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सृजन का सुख

सृजन यानी कोशिश कुछ ऐसा रचने की, जो सबसे सुंदर और शाश्वत हो। तभी तो किसी भी रचना में कलाकार की अंतरात्मा झलकती है। क्या क्रिएटिविटी हमें मुश्किलों से लडऩे की ताकत देती है? क्या रचनात्मक लोग Óय़ादा संवेदनशील होते हैं? सृजनशील सोच से जुड़े कुछ ऐसे ही सवालों के

By Edited By: Published: Tue, 29 Mar 2016 03:21 PM (IST)Updated: Tue, 29 Mar 2016 03:21 PM (IST)
सृजन का सुख

सृजन यानी कोशिश कुछ ऐसा रचने की, जो सबसे सुंदर और शाश्वत हो। तभी तो किसी भी रचना में कलाकार की अंतरात्मा झलकती है। क्या क्रिएटिविटी हमें मुश्किलों से लडऩे की ताकत देती है? क्या रचनात्मक लोग य़ादा संवेदनशील होते हैं? सृजनशील सोच से जुडे कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब ढूंढ रही हैं विनीता।

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कितना अ'छा लगता है, कई बार यूं ही बेमतलब कुछ पल अपने साथ बिताना, रंग-बिरंगे फूलों की ख्ाूबसूरती को आंखों में संजोना, बारिश की नन्ही बूंदों को हथेलियों पर महसूसना, पंछियों के मधुर कलरव का संगीत अंतर्मन में बसा लेना....पर कहां जी पाते हैं हम इन छोटे-छोटे अनमोल पलों को। आज सभी को बहुत जल्दी है, ज्य़ादा पैसे कमाने और ऊंचा मुकाम हासिल करने की। महंगी कार, आधुनिक सुविधाओं से सजा-संवरा आलीशान घर, ब'चों की अ'छी शिक्षा और ढेर सारा बैंक बैलेंस... कल तक जिन सुविधाओं को लग्जरी की श्रेणी में रखा जाता था, आज की जीवनशैली में वे लोगों की जरूरत बन चुकी हैं। यह अलग बात है कि ऐसी तमाम सुविधाएं हासिल कर लेने के बाद भी लोग ख्ाुश नजर नहीं आते।

यहीं तो हैं ख्ाुशियां

इंसान हमेशा ख्ाुश रहना चाहता है, लेकिन हर व्यक्ति के लिए ख्ाुशी की परिभाषा अलग होती है। कोई ब्रैंडेड चीजें ख्ारीदकर ख्ाुश होता है तो किसी को घूमना-फिरना अ'छा लगता है। यह सच है कि जिंदगी को आरामदेह और ख्ाुशहाल बनाने के लिए पैसे की जरूरत होती है, पर इससे मनचाही चीजें ख्ारीद कर हम जितनी जल्दी ख्ाुश होते हैं, उतनी ही जल्दी उनसे हमारा मन ऊबने लगता है। दरअसल भौतिक सुख-सुविधाओं से हासिल होने वाली ख्ाुशी क्षणिक होती है, जबकि अपनी रुचि से जुडा कोई भी रचनात्मक कार्य हमारे मन को बेहद सुकून देता है। यही वजह है कि क्रिएटिव लोग हमेशा ख्ाुश नजर आते हैं। पेशे से बैंकर नितिन को कुकिंग का शौक है। वह कहते हैं, 'ख्ाुश रहने के लिए बेहिसाब पैसे ख्ार्च करने की जरूरत नहीं होती। सच कहूं तो रोजमर्रा से जुडी छोटी-छोटी बातें मुझे ज्य़ादा ख्ाुशी देती हैं। इसलिए हर संडे को मैं अपने हाथों से कुछ न कुछ नया जरूर बनाता हूं। कुकिंग मेरे लिए सबसे अ'छा स्ट्रेस बस्टर है।

