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हैं और भी दुनिया में..

परिवार एवं समाज के विकास के लिए अनिवार्य है सौहार्द और सौहार्द की जरूरी शर्त है एक-दूसरे की अस्मिता का स्वीकार। असहमत होते हुए भी एक-दूसरे के विचारों का सम्मान। आज हमारा समाज इस शर्त पर किस हद तक खरा उतर पा रहा है, विशेषज्ञों के साथ इष्ट देव सांकृत्यायन का नजरिया।

By Edited By: Published: Mon, 02 Sep 2013 11:45 AM (IST)Updated: Mon, 02 Sep 2013 11:45 AM (IST)
हैं और भी दुनिया में..

॥ आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:॥

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(ऋग्वेद)

(दुनिया भर के भद्र विचार और कर्म हमारे पास आएं।)

लेकिन, कैसे आएं? क्या विचारों का सिर्फ आ जाना ही काफी है? नहीं न! विचार आएं और वह प्रयोजन भी सिद्ध करें, जिसके लिए उन्हें बुलाया गया है, इसके लिए सिर्फ उनका आवाहन कर देने से काम नहीं चलता। आवाहन से कहीं अधिक जरूरी उन्हें सहेजना है और सहेजने के लिए बहुत जरूरी है कि हम खुले मन से उनका स्वागत कर सकें। किसी भी नए या पुराने विचार का स्वागत हम तभी कर सकेंगे, जब पहले स्वयं अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो सकें। जब तक हम अपने पूर्वाग्रहों के दुष्चक्र में फंसे रहेंगे, तब तक किसी नए विचार का स्वागत तो क्या, उसे अपने मन-मस्तिष्क में प्रवेश की अनुमति भी नहीं दे सकेंगे।

इस संदर्भ में एक झेन कथा बहुत महत्वपूर्ण है। एक व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने एक झेन गुरु के पास पहुंचे। गुरु ने थोडी देर उनसे बात करने के बाद चाय मंगाई और कप में उडेलने लगे। वह देर तक कप में चाय उडेलते रहे। कप पूरी तरह भर जाने के बाद भी रुके नहीं। चाय बाहर गिरने लगी तो ज्ञान प्राप्त करने गए व्यक्ति ने गुरु को रोकना चाहा। उन्होंने कहा, अब इस कप में चाय उडेलने से कोई फायदा नहीं।

क्यों? गुरु ने पूछा।

देखते नहीं, प्याली भर गई है। अब इसमें आप जो भी डाल रहे हैं, सारी चाय नीचे गिर कर बर्बाद हो रही है।

यही हाल आपके मस्तिष्क का भी है, झेन गुरु का जवाब था, वह पहले से इतना भरा हुआ है कि अभी उसमें जो कुछ भी डाला जाएगा, वह सब नीचे गिरकर बर्बाद होगा। इसके पहले कि उसमें कुछ नया प्रवेश कर सके, उसे खाली करके आएं।

जरूरी है खालीपन

यह खाली करना ही ग्रहण करने की पहली शर्त है। विचार ही नहीं, भावना-संवेदना से लेकर भौतिक उपलब्धियां तक चाहे कुछ भी क्यों न हो, हम उतना ही प्राप्त कर सकते हैं जितना सहेजने की हमारी क्षमता हो और सहेजा उतना ही जा सकता है जितना उस वस्तु या भावविशेष के लिए हमारे पास खाली स्पेस हो। थोडा सा खाली स्पेस रखना हमेशा और हर पहलू के लिए जरूरी है। रिश्तों से लेकर व्यावसायिक जीवन तक इस खाली स्पेस की अपनी अहमियत है।

