे ऐसा लगता है कि पहले बुजुर्गो की जिंदगी ज्यादा  सुकून  भरी थी। लोगों के दिलों में प्यार और अपनापन था। सब एक-दूसरे का खयाल  रखते थे। आज का समाज व्यक्तिवादी और आत्मकेंद्रित  है। इसी वजह से बुजुर्ग अकेले पडते जा रहे हैं और अकेलापन दूर करने के लिए खुद  को व्यस्त रखना उनकी मजबूरी है।

उठा रही हूं दूसरी पारी का लुत्फ

अरुणा ईरानी, अभिनेत्री

मेरे खयाल  से भविष्य की प्लानिंग सभी को करनी चाहिए। अगर हम 20  साल की उम्र से ही योजनाबद्ध ढंग से चलें तो लाइफ की सेकंड इनिंग  काफी अच्छी बीतेगी। वित्तीय सुरक्षा बहुत जरूरी है। इसके लिए सरकार को भी पहल करनी चाहिए। खास  उम्र के बाद लोगों को कई तरह की गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पडता है। ऐसे में उपचार का खर्च  भी बहुत ज्यादा  होता है। उम्र का यह दौर कई मुश्किलों से भरा होता है। यह सिर्फ कहने की बात है कि ख्ाुशियां पैसों से नहीं खरीदी जा सकतीं और हम पैसे के बिना भी खुश रह सकते हैं। अगरढलती उम्र में व्यक्ति की आर्थिक स्थिति कमजोर होगी तो चाहे वह कितनी भी पॉजिटिव  सोच क्यों न रखे, खुद  को युवा और ऊर्जावान महसूस नहीं कर सकता। हालांकि, आज के बुजुर्गो का जीवन पहले की तुलना में बेहतर है। पुराने समय में उनके आराम और मनोरंजन के लिए इतनी सुविधाएं नहीं थीं। गांव में तो फिर भी उनकी अच्छी सोशल लाइफ होती थी, पर शहरों में रहने वाले बुजुर्ग बहुत अकेले पड जाते थे। मुझे ऐसा लगता है कि इस उम्र में खुद को ऊर्जावान बनाए रखने के लिए दोस्तों का साथ बेहद जरूरी है। जहां तक मेरे अनुभवों का सवाल है तो पिछले दो सालों में मेरे ढेर सारे नए दोस्त  बन गए हैं। मैं खुद को काम और दोस्तों में मशगूल रखती हूं। यही है मेरे सफल और स्वस्थ जीवन का राज। मैं अपनी दूसरी पारी का भरपूर लुत्फ उठा रही हूं।

दौडने से मिलती है खुशी

मुंशीराम  शेखावत, एथलीट

मैं सीआरपीएफ  में कमांडेंट  था। सन 2006 में मेरी रिटायमेंट  हो गई। उस वक्त मेरे मन में बार-बार यही ख्ायाल  आता था कि सारी जिंदगी नौकरी और घर-परिवार की देखभाल में निकल गई। अब कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे मुझे सच्ची ख्ाुशी मिले। इस बीच किसी दोस्त ने मुझे बताया कि 35 वर्ष से अधिक उम्र वाले लोगों के लिए मास्टर्स एथलेटिक्स प्रतियोगिता हो रही है, जिसके लिए कोई अधिकतम आयु सीमा नहीं है। यह सुनते ही मैंने यह तय कर लिया कि मुझे उस दौड शामिल होना है। यहीं से मेरे दौडने का सिलसिला शुरू हो गया। हाल ही में बंगलौर में आयोजित राष्ट्रीय मास्टर्स एथलेटिक्स चैंपियनशिप में दिल्ली राज्य का प्रतिनिधित्व करते हुए मैं 200 और 300 मीटर की बाधा दौड में गोल्ड मेडल जीत चुका हूं। इससे पहले भी सिंगापुर और मलेशिया में आयोजित एशियन एथलेटिक्स प्रतियोगिता में ब्रॉन्ज  और गोल्ड मेडल जीत चुका हूं। अब मैं ब्राजील में होने व‌र्ल्ड मास्टर्स एथलेटिक्स चैंपियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व करने जा रहा हूं और पूरा विश्वास है कि वहां मुझे कामयाबी जरूर मिलेगी। आज 65 वर्ष उम्र में जब लोग मुझे नौजवान बुजुर्ग के नाम से बुलाते है तो मेरा उत्साह दोगुना हो जाता है। मैंने खुद से वादा किया है कि जब तक शरीर में जान है, एथलेटिक्स का साथ नहीं छोडूंगा।