अंतर्मन की खुलती गांठें

सवाल यह उठता है कि क्या क्रिएटिव लोग सचमुच हमेशा ख्ाुश रहते हैं? इसके जवाब में मनोवैज्ञानिक सलाहकार

डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं, 'यह जरूरी नहीं है कि हर रचनात्मक व्यक्ति ख्ाुशमिजाज हो। फिर भी इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि तुलनात्मक रूप से ऐसे लोग ज्यादा बुद्धिमान होते हैं। शुरू से ही इनका व्यक्तित्व कुछ ऐसा होता है कि इनमें जीवन की नकारात्मक परिस्थितियों को झेलने की क्षमता सामान्य लोगों की तुलना में ज्यादा होती है, बल्कि यूं कहा जा सकता है कि वे अपनी नकारात्मक भावनाओं को अभिव्यक्त करने का कोई न कोई ऐसा सकारात्मक तरीका ढूंढ लेते हैं, जो समाज में सहज रूप से स्वीकार्य होता है। उदाहरण के लिए अगर कोई चित्रकार अपनी पेंटिंग बनाता है तो उसमें उसका व्यक्तित्व और उसकी मन:स्थितियां स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। नकारात्मक भावनाओं को सकारात्मक रूप से अभिव्यक्त करने की इस प्रक्रिया को मनोवैज्ञानिक फ्रॉयड ने सब्लिमेशन (ह्यह्वड्ढद्यद्बद्वड्डह्लद्बशठ्ठ) का नाम दिया है। फ्रायड पहले मनोवैज्ञानिक थे, जिन्होंने मनोविज्ञान को डिफेंस मैकेनिज्म का सिद्धांत दिया था, जिसके अनुसार हर इंसान अपने जीवन में अलग-अलग तरह के मानसिक संघर्षों से जूझ रहा होता है। ऐसी मुश्किलों से सफलतापूर्वक बाहर निकलने का तरीका भी उसका मस्तिष्क स्वयं ही ढूंढ लेता है। सब्लिमेशन भी डिफेंस मैकेनिज्म की ऐसी प्रक्रिया है, जिसके जरिये व्यक्ति अपनी नकारात्मक भावनाओं का प्रकटीकरण सकारात्मक रूप में करता है। उदाहरण के लिए अगर किसी सामान्य व्यक्ति को बहुत य़ादा गुस्सा आता है तो वह अपने रोजमर्रा के व्यवहार में आक्रामक हो जाता है, जो न तो समाज के लिए हितकर होता है, न स्वयं उसके लिए।...लेकिन वहीं उसकी जगह पर कोई कलाकार या रचनात्मक प्रवृत्ति का व्यक्ति होगा तो वह अपनी नकारात्मक भावनाओं को नियंत्रित करने में सक्षम होगा। वह अपनी ऐसी भावनाओं को रचनात्मक कार्यों के माध्यम से व्यक्त करेगा। मिसाल के तौर पर कोई कवि या कहानीकार कविताओं और कहानियों के माध्यम से अपने गुस्से का इजहार करता है तो अभिनेता अभिनय के माध्यम से। ऐसा करने से वह स्वयं को काफी हद तक तनावमुक्त महसूस करता है और अपनी कला के माध्यम से समाज को सकारात्मक संदेश भी देता है।

आईना झूठ नहीं बोलता

कला के क्षेत्र से जुडे लोगों के कार्य में उनका अक्स झलकता है क्योंकि स'ची क्रिएटिविटी आईने की तरह पारदर्शी होती है, जिसमें रचनाकार का आंतरिक व्यक्तित्व आसानी से देखा जा सकता है। चाहे साहित्य हो या पेंटिंग, इन माध्यमों से रचनाकार अपने अंतर्मन की भावनाओं को अभिव्यक्त करता है। कई बार वह सचेत तरीके से ऐसा करता है तो कभी उसके अवचेतन मन में छिपी भावनाएं भी कला के माध्यम से दूसरों के सामने प्रकट हो जाती हैं। किसी भी कलाकार के व्यक्तित्व को उसकी कला के माध्यम से समझा जा सकता है। चाहे वह छायावादी दौर की कवयित्री महादेवी वर्मा की 'मैं नीर भरी दुख की बदली जैसी कविताएं हों या फिर समाज की अव्यवस्था से क्षुब्ध कवि दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां, 'कौन कहता है आसमां में सुराख्ा हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों। कुल मिलाकर रचनात्मकता इंसान के लिए दर्द भी है और