विशेषज्ञों के अनुभव बताते हैं कि यह खाली स्पेस की कमी का ही नतीजा है जो आज बात-बात पर विवाद शुरू हो जाते हैं। रिश्ते टूट जाते हैं और कई अच्छे रचनात्मक विचार कार्य रूप में परिणत होने तथा किसी परिणाम तक पहुंचने के पहले ही दम तोड देते हैं। समाजशास्त्री डॉ. सुबाष महापात्रा इसकी बडी वजह रिश्तों और विचारों की जगह स्वार्थो और अहंकार के अधिक महत्वपूर्ण हो जाने को मानते हैं, परिवार तक में रिश्ते सेकंड्री हो गए हैं। बुनियादी अहमियत स्वार्थो और अहंकार की हो गई है। हम दूसरे की अस्मिता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। फ्रेंच दार्शनिक वोल्तेयर ने कहा था कि एक अच्छा समाज वह है, जहां हम भले दूसरे से सहमत न हों, पर उसे बोलने का अधिकार तो दें। आज हमारे समाज में यह नहीं रह गया है। हम अपने ही वैचारिक आग्रहों से इस तरह भरे हुए हैं कि इसे आदर्श स्थिति तो मानते हैं, पर अमल में लाने के लिए तैयार नहीं हैं। यह स्थिति समाज से लेकर राजनीति और परिवार तक में हर जगह दिखाई दे रही है। यह एक लोकतांत्रिक समाज के लिए खतरनाक है।

पहचान का संकट

दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सामाजिक मनोविज्ञान के प्राध्यापक डॉ. अरविंद कुमार मिश्र इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। इस समस्या को पहचान के संकट से जोडते हुए वह कहते हैं, यह पिछले डेढ सौ वर्षो की समस्या है। पहले विचार से लेकर पहचान तक सब कुछ समाज से जुडा था। हर व्यक्ति की पहचान उसके परिवेश और समाज से जुडी होती थी। विचार भी व्यक्ति नहीं, उसके परिवार, समाज व समुदाय का होता था। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने को समाज से जोड कर ही देखता था। लेकिन, अब वह स्वयं को समाज के हिस्से के रूप में नहीं, एक स्वतंत्र इकाई के रूप में देखता है। असहिष्णुता और अधीरता इसी का नतीजा है।

आम तौर पर इसे आधुनिकता के साथ आई व्यक्तिवाद की सोच से जोडकर देखा जाता है, लेकिन डॉ. मिश्र के अनुसार, जहां सच्चे अर्थो में व्यक्तिवाद है, वहां लोकतंत्र भी वास्तव में है। वहां विचारों का लोकतंत्र केवल आइडियोलॉजी नहीं है। लेकिन, हमारे यहां आधुनिक लोकतंत्र एक आयातित सिद्धांत होकर ही रह गया, जमीनी हकीकत नहीं बन पाया। व्यक्तिवाद वस्तुत: व्यक्ति की प्रतिष्ठा का सिद्धांत है। इस सिद्धांत की यह मान्यता है कि एक व्यक्ति के रूप में आपके अस्तित्व और विचारों का जितना महत्व है, दूसरे व्यक्ति का अस्तित्व, संवेदना और उसके विचार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। फिर व्यक्ति के रूप में बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक को समान भाव से ही देखा जाएगा। इसमें किसी तरह की असहिष्णुता, अधीरता या न सुनने के लिए जगह कहां है?

असहमति से सहमति

इसके बावजूद समाज में असहिष्णुता है और मनोवैज्ञानिक इसका कारण असुरक्षा की भावना को मानते हैं। डॉ. मिश्र के अनुसार, जब किसी समाज के लोग स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं, वे आक्रामक हो जाते हैं। इसलिए पहली जरूरत अपने भीतर से असुरक्षा का भाव निकालने की है। यह समझना होगा कि सामूहिक जीवन सहिष्णुता और एक-दूसरे के महत्व को स्वीकार किए बिना नहीं चल सकता।