सेहत है पहली प्राथमिकता

सरिता जोशी, टीवी कलाकार

मेरी उम्र 70  साल से भी ज्यादा  हो चुकी है। फिर भी मुझे अपने काम से इतना लगाव है कि मैं हमेशा ऐक्टिव रहती हूं। हां, मैं अपनी सेहत का पूरा ध्यान रखती हूं। नियमित एक्सरसाइज, स्विमिंग और मॉर्निग  वॉक  करती हूं। मुझे एसिडिटी की समस्या है। इसलिए मेरा खानपान बेहद संतुलित और सादगीपूर्ण होता है। कोई भी सीरियल पूरा करने के बाद मैं एक महीने का ब्रेक जरूर लेती हूं। उस बीच चाहे कितना ही अच्छा ऑफर  क्यों न मिले, मना कर देती हूं। इस तरह थोडा घूमने-फिरने और आराम करने के बाद नए सिरे से काम शुरू करने के लिए तरोताजा हो जाती हूं। जहां तक पुराने समय का सवाल है तो उस जमाने के लोगों की जीवन स्थितियां बहुत कठिन थीं, लेकिन तब के लोग शारीरिक और मानसिक रूप से ज्यादा  मजबूत होते थे। आज अगर चिकित्सा की आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध हैं तो बीमारियां भी बढ गई हैं। इसलिए अब लोगों को चालीस के बाद से ही अपनी सेहत पर विशेष ध्यान देना चाहिए। भारतीय परिवारों की जीवनशैली काफी बदल चुकी है और मैं इस बदलाव को सहजता से स्वीकारती हूं, लेकिन व्यक्तिगत रूप से मुझे पारंपरिक गुजराती खाना ज्यादा  पसंद है। टेक्नोलॉजी आज के जमाने की जरूरत बन चुकी है, पर मुझे उस पर ज्यादा  निर्भरता पसंद नहीं है। कुछ लोग स्क्रिप्ट की सॉफ्ट  कॉपी  से ही काम चला लेते हैं, पर कागज पर लिखी स्क्रिप्ट के बिना मुझे काम करने में मजा नहीं आता। मुझे युवाओं के साथ वक्त बिताना बहुत पसंद है। उनमें सबसे अच्छी बात यह है कि अपने जीवन से जुडे सभी मुद्दों पर उनकी सोच बिलकुल स्पष्ट है।

अब पूरी तरह आजाद हूं मैं

विनोद नागपाल, अभिनेता

मैं शुरू से ही वर्तमान में जीना पसंद करता हूं। इसलिए मैंने पहले से कभी भी बुढापे के लिए कोई प्लानिंग नहीं की। फिर भी जिंदगी मजे में कट रही है। मैं जीवन के हर पल को एंजॉय  करते हुए जीना पसंद करता हूं। मैं अपनी ही दुनिया में मस्त रहता हूं। नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल अपनी जरूरत भर ही करता हूं। कुछ नया सीखने के लिए ज्यादा  माथापच्ची नहीं करता। विडियो गेम्स के जमाने में भी मैं चौपड खेलना पसंद करता हूं। इस उम्र में आकर मुझे अपनी उपलब्धियों और नाकामियों का लेखा-जोखा करना पसंद नहीं। जो पा लिया वह काफी है और खोने का कोई गम नहीं। मेरा मानना है कि बुढापे से हमें बिलकुल नहीं डरना चाहिए क्योंकि इस उम्र में हम पूरी तरह आजाद होते हैं।

संतुष्ट हूं जिंदगी से

रजा मुराद, अभिनेता

सभी को उम्र के इस दौर से गुजरना पडता है और इसके लिए हमें पहले से ही प्लानिंग करनी चाहिए, ताकि शारीरिक रूप से कमजोर होने के बाद हमें कोई परेशानी न हो। ढलती उम्र के साइड इफेक्ट  के रूप में कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं हमें परेशान करने लगती हैं। उन्हें पूरी तरह रोका नहीं जा सकता, लेकिन संयमित खानपान और सही रुटीन की मदद से हम उसके असर को थोडा कम जरूर कर सकते हैं। उम्र के साथ शरीर तो थकेगा ही, ऐसे में हमें अपने मन को युवा रखने की कोशिश करनी चाहिए। आजकल मैं समाज-सेवा में व्यस्त रहता हूं और यही व्यस्तता मुझे यंग और एनर्जेटिक  बनाए रखती है। मेरा मानना है कि हमारी पीढी के लोगों को वक्त के साथ कदम मिलाकर चलने की कोशिश करनी चाहिए। नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल सीखना चाहिए। नए जमाने की जो बातें हमें पसंद आएं, उन्हें जरूर अपनाना चाहिए। नई जानकारियां हमारे लिए बहुत फायदेमंद साबित होती हैं। जो लोग इन चीजों के साथ खुद को अपडेट  हीं रखते वे बहुत पीछे छूट जाते हैं। जहां तक संभव होता है मैं भी नई बातें सीखने और समझने की कोशिश करता हूं। पुराने जमाने में बुजुर्ग पूरी तरह अपनी संतान पर आश्रित होते थे, पर अब ऐसा नहीं है। आज के बदलते हालात ने बुजुर्गो को आत्मनिर्भर बना दिया है। उम्र के इस मोड पर जब मैं पीछे मुडकर देखता हूं तो खुद को पूरी तरह संतुष्ट पाता हूं।

इस उम्र में भी पूरे हो सकते हैं सपने

दविंदर  मदान,  मॉडल

जब मैंने काम की शुरुआत की थी, तब मेरी उम्र 50  से ऊपर थी। इससे पहले मैंने घर से बाहर निकलकर कोई काम नहीं किया था। जब लोगों ने पहली बार सुना तो चौंक गए कि मॉडलिंग  और इस उम्र में ? ..लेकिन, मुझे ऐसा लगा कि सपने पूरे करने की कोई आयु सीमा नहीं होती। मैंने काम शुरू कर दिया और जब लोग मुझे पहचानने लगे तो और भी मजा आने लगा। मुझे वक्त के साथ चलना बहुत अच्छा लगता है। मैंने कंप्यूटर पर काम करना सीख लिया है और अपनी कई सहेलियों को भी मैंने जबरन इंटरनेट का इस्तेमाल सिखाया। अब जिंदगी बहुत आसान हो गई है। मैं अपनी सहेलियों और विदेश में रहने वाले रिश्तेदारों के साथ अकसर चैटिंग करती हूं। मुझे ऐसा लगता है कि अपनों का साथ हमें जवां और जिंदादिल बनाए रखता है।

इंटरव्यू : अमित कर्ण मुंबई से, रतन एवं विनीता दिल्ली से

विनीता

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