मरहम भी।

ख्ाूबसूरत है जिंदगी

अगर हम अ'छा सोचें तो हमारे साथ भी अ'छा ही होगा। यह सकारात्मक नजरिया भी रचनात्मकता से जुडा है। हालात हमेशा एक समान नहीं रहते और न ही सभी को एक जैसी ख्ाुशहाल जिंदगी मिलती है। वसंत की तरह पतझड का आना भी स्वाभाविक है। क्रिएटिव लोग इस बात को बख्ाूबी समझते हैं। वे मुश्किलों से कभी नहीं घबराते, बल्कि उन्हीं के बीच से ख्ाुश रहने का कोई नया रास्ता तलाश लेते हैं। दिल्ली की प्रज्ञा घिल्डियाल योग प्रशिक्षक हैं। एक सडक दुर्घटना के बाद उनके शरीर का निचला हिस्सा संवेदनहीन हो गया था और वह चलने-फिरने में पूरी तरह असमर्थ हो गईं। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। शारीरिक अक्षमता की वजह से उनकी ख्ाुशियों के रास्ते में कोई रुकावट नहीं आई। वह नियमित रूप से दिल्ली के वसंत कुंज स्थित स्पाइनल इंजरी सेंटर जाकर इस समस्या से पीडित लोगों को काउंसलिंग के साथ योग का भी प्रशिक्षण देती हैं। वह कहती है कि अपने जैसे लोगों की मदद करके मुझे स'ची ख्ाुशी मिलती है। उन पर मेरी बातों का बहुत गहरा असर होता है। मुझे देखकर वे यही सोचते हैं कि इनकी तरह मैं भी ख्ाुश रह सकता/सकती हूं। अगर हम ख्ाुद से प्यार करना सीख जाएं तो तमाम मुश्किलों के बावजूद हमें यह जिंदगी बेहद ख्ाूबसूरत लगने लगेगी।

और भी हैं मायने

क्रिएटिविटी को आमतौर पर लोग संगीत, साहित्य, पेंटिंग या किसी भी कला से जोड कर देखते हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। महान दार्शनिक ओशो ने इस संबंध में बहुत अ'छी बात कही है कि सही मायने में किसी भी कार्य को अत्यधिक प्रेम से करना ही रचनात्मकता है। यह जरूरी नहीं है कि पेंटिंग करने या कविताएं लिखने वाला हर व्यक्ति क्रिएटिव हो। अगर वह व्यक्ति इन कार्यों को महज ड्यूटी की तरह पूरा करता है तो उसके परिणाम में वह सौंदर्य नजर नहीं आएगा, जो कि किसी स'चे कलाकार की कलाकृति में दिखाई देता है। इसके विपरीत यह भी संभव है कि पूरी तरह तल्लीन होकर फर्श की सफाई करने वाला अनपढ व्यक्ति वास्तव में ज्य़ादा क्रिएटिव हो। हमारा यह जीवन छोटी-छोटी बातों से ही बना होता है। स''ो रचनात्मक व्यक्ति में जरा भी अहं नहीं होता। जरा सोचिए, क्या कभी कालिदास या शेक्सपियर ने यह सोचकर साहित्य सृजन किया होगा कि मुझे विश्व का महान कवि बनना है। वे तो बस स्वान्त: सुखाय की भावना से प्रेरित होकर केवल अपनी ख्ाुशी के लिए रचना प्रक्रिया में लीन थे। इसी सादगी और स'चाई की वजह से ऐसे लोग इतिहास में अमर हो जाते हैं। रचनात्मक व्यक्ति के जीवन का प्रत्येक क्षण चिंतनशील प्रेम में डूबा रहता है। सादगी से जीना अपने आप में बहुत बडी महानता है। वाकई रचनात्मक कार्य हमें जीवन को समझने की नई दृष्टि देते हैं। तभी तो महात्मा गांधी ने अपने हाथों से सूत कातकर देशवासियों को यह संदेश दिया कि कोई भी कार्य छोटा नहीं होता। इसलिए अंग्रेजों द्वारा तैयार किए गए विदेशी कपडों के बजाय हमें अपने हाथों से बुने हुए वस्त्र पहनने चाहिए। इस तरह गांधी जी ने चरखे को न केवल देश की स्वाधीनता आंदोलन का प्रतीक बनाया, बल्कि अपने सादगीपूर्ण सत्याग्रह से देश को गुलामी के बंधनों से मुक्त करवा दिया। यह सब रचनात्मक लोगों के प्रयास से संभव हो पाया।