इसलिए दूसरों के विचारों को सुनना, समझना और महत्व देना ही काफी नहीं, उन विचारों से सहमत होना भी सीखना होगा जिनसे सहमत होने का हमारा मन नहीं करता। केवल इसलिए नहीं कि यह समरसता के लिए जरूरी है, इसलिए भी कि कई बार हमारी असहमति का कारण हमारे अप्रासंगिक पूर्वाग्रह होते हैं। समाज ही नहीं, स्वयं अपने विकास के लिए भी उनसे मुक्त होना अनिवार्य है। मुमकिन है कि मिर्जा गालिब की तरह अपना भी अंदाज-ए-बयां और हो, पर यह भी स्वीकारना होगा कि हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे और वे हमसे बहुत पहले से हैं, हमारे बाद भी होंगे। हम बस उस परंपरा की एक कडी भर हैं।

परिवार में सम्मान

किसी भी परिवार में सुख-शांति तभी बनी रह सकती है, जब परिवार के प्रत्येक सदस्य को विकास के समुचित अवसरों के साथ-साथ पर्याप्त सुविधाएं भी मिलें। इन सुविधाओं का दायरा केवल भौतिक साधनों तक ही सीमित नहीं है, भावनात्मक और नैतिक सहयोग भी इसमें शामिल हैं। परिवार के मुखिया ही नहीं, एक सामान्य सदस्य के तौर पर भी हमें प्रत्येक सदस्य की अस्मिता का सम्मान करना आना चाहिए। पांच सूत्र :

1. सभी एक व्यक्ति की समझ को सर्वोपरि मानें और उसी की बात मान कर चलें, यह एक आदर्श स्थिति तो हो सकती है, पर व्यावहारिक नहीं। आज के बच्चों या युवाओं की स्थितियां वैसी ही नहीं रह गई हैं, जैसी दो-तीन दशक पहले थीं। फिर यह कैसे हो सकता है कि केवल परिवार का मुखिया होने के नाते आप उनकी जरूरतों को ठीक-ठीक समझ लें? जब आप उनकी आवश्यकताओं-स्थितियों को नहीं समझ सकते तो आपके सुझाए तौर-तरीकों पर चलना उनके लिए कितना अनुकूल होगा?

2. अपनी राय जरूर दें, लेकिन पहले दूसरों की राय भी जानें और उस पर गंभीरतापूर्वक सोचें। इसमें ज्ञान या दुनियादारी की समझ के संबंध में अपने पूर्वाग्रहों को आडे न आने दें। इससे स्थितियां बेवजह जटिल हो जाती हैं।

3. अपनी बात मानने के लिए किसी को बाध्य न करें। वह माने या न माने, यह उसके विवेक पर छोडें। अपने संबंध में निर्णय लेने की स्वतंत्रता सबको होनी चाहिए। इससे बच्चों और युवाओं में आत्मविश्वास तो बढता ही है, उन्हें अपनी जिम्मेदारी का बोध भी होता है।

4. जब भी किसी सार्वजनिक आयोजन में या बाहरी लोगों के बीच हों तो यह ध्यान रखें कि आप अपने परिवार के सदस्यों के बारे में क्या कह रहे हैं। ऐसी कोई बात कभी न कहें, जिससे आपके परिजनों के आत्मसम्मान या गरिमा को ठेस लगे, चाहे वह बच्चा हो या बुजुर्ग। याद रहे, आपकी छोटी सी भूल परिवार टूटने का कारण बन सकती है।

5. परिवार के सभी सदस्यों से संवाद निरंतर बनाए रखें। बच्चों, युवाओं और बुजुर्गो सभी को क्वॉलिटी टाइम दें। हां, ऐसा करते हुए उनकी निजता का भी खयाल जरूर रखें।

खुद की ही सुनी

कंगना रनौत

मैंने अपनी जिंदगी में सभी फैसले अपने आप ही लिए। मैंने किसी की नहीं सुनी। खासकर करियर के शुरुआती दिनों में। वह चाहे परिजनों की इच्छा के खिलाफ अभिनेत्री बनने का फैसला हो या अपने घर से चंडीगढ और फिर मुंबई आने का। मुझे सफलता तो मिली, मगर ढेर सारी मशक्कत भी करनी पडी। न कोई मेंटर था, न ही गाइड करने वाला। गलतियां कीं, उनसे सीखा और आगे बढती गई। जिंदगी व्यवस्थित होने और सफलता मिलने के बाद मुझे लगता है कि अगर आप जिंदगी से कुछ असाधारण एक्सपेक्ट करते हैं तो आपको उस स्तर का दुस्साहस करना होगा। सेफ जोन से बाहर निकले बिना आपको असाधारण सफलता नहीं मिलेगी। मैं नो रिस्क नो गेन में यकीन रखती हूं। शायद यही पुरुषार्थ भी है। आपको खुद पर भरोसा है तो अपने तय किए गए फैसलों पर चलना और कायम रहना चाहिए। चाहे कितनी भी दिक्कतें क्यों न आएं। उस दरम्यान व्यावहारिक तरीका यह होगा कि आप एक बैकअप प्लान जरूर रखें, ताकि कुछ गडबड होने की सूरत में आपके पास मुश्किलों से निबटने के उपाय हों। हालांकि मैंने कोई प्लान बी भी नहीं बनाया था।

राय तो सबकी सुनता हूं

इमरान खान

हर किसी की जिंदगी में दूसरों की अहमियत होती है। चाहे वह आपका शुभचिंतक हो या दुश्मन। हां आपको इस बात का भान होना चाहिए कि वह आपका क्या है? शुभचिंतक जहां हमें सही राह दिखाते हैं, वहीं दुश्मन हमें सचेत रहना सिखाते हैं। सवाल जहां तक सलाह का है तो मैं काम को घर नहीं ले जाता। वहां जाते ही परिवार और दोस्तों के संग काम को छोड बाकी सारी बातें होती हैं। जब मैं आमिर मामू से मिलता हूं तो हम एक-दूसरे और परिवार के बारे में ज्यादा बातें करते हैं। बीते महीने की ही बात है, हम दोनों फिल्मसिटी में बीस-पच्चीस दिन तक अपनी-अपनी फिल्मों की शूटिंग करते रहे। वे मेरे पास वाले सेट पर ही थे, फिर भी हम एक-दूसरे से नहीं मिल सके। मेरी मां ने बाद में मुझे बताया कि आमिर भी वहीं शूट कर रहे थे। मेरी आदत ही कुछ ऐसी है कि पेशे से संबंधित बातें अपने परिचितों से कम ही डिस्कस करता हूं। हां वर्कप्लेस पर जरूर अपने वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों की राय सुनता हूं। खासकर तकनीकी पक्ष से जुडे हर वे लोग जो सेट पर हैं और बरसों से काम कर रहे हैं, मैं उनकी हर बात मानता हूं। मुझे ऐसा लगता है, वे बेहतर जानते हैं कि मुझे कौन सा पोज लेना है? लाइट किस कोण से मुझ पर पडनी चाहिए। मेरे खयाल से इंसान को हर किसी की बात सुननी चाहिए। ताकि मुद्दा विशेष पर वह सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए डिसीजन ले सके। उस फैसले में गलतियों की गुंजाइश कम रहे।

बच्चों की संवेदना

बच्चे बेहद संवेदनशील होते हैं, यह बात हम सभी जानते हैं। मामूली बात से भी उनकी संवेदना आहत हो सकती है। मुश्किल यह है कि उनकी संवेदना का खयाल रखना कम लोगों को आता है। बच्चों के अधिकारों के संबंध में हुए संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उनके नजरिये को सम्मान देने की बात को सबसे ज्यादा महत्व दिया गया। अधिवेशन के सूत्रधार पोलिश शिक्षाविद जानुस कोर्जाक के कुछ सुझाव :