मूल्यों के संरक्षक

हमारे नैतिक और सामाजिक मूल्यों को धरोहार की तरह संजोकर रखने का काम भी मूलत: रचनात्मक प्रवृत्ति के लोग ही करते हैं। समाज को ऐसे लोगों से बहुत ज्य़ादा उम्मीदें होती हैं क्योंकि यही मध्यवर्गीय तबका समाज की मुख्यधारा से जुडा होता है। इतिहास गवाह है कि समय-समय पर सामाजिक बुराइयों को दूर करने का आह्वान समाज के संवेदनशील लोग ही करते रहे हैं। चाहे मध्यकाल में यूरोपीय पुनर्जागरण में अहम भूमिका निभाने वाले चित्रकार लियनॉर्दो दा विंची हों या भारत के राजा रवि वर्मा, इन सभी महापुरुषों ने अपनी कला के माध्यम से तत्कालीन समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का बीडा उठाया। नैतिक मूल्यों के संरक्षण में ऐसे संवेदनशील और रचनात्मक लोगों की अहम भूमिका होती है। सादगीपूर्ण जीवनशैली अपनाने वाले ऐसे सीधे-सादे लोगों के पास स'चाई की ताकत होती है, जिसके बल पर वे समाज को बदलने का दम रखते हैं।

आ अब लौट चलें

बदलाव एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और समय के साथ हर समाज को इसके अ'छे-बुरे नतीजों से रूबरू होना पडता है। भारतीय समाज भी इससे अछूता नहीं है। लगभग दो दशक पहले यहां भी बदलाव का एक ऐसा ही दौर आया था, जब लोग सब कुछ भूलकर केवल भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे तेजी से भाग रहे थे और वे अपने इस मकसद में कामयाब भी हो गए, पर इसकी वजह से रिश्तों में दूरियां बढऩे लगीं। ज्य़ादा पैसे कमाने की लालसा ने युवा पीढी को माता-पिता और घर-परिवार से दूर कर दिया। दिन-रात मशीन की तरह काम करके उनकी सेहत पर भी बुरा असर पडऩे लगा। थक-हार कर जब वे हिसाब लगाने बैठे, तब उन्हें अपनी इस गलती का एहसास हुआ कि आज उन्हें जो कुछ भी हासिल हुआ है, उसके लिए उन्हें बहुत बडी कीमत चुकानी पडी है। सेहत और सुकून की कुर्बानी से हासिल होने वाली ख्ाुशियां अब उनके लिए बेमानी हैं। आज की युवा पीढी मानसिक सुख-शांति की अहमियत समझने लगी है। एकल परिवारों में रहने वाले लोग संयुक्त परिवार की ओर लौट रहे हैं। कामकाजी दंपतियों को अपने माता-पिता की जरूरत दोबारा महसूस होने लगी है। अब उन्हें यह बात समझ आ गई है कि जीवन की हर ख्ाुशी पैसे से नहीं ख्ारीदी जा सकती। इसलिए अब लोग अपने लिए ज्य़ादा कमरों वाले बडे फ्लैट्स की बुकिंग करवाने लगे हैं, ताकि वे माता-पिता के साथ आराम से रह सकें। युवा पीढी अपने ब'चों की परवरिश के दौरान इस बात का पूरा ध्यान रखती है कि छोटी उम्र से ही उनमें कलात्मक अभिरुचि विकसित हो। इसीलिए वे पढाई के अलावा ब'चों को पेंटिंग, योगाभ्यास और शास्त्रीय संगीत सीखने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इतना ही नहीं, अब महानगरों की चकाचौंध भरी जिंदगी से लोगों का जी भर चुका है। इसलिए समाज के नौकरीपेशा वर्ग में आपको कई ऐसे लोग आसानी से मिल जाएंगे, जो रिटायरमेंट के बाद अपने होम टाउन वापस लौटने की योजना बना रहे हैं या फिर प्रदूषण और भागदौड की जिंदगी से दूर किसी गांव में रहकर अपनी उन रचनात्मक अभिरुचियों को पूरा करने में व्यस्त हैं, जिनके लिए अब तक उनके पास समय नहीं होता था।

सही सोच सदा सुखद

अगर भाषा विज्ञान के नजरिये से देखा जाए तो रचना शब्द को विध्वंस का विपरीतार्थक कहा जा सकता है। इसलिए जो विचार कुछ नया रचने का हिमायती हो, निश्चित रूप से उसका परिणाम अ'छा ही होगा। नश्वरता भी हमारे जीवन का स्वाभाविक अंग है, पर नष्ट हो जाने के भय से इंसान रचना नहीं छोडता। त्योहारों के आगमन के पहले मूर्तिकार महीनों तक बडे जतन से देवी-देवताओं की भव्य प्रतिमाएं बनाता है। जबकि उसे यह मालूम होता है कि त्योहार के अंतिम दिन उन सभी मूर्तियों को किसी नदी में विसर्जित कर दिया जाएगा। फिर भी वह कला की साधना नहीं छोडता और दोबारा नए उत्साह से अपने सृजन कार्य में जुट जाता है। हमारी ऐसी परंपराओं में जीवन चक्र का यह शाश्वत संदेश निहित है कि कुछ भी नष्ट नहीं होता और टूटने के बाद भी हमेशा कुछ नया रचने की कोशिश में ही हमारे इस जीवन की सुंदरता निहित है। द्य

इंटरव्यू : स्मिता श्रीवास्तव एवं प्राची दीक्षित मुंबई से, सीमा झा एवं विनीता दिल्ली से

रंगों और कैनवस से अटूट रिश्ताप्रतीक्षा अपूर्व, चित्रकार

सृजनशील लोग हमेशा कुछ अ'छा रचने की कोशिश में जुटे रहते हैं। इसलिए उनके मन में नकारात्मक विचारों के लिए कोई जगह नहीं होती। पहले मैं ड्रेस डिजाइनिंग करती थी। यह भी बेहद क्रिएटिव काम है, पर इसमें मुझे दूसरों की इ'छा के अनुसार काम करना पडता था। सब कुछ बहुत अ'छा चल रहा था, पर मन में संतुष्टि नहीं थी। इसीलिए मैंने वह काम बंद कर दिया। बचपन से ही मेरे घर में आध्यात्मिक माहौल था। इसलिए मेडिटेशन मेरी जीवनशैली का अनिवार्य हिस्सा रहा है। पेंटिंग मेरी हॉबी है, जिसे मैं सिर्फ अपने मन की ख्ाुशी के लिए बनाती हूं। मेरी कला-साधना में मेडिटेशन का भी असर दिखाई देता है। मैंने पेंंटिंग का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया है। यह कला सीधे मेरे दिल से निकलकर कैनवस पर उतरती है। रंगों और ब्रश के साथ चार-पांच घंटे कैसे बीत जाते हैं, इसका मुझे ख्ाुद भी अंदाजा नहीं होता। रंगों और कैनवस से मेरा अटूट रिश्ता है। मैं सिर्फ स्वान्त: सुखाय पेंटिंग करती हूं। इसी वजह से मेरी कला मुझे आंतरिक ख्ाुशी देती है। हां, अगर कोई दूसरा व्यक्ति मेरी कला की सराहना करे तो निश्चित रूप से मुझे बहुत अ'छा लगता है। हाल ही में मुझे मेरी पेंटिंग्स के के लिए भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। मेरे विचार से सृजनशीलता को केवल पेंटिंग या साहित्य से जोडकर नहीं देखा जा सकता, बल्कि स'चे मन से ख्ाुश होकर किया जाने वाला हर कार्य रचनात्मक होता है और इससे व्यक्ति के मन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