1. किसी भी बच्चे के लिए जीवन का पहला विद्यालय उसका घर होता है। सीखने की शुरुआत ही देखने और सुनने से होती है। सुनना वह तभी सीख सकेगा, जब उसे सुना जाएगा। इसलिए बच्चे की हर बात सुनने की आदत डालें, भले वह गैर जरूरी लग रही हो।

2. सुनना सिर्फ सुनने तक सीमित नहीं होना चाहिए। उनकी बात को समझने की कोशिश करें। अकसर बच्चे अपनी बात बिलकुल वैसे ही नहीं रख पाते, जैसे वे सोचते हैं। इसलिए उनसे बात करते समय शब्दों से ज्यादा जरूरी होता है, उनके मंतव्य पर ध्यान देना।

3. बच्चे कल्पना की दुनिया में जीते हैं, यह सच है। लेकिन, उन्हें एकाएक यथार्थ के कठोर धरातल पर ला पटकना उनके विकास में बहुत बडी बाधा बन सकता है। उनमें यथार्थ की समझ पैदा करने के मामले में जल्दबाजी न बरतें। उन्हें दुनिया को अपने ढंग से धीरे-धीरे समझने दें और जब तक वे इसे नहीं समझ जाते तब तक उनकी बचकानी समझ को भी सम्मान दें।

4. बच्चे व किशोर आपसे सलाह और मार्गदर्शन जरूर चाहते हैं, लेकिन यह उन्हें उतना ही दीजिए जितना वे पचा सकें। आवश्यकता से अधिक नैतिकता और व्यावहारिकता के पाठ से उन्हें अपच हो सकता है। इससे बचें।

5. बच्चों और किशोरों की बातें अकसर बचकानी लगती हैं, लेकिन उन्हें सीधे नकारने से बचें। यहां तक कि उनके लिए तर्क गढने से भी पहले एक बार उनके नजरिये पर जरूर सोचें। याद रखें, बच्चों की दुनिया अब वह नहीं रही जो आपके समय में थी।

केंद्रित हैं तो कोई डर नहीं जॉन अब्राहम

मैं मानता हूं कि अगर आप अपने लक्ष्य के मामले में केंद्रित हैं और यह जानते हैं कि खुद अपनी जिंदगी से क्या चाहते हैं, अपनी क्षमताओं और आकांक्षाओं को लेकर आप स्पष्ट हैं तो खुद से निर्णय लेने में मुश्किल नहीं होती। इसके बावजूद मैं कभी किसी को इग्नोर नहीं करता। जो लोग मेरे प्रति क्रिटिकल रहते हैं, मैं उनको भी पूरी गंभीरता से सुनता हूं ताकि अपनी कमियों के बारे में जान सकूं। मैं अपने जूनियर्स और युवाओं को ज्यादा सुनता हूं, क्योंकि उनमें रॉनेस यानी कच्चापन होता है। युवा खुलकर बोलते हैं। वे आपको लेकर जो फील करते हैं, वही कहते हैं। अपनी ही सोच का मैनिपुलेशन नहीं करते। मुझे तो लगता है कि अगर आपके शुभचिंतक आपकी आलोचना करें तो खुद को सबसे खुशकिस्मत समझना चाहिए। इस तरह आप अपनी कमियों को दूर कर परफेक्ट बनने वाले हैं। फिल्म निर्माण के दौरान मैं अपने ऑफिस के हर स्टाफ की बात सुनता हूं। उस पर गौर फरमाता हूं, पर जब निर्णय लेने की बारी हो तो वह मेरा अपना होता है। उसमें किसी का दखल नहीं होता, ताकि बैकफायर करने की स्थिति में मैं किसी को ब्लेम न करूं।