इमोशनल होते हैं क्रिएटिव लोग

रिचा चड्ढा, अभिनेत्री

यह जरूरी नहीं है कि हर क्रिएटिव इंसान पॉजिटिव सोच रखता हो। मेरा मानना है कि ऐसे लोग बेहद इमोशनल और सीधे होते हैं। इसलिए ये दूसरों की कही बातों में बहुत जल्दी आ जाते हैं। अगर हम बॉलीवुड की ही बात करें तो कलाकारों की नकारात्मक ख्ाबरें मीडिया में छायी रहती हैं। हालांकि, मैं इसे ठीक नहीं समझती। मेरा मानना है कि कलाकारों के काम की आलोचना जरूर होनी चाहिए, पर उनके निजी जीवन से जुडी बातों पर नकारात्मक टीका-टिप्पणी करना गलत है। बाहर से लोगों को हमारी जिंदगी बहुत आसान लगती है, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। हमें बहुत कडी मेहनत करनी पडती है। वैसे, मैं ख्ाुद को ख्ाुशिकस्मत मानती हूं कि पिछले साढे तीन वर्षों में मुझे दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप, संजय लीला भंसाली, मीरा नायर जैसे अनुभवी लोगों के साथ काम करने का मौका मिला है। बढती कामयाबी के साथ हमें और ज्य़ादा मेहनत करने की जरूरत होती है। ज्य़ादा काम करने के बाद हमें भी बहुत तनाव होता है। ऐसे में हमारा स्ट्रेस बस्टर फिल्म की प्रकृति के अनुसार बदलता रहता है। मसलन 'मसान बहुत सीरियस फिल्म थी। इसलिए शूटिंग के दौरान मुझे साथी कलाकारों के साथ मौज-मस्ती करने का मौका नहीं मिलता था। लिहाजा शूटिंग ख्ात्म होने के बाद मैं होटल के कमरे में जाकर कॉमेडी सीरियल या एनिमेशन फिल्में देखती थी। इसी तरह ऑनलाइन शॉपिंग की साइट्स पर विंडो शॉपिंग करने से भी मेरा तनाव दूर हो

जाता है।

उर्दू से इश्क ने दीवाना कर दिया

संजीव सर्राफ, संस्थापक रेख्ता फाउंडेशन

वैसे तो मैं इंजीनियर और पॉलीप्लेक्स इंडस्ट्री का फाउंडर हूं, पर उर्दू की शायरी मुझे शुरू से ही बहुत आकर्षित करती थी। कॉलेज के दिनों में अकसर मैं गजलें सुनता और मुशायरे में भी जाता। उस दौरान बीच में उर्दू के कुछ नए और अपरिचित शब्द आते तो मैं अटक जाता और अकसर सोचता कि काश ! मुझे इस भाषा की पूरी समझ होती तो मैं भी ऐसी सुंदर रचनाओं का पूरा लुत्फ उठा पाता। उसी दौरान मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरी तरह दूसरों के सामने भी ऐसी परेशानियां आती होंगी। इसी वजह से मेरे मन में कुछ ऐसा करने का ख्ायाल आया कि शेरो-शायरी से लगाव रखने वाले आम हिंदी-अंग्रेजी भाषी लोगों के लिए उर्दू सीखना और समझना आसान हो। इसके अलावा उनके लिए इस साहित्य से जुडी सारी सामग्री किसी एक वेबसाइट पर डिजिटल रूप में उपलब्ध हो। मेरी इसी सोच ने रेख्ता फाउंडेशन को जन्म दिया। यह संस्था उर्दू साहित्य, शायरी और नज्मों और ब'चों के लिए उर्दू से जुडी सामग्री को संरक्षित करने के काम में जुटी है। इसकी वेबसाइट पर मौजूद उर्दू सामग्री का इस्तेमाल दुनिया भर में उर्दू के चाहने वाले करते हैं। वहां उनके लिए उर्दू की ऑनलाइन शब्दकोश के साथ इस भाषा को हिंदी और अंग्रेजी माध्यम के जरिये रोचक ढंग से सीखने-समझने की व्यवस्था है। हमारी वेबसाइट ह्म्द्गद्मद्धह्लड्ड.शह्म्द्द युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय है । अपनी रुचि से जुडा यह रचनात्मक कार्य मुझे स"ाी ख्ाुशी और आत्म-संतुष्टि देता है।

काम से मिलती है स"ाी ख्ाुशी

सोनम कपूर, अभिनेत्री

मुझे वास्तविक जीवन से जुडे किरदार बहुत ज्य़ादा प्रभावित करते हैं और कैमरे के सामने उन्हें निभाकर मेरे मन को स'चा सुकून मिलता है। 'नीरजा फिल्म में शहीद एयर होस्टेस का किरदार मुझे ताउम्र याद रहेगा। जिस दिन मैंने इस फिल्म का प्लेन वाला सीन पूरा किया, उसी दिन मुझे फ्लाइट से दूसरी जगह जाना था। उस समय मैं बहुत अपसेट थी। मेरे मन में उदासी और घबराहट का अजीब सा मिला-जुला भाव था। उस दौरान मुझे ख्ाुद को संभालने में थोडा वक्त लगा। वापस लौटने के बाद मुझे दोबारा 'नीरजा की शूटिंग करनी थी। इस तरह की रिअलिस्टिक फिल्मों में ऐक्टर को कई तरह के इमोशंस इस्तेमाल करने का मौका मिलता है। मैं नीरजा के किरदार से पूरी तरह जुड गई थी, तभी मेरे अभिनय में सहजता आई। अपने अभिनय से मिलने वाली संतुष्टि ही मुझे स'ची ख्ाुशी देती है और इसी वजह से मैं हमेशा तनावमुक्त रहती हूं।

नृत्य ने दिया नया जीवन

सोनल मानसिंह, नृत्यांगना

बचपन से ही हमारे घर में सृजनशील माहौल था और इसी वजह से नृत्य-संगीत मेरी आत्मा में रचा-बसा है। सृजनशीलता की सबसे बडी ख्ाासियत यह है कि यह आपके अंदर भक्ति पैदा करती है। भक्ति यानी अपने काम में पूरी तरह डूब जाना। इसी वजह से कलाकार अपनी दुनिया में रमे रहते हैं और बाहरी वातावरण का उन पर कोई असर नहीं होता। रचनात्मकता की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि बडी से बडी मुश्किलें भी आपको भक्ति मार्ग से डिगा नहीं सकतीं। मैंने भी राह में आने वाली समस्त चुनौतियों का सामना किया और कुछ ही वर्षों में मेरी अ'छी पहचान बन गई। सब कुछ अ'छा चल रहा था, लेकिन अचानक 1974 में मैं एक सडक हादसे का शिकार हो गई, जिससे मेरी पसली, कॉलर बोन और रीढ की हड्डी टूट गई। मेरे पैरों में भी जान नहीं थी। वह मेरे जीवन का सबसे बुरा दौर था। डॉक्टर ने कह दिया था कि आप कभी डांस नहीं कर पाएंगी। आसपास के लोग भी मुझे लाचार समझकर मेरे प्रति सहानुभूति जताते थे। इससे मुझे बहुत दुख होता था। ऐसे मुश्किल हालात में भी इंसान के मन में उम्मीद की एक नन्ही सी लौ हमेशा रोशन रहती है। मेरे अंदर भी यही रोशनी थी। मैंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी दृढ इ'छा-शक्ति और नृत्य के प्रति भक्ति की वजह से बहुत जल्दी स्वस्थ हो गई। वास्तव में सृजनशीलता हमें तराश देती है। एक बेहतर इंसान के रूप में, जो बेहद संवेदनशील है और संतुलित भी।