साथियों का मनोबल

कडी प्रतिस्पद्र्धा के इस दौर में ऐसा एक भी व्यवसाय नहीं रह गया है, जहां किसी एक व्यक्ति के पास उपलब्ध सूचनाओं, ज्ञान, अनुभव और अकले उसकी रचनात्मकता के भरोसे लक्ष्य हासिल किया जा सके। इस तरह कारोबार बढाना तो क्या, बाजार में टिकना भी मुश्किल है।

इसीलिए अंतरराष्ट्रीय स्टाफिंग कंसल्टेंसी संगठन रॉबर्ट हॉफ इंटरनेशनल कलेक्टिव क्रिएटिविटी की बात करता है। इसकी बुनियादी जरूरत है सबके विचारों का सम्मान। कुछ तरीके :

1. कोई भी साथी, चाहे वह फ्रेशर ही क्यों न हो, कोई बात कहना चाहे तो उसे सुनें। वह व्यवसाय की बात कर रहा हो या निजी, उसे रोकें नहीं। बात अगर अप्रासंगिक लग रही हो तो भी उसे तुरंत खारिज न करें। याद रखें, कई बार कुछ बातों को ठीक-ठीक समझने के लिए स्वयं को भी मौका चाहिए होता है।

2. साथियों से मिले प्रयोगधर्मी विचारों के लिए श्रेय भी उन्हें ही दें। इससे उनमें आगे और नया करने का उत्साह बढता है। जबकि हर बात के लिए सारा श्रेय स्वयं ले लेने की प्रवृत्ति टीमलीडर को कमजोर बनाती है।

3. साथियों से मिले आइडियाज पर पूरी तरह पूर्वाग्रहमुक्त होकर सोचें। किसी प्रयोग के विचार पर अगर आपके पहले के कटु अनुभव आडे आ रहे हों तो उसे खारिज करने से बेहतर होगा कि उन हालात पर गौर करें।

4. किसी विचार या अनुभव को खुद से जोड कर देखने से बचें। आइडियाज पर बातचीत करते समय आपके साथी आम तौर पर आपके सामने अपनी अवधारणा रख रहे होते हैं, आपके निजी अनुभव नहीं। किसी विचार को निजी तौर पर देखने की प्रवृत्ति लक्ष्य से तो भटकाती ही है, माहौल भी बिगाडती है।

5. असहमति से सहमति का विचार इस मामले में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। जब हम टीम में काम कर रहे होते हैं तो उसकी प्रत्येक इकाई का सम्मान एक जरूरी शर्त है। यह तभी संभव है जब हम यह ध्यान रखें कि हमारा लक्ष्य एक होना चाहिए, उसे हासिल करने के तौर-तरीकों या विचारों को लेकर सहमति जरूरी नहीं है। क्योंकि हर व्यक्ति उसी तरह से काम करके साझा लक्ष्य तक पहुंच सकता है, जैसे वह सहज समझे।

सबकी सुनता हूं

फरहान अख्तर

निजी फैसलों में तो निश्चित तौर पर मैं परिवार के सभी लोगों की राय लेता हूं। कार्यस्थल पर भी अपने सहकर्मियों की सुनता जरूर हूं। उनमें मेरे जूनियर्स भी शामिल हैं। आप किसी को कम नहीं आंक सकते। आपको किसी का भी आइडिया प्रभावित कर सकता है। वह आपके काम को नई दिशा और व्यापक आयाम दे सकता है। आप जिस तरह व पहलू को ध्यान में नहीं रखते, उस ओर भी आपका ध्यान जाता है। उससे आपकी क्षमता में इजाफा ही होता है। ऐसे में जरूरी है कि एक कॉन्क्रीट डिसीजन लेने के लिए कम से कम उस मुद्दे से जुडे हुए सभी लोगों के विचार जानें। हां, अंतिम फैसला मैं सिर्फ अपने दिल व दिमाग की सुन कर लेता हूं। वहां किसी को साथ नहीं रखता। ऐसा इसलिए कि कल उस फैसले के नतीजे कुछ भी हों, उसके लिए सिर्फ मैं जिम्मेदार रहूं।