डूब जाती हूं किरदार में

आलिया भट्ट, अभिनेत्री

हर इंसान के जीवन में कई बार ऐसे हालात आते हैं, जब उसे नकारात्मक स्थितियों का सामना करना पडता है। जहां तक क्रिएटिव लोगों का सवाल है तो उनकी दुनिया में भी हर तरह के लोग होते हैं। जिनकी सोच सकारात्मक होती है, वे हर मुश्किल का सामना आसानी से कर लेते हैं, पर कुछ कलाकार ऐसे भी होते हैं, जो छोटी-छोटी मुश्किलों से भी बहुत जल्दी घबरा जाते हैं। अभिनय की दुनिया भी बेहद क्रिएटिव है। ऐक्टिंग करते समय मैं अपने किरदार में पूरी तरह डूबकर सब कुछ भूल जाती हूं। 'हाई-वे में वीरा के किरदार से ख्ाुद को अलग कर पाना मेरे लिए बेहद मुश्किल था। वीरा एक बेहद जटिल कैरेक्टर थी, जिसका बचपन में यौन शोषण हुआ था। उस मासूम लडकी की ऐसी पीडा को परदे पर साकार करना मेरे लिए बेहद चुनौतीपूर्ण था। मुझ पर भी उसका बहुत गहरा असर हुआ और उससे उबरने में मुझे छह-सात महीने लग गए। मेरे लिए नींद सबसे अ'छा स्ट्रेस बस्टर है। सोकर उठने के बाद मेरा सारा तनाव अपने आप दूर हो जाता है।

मैं टेंशन नहीं लेता

रोनित रॉय , अभिनेता

क्रिएटिव लोग आम इंसानों जैसे ही होते हैं, उनकी भी अपनी समस्याएं हैं। ऐसा नहीं है कि अभिनय से हमारे सारे दुख-दर्द दूर हो जाते हैं। मैं 1985 से स्ट्रगल कर रहा था और 200& के बाद लोग मुझे पहचानने लगे, लेकिन आज भी मैं अपने काम के प्रति उतना ही समर्पित हूं, जितना कि करियर के शुरुआती दिनों में था। जब दिन की शूटिंग अ'छी तरह पूरी हो जाती है तो मन में संतुष्टि का भाव रहता है। अभिनय की दुनिया में बहुत विविधता है। यहां हर रोज कुछ नया करने का मौका मिलता है। कहानियां बदलती हैं और हर किरदार में ढेरों शेड्स होते हैं। लिहाजा बोर होने का सवाल ही नहीं उठता। हर दिन कुछ नया करने को लेकर एक्साइटमेंट रहता है। मैं किरदार को निभाने से पहले बहुत रिसर्च करता हूं और कैमरे के सामने उसे पूरी तरह जीने की कोशिश करता हूं। पैकअप के बाद मैं काम को पूरी तरह भूल जाता हूं और घर पहुंच कर अपने परिवार के साथ सुकून के पल बिताता हूं। मुझे काम को लेकर कभी कोई तनाव नहीं होता। मैं हमेशा ख्ाुश रहता हूं। अगर मेरे सामने कभी कोई मुश्किल आती है तो धैर्य के साथ उसका हल निकालने की कोशिश करता हूं।

विनीता


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