शुभचिंतक मिल गए तो बेडापार

सुशांत सिंह राजपूत

मेरे खयाल से इंसान को खुले दिल और दिमाग का होना चाहिए। खासकर वह जिस पेशे में हैं, उससे जुडे लोगों की बात उसे कम-से-कम सुननी तो जरूर चाहिए। फिर सभी विचारों पर पुनर्विचार कर किसी नतीजे पर आना चाहिए। मैं अपनी ही इंडस्ट्री की बात करना चाहूंगा। यहां के लोग ज्यादा केंद्रित हैं। हर प्रोजेक्ट पर लाखों-करोडों दांव पर लगे होते हैं। तभी वे प्लानिंग अच्छे से करते हैं। अगर यहां आपको अपने शुभचिंतक मिल गए तो समझें आपका बेडा पार है। वैसा न भी हो अगर तो सलाह सुनने में कोई बुराई नहीं। उस पर अमल करना-न-करना आपके विवेक पर निर्भर करता है। कुछ ऐसे लोग जरूर होने चाहिए, जो आपको अनकंडिशनली प्यार करते हों। आपका भला चाहें। मैं इस मामले में लकी हूं, जो अंकिता लोखंडे जैसी शख्सीयत मेरी जिंदगी में हैं। वे हिपोक्रेट नहीं हैं। साफ दिल और ट्रांस्पेरेंट हैं। काफी प्रतिभावान हैं और मेरा बेइंतहा खयाल रखती हैं। ऐसे लोग अगर किसी की जिंदगी में हों तब तो उनसे सलाह-मश्रि्वरा लेना ही चाहिए।

विचार अहम है, व्यक्ति नहीं

दानिश इकबाल

कला के अन्य रूपों से रंगकर्म थोडा भिन्न है। साहित्य, संगीत या चित्रकला में रचनाकार अपनी सोच या संवेदना की अभिव्यक्ति अकेले करता है और वह सीधे लोगों तक अपनी बात पहुंचाता है। रंगकर्म में दूसरों के सुख-दुख या अनुभूतियों को दूसरों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाना होता है। इसके लिए हम उस परिवेश के लोगों से भी मिलते हैं, जिसकी बात अपने नाटक में उठाते हैं। उनके दुख-दर्द को खुद समझते हैं, महसूस करते हैं। फिर वह पूरा अनुभव अपने ऐक्टर्स तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं। वह उस सोच को मंच पर ठीक-ठीक प्रस्तुत कर सके, इसके लिए उसे मानसिक और भावनात्मक रूप से उस स्तर तक ले जाना पडता है। इस पूरी प्रक्रिया में कई बार अडचनें आती हैं। हर ऐक्टर अलग-अलग परिवेश से आता है और हर परिवेश के अपने आग्रह होते हैं। उन आग्रहों से एक निर्देशक को जूझना ही पडता है। वर्कशाप्स में कई बार ऐसा होता है कि बहुत मुश्किल स्थिति बन जाती है। संभव होता है तो हम वहां अकसर लेखक को भी बुलाते हैं वह वहां बताता है कि लिखते समय उसके मन में क्या बात थी। किस सोच या आवेग के तहत उसने यह रचना की। अब जरूरी नहीं कि हम लेखक या अभिनेता-अभिनेत्री की बात से पूरी तरह सहमत हों, लेकिन जिसका जो विचार सही लगता है, उसे स्वीकार करते हैं और उस पर अमल करते हैं। हमारी बात ज्यादा असरदार तरीके से लोगों तक पहुंचे, इसके लिए जो भी विचार सही लगे, हम उसे मानते हैं। वहां विचार मायने रखता है, व्यक्ति नहीं।

(मुंबई से इंटरव्यू : अमित कर्ण, दुर्गेश सिंह)

इष्ट देव सांकृत्यायन


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